28 सितंबर, 2010
पीपली के इर्द गिर्द
'पीपली लाइव' फ़िल्म में अनुषा रिज़वी ने किसानों की समस्या , मीडिया की भूमिका और राजनीति पर जो सवाल खड़े किये, वे नए तो नहीं हैं, लेकिन कहानी को कहने का उनका तरीका काफ़ी रोचक है। फ़िल्म बहुत ही सहजता से 'आत्महत्या' और 'खेती से पलायन' वाले दो अलग-अलग मुद्दों को एक दूसरे से जोडती है। फ़िल्म की पृष्ठभूमि में कई जगह प्रेमचंद को महसूस किया जा सकता है। अपनी पहली ही फ़िल्म में अनुषा ने उम्मीद से अच्छा काम किया है। फ़िल्म आज में इलेक्ट्रोनिक मीडिया पर तो व्यंग्य है ही , साथ ही ये भी दिखाती है कि आज आज़ादी के 63 साल बाद भी हमारे यहाँ हालात किस तरह के हैं। एक किसान सिर्फ़ इसलिए जान देने को राज़ी हो जाता है कि उसके मरने के बाद उसके घर वालों को कुछेक पैसे मिल जायेंगे, जिससे शायद पुराने कर्ज़े चुकता हो जाएँ । यहाँ ‘कफ़न’ के घीसू–माधो याद आते हैं, जहाँ पत्नी की मौत भी भूख के आगे छोटी पड़ जाती है। ये भूख उसी व्यवस्था की देन है, जिस व्यवस्था ने नत्था जैसे तमाम किसानों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर कर दिया, और व्यवस्था में आज भी कोई ख़ास बदलाव नज़र नहीं आता।
वैसे इस चीज़ को देखने का एक नज़रिया ये भी हो सकता है कि कहीं यह फ़िल्म जाने-अनजाने में यह तो नहीं कह रही कि किसान सिर्फ़ पैसा पाने के लिए जान दे रहे हैं। लेकिन जान अगर पैसे के लिए दी जा रही है तो भी ये कितनी बड़ी कीमत है ! निश्चित रूप से महज एक-दो लाख रूपए के लिए तो बहुत बड़ी ! इस सन्दर्भ में पिछले साल आई एक मराठी फिल्म ' गाभरी चा पाउस ( डिरेक्टर : सतीश मनवार ) ' का उल्लेख ज़रूरी लगता है, जहाँ आत्महत्या के इसी मुद्दे को उठाया गया था। 'गाभरी चा पाउस' विदर्भ में बारिश कि अनिश्चितता के कारण दी जाने वाली एक सामान्य गाली है। यह फ़िल्म विदर्भ में रहने वाले किसानों पर केन्द्रित थी जहाँ गत वर्षों में आत्महत्या के मामले अपेक्षाकृत ज्यादा सामने आये हैं। जैसा कि हमारे यहाँ कहा जाता रहा है कि खेती एक जुआ है , यह फ़िल्म दिखाती है कि हमारे यहाँ का छोटा किसान आज भी खेती के लिए बारिश पर किस तरह निर्भर है। बारिश ठीक से हो गयी तो ठीक , वर्ना कम में भी नुकसान और ज़्यादा में भी। एक गाँव में एक किसान द्वारा आत्महत्या कर लेने पर उसके परिवार को इसका मुआवजा मिलता है। इस गाँव में एक अन्य किसान है- किसना , जिस के घर के लोग इस आशंका से घिर जाते हैं कि कहीं उस के मन में भी इस तरह का विचार तो नहीं आ रहा। इस फ़िक्र में वे सुबह से शाम तक उसकी हर गतिविधि पर नज़र रखते हैं, बार-बार उसको ख़ुश रखने के लिए अच्छा खाना बनाया जाता है जबकि घर की हालत इस लायक भी नहीं है कि दोनों वक़्त का खाना बन जाये। किसना भी पूरी कोशिश में रहता है कि इस बार फ़सल अच्छी कर के सारे कर्ज़ा उतार देगा। लेकिन जहाँ एक समय पानी का न गिरना उसकी परेशानी थी , वहीं अब पानी का ज़रुरत से ज्यादा गिर जाना उसकी नींद उड़ा देता है। आखिर वह अपनी फ़सल नहीं बचा पाता और एक दिन मजबूरी में वही कदम उठा लेता है जिसका उसके परिवार वालों को हमेशा से डर था। यहाँ उसका पडौसी किसान भी है जिसने पानी कि अनिश्चितता के कारण इस बार फ़सल बोई ही नहीं है और जो बार - बार उसे भी यही सलाह देता रहा है कि भले ही घर की चीज़ें बेचनी पड़ जाएँ, खेती का जुआ मत खेलना। खेती छोड़कर दूसरे काम-धंधों में लग जाने वाले किसानों के बारे में ' पीपली लाइव ' भी अंत में यही सवाल खड़ा करती है। फर्क़ सिर्फ़ इतना है कि नत्था मरा नहीं है। उसने अपने व्यवसाय से समझौता कर लिया है जिसका एक कारण बेहद नाटकीय घटनाक्रम के बीच मीडिया भी है। जबकि ' गाभरी चा पाउस ' में किसान अंतिम उपाय के रूप में आत्महत्या को चुनता है।
कुछ और पहले, 2008 में एक और फ़िल्म आई थी ' समर 2007 ( डिरेक्टर: सोहेल तातारी ) '. यह फ़िल्म किन्ही कारणों से ज्यादा चर्चित न हो सकी लेकिन इसी मुद्दे को बहुत ही गहराई से यहाँ भी उठाया गया था। मेडिकल कॉलेज के कुछ विद्यार्थियों के माध्यम से इस फ़िल्म में यह दिखाया गया था कि गाँव में पुराने ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों को आज भी किस तरह कर्ज़ा दिया जाता है और पैसा न चुका पाने की हालत में कैसे आत्महत्या ही उनके पास अंतिम विकल्प बचता है। यहाँ फोकस इस बात पर किया गया था कि पुराने ज़मींदार नहीं चाहते कि किसान उनसे कर्ज़ा लेना बंद करें और गावों में बड़ा किसान या ज़मींदार तो फल-फूल रहा है, जबकि छोटे किसान की हालत बद से बदतर होती जा रही है। इस फिल्म में इस समस्या को दिखाने के साथ ये भी बताया गया था कि इसके कुछ हल भी हैं। छोटे स्तर के ऋण लेकर किसान ज्यादा ब्याज पर बड़े कर्ज़ों के कारण पैदा होने वाले विकराल संकट से बच सकते हैं। यही पहल जो बांग्लादेश में मोहम्मद युनुस ने की, और हमारे यहाँ के कुछ गाँवों में महिलाऐं आज कर भी रही हैं।
कुल मिलाकर ये तीन फ़िल्में एक ही समस्या को अलग-अलग तरह से देखने की कोशिश करती हैं। एक में खेती छोड़ देने वाले किसानों की विवशता है साथ ही समस्या को देखने और दिखाने के हमारे मीडिया के तरीकों और राजनीतिज्ञों पर तीखा व्यंग्य भी है। यहाँ प्रेमचंद का होरी महतो आज भी गड्ढे खोदते हुए एक दिन गुमनामी में मर जाता है। दूसरी फ़िल्म में एक तरह का डार्क ह्यूमर है जहाँ समस्या की विकरालता को ज्यों का त्यों हमारे सामने रखा गया है, और तीसरी फ़िल्म कुछ संभव उपायों की बात करती है। ज़रुरत इन उपायों पर गंभीरता से सोचने की है, न कि समस्या का हौव्वा बनाने की।
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25 सितंबर, 2010
अपना नाम कल विएतनाम…. आज कश्मीर
अब तक यही समझते आए थे
ईंट का जवाब पत्थर होता है
आज हमारे बच्चे सिखा रहे हैं
फौज़ का जवाब भी पत्थर हो सकता है
खुले मैदान में क़दम रखने वाली महिलाएँ
दे सकती है कर्फ़्यू का जवाब…..
दिया जा सकता है
गोली का जवाब घाटी से..
दमन का जवाब आज़ादी की माँग से
आपने देखा होगा..
हमारा देश, हमारे लोग,
झील, नदी, घाटी, पहाड़
वन और सुन्दर जीवन एक तरफ़
साठ साल क़ानून और सेना के कब्ज़े में पड़ी
सत्ता एक तरफ़
अपना नाम कल विएतनाम था
और आज कश्मीर है
आज भी हमारा मुक्ति का नारा है
नक्सलबाड़ी के साथ………
वरवर राव
23 सितंबर, 2010
पानी के रास्ते में खड़े हम
मौसम को जानने वाले हमें बताएंगे कि 15-20 वर्षो में एक बार पानी का ज्यादा होना या ज्यादा बरसना प्रकृति के कलेंडर का सहज अंग है। थोड़ी-सी नई पढ़ाई कर चुके, पढ़-लिख गए हम लोग अपने कंप्यूटर, अपने उपग्रह और संवेदनशील मौसम प्रणाली पर इतना ज्यादा भरोसा रखने लगते हैं कि हमें बाकी बातें सूझती ही नहीं हैं। वरूण देवता ने इस बार देश के बहुत-से हिस्से पर और खासकर कम बारिश वाले प्रदेश राजस्थान पर भरपूर कृपा की है। जो विशेषज्ञ मौसम और पानी के अध्ययन से जुड़े हैं, वो हमें बेहतर बता पाएंगे कि इस बार कोई 16 बरस बाद बहुत अच्छी वर्षा हुई है।
हमारे कलेंडर में और प्रकृति के कलेंडर में बहुत अंतर होता है। इस अंतर को न समझ पाने के कारण किसी साल बरसात में हम खुश होते हैं, तो किसी साल बहुत उदास हो जाते हैं। लेकिन प्रकृति ऎसा नहीं सोचती। उसके लिए चार महीने की बरसात एक वर्ष के शेष आठ महीने के हजारों-लाखों छोटी-छोटी बातों पर निर्भर करती है। प्रकृति को इन सब बातों का गुणा-भाग करके अपना फैसला लेना होता है। प्रकृति को ऎसा नहीं लगता, लेकिन हमे जरूर लगता है कि अरे, इस साल पानी कम गिरा या फिर, लो इस साल तो हद से ज्यादा पानी बरस गया।
मौसम को जानने वाले हमें बताएंगे कि 15-20 वर्षो में एक बार पानी का ज्यादा होना या ज्यादा बरसना प्रकृति के कलेंडर का सहज अंग है। थोड़ी-सी नई पढ़ाई कर चुके, पढ़-लिख गए हम लोग अपने कंप्यूटर, अपने उपग्रह और संवेदनशील मौसम प्रणाली पर इतना ज्यादा भरोसा रखने लगते हैं कि हमें बाकी बातें सूझती ही नहीं हैं। हमारे पुरखे बताएंगे कि समाज ने ऎसे बहुत-से बड़े-बड़े काम किए हैं पानी रोकने के लिए, ऎसे बड़े तालाब बनाए हैं, जो सामान्य बारिश में भरते नहीं हैं, उन पर हर साल वर्ष के मौसम में पानी की चादर नहीं चल पाती है। ऎसे बड़े तालाबों के इर्दगिर्द बसे गांवों में रहने वाले बुजुर्गो से पूछिए, तो वे सहज ही यह बताएंगे कि 15-20 सालों में कभी ज्यादा पानी गिर जाए, तो उसको रोककर सहेजकर रखने के लिए ही तालाबों को इतना बड़ा बनाया गया था।
इसलिए इस साल यदि पानी पिछले 15 सालों से ज्यादा गिरा है, तो यह प्रकृति की सोची-समझी प्रणाली का एक सुंदर नमूना है। जहां तक समाज इस प्रणाली को समझता था, उसकी पर्याप्त इज्जत करता था, वहां तक उसको इसका भरपूर लाभ भी मिला है। अब अगर दो-तीन साल कोई तालाब भरता नहीं है, तो लोगों को लगता है, तालाब का कोई मतलब नहीं है, तालाब को भर देना चाहिए। लेकिन इसमे कोई दो राय नहीं कि तालाब या जल भंडार की प्रणाली हमारे जीवन के लिए बहुत जरूरी है।
जब हमने इस प्रणाली की इज्जत करना छोड़ दिया, तो हम पाते हैं कि कुछ घंटों की थोड़ी-सी भी ज्यादा बरसात में हमारे सभी चमक-दमक वाले शहर दिल्ली, मुंबई, जयपुर, अहमदाबाद, बेंगलुरू, भोपाल सब डूबने लगते हैं। पानी के सड़कों पर जमा होने का हल्ला हो जाता है। हमारे इन सभी आधुनिक बन गए शहरों में आज से 30-40 साल पहले तक सुंदर-सुंदर बड़े-बड़े तालाब हुआ करते थे और ये शहर में होने वाली वर्षा के अतिरिक्त जल को अपने में रोककर पहले उसको बाढ़ से बचाते थे और फिर छह महीने बाद आ सकने वाले जल संकट को भी थामते थे, लेकिन जमीन के प्रति हमारे लगातार बढ़ते लालच और हमारी नई राजनीति ने इन सब जगहों पर कब्जा किया है और उन पर सुंदर जगमगाते मॉल, बाजार, हाउसिंग सोसायटी आदि बना दिए हैं। इसलिए दो घंटे की तेज बरसात भी इन इलाकों को डुबोकर हमें याद दिलाती है कि हम उसके रास्ते में खड़े हो रहे हैं।
इस साल खूब अच्छा पानी गिरा है। समाज के जिन हिस्सों में, जिलों में लोगों ने अपने इलाकों मे पानी के काम को ठीक से बनाकर-सजाकर रखा है, वे लोग वरूण देवता के इस प्रसाद को अपनी अंजुली में खूब अच्छे से भर सकेंगे और उन्हें इसका भरपूर आशीर्वाद या लाभ आने वाले महीनों में मिलने ही वाला है।
जैसलमेर का उदाहरण बार-बार दिया जा सकता है। इसमें पुनरोक्ति दोष नहीं है कि ऎसा मानकर एक बार फिर याद करना चाहिए कि जहां देश की सबसे कम वर्षा होती है, कुल 16 सेंटीमीटर, वहां भी इस बार वरूण देवता ने थोड़ा ज्यादा खुश होकर 32 सेंटीमीटर के करीब पानी गिराया है। यहां पर कुछ जगह लोगों ने अपने चार सौ-पांच सौ साल पुराने कामों की समझदारी को फिर से इज्जत दी है और लोगों के साथ एकजुट होकर, कहीं-कहीं तो सचमुच "ल्हास खेलकर" जल संग्रहण के इंतजाम किए हैं। "ल्हास खेलने" का मतलब है, स्वेच्छा से उत्सवपूर्वक सामूहिक श्रमदान करना।
रामगढ़ के बिप्रासर जैसे पुराने तालाबों को, ईसावल मैती, गिरदुवाला जैसे इलाकों में नि:स्वार्थ भाव से अपना पसीना बहाकर इस साल बरसे पानी को रोका गया है। आज ये इलाके पानी का काम करने वाले सभी लोगों के लिए एक संुदर उदाहरण की तरह लबालब भरे खड़े हैं। इसी के साथ नागौर, अलवर, जयपुर, सांभर झील सभी जगह अनेक लोगों ने प्रचार से दूर रहकर जल संरक्षण का काम चुपचाप किया है। लोगों के मिले-जुले प्रयासों का ही नतीजा है, आज उनके तालाब नीले पानी से भरे लबालब दिखते हैं। लगता है जैसे नीला आसमान तालाबों में अपना पानी लेकर उतर आया हो और अब वो यहां लंबे समय तक आराम करना चाहेगा। हमें उसे आराम करने देना चाहिए।
दूसरी तरफ, हम में से जो लोग वर्षा जल के संचयन के काम में इस बार पिछड़ गए हैं, उन्हें भी प्रकृति याद तो दिला ही रही है कि अगली बार ऎसा मत होने देना।
21 सितंबर, 2010
न हिन्दू - न मुसलमान, ज़िन्दाबाद हिन्दुस्तान
हाथ जोड़कर एक अपील
24 तारीख़ को बाबरी मस्ज़िद विवाद का
हाईकोर्ट से फैसला आना है।
तय है कि यह एक समुदाय के पक्ष में होगा तो दूसरे के ख़िलाफ़।
ऐसे में पूरी संभावना है कि लोकतंत्र में विश्वास न रखने वाली
ताक़तें 'धर्म के ख़तरे में होने' का नारा लगा कर जनसमुदाय
को भड़काने तथा हमारा सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का
प्रयास करेंगी। फ़ैसला आने से पहले ही इसके आसार नज़र
आने लगे हैं।
दो दिन बाद … यानि 27 सितम्बर को भगत सिंह का जन्मदिन है।
आप जानते हैं कि पंजाब में उस वक़्त फैले दंगों के बीच
भगत सिंह ने 'सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़' लेख
में सांप्रदायिक ताक़तों को ललकारते हुए कहा था कि
दंगो की आड़ में नेता अपना खेल खेलते हैं और असली
मर्ज़ यानि कि विषमता पर कोई बात नहीं होती।
इन दंगो ने हमसे पहले भी अनगिनत अपने और हमारा
आपसी प्रेम छीना है। आईये आज मिलकर ठंढे दिमाग़
से यह प्रण करें कि अगर ऐसा महौल बनाने की
कोशिश होती है तो हम इसकी मुखालफ़त करेंगे…
और कुछ नहीं तो हम इसमें शामिल नहीं होंगे।
ग्वालियर में हमने इस आशय के एस एम एस
व्यापक पैमाने पर किये हैं। आप सबसे भी हमारी
अपील इसी संदेश को जन-जन तक पहुंचाने की है।
आईये भगत सिंह को याद करें और सांप्रदायिक ताक़तों को
बर्बाद करें। यह एक ख़ुशहाल देश बनाने में हमारा
सबसे बड़ा योगदान होगा।
हमने इस साल भगत सिंह के जन्मदिन को
'क़ौमी एकता दिवस' के रूप में मनाने का
भी फैसला किया है।
19 सितंबर, 2010
बहादुर पटेल की कविताएँ
काव्य-साँझ का समापन
हमारे जीवन में कविता- शरीर में साँस की तरह होती है। कविता से रीता जीवन कोई नहीं जीना चहता। काव्य-प्रेमियों के लिए बिजूका लोक मंच ने एक काव्य-साँझ आयोजित की। इस काव्य-साँझ के अवसर पर हमारे बीच अपनी ओस की बूँदों की तरह मासूम और घास के सोंकलो की तरह नुकीली कविताएँ सुनायी- युवा कवि श्री बहादुर पटेल ( देवास )
श्री बहादुर पटेल का जन्म 17 दिसम्बर 1968 को देवास ज़िले के ग्राम लोहार पिपल्या में हुआ। नब्बे के दशक से कविता में सक्रिय बहादुर की कविताएँ देशभर में आधुनिक हिन्दी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराकर पाठकों का ध्यानाकर्षण करती रही है।
18 सितम्बर 2010 की साँझ 7 बजे प्रीतम लाल दुआ सभागृह ( रीगल चौराहा के पास, अहिल्या वाचनालय परिसर ) इन्दौर में संपन्न हुई इस काव्य-साँझ में शहर कई काव्य-प्रेमियों ने शिरकत की। इस काव्य-साँझ के मौक़े पर बहादुर पटेल के पहले कविता संग्रह बूँदों के बीच प्यास का लोकार्पण वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेश जोशी के कर कमलों द्वारा हुआ।
श्री बहादुर पटेल ने अपने एकल कविता पाठ में स्मृतियाँ, सुनाऊँगा कविता, सभ्यता, रंगहीन, टापरी अनेक कविताएँ सुनायी। देर तक चले कविता पाठ में श्रोताओं बहुत चाव से कविताएँ सुनी…।
कविता पाठ के बाद श्री राजेश जोशी और वरिष्ठ कथाकार प्रकाश कांत ने बूँदों के बीच प्यास कविता-संग्रह पर समीक्षात्मक बात भी की ।
श्री बहादुर पटेल की कविताओं पर चर्चा के दौरान कहा कि यह बहुत ही सरल शिल्प की महत्तपूर्ण कविताएँ हैं, और यह जितनी सरल लगती है, असल में उतनी सरल नहीं है, यह एक से ज्यादा बार पढ़ने की माँग करती है।
आज जब सत्ता किसी न किसी बहाने से गाँवों को लगातार विस्ताथापित कर रही है, यह कविताएँ गाँव को बचाने की बात करती है। किसानों की आत्महत्या की बात करती है। बहादुर पटेल की कई कविताओं में ग्राम्य जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण बिम्ब आते हैं। बहादुर पटेल की कविताओं के कई अन्तर पाठ है…।
श्री प्रकाश कांत ने कहा कि यह कविताएँ विकास के साम्राज्यवादी पहिये के बारे में बात करती है…। वह साम्राज्यवादी विकास गाँव से क्या-क्या छीन रहा.. उसकी तरफ़ पाठक का ध्यानाकर्षित करती है। सहज ढंग से मारक बात कहने वाली कविताएँ हैं।
आयोजन की शुरुआत में बिजूका लोक मंच के साथी सत्यनारायण पटेल ने श्रोताओं और अतिथियों का स्वागत व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन सुनील चतुर्वेदी ने किया और आभार यमिनी सोनवने ने माना।
स्मृतियाँ
मुझे अच्छे-से याद है
वहाँ की हवा की नमी में
मौजूद हैं मेरे शब्द
गाँव की पगडंडी पर
पड़ी हुई धूल में विद्यमान है
मेरी कोशिकाओं के अंश
वहाँ घुल रही है
मेरी आवाज़ में आज भी
गायों के रंभाने की आवाज़
वहाँ से जो हवा ग्रहण की थी कभी
उसी के अंश से हैं मेरी धड़कनें
आज जो जीवन है
उसका बहुत बड़ा हिस्सा
छूट गया है वहीं।
000
सभ्यता
सोचो कि हम पहाड़ की बात करें
और चिड़िया की न करें
जैसे चिड़िया की बात करें
और पंखों की न करें
या कि हम पंखों की बात करें
और हौंसलो की न करें
या ऎसा हो कि हम समुद्र की बात करें
और मछलियों की नहीं
अब मान लो कि कहीं ऎसा हो सकता है
कि मछलियों की बात करें
और तैरने की न करें
तैरने की बात करें तो यह तय है
कि हम डूबने के ख़िलाफ़
जीवन की बात कर रहे हैं
पूरी एक दुनिया को याद करें
और संभव है कि मनुष्य को याद न करें
यदि मनुष्य को याद करें
तो इस पृथ्वी के इतिहास
और उसकी
पहली सभ्यता की बात न करें।
000
मैं इन दिनों बहुत डरा हुआ हूँ
बहुत डरा हुआ हूँ मैं इन दिनों
यह डर कविता लिखने से पहले का है
इसे लिखते-लिखते हो सकता है मेरा क़त्ल
और कवित रह जाए अधूरी
या ऎसा भी हो कि इसे लिखूँ
और मारा जाऊँ
यह भी हो सकता है कि कविता को सुसाइड नोट में तब्दील कर दिया जाए
आज तक जितने भी राष्ट्रों के गौरव गान लिखे गए
वे उन्हीं राष्ट्रों के सुसाइड नोट हैं
मेरा यह डर इसलिए भी है कि
वे इस वाकये को देशभक्ति या बलिदान की शक्ल में करेंगे पेश
उनकी ऊँगलियाँ कटी होंगी सिर्फ़
और वे लाशों का ढेर लगा देंगे
गायी जाएँगी विरुदावलियाँ
इस ख़ौफ़नाक समय से आते हैं निकलकर
डरावनी लिपियों से गुदे हाथ
जो दबाते हैं गला
मेरे डर का रंग है गाढ़ा
जिसको खुरचते हैं उनके आदिम नाख़ून
मैं रोने को होता हूँ
यह रोना ही मेरी कविता है।
000
सुनाऊँगा कविता
शहर के आख़िरी कोने से निकलूँगा
और लौट जाऊँगा गाँव की ओर
और बचाऊँगा वहाँ की सबसे सस्ती
और मटमैली चीज़ों को
और मटमैली चीज़ों को
मिट्टी की खामोशी से चुनूँगा कुछ शब्द
बीजों के फूटे हुए अँखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूँगा कुछ रोशनी
पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूँगा
और उन्हें दूँगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाऊँगा ख़ून का टीका
किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूँगा
सुनाऊँगा अपनी सबसे अंतिम
और ताज़ा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडांडी पर।
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भयानक दृश्य
मैंने धरती से पूछा
तुम्हारा भारीपन
कितना बढ़ गया है इन दिनों
अपनी व्यथा कहने से पहले
पृथ्वी थोड़ा हँसी
फिर उसके चेहरे पर
आँसू का समंदर
देखकर मैं डर गया
उसकी हँसी और दुख
के बीच कितना कम समय था
उसके ताप का पारा बहुत ऊपर था
उसी में जी रहे थे हम
बिना किसी चिंता के
हमारे संसाधनों के
नाख़ून उसके चेहरे में
धँसते जा रहे हैं
हमारे साहस का रंग
उसकी देह के रंग से बहुत गाढ़ा है
वह गिर रही है
अपनी धूरी से
जैसे किसी भयावह समंदर में
हम देख रहे हैं
इस सदी का सबसे भयानक दृश्य बेख़ौफ़ ।
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13 सितंबर, 2010
सूर्यास्त के बाद और सुर्योदय के पहले
तुषार
सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय के पहले
चाहे कितना ही घनघोर हो अँधेरा
सूर्यास्त के बाद
अमावस ही हो चाहे
कुल जमा वह भी एक दिन का
आधा ही हिस्सा होता है
द्वितियार्ध
सारे घन अँधकार के बावजूद
तमस तो है बस अंत की शुरुआत
उजाले का आगाज़
कापुरुषों के हाथों की बँदूकें
सीने पर वार करने का साहस
नहीं जुटा पाती उनमें
पीठ में बिंधी गोलियों के घावों से
धीरे-धीरे रिसता है रुधिर
प्राणों को बहा ले जाता है
अपने संग तिल-तिल
उत्तरी-खण्ड (नार्थ ब्लॉक) का भेड़िया
खीसें निपोरता
सत्ता मद में मत्त
सीने में छुपाये
अनमोल खनिजों के अंबार
धरती वहाँ
जनती है जंगल
हरित-आखेट औंधे मुँह धूल चाटता
जंगल के बाँस
उनके सीने में उतरते हैं तीर बन कर
धरती से निकला खनिज बन जाता फौलादी तीर की धार
जब तन कर खड़ा होता है
चिंतलनार
दँतेवाड़ा
देता है लुटेरों के दाँत उखाड़
हर बेकार हाथ
उजड़ा खेत
महुए का पेड़
राख की ढेर में तब्दील
हर सुनसान गाँव
हर भूखा पेट
हर कुचली अस्मत
इस जंगल राज में पैदा
बच्चा-बच्चा
बन जाता है ‘आज़ाद’
हर न बिकी क़लम
हर ज़मीरमंद ख़बरची
दस्तख़त में लिखता है नाम- हेमचन्द्र
रोके कब रुकती है भला
पहली किरण भोर की
सूर्योदय से पहले का अंधेरा
छँट जाता है
आततायी का सपना
हो जाता है चूर-चूर
05 सितंबर, 2010
कश्मीर की घाटी-दक्खन का पठार
वरवर राव
घायल दिल ही देख पाता है जिसे
ऎसे गहरे दिलों की घाटी
सिर उठाए संघर्ष कर सकते हैं जो
उन जैसी दिलेर घाटी
स्वर्ग और नरक ने शायद झाँककर देखा भी हो
पर सूरज और चँदा के
अँधेरे उजालों की आँख मिचौली
आकाश कुसुम ही है वहाँ
देवदार वृक्षों की देह दृढ़ता
गुलमोहर फूलों की कोमलता
बर्फ-सा पिघलने वाला मन
नदियाँ-सी बहने वाली जीने की चाह
कश्मीर नींद से वंचित लोगों का है दिवास्वप्न
जागती संघर्षरत शक्तियों का है
अधूरा सपना
सिर से पैर तक आज़ादी की चाह लिए
पार कर लोहे के कंटीले बाड़
करके कर्फ्यू का सामना
सैनिकों के घेरे में बदन को ही हथियार-सा घुसाकर
गोली खाकर धराशाही होने वाले
चिड़ियों का झुँड बन जाते हैं
आँसुओं का बर्फ पिघलकर
बहता है लहू बनकर
भारत का मन मोहने वाला शासन
कर लेता है जब परमाणु अणुबंध अमेरिका से
आइनस्टीन का डर सच हो जाता है
वहाँ के लोगों के हाथ तो
पत्थर ही आए अपनी सुरक्षा के लिए
दूधमुँहें बच्चे, नौजवान, औरतें
बन गए आज़ादी की जीती जागती ज्वालाएँ
कश्मीर आज बना केसर के फूलों का गुलशन
सुलगने से रोम-रोम में आज़ादी
छितरने लगे हैं ख़ून के छींटे
सहानुभूति मत दिखाइए
उनमें से एक बन जुड़ जाइए उनके साथ
भारत में ही अलग होने की बात सुन
देशद्रोही कहने वाले फासिस्ट
भारत के कब्जे में फँसी जनता का
क्या हाल कर सकते हैं कल्पना कीजिए
पुलिस कर्रवाई के नाम पर
सेना से आक्रमण कराने वाला यूनियन
सात आदमी के लिए एक सैनिक के हिसाब से
दमन काण्ड कर रहा है कितने सालों से सोचिए
कश्मीर की घाटी और दक्खन के पठार का
दुश्मन तो है एक
वह दिल्ली में बैठा
अमेरिका के हाथों की कठपुतली
श्रीनगर गोल्फ में
और हैदराबाद के सचिवालय में
दलाल नियुक्त है उसके
मनुकोटा में हमसे फेंका गया पत्थर
कश्मीर में उनसे फेंका गया पत्थर
उसी दुश्मन को निशाना बनाए हुए हैं
उस पर आइए मिलकर हमला करें
अनुवादः आर. शान्ता सुन्दरी
01 सितंबर, 2010
असली इंसान की तरह जियेंगे
कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं,
नहीं, मेरे तूफ़ानी मन को यह स्वीकार नहीं।
मुझे तो चाहिए एक महान ऊँचा लक्ष्य
और, उसके लिए उम्रभर संघर्षों का अटूट क्रम।
ओ कला ! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोषों के द्वार
मेरे लिए खोल !
अपनी प्रग्या और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बाँध लूँगा मैं !
आओ,
हम बीहड़ और कठिन सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि- छिछला निरुद्देश्य और लक्ष्यहीन जीवन
हमें स्वीकार नहीं।
हम ऊँघते, कलम घिसते हुए
उत्पीड़न और लाचारी में नहीं जियेंगे।
हम – आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और अभिमान में जियेंगे।
असली इंसान की तरह जियेंगे।
( जब कार्ल मार्क्स ने यह कविता लिखी थी, उनकी उम्र 18 वर्ष थी )