रोहिणी अग्रवाल
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'प्रकृति पर मनुष्य की विजय को लेकर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं, क्योंकि ऐसी हर जीत हमसे अपना बदला लेती है। पहली बार तो हमें वही परिणाम मिलता है जो हमने चाहा था, लेकिन दूसरी और तीसरी दफा इसके अप्रत्याशित प्रभाव दिखाई पड़ते हैं जो पहली बार के प्रत्याशित प्रभाव का प्रायः निषेध कर देते हैं। इस तरह हर कदम पर हमें यह चेतावनी मिलती है कि हम प्रकृति पर शासन नहीं करते, जैसे कोई विजेता विदेशी लोगों पर शासन करता है। हम प्रकृति पर इस तरह शासन नहीं कर सकते जैसे हम उसके बाहर खड़े हों, क्योंकि मांस, रक्त और मस्तिष्क सहित प्रकृति से जुड़े हुए हैं और उसी के बीच हमारा अस्तित्व है। प्रकृति पर हमारी उस्तादी का मतलब सिर्फ इतना है कि दूसरे प्राणियों के मुकाबले प्रकृति को जानने और उसके नियमों को सही ढंग से लागू करने की सामर्थ्य हममें ज्यादा है। समय बीतने के साथ-साथ हमारा प्रकृति के इन नियमों के बारे में ज्ञान भी बढ़ता जाता है; और उसी के साथ प्रकृति के पारंपरिक स्वरूप में हस्तक्षेप करने के तात्कालिक और दूरगामी परिणामों के बारे में हमारी समझ भी बढ़ती जाती है। यह ज्ञान जितना आगे बढ़ेगा, उतना ही मनुष्य को प्रकृति के साथ अपनी अविभाज्यता का ज्ञान होगा। उसी के साथ मस्तिष्क और पदार्थ, मनुष्य और प्रकृति, चेतना और शरीर से संबंधित अंतर्विरोध की प्रकृतिविरोधी व्यर्थता का अहसास होगा।'
('डायलेक्टिक्स ऑव नेचर' पुस्तक में विज्ञान और टेक्नोलॉजी के विकास के साथ प्रकृति से बड़े पैमाने पर छेड़खानी करने की पूँजीवादी प्रवृत्ति के दुष्परिणामों के प्रति चेताते हुए फ्रेडरिक एंगेल्स - ' समयांतर, फरवरी 2012 से उद्धृत) विज्ञान, प्रौद्योगिकी और सूचना तकनीक के जरिए मनुष्य जिस तेजी से लंबी और ऊँची छलाँग लगाते हुए लगातार दूरियाँ तय कर रहा है, और उसी अनुपात में प्रकृति के साथ अ-प्राकृतिक मुठभेड़ करते हुए जिन उपलब्धियों पर इतरा रहा है, वही वेश बदल कर विभीषिका और त्रासदी के रूप में कब उसके सामने आ जाएँ, वह नहीं जानता। लेकिन न जानने का 'भोलापन' भोक्ता होने की त्रासद अनिवार्यता को नहीं मिटा सकता क्योंकि बकौल मार्क्स 'प्रकृति कभी अकेले एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि आर्थिक उत्पादन में मिल कर काम करने वाले मनुष्यों का सामना करती है। इसी तरह एक व्यक्ति भी प्रकृति का सामना नहीं करता, बल्कि समाज के द्वारा संगठित रूप में उसका सामना करता है।' (समयांतर, फरवरी 2012 में नरेश कुमार का लेख, पृ. 27) इसलिए इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रकृति तथा मनुष्य के बीच गहराता पारिस्थितिकीय संकट एक चिंतनीय मुद्दे के रूप में समूचे विश्व के सामने आ खड़ा हुआ है। ज्यादा कृषि भूमि पाने की ललक में वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों की गति और दिशा में मनमाना परिवर्तन, मिट्टी में क्रमशः विकसित होती अनुर्वरता और उसे अधिक उपजाऊ बनाने की हड़बड़ी में रासायनिक खादों का बेशुमार प्रयोग, औद्योगीकरण और शहरीकरण, खनिज उत्खनन के नाम पर प्रकृति का जरूरत से ज्यादा दोहन, पर्यावरण प्रदूषण, मौसम में परिवर्तन, समुद्र का अम्लीकरण, ओजोन परत का क्षय, जैव विविधता का क्रमिक ह्रास - मनुष्य के सभ्य होते चले जाने का बर्बर इतिहास है। या यों कहें कि मनुष्य के एकांगी विकास का विकृत ग्राफ जहाँ उसकी चिंताओं में सिर्फ उसका अपना 'होना' है, दूसरों के अस्तित्व की कीमत पर अपनी ऐषणाओं की पूर्ति का हठ। लेकिन 'होना' (बीइंग/अस्तित्व) क्या इतनी निरपेक्ष अवधारणा है जबकि समूची सृष्टि सापेक्षता के सिद्धांत और संबंध में बंधी हुई है? सृष्टि की संरचना ही कुछ ऐसी है कि इसका प्रत्येक अणु स्वायत्त होते हुए भी अपने अस्तित्व रक्षण के लिए दूसरे के अस्तित्व की अनिवार्यता से जुड़ा हुआ है। उदाहरण के लिए फूड वेब को लिया जा सकता है। जहाँ कहीं एक भी कड़ी टूटी या ढीली पड़ी, वहीं प्राकृतिक कोप चेतावनी बन कर मनुष्य की निरंकुश वृत्ति पर चोट करने लगता है। पारिस्थितिकीय विमर्श दरअसल प्रकृति की इन्हीं चेतावनियों को सुन कर मनुष्य द्वारा अपनी गलतियों को सुधारने, लाभ और लोभ की गोद में पली बेलगाम लालसाओं को 'सिधाने'; और प्रकृति के साथ सामंजस्यपूर्ण समन्वयात्मक संबंध स्थापित करने की चेतना का नाम है। प्रकृति यानी मनुष्य की कार्यस्थली मात्रा नहीं बल्कि जीवनीशक्ति भी; और जीवन रूपी प्रयोगशाला की सबसे भरोसेमंद सहायक और गुरु भी। यहाँ अपने अस्तित्व को बचाने का अर्थ बन जाता है दूसरे के अस्तित्व की रक्षा की जद्दोजहद जिसे हजरत नूह की नाव के मिथक (ओल्ड टेस्टामेंट की कथा जहाँ प्रलय की भविष्यवाणी सुनने के बाद सृष्टि की रक्षा के लिए नूह अपनी नाव पर समूचे वनस्पति जगत और प्राणिजगत के नर-मादा युग्म को लेकर नाव के भीतर सुरक्षित दुनिया बसाता है , और फिर स्थिति सामान्य होने पर एक बार फिर प्रकृति को उसके पूरे वैभव के साथ लहलहा देता है।) में पूर्ण व्यंजना के साथ समझा जा सकता है।
साहित्य चूँकि समय और समाज के साथ चलते हुए उन्नत भविष्य के सृजन का दूसरा नाम है, अतः जीवन और जगत की कोई भी समस्या/विडंबना उसकी विषय-परिधि से बाहर नहीं। दरअसल ब्रह्मांड में जो कुछ भी अस्तित्ववान है, वह मनुष्य की संवेदना, चिंता और चिंतन का विषय है, और प्रकारांतर से साहित्य का भी। जाहिर है साहित्य लेखक का वाग्विलास नहीं है और न ही उसके निजी अनुभवों का सीमित दर्पण। चुनौतियों से मुठभेड़ करते हुए साहित्यकार अपनी अनुभव-परिधि से बाहर पड़ने वाले प्रत्येक सरोकार को भी अपनी चिंता का विषय बना लेना चाहता है। इसके लिए अनिवार्य टूल्स भी वह साहित्येतर ज्ञान-विज्ञान के अन्य विषयों से जुटाता है - शोध, साक्षात्कार, विश्लेषण, परीक्षण। लेकिन फिर भी साहित्यकार और समाजविज्ञानी की बुनियादी एप्रोच में फर्क है। सोद्देश्यता दोनों की विचार-प्रक्रिया का प्रस्थान-बिंदु है, किंतु साहित्यिक रचनाओं के संदर्भ में कल्पना की उन्मुक्त उड़ान में आने वाला दुर्भाग्यपूर्ण घटक भी है। कल्पना वैचारिक गहनता और संश्लिष्ट संवेदनात्मकता के साथ रच-बस कर जिस अंतर्दृष्टि की रचना करती है, वह फैक्ट को फिक्शन और कला को लार्जर दैन लाइफ बनाने में सहायक होती है। यही वह सूक्ष्म विभाजक रेखा है जो तथ्य-तर्कसम्म्त वैज्ञानिक अध्ययन को कालातीत दर्शन की उदात्त ऊँचाइयों में तब्दील कर देती है। लेकिन साथ ही यह भी तय है कि अंतर्दृष्टि की न्यूनता उपन्यास को सर्जनात्मक कृति का रूप न देकर कच्चे माल की पुड़िया या पत्रकारिता की कतरन में विघटित कर देती है। साहित्यकार समाजविज्ञानी की तरह वर्तमान की जमीन पर खड़े होकर वर्तमान की विभीषिकाओं से जूझने के लिए एक वैचारिक आंदोलन की शुरुआत ही नहीं करता, समस्या के भीतर छिपी सर्जनात्मक संभावनाओं को संकेतित करते हुए भविष्य को बुनने की जिम्मेदारी भी पाठक को देता है। वह पात्रों और घटनाओं में बँट कर अपने युग के द्वंद्वों और टकराहटों को कथा-निर्मित संसार में गूँथता अवश्य है, किंतु अपनी एक सुनिश्चित दृष्टि/स्टैंड के साथ पाठक - एक वैयक्तिक इकाई - से सब कुछ शेयर कर डालना चाहता है - अपने सपने, संकोच, दुवधाएँ, असफलताएँ, संघर्ष और प्राथमिकताएँ। लेखक से संवाद करते हुए पाठक पाता है कि वह एक इकाई भर नहीं रह गया है। उसके भीतर की अकुलाहटें पहले की तरह सवाल बन कर उसे किंकर्त्तव्यविमूढ़ नहीं कर रही हैं, बल्कि उसकी दृष्टि को साफ और बोध को पैना करते हुए उससे कर्मठता और सक्रियता की माँग कर रही हैं। आत्म-संज्ञान का यह बिंदु अतिक्रमण बौर उदात्तीकरण की जिस पीठिका की निर्मिति करता है, वही लेखक-पाठक संबंध को परिभाषित करते हुए रचना की गुणवत्ता का निर्धारण भी करता है। मनुष्य चूँकि हर प्रतिकूलता में भी आस की डोरी थाम कर संघर्षरत रहते हुए जिजीविषा को आदिम पहचान का पर्याय बनाए रखता है, इसलिए साहित्य अंधी गली में ठिठकने का आभास देते हुए भी निष्कृति के वैकल्पिक मार्गों का संकेत अवश्य करता चलता है। जाहिर है अध्ययन हेतु चयनित चारों उपन्यासों को वस्तु/कंटेट की दृष्टि से विश्लेषित करने के साथ-साथ एक साहित्यालोचक की दृष्टि से उनकी सर्जनात्मक संभावनाओं को भी तोला गया है जिन्हें मोटे तौर पर जिजीविषा, संघर्ष और आस्था में अनूदित किया जा सकता है। कहना न होगा कि इस प्रक्रिया में सटीक तथ्यपरकता की अपेक्षा मानस को आंदोलित करने वाली प्रभावत्मकता को मूल्यांकन का प्रतिमान बनाया गया है। पारिस्थितिकीय संकट को लेकर पिछले डेढ़ दशक में लिखे गए जिन चार महत्वपूर्ण उपन्यासों पर प्रस्तुत आलेख में विचार किया गया है, वे हैं - मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ (महुआ माजी, 2012), रह गईं दिशाएँ इसी पार (संजीव, 2011), एक ब्रेक के बाद (अलका सरावगी, 2008) तथा कठगुलाब (मृदुला गर्ग, 1996)।
1.
' अब इस इनसानी खोल से किस महामानवी खोल में, किस महाकाश में छलाँग लगाने और किस चाँद-सितारे को छू लेने का इरादा है मेरे दोस्त' (संजीव , रह गईं दिशाएँ इसी पार, पृ. 169 ) बनाम ' प्रकृति जीवों के बिना अमूर्त है। वह जगती है जीवों द्वारा और जीव जगते हैं चेतना से' (वही, पृ. 102 )
'रह गईं दिशाएँ इसी पार' संजीव का बहुत बड़े फलक का उपन्यास है। व्यक्ति के रूप में संजीव की अपनी प्रत्यक्ष चिंताएँ हैं और स्पष्ट धारणाएँ भी जिस कारण जीव-वैज्ञानिकों द्वारा क्लोनिंग और जेनेटिक्स के क्षेत्र में की जाने वाली अभूतपूर्व उपलब्धियों को वे मानवीय संबंधों के जटिल संसार में पनपने वाली विकृतियों की संज्ञा देते हैं। वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा जीवन और मृत्यु, काम और प्रजनन, पदार्थ और अध्यात्म की रहस्यमयी गुत्थियाँ सुलझा लेने की कोशिशें उन्हें शेखचिल्ली के हवाई किले अधिक जान पड़ते हैं क्योंकि गोपनीयता में ही प्रकृति और मनुष्य का आंतरिक सौंदर्य प्रगाढ़तर होकर खिलता है। संजीव गंभीर शोधार्थी हैं और घोर यथार्थवादी भी। वे सौंदर्यान्वेषी रोमांटिक कवि भी हैं और आदर्श की स्थापना के लिए मनुष्य और प्रकृति के बीच अंतःसूत्रों की तलाश और व्याख्या करने वाले दार्शनिक भी। चिंतन की इस पूरी प्रक्रिया के दौरान मानवीय विडंबनाओं और प्रतिकूलताओं से टकराते हुए वे अनास्था या नकारात्मकता के किसी भी बिंदु पर विघटित नहीं होते क्योंकि जीवन के प्रति आस्था और जिजीविषा उनके भीतर की सकारात्मकताओं को सतत जिलाए रखती है। लेकिन ऊपरी तौर पर वे बेहद व्यथित दीखते हैं और क्षुब्ध भी मानो दसों दिशाएँ सर्वहारा होकर मनुष्य को लील लेने को आतुर हैं। इसलिए उनकी प्रत्येक रचना का प्रस्थान बिंदु बनता है यही एक सवाल कि अपनी ही विकृतियों और दुर्बलताओं से निरंतर क्षरित होता मनुष्य क्या नष्ट होने के लिए अभिशप्त है? क्या मृत्यु ही उसकी जीवन-यात्रा का अंतिम पड़ाव है? जाहिर है इसीलिए 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में संजीव जिस पात्र - अतुल बिजारिया उर्फ जिम - को अपना प्रवक्ता बनाते हैं, वह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं, टेस्ट ट्यूब बेबी है। अपने जन्म से जुड़े रहस्यों को पहले-पहल उसने किस रूप में लिया होगा, उपन्यास नहीं बताता, लेकिन अब एक बीस-वर्षीय युवक के तौर पर वह जिस उन्मादपूर्ण एकाग्रता के साथ वैज्ञानिक प्रयोगों में लगा हुआ है, और कृत्रिम गर्भाधान से जुड़ी तमाम खोजों को संपन्न करा कर प्रकृति के विरुद्ध वैज्ञानिक प्रयोगशाला में प्रजनन पर निरंकुश सत्ता स्थापित कर लेना चाहता है, वह उसे जिज्ञासु वैज्ञानिक/शोधार्थी की अपेक्षा मनोरोगी अधिक बनाता है। अनास्था, निःसंगता, अजनबीपन जिम की परिचालक शक्तियाँ हैं और विचित्रता उसका परिचय जो जिम के निजी म्यूजियम के प्रतीकार्थ में कथा में स्पष्टतर होता चलता है। दरअसल जिम का लक्ष्य है विश्वामित्र की तरह एक समानांतर प्रतिसंसार की रचना करना। इसलिए म्यूजियम उसकी कार्यस्थली है और उसके मस्तिष्क का अक्स भी। यहाँ सुकुमार राय द्वारा बनाए गए विचित्र चित्रों की मृण्ययी अनुकृतियाँ हैं जिनमें प्रमुख हैं - मछली की देह पर हाथी का मस्तक, मुर्गे का धड़ और बैल का मुंड, मच्छर पर चस्पाँ जिराफ की गर्दन। यहाँ भेड़ की क्लोनिंग-कन्या डॉली अपने पूरे संदर्भों के साथ विराजमान है तो 1952 में प्रथम लिंग परिवर्तन करने वाले जार्ज जोगन्सन और उनका स्त्री रूपांतरण क्रिस्टी भी; संकर नस्लें और उभयलिंगी प्राणी हैं तो टीशू कल्चर से उपजाए गए फल भी। शिव-पार्वती का अर्धनारीश्वर रूप है तो मत्स्य कन्याएँ और परियाँ भी। और हैं कार्बन चेन्स, गुणसूत्रों की सीढ़ियाँ उतरते इनसान के आदिम पुरखे, बिग बैंग, ब्लैक होल्स, आकाशगंगाएँ, धूमकेतु, सूर्य से निकलती ज्वालामयी पृथ्वी और अन्य ग्रह। सृष्टि के विकास क्रम को जानने की अदम्य इच्छा से कहीं ज्यादा बड़ी है सृष्टि के विकासक्रम की धारा को मोड़ कर अपनी मुट्ठी में बाँधने की लालसा। इसलिए जिम एक बार नहीं, दो बार प्रकृति को चुनौती देता है। लारा के पिता का क्लोन बनाने के लिए लारा के गर्भाशय का उपयोग; और शहनवाज का लिंग परिवर्तन। इस बिंदु पर आकर संजीव के लिए लेखकीय तटस्थता बनाए रखना दुष्कर हो जाता है। वे तुरंत कथा में हस्तक्षेप करते हैं, कभी नैतिकवादियों की आर्त पुकार(क्षोभ और असहमति को व्यंग्य की तीखी धार बना कर संजीव जिस शब्दावली का प्रयोग करते हैं, वह देखते ही बनती है। पिता का क्लोन बनाने के लिए पिता के स्टेम सेल को अपने गर्भाशय में प्रत्यारोपित कर 'क्रांति' कर देने के अतींद्रिय उत्साह से भरी लारा के पास अपने कृत्य के जस्टीफिकेशन के लिए भावनात्मक तर्क हैं - ' आप दुर्लभ नस्ल की प्रजातियों को बचाने के लिए खासा परेशान रहते हैं। अगर मैं अपने ईमानदार पिता की नस्ल को बचाना चाहती हूँ तो कौन सा गुनाह कर रही हूँ। मुझे न धर्म की परवाह है, न नैतिकता की। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं... पिता जैसी दुर्लभ होती जा रही प्रजाति को बचाने का माध्यम बन रही हूँ।' ( पृ. 138) असहमति में सिर हिलाते संजीव लारा से कहीं ज्यादा भावुक हैं। इसलिए उनके पास तर्क नहीं है यह सिद्ध करने का कि सभ्यता का कुटिल दुष्चक्र शुरू से ही ईमानदार निष्ठाओं को कुचलता रहा है, लेकिन इसके बावजूद ईमानदार कर्त्तव्यपरायण मनुष्य प्रजाति लुप्त नहीं हुई है;कि सत् और असत् का द्वंद्वात्मक संबंध ही सृष्टि कर निरंतरता की कुंजी है। दूसरे, वे प्रति-तर्क भी नहीं करते कि पिता का क्लोन बना लेने से ही क्या गारंटी है वह ' लुप्तप्राय प्रजाति' पुनः व्यवस्था के दमन-चक्र का शिकार नहीं होगी? इसके विपरीत वे लारा के परिवार की हाय-हाय में अपना सुर मिला कर संबंधों और नैतिकता की दुहाई देने लगते हैं - ' तुम्हारा यह कदम घोर अनैतिक और अधार्मिक है।' ( पृ. 138) ; कि ' बाप रे! रिश्तों का क्या होगा? प्रलय आ जाएगा प्रलय!' ( पृ. 128) करुणा और हताशा का नर्तन! शाहनवाज उर्फ शहनाज के संदर्भ में संजीव अपनी निःसंगता किंचित बचा पाए हैं लेकिन शायद इसलिए कि शहनाज को उन्होंने मूलतः त्रिशंकु के रूप में कन्सीव किया है। इसलिए लिंग परिवर्तन करा कर स्त्री बनने के बाद उसके ' विकास क्रम' को दर्शाने हेतु जिन घटनाओं का संयोजन किया गया है, वे उसे निजी तौर पर मीडिया की हाइप पर जीती स्टार सैक्स-वर्कर के रूप में रिड्यूस कर देती हैं और वैज्ञानिक उपलब्धियों के तौर पर ' एक नॉक आउट चूहा' भर बना देती हैं। उल्लेखनीय है कि इन दोनों प्रकरणों में विज्ञान ने मनुष्य की गरिमा का ही नहीं, उसके अस्तित्व का भी क्षरण किया है।) बन कर तो कभी क्लोनिेंग की पूरी प्रक्रिया को उपहास का पात्र बना कर ('इन्फैक्ट क्लोनिंग कर क्या रहा है - अलैंगिक प्रजनन...! मेरे जैसे बोका मनुष्य के बचे-खुचे आनंद को काहे के लिए छीन रहे हो?' संजीव,रह गईं दिशाएँ इसी पार, पृ. 129)।
संजीव सीधे-सीधे क्लोनिंग की व्यर्थता को लेकर डिबेट का आयोजन नहीं करते, बल्कि नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के धन-कुबेरों की ययाति-ग्रंथि के बरक्स इसकी वैधता का परीक्षण करते हैं जिसे उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभावों और दबावों ने नए मूल्य के रूप में विकसित किया है। ययाति-ग्रंथि यानी अजरत्व की कामना! यानी काल के प्रवाह को थाम कर चिर युवा बने रहने की अभीप्सा! क्लोनिंग यदि इसका एकमात्र विकल्प है और तीसरी दुनिया की गरीबी के चलते ह्यूमन क्लोनिंग के प्रयोगों हेतु इनसानों को उपलब्ध कराना और ह्यूमन क्लोन को गर्भ में प्रत्यारोपित करना जरा भी कठिन कार्य नहीं तो क्या सिर्फ इसीलिए इसे सही ठहरा दिया जाए? नहीं, विशाल - जेनेटिक्स पर शोध कर रहे वैज्ञानिक - की भूमिका में उतर कर संजीव बेहद द्वंद्वग्रस्त हो उठे हैं। वैज्ञानिक शोध यदि आर्थिक संरक्षण देने वाले धन कुबेरों के निहित स्वार्थों की पूर्ति का जरिया बन गया तो? एक अहम सवाल! विशाल की भूमिका से उबर कर संजीव पुनः सर्जक बन जाते हैं और रचते हैं विस्नू बिजारिया की विकृत लालसाओं का संसार जहाँ अपने ही संसाधनों से चलाए जा रहे अनाथालय और स्कूल के सभी बच्चों को उसने 'अस्तित्व अनुसंधानशाला' के गिनी पिग में बदल डाला है। अपनी तिक्त असहमति दर्ज कर संजीव एक बार फिर वैज्ञानिक विशाल बन कर अपने जनून - जेनेटिक्स - में डूब जाना चाहते हैं, लेकिन असमय बुढ़ा गई रोग जर्जर डॉली (पहला क्लोन) प्रयोग की विफलता के दंश से ज्यादा एक अनुत्तरित सवाल बन कर सामने खड़ी हो गई है कि 'क्या हमने अपने प्रयोगों से क्लानों की उम्र को समय की तेजी से नहीं भर दिया है? ...हम अगर इसे न रोक पाए तो प्रयोगों की क्या सार्थकता रही?' (पृ. 119) तब जनून और यथार्थ बोध गलबहियाँ डाल कर ही सामने नहीं आते, बल्कि एकमेक होकर धुएँ में विलीन हो जाते हैं - व्यर्थता का तीखा कड़वा अहसास! जिंदगी मानो ऊबाऊ आवृत्तियों को दोहराते चले जाने की यांत्रिकता! न नए का रोमांच! न अज्ञात को एक्सप्लोर करने का आनंद! स्पष्टता और ज्ञान का अतिरेक क्या एक सीमा के बाद वीरानगियों और निरर्थकता की सृष्टि करने लगता है? या यह नग्न कर दी गई प्रकृति का अपनी शर्म ढाँपने के लिए किया गया प्रतिकार है? 'क्या होगा वह दिन जब हर इनसान डी.एन.ए. कार्ड लटका कर चला करेगा, परिचय-पत्र की तरह जो बताएगा कि वह किस रोग का संभावित शिकार है, उसका आई.क्यू. क्या है... वह फलाँ-फलाँ कार्य के लिए योग्य है और फलाँ-फलाँ कार्य के लिए अयोग्य।' (पृ0 81) और फिर डर कर अपने आप से ही सुझावनुमा सवाल - 'क्यों न जींस के बदले डेस्टिनी पर ही सोचूँ?' द्वंद्व! और द्वंद्व! निर्जनता का निष्क्रिय पोषक नहीं, आत्मसाक्षात्कार और आत्मपरिष्कार की प्रक्रिया का प्रथम चरण!
'सत्य को धुँधला ही रहने देना चाहिए' - संजीव एक धर्मोपदेशक की तरह अपनी मान्यता उकेरते लगते हैं और पीटर (पीटर 'सिंथेटिक ह्यूमन' है। उसकी माँ ने वीर्य बैंक से वीर्य लेकर कृत्रिम गर्भाधान के सहारे उसे जन्म दिया है। दस वर्ष की अवस्था में माँ की मृत्यु के साथ उसने संबंध ही नहीं खोया, जीवन के प्रति आस्था और अनुराग दोनों को खो दिया है। अब ' भटकते प्रेत' की तरह वह निरंतर अपने अनदेखे पिता को ढूँढ़ रहा है, एक मारक कसक और कचोटते सवाल के साथ कि ' उसने मुझे जन्म क्यों दिया? माना कि स्पर्म बैंक में स्पर्म देकर वह निवृत्त हो गया, जैसे पेशाब-पाखाना किया, फ्लश किया, निवृत्त हो गए।' ( पृ. 163) लेकिन क्या प्रजनन एक बायलॉजिकल परिघटना मात्र है? वह एक सामाजिक जिम्मेदारी, सांस्कृतिक मूल्य और मानवीय संबंधों का आदि-स्रोत नहीं जहाँ संतान के साथ-साथ पलती है आत्मीयता, विश्वास, सद्भाव और सौहार्द की धरोहर? प्रजनन से ज्यादा जरूरी और जिम्मेदारी भरा दायित्व क्या संतान का पालन-पोषण नहीं जो उसे एक संवेदनशील विवेकशील मनुष्य बना सके? विज्ञान यदि इस दायित्व का वहन नहीं कर सकता तो प्रकृति उसे अपना राजदार क्यों बनाए? ) तथा घरघुसरा (घरघुसरा विज्ञान की उपलब्धि और पराजय का अद्भुत उदाहरण है। हर आहट से डर कर घर के कोने-अँतरे में छुप जाने वाले उस लंबे-चौड़े युवक की भय-ग्रंथि को जीतने के लिए डॉ. सिंह - हारमोन्स स्पेशलिस्ट - घरघुसरा पर प्रयोग करते हैं। सफल प्रयोग! भय से मुक्ति! लेकिन इतनी निर्भीकता कि गरजता-उफनता समुद्र भी घरघुसरा को डरा नहीं पाया। परिणामस्वरूप लहरों को रौंदने की कोशिश में वह स्वयं जान से हाथ धो बैठा। ' एक संपूर्ण इनसान होने के लिए आदमी में डर, शर्म, चोरी, झूठ, ईर्ष्या, लोभ, द्वेष जैसे विकारों और कुंठाओं का होना भी जरूरी है। माने सम्यक् भय, सम्यक् शर्म, सम्यक् मिथ्या वगैरह वगैरह।' ( पृ. 206) संजीव बलपूर्व क अपनी निष्पत्ति प्रस्तुत करते हैं कि जो प्राकृतिक है, उसका अ-प्राकृतिक दमन क्यों?) के उदाहरणों के जरिए प्रकृति के प्रतिरोध को दर्ज करते हैं। लेकिन उनका प्रवक्ता जिम सत्य को अनावृत्त करते चलने का हठ पाले हुए है। माँ की मृत्यु के बाद उसने निजी म्यूजियम में काँच के जार में सहेज कर रखा है माँ का गर्भाशय और फेलोपियन ट्यूब। इससे पहले काँच के ऐसे ही एक और जार में सहेज लिया है एबार्शन के बाद नवें महीने के पूर्ण विकसित भ्रूण का मांस पिंड, और उस पर चस्पाँ कर दिया है एक लेबल - बालभोग। क्या यह जिम के भीतर सुरसुराती पैशाचिक प्रवृत्ति है? पूर्ववर्ती उपन्यासों में अपने नायकों के प्रति एक रोमान भरा अनुराग महसूसने वाले संजीव यहाँ जिम के प्रति खासे निष्ठुर हैं। अलबत्ता कई-कई बार अजय के रूप में स्वयं को प्रतिस्थापित कर एक ऐसी बहस का आगाज करते हैं कि जिम अपनी तमाम विकृतियों के साथ पाठकीय वितृष्णा का शिकार बन सके। वे भरसक प्रयास करते हैं कि जिम की तथाकथित क्रांतिकारिता स्वेच्छाचारिता का रूप लेकर उभरे। मसलन विवाह संस्था को 'मुसीबत' और दंपति को 'बाड़े में बंद गाय और साँड' की संज्ञा देना; और रिश्तों-संवेदनाओं के परंपरागत ढाँचे और सोच से बाहर विकृत समझे जाने वाले रिश्तों-संवेदनाओं को सहानुभूतिपूर्वक देखने और उनका मानसिक अनुकूलन करने की जरूरत पर बल देना - 'ये ब्रह्मा-सरस्वती, यम-यमी, ईडीपस-उसकी मदर - एक तरह से देखिए तो एन्क्रोचमेंट्स हैं, दूसरी तरह से देखिए तो साधारण मामला। बस, ऊपरी अर्थ-क्रस्ट की तरह थोड़ी सी संवेदनाओं की परत बिछा दी गई है, वही रिश्ते हैं, भावनाएँ हैं, बाकी नीचे तो वही आदिम अनुर्वर पत्थर है और उसके नीचे पिघला हुआ लोहा।' (पृ. 221)
लेकिन जिम अपने स्रष्टा के हाथ की कठपुतली बनने से इनकार कर देता है। जिस समय लेखक-पाठक-अजय सब उसे समवेत स्वर में 'मानसिक रोगी' घोषित कर चुके होते हैं, उसी समय सेल्फ रेवीलेशन की प्रक्रिया से गुजरता हुआ वह स्वयं को नायक के रूप में प्रकट करता है। नहीं, बड़बोली दावेदारी के साथ नहीं, एक सघन-संवेदनात्मक तरल दृष्टि के साथ संबंधों की जटिलताओं को समझने और बचाने की नैतिक जिम्मेदारी का बोध! तब जिम की निःसंगता संवेदनहीनता के पर्याय के रूप में नहीं, कमल के रूपक में उभर कर सामने आती है। निर्लिप्त और कर्मयोगी - यही है जिम। उसका म्यूजियम और तमाम वैज्ञानिक खोजें जीवन, विज्ञान और प्रकृति के अंतःसंबंधों को जानने की कोशिशें बन जाती हैं। प्रवंचना से उपजे पीटर का क्षोभ जिम की भी निजी अनुभूति है, लेकिन यही उसका कुल परिचय और जीवन का सार नहीं। जिम ने धुरीहीन, जड़विहीन होने के अपने आक्रोश को थिरा लिया है। वह विज्ञान की उपज है, प्रकृति की नहीं, और जान लेना चाहता है कि विज्ञान 'सिंथेटिक इनसान' की इस नस्ल के पोषण के लिए कितनी दूर तक सहायक सिद्ध होगा। डॉली की अकाल मृत्यु, लारा की हत्या, शहनवाज की दुर्गति, पीटर की विक्षिप्तावस्था और विज्ञान की बैसाखियों पर चलता विस्नू बिजारिया - जिम जान गया है कि प्रकृति के साथ हर संघर्ष में विज्ञान औंधे मुँह गिरा है। अब संजीव और देर तक जिम से रूठे नहीं रहते। 'अरे!' मानो वे हर्षातिरेक से नाच उठे हैं। तब अपने क्रिएटिव डेस्क पर तेजी से रचनारत होकर वे जिस एक महत्वपूर्ण घटना की सृष्टि करते हैं, वह प्रकृति और विज्ञान को नायिका और खलनायक की भूमिका में उतार कर जिम के साथ-साथ लेखकीय दृष्टि को भी एक स्पष्ट दिशा देती है। जिम की माँ एलिस बदहाल अवस्था में घर में प्रविष्ट हुई हैं; जीवन और मृत्यु के बीच झूलते हुए वह बताती है कि विस्नू के क्लोनों ने मिल कर उसका बलात्कार किया है। प्रकृतिरूपा माँ इस उत्पीड़न को खामोश सहने को अभिशप्त है, लेकिन मातृरूपा प्रकृति क्या प्रतिशोध नहीं लेगी? जरूर! जिम का बोधिसत्व! जाहिर है तब प्रकृति की उर्वरता बनाए रखने के लिए संबंधों को संवेदना के जल से सींचना होगा। लेकिन क्या 'सिंथेटिक मैन' इस रहस्य को समझ पाएगा? उसका सम्मान करने का आत्मबल अपने भीतर सँजो पाएगा? ताकत का प्रदर्शन दमन में नहीं, पोषण में करती है प्रकृति। तभी तो महीयसी है और अतुलनीय! इसलिए सबसे पहल 'सिंथेटिक मैन' को मारना होगा और फिर अपने अस्तित्व को संभव और सार्थक बनाने के लिए उत्तरदायी प्रत्येक पोषक वृत्ति के प्रति आभार ज्ञापन! यह अपने से इतर दूसरों के अस्तित्व की स्वीकृति है और उनके साथ स्वस्थ अंतर्संबंध की शुरुआत भी। जिम की प्रयोगशाला में जिम के प्रयोग बेशक असफल हो गए हों, लेकिन संजीव ने जिम पर अपने प्रयोग को असफल नहीं होने दिया है। वे सिद्ध करते हैं कि वैज्ञानिक दृष्टि के साथ दार्शनिकता का संगुंफन करके ही एक मुकम्मल इनसान गढ़ा जा सकता है। जिम उनके विश्वास का ठोस रूप है और सपनों का संवाहक भी। विज्ञान ने उसे मनुष्य की उत्पत्ति के रहस्य को शुष्क भावहीन तथ्यों की भाषा में समझाया है, लेकिन इस असंपृक्तता और भावहीनता का अतिक्रमण कर पूरी प्रकृति से जुड़ने की चेतना दर्शन ने दी है जो छिन्नमूल एकाकी मनुष्य पर विचार ही नहीं करता। दर्शन विचार करता है मनुष्य की अस्मिता पर - प्रकृति और प्राणिजगत के साथ, अमूर्त और अध्यात्म के साथ उसके संबंधों की छिपी संभानाओं को एक्सप्लोर करते हुए, उन्हें उन्नत बनाते हुए। 'अपना डीएनए डिकोड करते-करते मैं पीछे, पीछे, और पीछे लौटते हुए दक्षिण अफ्रीका के उस मुकाम से देखता हूँ जहाँ से यात्राएँ शुरू करते हैं हमारे पुरखे। चींटियों की कतारों की शक्ल में बनती लकीरें। नदियों, समंदरों, पहाड़ों, जंगलों, सहराओं, मैदानों तक फैलती लकीरें, फिर उन लकीरों को पकड़ कर उनके उत्स से भी पहले, जहाँ ब्रह्मांड ने विकसित होना शुरू किया, आकाशगंगाएँ छिटकनी शुरू हुईं। कितना हास्यास्पद है खुद की वंश-गरिमा, जेंडर, जाति, उपजाति, संप्रदाय और क्षेत्रीयता का बखान! हम सब हैं तो वही... (पृ. 308)।'
जिम की चारित्रिक संरचना के ठीक विपरीत है अजय के चरित्र की परिकल्पना। जिम के चरित्र के मूल में यदि उसके जीवनानुभवों के साथ संवेदनात्मक वैचारिकता का घात-प्रतिघात सक्रिय है तो अजय पूरे उपन्यास में एक बार भी ऐसी कोई वैचारिक या भावनात्मक टकराहट नहीं झेलता। वह दरअसल पात्र नहीं उत्प्रेरक (केटेलिस्ट) है जिसका प्रयोगों के दौरान उपयोग किया जाना है। वह हवा की तरह निर्बाध है और ईश्वर की तरह सर्व-सर्वव्यापक। अतुल मेंशन में घटने वाली ऐसी कोई घटना नहीं जिसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष साक्षी अजय न हो। फिर भी अजय कर्ता नहीं। वह पर्यवेक्षक है और समन्वयक भी। इसलिए आज की स्थूल वैज्ञानिक उपलब्धियों के बरक्स भारतीय/यूरोपीय पौराणिक कथाओं या लोककथाओं का संदर्भ देकर वह हर संवेदनशील-मननशील मेधा को इस तथ्य पर विचार करने कर निमंत्रण देता है कि ऐसी ही वैज्ञानिक संभावनाओं और सामर्थ्य से भरा अतीत क्यों किसी एक बिंदु पर विनष्ट होकर पुनः अथ/शून्य से विकास-यात्रा शुरू करने को बाध्य हुआ? क्या प्रगति के प्राकृतिक चक्र में हमारे आसन्न विध्वंस के संकेत नहीं छिपे हैं? पर्यवेक्षक की हैसियत से उसे विस्नू बिजारिया के सारे धंधों को नजदीक से जानने का अवसर प्रदान करते हैं संजीव। पहले बेला और फिर विस्नू की तलाश में भारत के समुद्र तटों से लेकर न्यूफाउंडलैंड (कनाडा) के समुद्र तटों तक मत्स्य पालन उद्योग के अंदरुनी सच को जाना है उसने। साथ ही जाना है भारत और शिकागो के स्लॉटर हाउस में फलते-फूलते मांस उद्योग के घिनौने सच को जहाँ वैज्ञानिक उपकरणों की मदद से प्रोफेशनल दक्षता के साथ 'जीवन से भरे मवेशी पाउंडों, डॉलरों, यूरों और येनों में तब्दील हो रहे थे। उनका जिस्म कट-पिट नुच-चुँथ कर पैकिंगों में।' (पृ. 250) यही नहीं, जार में रखे नौवे माह के भ्रूण के मांस पिंड पर लगाए गए लेबल 'बाल भोग' का रहस्य भी अब खुला है उसके सामने जब समृद्धि, ग्लैमर और तेज रोशनियों के नीचे फल-फूल रहे यौनिकता उद्योग के नरक को अपनी आँखों से देखा है उसने। धर्मराज युधिष्ठिर की तरह जिम के साथ नरक की यात्रा का एक दिन उसके लिए जिंदगी का हैबतनाक अनुभव है। धन-कुबेर बनने की चाह में जीवों की अनेकानेक प्रजातियों को अंधाधुंध नष्ट करते चलना; महानगरों में इन उद्योगों को केंद्रित करने की व्यावसायिक विवशता के चलते इन जीवों के पोषण और वध से होने वाले प्रदूषण के कारण पारिस्थितिकीय संकट को बढ़ाना क्या अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारना नहीं है? जब देश-विदेश में 'शाइनिंग पिगरी' जैसी अनेक पिगरीज हों जिनके फोर बाइ सिक्स के एक दड़बे में एक मादा सूअर और उसके दर्जन भर छौने रखे जाते हों, उनके मल-मूत्र की निकासी की समुचित व्यवस्था की जरूरत न महसूसी जाती हो; वध के बाद मक्खियों और विषाणुओं से लिथड़ा उनका खून, हड्डियाँ, मांस, आँखें, सींग, आँतें, खाल महामारी के प्रजनन के लिए खुले छोड़ दी जाती हों; साढ़े चार मिलियन गैलन मल-मूत्र और गंदगी का डिस्पोजल सीधे नदी में किया जाता हो, और मजदूरों को उन्हीं अमानवीय स्थितियों में अधपेट भूखा रख कर काम करने को बाध्य किया जाता हो, वहाँ निरंतर बजती शोक धुन को समाप्त करने के लिए क्या अपना खप्पर लेकर प्रकृति का तांडव नृत्य करना अनिवार्य विकल्प नहीं जान पड़ता? यकीनन इसीलिए एदिता मोरिस (जन्म और राष्ट्रीयता से स्वीडिश और नागरिकता के नाते अमेरिकी लेखिका एदिता मोरिस अमेरिकी सरकार के युद्धोन्माद के खिलाफ अमरीकी जनता को उद्बुद्ध करने वाली प्रबुद्ध एवं संवेदनशील रचनाकार हैं। ' हिरोशिमा के फूल' और 'वियतनाम को प्यार' उनकी अत्यधिक चर्चित औपन्यासिक कृतियाँ हैं।) को यह कहने मे कोई गुरेज नहीं कि 'अगर आदमियों का कत्ल न किया जाए तो पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों को नष्ट किया जाना भी एक आदमी को शर्म से अपनी आँखें झुकाने के लिए काफी है।' (वियतनाम को प्यार, पृ. 120)। 'नरककुंड में बास' (जगदीशचंद्र) और 'जंगल' (अप्टन सिंक्लेयर) में दोनों उपन्यासकारों ने औद्योगिक विकास को जिस संदर्भ में रखा है, वह मनुष्य बनाम यंत्र का मुद्दा उठा कर बहस को एक निश्चित और सुचिंतित परिणति देता है, लेकिन आज का नवऔपनिवेशिक दौर आर्थिक उदारीकरण का मुखौटा ओढ़ कर जिस कुशलता से व्यक्ति को यंत्र और बाजार में बदल रहा है, वहाँ उसे जगाने और जनांदोलन के लिए चेतन करने की संभावनाएँ काफी क्षीण हैं। संजीव 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में अपने पूर्ववर्ती रचनाकारों की तरह दिशाहीन गति की ओर उन्मुख औद्योगिक सभ्यता के संकटों को चिह्नित नहीं करते, बल्कि व्यक्ति के भीतर बैठी बेलगाम उपभोक्तावादी मानसिकता से उत्पन्न खतरों को संकेतित करते हैं जो अपनी परिणतियों में सामंतवादी व्यवस्था के दुष्प्रभावों और आतंक से कहीं ज्यादा विस्फोटक हैं। यदि सिर्फ बाजार मनुष्य का नैसर्गिक सत्य होता तो आत्मा के सुकून और आत्मीय संबंधों के विकास के लिए 'घर' का निजी कोना उसकी जरूरत न होता? लेकिन आज बाजार ने उसकी चेतना पर कब्जा जमा कर क्या उसे अ-मनुष्य नहीं बना दिया है? वह, ज्यादा से ज्यादा, प्रोडक्ट है, अपनी निजता, अस्मिता और जीवंतता से शून्य। संजीव अपनी व्याकुलता को अजय के दुःस्वप्न में गूँथते हैं :
'पूरा देश बैठा है बेचने। क्या बेच रहे हैं लोग?
मछली? मांस?
सिर्फ मछली नहीं। सेक्स, आँख, दिल, खून, किडनी, स्टेम सेल, कोख...
अलसाई-अलसाई धूप में टाँगें फैलाए - डिंब ले लो डिंब।
मछली, घड़ियाल, कछुए, मुर्गी, हंस के नहीं, आदमी के डिंब, आदमी के। उकड़ूँ बैठी... टाँगें फैलाए... स्पर्म ले लो स्पर्म, जैसा चाहो वैसा स्पर्म।
लोग हथेलियों पर रख कर अपना माल दिखा रहे हैं - ये देखो, ये डिंब, ये वीर्य, ये कोख, ये... सब बेच रहे हैं खुद को, झेंपने की जरूरत नहीं। शील, अश्लील, मूल्य, संस्कार की सारी रेखाएँ मिट गई हैं। ...यहाँ न पूरब है, न पश्चिम, न उत्तर न दक्षिण, न ऊपर न नीचे, न कोई रिश्ता है, न कोई संस्कार...
स्वयं में समाहित है यह ब्रह्मांड, मैं भी।
किसी का कोई केंद्र नहीं, मेरा भी नहीं। मैं स्वयं अपने आप का केंद्र हूँ।' (पृ. 303)
खौफजदा संजीव बेशक इसे स्वप्न-जागरण, चेतन-अचेतन, सिथति-स्थितिहीनता के बीच कोई संज्ञा दें, लेकिन यह संवेदनशील व्यक्ति की आँख से देखा गया भविष्य दर्शन ही तो है। विज्ञान की भित्ति पर टिकी मार्केटिंग यदि स्थिति से बढ़ कर जीवन-मूल्य बन जाए तो ऐसा क्यों कर न होगा? आदमी को मार कर खा जाने वाली कबीलाई संस्कृति की स्मृतियाँ अभी इतनी क्षीण नहीं हुईं कि उन्हें पुनर्जीवित न किया जा सके। यूँ भी अतीत की व्याख्याएँ सदा से आज के सामर्थ्यवानों द्वारा अपने मंतव्यों को 'मूल्य' सिद्ध करने के लिए की जाती रही हैं।
2.
तुम एक खिड़की के फ्रेम से ही आसमान को क्यों देखने की जिद रखते हो? आसमान तो हर तरफ फैला हुआ है। पूरा देखना हो तो तुम्हें खिड़की से बाहर निकलना होगा।' ( अलका सरावगी, एक ब्रेक के बाद, पृ. 111)बनाम ' मन की सीमा को जान लो। वही मुक्ति है।' ( वही, पृ. 34)
मैं एक बार फिर एदिता मोरिस को याद करना चाहूँगी। अपने उपन्यास 'हिरोशिमा के फूल' में माएदा-सान नामक पात्र का परिचय देते हुए वे लिखती हैं - 'माएदा-सान अपने को एक बगीचा समझता है, एक छोटा सा बगीचा जिसमें लगातार बागवानी की जा रही हो। रोज वह अपने अंदर का एक चप्पा निखारता है - उसे खोदता है, साफ करता है, पानी देता है, नई खाद में नए बीज बोता है। ...नहीं तो माएदा-सान के विचार में आदमी के अंदर बंजर भूमि रह जाती है - जहरीले साँप और दुर्गंधित घास-फूस वाली भूमि जो कि हर चीज का दम घोंट देती है।' (हिरोशिमा के फूल, पृ. 40, राजकमल पेपरबैक्स, दिल्ली) आत्म-परिष्कार की यह नैतिक कोशिश व्यक्ति का 'धर्म' है और 'मनुष्य' होने की बुनियादी पहचान भी। ध्यातव्य है कि आत्मपरिष्कार की सजग साधना उसके लिए अनिवार्य भी है क्योंकि अपनी कुत्सित अभीप्साओं के चलते प्रकृति के साथ स्वस्थ-सहज संबंधों में गड़बड़ सिर्फ वही तो करता है।
लेकिन 'कुत्सित अभीप्साओं' में घिरे व्यक्ति का दंभ क्या उसे अपनी पतनशीलता को देखने-स्वीकार करने का संवेदनात्मक साहस देता है? नहीं, यह प्रश्न नहीं है, एक हताश स्टेटमेंट है - व्यक्ति मात्र से कर्मठता और जिम्मेदारी की माँग करती। इसलिए सबसे पहले जाँचना खुद को ही है - अपने मंतव्यों, अभिलाषाओं, लालसाओं और गतिविधियों को। दर्शक नहीं, द्रष्टा होकर। अपने से बाहर फैल कर, लेकिन उतना ही अपने भीतर गहरे उतर कर। इस सत्य की उँगली पकड़ कर कि पर्सनल इज पॉलिटिकल; कि जो आत्म है, वही संसार है। आत्म-प्रवंचना बिल्कुल नहीं। दो और दो चार वाली निर्भीक साफगोई। आकर्षक पैकेजिंग द्वारा हर चीज को सर्वसुलभ बनाने वाला उपभोक्तवादा एक यही चीज तो उपलब्ध नहीं करा सकता। अलबत्ता इसके एवज में अपने को 'निष्पाप' और 'मासूम' देखने के मुखौटों की खूब सौदागरी करता है वह। व्यंग्य को हथियार बना कर अलका सरावगी 'एक ब्रेक के बाद' उपन्यास में स्थिति के इस विद्रूप को खूब उठाती हैं। अपनी बात वे दो पात्रों के जरिए कहती हैं - के.वीत. शंकर अय्यर और गुरुचरण दास। एक घोर अहंनिष्ठ, दूसरा सघन स्वप्नजीवी। लेकिन इतना आत्मस्थ और चुप्पा कि के.वी. अंत तक उसके रहस्य को नहीं समझ पाते। के.वी. का बड़बोलापन गुरुचरण दास की भीतरी दुनिया को उसके इरादों के साथ मजबूत करते चलता है तो बाहर की दुनिया में भौतिकता के प्रसार की किसी भी संभावना को अनछुआ नहीं छोड़ता। वह उस दुनिया का बेताज बादशाह है जो मोबाइल का फैंसी नंबर खरीदने के लिए पंद्रह लाख रुपए माथे पर शिकन डाले बिना फूँक सकती है। अलबत्ता इस दुनिया में माथे की शिकनें इस दुविधा में गहराती हैं कि ऊपर तक फूली जेबों को खाली करने के लिए वे कौन सी गाड़ी, कौन सा बंगला, कौन सा माइक्रोवेव, कौन सा कैमरा खरीदें ताकि अपने पड़ोसी-परिचित से ज्यादा समृद्ध, आधुनिक और विशिष्ट दीखें। 'जो भौतिक पदार्थों को ही जीवन में सफलता का मापदंड मानता हो, वह कैसे समझेगा कि विचारों की उड़ान में क्या सुख है' (पृ. 113)।
एक ऊँचाई पर बैठ कर भौतिकता के दलदल में धँसे इन केंचुओं को देख कर हिकारत से भर उठे हैं के.वी. और उसी अनुपात में आत्माभिमान में। टेलीविजन पर शुरू की गई स्काई शॉपिंग स्कीम समेत ऐसी कई उपलब्धियाँ हैं उनकी झोली में जिन्होंने भरे-पूरे इनसानों को बाजार की इस चरागाह में चरने वाली भेड़ों में तब्दील कर दिया है। वे किंग मेकर हैं। दुनिया की कोई भी समस्या या सवाल दुविधा बन कर उनके सामने नहीं आती। समाधान चटपट चुटकियों में है। संदर्भ चाहे गुरु को कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी का मतलब समझाने का हो (गुरु को सलाह देते हुए के.वी. कहते हैं - 'तुम लिखो कि तुम्हरी कंपनी सिर्फ मार्केट के बारे में नहीं सोचती। उसका 'विजन', उसके 'वैल्यूज' और उसकी 'वाइटेलिटी' इसमें है कि विकास को सस्टेनेबल और एक्सक्लूसिव बनाए। तुम लिखो कि तुम्हारी कंपनी इस जिम्मेदारी को पूरा करने के लिए, देश के पानी और हवा को बचाने के लिए वाटर पॉजिटिव और कार्बन पॉजिटिव हो गई है। बस, सालिड वेस्ट को खत्म करने में कुछ ही कदम चलना बाकी है।,' अलका सरावगी, एक ब्रेक के बाद, पृ. 92) या गुड़गाँव में होंडा कंपनी के मजदूरों पर पुलिस के लाठीचार्ज का। ('पुलिस को इस तरह मजदूरों पर अत्याचार करते देख तकलीफ तो होती है, पर देश की भलाई में 'कोलेटेरल डैमेज' यानी छोटे-मोटे आनुषंगिक नुकसान तो उठाने ही होंगे।,' वही, पृ. 116)।लफ्फाजी और संवेदनहीनता उनकी वैल्यूज हैं और नई पीढ़ी को दिए जाने वाले संस्कार भी। अलका सरावगी उन्हें व्यक्ति नहीं, कारपोरेट वर्ल्ड के एसेंशियल चरित्रा के रूप में उभारती हैं जो बालू में से तेल निकालना ही न जानता हो, वरन उसकी तिजारत कर अपना एंपायर खड़ा करने की क्षमता भी रखता हो। 'एक ब्रेक के बाद' में अलका सरवागी बेहद श्रमपूर्वक क्रमशः इन्हीं तथ्यों को उकेरती हैं कि किस प्रकार पहले बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ औद्योगिक विकास की आड़ में प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन कर रही हैं, इस प्रक्रिया में तीसरी दुनिया के देश उनके लिए कच्चा माल उपलब्ध कराने की मंडियाँ हैं या कचरे के डंपिंग स्टेशन। इसके बाद, दूसरी अवस्था में जब से ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरे घर में घुस कर तीसरी दुनिया के ताकतवरों को डराने-धमकाने लगे हैं, तब से प्रकृति के संरक्षण की चिंता उन्हें सताने लगी है। एक अजीब धर्मसंकट उनके सामने उपस्थित है। अपने को बचाए रखने के लिए प्रकृति और धरती को उन्हें बचाना है, लेकिन ऊर्जा संकट से निपटने के लिए सुख-सविधाओं का उपयोग करना कैसे छोड़ा जा सकता है? जिंदा रहने का अर्थ तीसरी दुनिया के देशों की तरह शारीरिक श्रम करना तो नहीं हो सकता न! यूँ भी जिन पैरों को एक्सेलेटर पर खड़े होकर लम्हे में ऊँचाइयाँ नापने की आदत हो, वे एक-एक सीढ़ी चढ़ने का धीरज और समय कैसे पा सकते हैं? तब उनके सामने एक ही सवाल अहम रहता है कि अपने मौजूदा लाइफ स्टाइल को शान से बनाए रखते हुए धरती को कैसे बचाया जाए? यहीं से शुरू होती है तीसरी अवस्था जो समाधान के लिए एक बार फिर तीसरी दुनिया की ओर ही लौटती है। तीसरी दुनिया की गरीबी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए वरदान है। शोषण करने और कचरा फेंकने के अलावा अब वे अपना 'पाप' बेचने का व्यापार भी यहाँ खूब चला सकते हैं। कार्बन क्रेडिट की खरीदफरोख्त करके। के.वी. जैसे देसी साहब इन कंपनियों के वफादार एजेंट हैं। वे जानते हैं कि हवा में एक टन कार्बडाइऑक्साइड कम करने से एक कार्बन क्रेडिट मिलता है जिसे विदेश में दस से तीस यूरो में बेचा जा सकता है। हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा होय। के.वी. कार्बन क्रेडिट जमा करने के लिए कंपनी खोलते हैं - कार्बोवेज सिस्टम्स इंक। बेहद उत्साहवर्धक तथ्य उनके सामने हैं कि सिटी ऑव लंदन में तीस मिलियन डॉलर का कार्बन व्यापार हो रहा है और अकेले भारत के हाथ में दुनिया के कार्बन व्यापार का 31 प्रतिशत बाजार है। 'भई, आप फैक्टरियाँ बंद मत कीजिए, बेशक हवा में कार्बन छोड़ते रहिए। बस, जैसे आप स्टील फैक्टरी के लिए लोहा खरीदते हैं, वैसे ही कार्बन क्रेडिट खरीद लीजिए। पूरी धरती का आसमान तो एक ही है, आप कहीं हवा-पानी बिगाड़िए, पर कहीं और की हवा-पानी सुधार दीजिए। दिक्कत क्या है?' (पृ. 151)। के.वी. के अपने तर्क हैं और अपनी विलक्षण कार्य-शैली जहाँ कंपनियों का एन.जी.ओ. के साथ अनिवार्य गठबंधन कर दिया गया है। एन.जी.ओ. यानी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का इको-फ्रेंडली नकाब। के.वी. जिस कारपोरेट फर्म के मार्केटिंग सलाहकार का काम कर रहे हैं, उसको उन्होंने हजार हेक्टेयर जमीन पर पेड़ लगाने की सलाह दी है। इससे जो पैसा आएगा, वह सिर्फ कार्बन क्रेडिट के जरिए ही नहीं आएगा, उससे फर्म की पेपर मिल को लकड़ी की लुगदी मिलती रहेगी जिसे वह फिलहाल इंडोनेशिया से इंपोर्ट कर रही है। 'दुनिया को पीछे की ओर नहीं धकेला जा सकता। अगर पेड़ ही दुनिया को बचा सकते हैं तो यही सही। के.वी. जिन-जिन फर्मों के सलाहकार बनेंगे, सबको भारत की बंजर भूमि हरा बनाने के लिए प्रेरित करेंगे। उन्हें समझाएँगे कि पेड़ लगा कर किस तरह आप करोड़ों रुपए कमा सकते हैं।' (पृ. 150)।
जिस निःसंग ढंग से अलका सरावगी के.वी. के एक्शन प्लान को बता रही हैं, वह वचन-वक्रता का रूप लेकर एक अहम सवाल उठाता है कि सस्टेनेबल विकास और रिन्यूएबल एनर्जी का उपयोग पृथ्वी को बचाने के लिए की जाने वाली मानवीय कोशिशें हैं या नवउपनिवेशवादी ताकतों के साम्राज्य को बनाए रखने की जुगतें? पारिस्थितिकीय संकट के निवारण के लिए जिस नई पारिस्थितिक सभ्यता का स्वप्न देखता है मनुष्य, वहाँ सबसे पहले सह-अस्तित्व और परस्पर सम्मान की भावना अर्जित करना अनिवार्य है। फिर उसके बाद अपने लोभ और लालसाओं पर अंकुश लगाने का मनोबल! आत्मसंयम, आत्मानुशासन और आत्मपरिष्कार - नई पारिस्थितिक सभ्यता जिन तीन मूल्यों को केंद्र में लेकर चलती है, वे कुछ लोगों को यूटोपिया का आभास भले ही दें, लेकिन इन्हें व्यवहार में उतारे बिना वर्तमान संकट से जूझना संभव भी नहीं। अलका सरावगी, अलबत्ता यूटोपिया की तमाम आशंकाओं से मुक्त इन्हें व्यक्ति जीवन में फलीभूत करना संभव मानती हैं। अपने मंतव्यों की पूर्ति हेतु उपन्यास में ही वे ऐसे 'सिरफिरे' दो पात्रों की सृष्टि करती हैं - रंगनाथन और गुरुचरण दास। रंगनाथन कथा में साक्षात उपस्थित नहीं है।
के.वी. की बातों में एक रेफरेंस के तौर पर वह जब-तब आता है। शायद लेखिका के इस विश्वास की पुष्टि के लिए कि गुरुचरण अपनी जमात में अकेला नहीं। अलग-अलग छिटकी लेकिन अपनी-अपनी परिधि में सक्रिय ऐसी अपरिहार्य इकाइयाँ अनेक हैं। रंगनाथन गुरुचरण दास की तरह चुप्पा नहीं है। के.वी. की तरह वह भी खासा बड़बोला है और के.वी. का कट्टर आलोचक भी। बुनियादी तौर पर वह मानववादी है, इसलिए मखमली कालीन के नीचे छिपी विकृत सच्चाइयाँ फौरन देख-सूँघ भी लेता है और उनका भंडाफोड़ भी कर बैठता है। लेकिन अपने तमाम संवेदनात्मक विवेक के बावजूद वह आवेश और आक्रोश में विघटित हो जाने के लिए अभिशप्त है। इसलिए लेखिका बेहद मनोयोग से गुरुचरण दास का चरित्र रचती हैं जिसने आवेश को थिरा कर संयम और विवेक का रूप दे दिया है। रंगनाथन बहुमूल्य पत्थरों के व्यापारियों द्वारा अधिकाधिक मुनाफा कमाने के लिए लोगों को अंधविश्वासी बनाने की जिस मार्केटिंग स्ट्रेटजी को अनैतिक मानता है, उसे ही गुरु मानव मनोविज्ञान की सहज समझ पर आधारित एक सफल व्यापारिक नुस्खा कहता है क्योंकि वह जानता है कि अनहोनी की आशंका और भविष्य का डर आम आदमी को हमेशा कमजोर बनाता है। जाहिर है इस भय को अपनी ताकत बना कर नवग्रह रत्न व्यवसायी ज्योतिषाचार्यों को सेल्जमैन की नई भूमिका में उतारते हैं। गुरु का विश्वास है कि उद्योग जगत की इन रणनीतियों को यदि निष्प्रभ बनाना है तो इसके लिए नैतिकता की दुहाई देना पर्याप्त नहीं, बल्कि आम आदमी के मनोबल और तर्कणा शक्ति को बढ़ाना जरूरी है ताकि वह स्वयं अपना दिशा निर्देशक बन सके। दूसरे, स्वप्नद्रष्टा होने के बावजूद गुरु रोमांटिक इडियट नहीं। वह गरीबी को त्याग, करुणा, संतोष और सौहार्द के संरक्षक मूल्य के रूप में महिमामंडित करने वाली भारतीय मानसिकता का वाहक नहीं, बल्कि इसे शुतुरमुर्गी वृत्ति मानता है। गरीबी दीनता और प्रलोभनों की जननी है, साथ ही अपराध की कर्मस्थली भी। इसलिए आश्चर्य नहीं कि मोबाइल, टी.वी., कोकाकोला, पीत्जा-बर्गर और डुप्लीकेट ब्रांडेड कपड़ों की ललक अभावग्रस्त पिछड़े ग्रामीण/आदिवासी क्षेत्रों में भी देखी जाती है। ये वस्तुएँ आधारभूत जरूरतों की तरह शहरी और समृद्ध लोगों की जिंदगी में शामिल हैं तो स्वयं उनकी जिंदगी में क्यों नहीं? लेकिन नहीं, यह होड़ की मानसिकता नहीं, दूसरों की तरह विशिष्ट या 'समरूप' होने की नैसर्गिक ख्वाहिश है। फर्क यह है कि इस प्रक्रिया में अपनी पहचान और अपने सपनों से बेखबर हो गया है इनसान। 'गाँवों के पास सपना है शहर बनने का। शहरों के पास महानगर बनने का। महानगरों के पास मेगापोलिस बनने का...।' गुरु (और लेखिका की भी) मान्यता है कि उपभोक्ततावाद तृष्णाजन्य अभाव के जिस दुष्चक्र को रचता है, वहाँ अतृप्त हसरतों वाले व्यक्ति से मसीहा बनने की अपेक्षा व्यर्थ है। भोग की व्यर्थता भोग को चरम स्तर पर भोगने के बाद ही जानी जा सकती है। तभी त्याग जबरन ओढ़ी गई शहादत न रह कर इच्छा से चुना गया 'सुख' बन पाता है और बोधिसत्व प्राप्त करने के लिए सही दिशा को चीन्हना संभव हो पाता है। यही कारण है कि गुरु का लक्ष्य बेशक कारपोरेट जगत के षड्यंत्रों से आदिवासियों को बचाना हो, लेकिन अपने सहयोगियों के रूप में राजेश्वरी, भट्ट, रुक्मिणी, निर्मला जैसे समृद्ध और समर्थ लोगों को ही चुनता है। 'गुरु तो पंख लगा कर जैसे उड़ रहा है जीवन के आर पार' (पृ. 97) जैसी भावोच्छ्वासपूर्ण कसीदाकारी की सहायता से अलका सरावगी ने गुरु को महिमामंडित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। गुरु विशिष्ट है क्योंकि इस 'एकांतजीवी अवधूत' में कल्पना की सृजनात्मकता है, सपनों को साकार करने की दृढ़ता है, सबको साथ ले चलने का विश्वास है, प्रेम के मर्म को समझने की सूक्ष्म संवेदना है और है यह विलक्षण जीवन-दृष्टि कि 'तुम किसी स्थिति में कूद सकते हो तो स्थिति के बाहर भी कूद सकते हो। क्या है जिसे बचाना है।' (पृ. 187)।
गुरु के चरित्र की परिकल्पना में लेखिका ने आइसबर्ग के बिंब को भी सामने रखा है - नौ बटा दस भाग सृजन की चिंताओं में डूबा और सतह पर दीखता मात्र एक भाग उन चिंताओं को व्यावहारिक जामा पहनाने के लिए भौतिक संसाधनों की व्यवस्था में जुटा हुआ। वह एक ही समय में एक साथ दो स्तरों पर जीता है। वह के.वी. को उसका अनन्य प्रशंसक होने का विश्वास दिलाता है क्योंकि के.वी. के जरिए वह कारपोरेट जगत के प्रपंचों और दोगली नीतियों को जान सकता है और कम्युनिकेशन एडवाइजर के तौर पर उनकी बातों का उपयोग कर अपनी कंपनी में अपनी उपादेयता सिद्ध करता है। इस सतही जिंदगी में वह मात्र रोबोट है या अनुगूँज। लेकिन उसकी असलियत बार-बार पहाड़ों की ओर लौटती उसकी ऊर्जा में सन्निहित है जो कभी उसे काठमांडू घाटी में बढ़ते तापमान और प्रदूषण के खिलाफ प्रदर्शनकारियों से जुड़ने को प्रेरित करती है तो कभी अपनी भावी कार्यस्थली के रूप में एक ऐसे क्षेत्र को चुनने की व्यग्रता बनती है जहाँ उसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। गुरु के पास मुखौटाधारी कारपोरेट जगत को मुखौटा लगा कर परास्त करने की युक्ति है। कंपनी के हितैषी के रूप में उसका अपना ट्रैक रिकॉर्ड कंपनी और उसे दोनों को आश्वस्त किए हुए है। यह अलग बात है कि हितैषी की भूमिका में वह निरंतर जिन तथ्यों/आँकड़ों/अखबारों की कतरनों को सहेज-सहेज कर रख रहा है, वह कहीं से भी कंपनी का हित साधते नहीं दीखते। बल्कि के.वी. के शब्दों का इस्तेमाल करें तो 'गुरुचरण ऐसे तथ्य और आँकड़े लिख रहा था जैसे कोई कंपनी का दुश्मन, मानवाधिकार वाला या कोई ईमानदार पत्रकार लिखेगा।' (पृ. 171)
आवेश यदि रंगनाथन की पहचान है तो अप्रत्याशित व्यवहार और अतिनाटकीयता गुरु का परिचय, बेशक इसके पीछे लेखिका ने उसके सुस्पष्ट जीवन-दर्शन को बुनियादी कारण बताया है। दरअसल स्वयं लेखिका अतिनाटकीयता के माध्यम से कहानी में अप्रत्याशित मोड़ लाकर पाठक को 'धक्का' देना चाहती हैं, लेकिन खुद उस धक्के को सँभाल नहीं पातीं। गुरु की डायरियों से स्पष्ट है कि पचास साल की आयु के बाद जिंदगी की दूसरी पारी शुरू करने के लिए वह पहले से ही सोचता और योजनाबद्ध तरीके से काम करता आया है। नौकरी करके उसने अपने आर्थिक आधार को मजबूत किया है, पी.एफ. और ग्रेचुएटी के रूप में कंपनी में जमा रकम को लोन के रूप में लगभग पूरा वसूल लिया है; भौतिक दुनिया से आधिकारिक के रूप में 'लापता' होने के लिए 'अपहरण' जैसे कांड का नियोजन कर लिया है।
फूलों की घाटी से अपनी इस नई जिंदगी की शुरुआत करने का संकल्प उसने बेहद भावनात्मक ढंग से अपनी डायरी में कलमबद्ध भी किया है कि 'हम हवा-पानी की चौकीदारी करेंगे। धरती को नष्ट होने से बचाएँगे। हम नफरत को खत्म करेंगे। हम एकमन होकर जी सकते हैं। ऋग्वेद के सहसूक्त की तरह हम सहमना होकर चलेंगे, सहमना होकर बालेंगे और एक समान हृदय वाले जाने जाएँगे। ...मैं इस धरती पर अपना छोटा सा ही सही, लेकिन स्वर्ग बना सकूँगा। हम जहाँ चलेंगे, वहाँ खुशबुएँ रह जाएँगी। हम जहाँ बहेंगे, वहाँ हमारे प्रवाह का स्वर गूँजेगा। हम अपने आसपास के वृक्षों, हवाओं, पानी और सारे लोगों की सारी वेदनाएँ समेट लेंगे। हमारे मन दर्पण की तरह साफ होंगे। मैंने आदिवासियों के जीवन को पास से देखा है। उसमें जो सामूहिकता की, सबके सुख-दुख अपने मानने की सुंदरता है, उसे हम अपने जीवन में उतार लेंगे। मुझे पता है कि ये सब लोग मेरा साथ देंगे।' (पृ0 212) लेकिन 'उन सब' लोगों को विश्वास में लेकर अपने सपने और संकल्प को साझा करने का अवसर नहीं देतीं लेखिका उसे। क्या इसलिए कि 'एटलस श्रग्ड' (आयन रेड) उपन्यास से प्रेरणा लेकर एक समानांतर दुनिया की परिकल्पना करना आसान है, उस दुनिया को पूरे वैभव, सार्थकता और जीवंतता के साथ 'बसाना' मुश्किल? क्या इसलिए कि इस नई समानांतर दुनिया के सृजन के लिए जिस विजन की अनिवार्यता है, वही लेखिका के पास नहीं? कहना न होगा कि इसीलिए गुरुचरण दास की अकाल मृत्यु एक सपने की भ्रूण हत्या के रूप में चौंकाती और क्षुब्ध करती है।
गुरु की डायरी में उसके सहयोगी के रूप में एक जगह भट्ट का नाम दर्ज है। बेशक भट्ट के भीतर का सौंदर्यान्वेषी घुमक्कड़ उसे गुरु के सपनों से जोड़ता है। गुरु का संसर्ग उसे भारहीन होने की प्रतीति देता है और दुनियावी फंदों से मुक्त होने का साहस भी। लेकिन निर्द्वंद्व होकर निर्णय लेने का साहस उसमें नहीं। मन की सीमा जानने के लिए अपने भीतर जितना धँसता है, उतना ही उलझता चलता है क्योंकि वहाँ उसने प्रलोभनों और विवशताओं के कीचड़ में लिथड़े आत्मतुष्ट भट्ट को देखा है। तो क्या विशिष्ट बनने का छद्म ओढ़ कर वह अपने को ही ठगता रहा है? तो क्या गुरु अपने सहयोगियों के इस 'सच' को जानता था? उसकी डायरी में दर्ज अवसाद के पीछे क्या विश्वास भंग की यही पीड़ा नहीं थी जिसने उसकी जिजीविषा को ही कुतर दिया?
यहाँ एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर लेखिका ने रंगनाथन की सदाशयता को आवेश में और भट्ट की स्वप्नाकुलता को भौतिकता में बाँध कर क्यों विघटित किया है? क्या उपभोक्तावाद का दबाव इतना प्रचंड है कि वे चाह कर भी 'एटलस श्रग्ड' की कल्पना नहीं कर सकतीं? तो क्या गुरुचरण की मृत्यु नई पारिस्थितिकीय सभ्यता के विकास की संभावनाओं की मृत्यु है? नई पारिस्थितिकीय सभ्यता यानी विकास का ऐसा मॉडल जो सिर्फ भौतिक समृद्धि पर आधारित न हो, बल्कि मनुष्य और पर्यावरण की चिंता उसके केंद्र में हो। क्या उपन्यास की सार्थकता एक शोकगीत के रूप में इस तथ्य को रेखांकित करने में ही है कि 'जितने सपने यह देश देखेगा, वे सपने देश के तमाम भट्ट लोगों के ही सपने होंगे।' (पृ. 215) साहित्येतिहास की सुदीर्घ परंपरा साक्षी है कि शोकगीत कभी मृत्यु की विजय-पताका नहीं बना। वह अंत तक प्राणपण से संघर्ष का निनाद और जीवन का राग रहा है। उपन्यास की दारुण परिणति को लेकर दुखमिश्रित हैरत इसलिए भी अधिक है कि इससे पूर्व अपने पहले ही उपन्यास 'कलिकथा वाया बाइपास' में लेखिका प्रकृति की चेतावनी न सुनने के कारण उपजे दुष्परिणामों की फैंटेसी कर चुकी हैं। ('अचानक संसार में प्रकृति के पाँचों तत्व - मिट्टी, जल, आग, आकाश और हवा - गड़बड़ा गए। ...दुनिया के सबसे ताकतवर देश में पेड़-पौधे मरने लगे - इस तरह जैसे धरती के अंदर किसी ने जहर घोल दिया हो। हवा में ऑक्सीजन की इतनी कमी हो गई कि लोगों के लिए साँस खींचना दुष्कर होने लगा। सारा, धरती का पानी सूखने लगा और बादलों रहित आकाश इस तरह तपने लगा जैसे रेगिस्तान की रेत। ...दुनिया के सारे देशों में पेट्रोल से चलने वाली हर चीज तुरंत बंद कर दी गई क्योंकि पृथ्वी के चाँद की तरह हवारहित बन जाने के पीछे सबसे बड़ा खतरा पेट्रोल-डीजल-गैस और कोयले से चलने वाली चीजों का था। बिजली का उत्पादन एकदम रोक दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि सारे कल-कारखाने रुक गए। खासकर खाद बनाने वाले और रसायन बनाने वाले कारखानों को तुरंत बंद करने के आदेश विश्व की सरकारों ने जारी किए। ...सारी मोटर गाड़ियाँ बेकार हो गईं। बड़ी-बड़ी इमारतों में लिफ्ट न चल पाने के कारण और पानी न पहुँच पाने के कारण उनमें रहना असंभव हो गया। अब सबसे सुखी सबसे गरीब आदमी बन गया जिसे धरती पर ही रहने और पैदल चलने की आदत थी। सबसे जरूरी काम खाने के लिए अनाज-फल-सब्जियाँ उगाना हो गया और इस काम को जानने वालों की तनख्वाह सबसे अधिक हो गई। पृथ्वी को बचाने का अब एक ही तरीका था कि आदमी का श्रम सारी मशीनों की जगह ले और यह श्रम अधिक से अधिक हरियाली के उत्पादन में लगे - ऐसी हरियाली जिसमें किसी तरह के रसायन का प्रयोग न हो। अब पेड़-पौधों से उत्पन्न होने वाली आक्सीजन ही इस पृथ्वी को बचा सकती थी। यह सूचना दुनिया में फैलाने के लिए न कंप्यूटर, टी.वी. और अखबार की जरूरत थी, न हवाई जहाज, जलयानों और रेलों की। यह बात ऐसी थी जिसे बच्चा-बच्चा तक अपने अंदर समझ गया था। लोगों ने यह भी समझ लिया था कि जिन सुविधाओं का भोग करने की उन्हें आदत पड़ गई थी, वे ही उनके कष्ट का कारण हैं। जिस-जिस ने जितनी सुविधा भोगी थी, उसे उतना ही कष्ट हुआ। बाकी लोग जैसे रहते आए थे, उसी तरह रहते रहे। ऐसे लोग जो अपने गाँवों के अमूल्य हवा-पानी-आकाश को छोड़ कर शहरों में नरक जैसा जीवन बिताने आए थे, मुक्त हो गए।' अलका सरावगी, कलिकथा वाया बाइपास, पृ. 214.215 )
'एक ब्रेक के बाद' उपन्यास का अंत आत्मतुष्ट जड़ता और दृष्टिहीनता के जिस बिंदु पर होता है, वह 'रह गई दिशाएँ इसी पार' का विलोम रचता है। 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' उपन्यास की सबसे बड़ी शक्ति यही है कि इसके रोम-रोम में बसा आशावाद त्रासदी के मर्मांतक आघात को छिन्न-भिन्न करता चलता है। इसलिए गुरु की तरह स्वप्नद्रष्टा और भावुक न होते हुए भी जिम मृतप्राय संबंधों, मूल्यों, संस्कृति और मानवीय अस्तित्व को बचाने के लिए कमर कस लेता है। 'आस्थाहीन होकर हम कैसे रह सकते हैं? रिश्ते न भी हों तो भी हमें ईजाद कर लेने होंगे ...ईश्वर न भी हो तो ईश्वर भी।' (संजीव, रह गईं दिशाएँ इसी पार, पृ. 309) यह एक छोटी लकीर के मुकाबले गाढ़ी और बड़ी लकीर उकेरने की कोशिश है - अर्थगर्भित! दिशागर्भित! क्या यही मन की सीमाएँ जान कर असीम हो जाने का रहस्य नहीं?
3.
' यह कैसी ऊर्जा है जिससे मानवता को, सृष्टि को इतना खतरा है' (महुआ माजी, ' मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ'पृ. 219 ) बनाम ' दर्द को समझने से पहले इनसान को स्वयं दर्द तक पहुँचना चाहिए' (एदिता मोरिस, हिरोशिमा के फूल, पृ. 88 )
नवउदारवादी अर्थव्यवस्था और उपभोक्तावाद के गठबंधन ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अनायास ही यह अधिकार दे दिया है कि विकास के नाम पर मदद हेतु वे तीसरी दुनिया के तंबू में ऊँट की भाँति पाँव पसारें और फिर मूल निवासियों को ही वहाँ से खदेड़ दें। झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में खनन कंपनियों की लूट को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। यह लूट प्राकृतिक संपदा के अंधाधुंध दोहन के साथ ही समाप्त नहीं होती, अपने साथ अनेक विकृतियाँ, अव्यवस्था और समस्याएँ भी लाती हैं। जैसे भूमि अधिग्रहण, विस्थापन, पर्यावरण प्रदूषण, खनन के बाद खुले गड्डों में बरसाती पानी भरने से रोगाणुओं का संक्रमण, स्थानीय लड़कियों का शोषण, कुपोषण के कारण बढ़ती मृत्यु दर...। अलका सरावगी ने मध्यप्रदेश के आदिवासियों के बीच गुरु के प्रभाव के माध्यम से संकेतों में, और रणेंद्र ने 'ग्लोबल गाँव के देवता' उपन्यास में विस्तार से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के रूप में उभरे नवऔपनिवेशिक साम्राज्य की सर्वभक्षी 'भूख' को चित्रित किया है। विडंबना यह है कि देश की राजनीतिक प्रभुसत्ता अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं/बैंकों से ऋण लेने के कारण हर अनहोनी को नजरअंदाज करने के लिए बाध्य है। इसलिए विकिरण के खतरों की अनदेखी करते हुए धड़ल्ले से यूरेनियम खनन हो रहा है और न्यूक्लियर प्लांट लगाए जा रहे हैं। कारण वही एक - उपभोक्तावाद के साम्राज्य को बनाए रखने के लिए सस्ती बिजली उपलब्ध कराने की बाध्यता जबकि सूचना क्रांति के कारण यह तथ्य अब किसी से छिपा नहीं है कि 'परमाणु संयत्रों में एक हजार मेगावाट बिजली पैदा करने पर करीब सत्ताइस किलोग्राम रेडियोधर्मी कचरा उत्पन्न होता है जिसे निष्क्रिय होने में एक लाख साल से भी ज्यादा का वक्त लग सकता है।' हिंदी साहित्य में यूरेनियम विकिरण की समस्या को केंद्र में रख कर रचा गया महुआ माजी का उपन्यास 'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ' वाकई एक धमाकेदार सूचना के रूप में उपस्थित हुआ है। खासतौर पर इसलिए भी कि अब तक की प्रचलित लीक से हट कर उपन्यास के टाइटल कवर पर हिंदी की वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती की अनुशंसा दी गई है - 'हर सचेत नागरिक के लिए मानवीय चिंताओं की शैल्फ पर एक जरूरी टाइटल।' कहना गैरजरूरी है कि गद्गद् सराहनापूर्ण यह टिप्पणी पाठ से पूर्व उपन्यास के प्रति एक विशिष्ट आग्रही दृष्टि को तैयार करती है। यह उपन्यास महुआ माजी के चार वर्ष के शोध कार्य का परिणाम है। निःसंदेह एक खोजी पत्रकार और गंभीर शोधार्थी की तरह झारखंड के बीहड़ जंगलों और जापना-अमरीका के परमाणु संयत्रों का जायजा लेकर उन्होंने विषय से जुड़ी हर छोटी-बड़ी, जरूरी-गैरजरूरी जानकारी को सँजोया है। कितना अद्भुत! कितना खौफनाक! दिन ब दिन बढ़ती जानकारियों के साथ वे स्वयं चकित होती जा रही हैं और स्तब्ध भी। तब जान पाती हैं कि राजनेताओं की तरह आधुनिक जीवन शैली में रचा-बसा एक औसत सुशिक्षित शहरी व्यक्ति भी नहीं जानता कि बिजली बनाने के लिए धरती के गर्भ से बाहर निकले यूरेनियम को नष्ट होने की क्रमिक प्रक्रिया में घट कर आधा होने में ही साढ़े चार खरब वर्ष लग जाते हैं। अरे! वे अवाक हैं। पृथ्वी की आयु जितनी अवधि! भय मोहिनी मंत्र बन कर उन्हें अपने पिटारे में सँजो कर रखी सारी सूचनाएँ पाठक से शेयर करने के लिए उकसाता है। उनके पास कुछ पात्रों के कटआउट है ...कथा के कुछेक बीज ...रोपने के लिए मरंग गोड़ा की जमीन ...और बाँटने के लिए ढेरों ढेर सूचनाएँ। वे एक वैज्ञानिक की तरह अपने 'ले मैन' पाठक को यूरेनियम की प्रकृति से पूरी तरह अवगत करा देना चाहती हैं - 'नष्ट होने या घटते जाने के क्रम में भी यूरेनियम कुछ अन्य रेडियोधर्मी तत्व जैसे प्रोटाक्टिनियम, थोरियम, रेडियम, रैडॉन, पोलोनियम, बिस्मुथ, लेड आदि बनाता जाता है जिनके संपर्क में आकर भी हम क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। ...यूरेनियम के अणुओं में हमेशा विस्फोट होता रहता है जिससे उसके अणु के कुछ टुकड़े उससे टूट-टूट कर गिरते रहते हैं और उसमें से ऊर्जा निकलती रहती है। इसी टूटने की प्रक्रिया को रेडियोएक्टिविटी कहते हैं।' (159) लेकिन क्या इतनी ही सूचनाएँ यथेष्ट हैं? नहीं, उन्हें टैलिंग डैम की संरचना और दुष्प्रभावों के बारे में बताना है; रेडिएशन से होने वाली बीमारियों की ही सूचना नहीं देनी है, वरन तिथियों में बंधे इन ग्लोबल तथ्यों को भी पाठक तक संप्रेषित करना है कि '1546 से जर्मनी के स्नीबर्ग में खनन मजदूरों की मौत फेफड़े की रहस्यमयी बीमारी से हो रही थी। 1879 में जाकर पता चला कि उनमें से अधिकतर मौतें फेफड़े के कैंसर के कारण हुईं। और 1897 में वैज्ञानिकों ने यह पता लगा लिया कि यूरेनियम खनिज रेडियोधर्मी होता है।' (पृ.185-86) महुआ माजी सगेन के नेतृत्व में खड़े किए गए मोआर (मरंग गोडाज ऑर्गेनाइजेशन अगेंस्ट रेडिएशन) का जिक्र करती हैं, लेकिन मुख्यतः इसलिए कि इससे जुड़े फिल्मकार-पत्रकार आदित्यश्री की मरंग गोड़ा रेडिएशन पर केंद्रित फिल्म को जापान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण फिल्म फेस्टिवल में शामिल किया जा सके और इस प्रक्रिया में पूरे विश्व भर में तेजी से फैल रही न्यूक्लियर विरोधी आवाजों को रिकार्ड किया जा सके। जाहिर है इस श्रृंखला में उनके लिए यूरोप के ग्रीन मूवमेंट से जुड़े बुद्धिजीवियों की विश्वविख्यात संस्था 'ग्रीनपीस' की उपलब्धियों को गिनाना, 1986 में रूस के यूक्रेन में घटित चेरनोबिल परमाणु संयंत्र दुघर्टना और 2011 में जापान में फुकुशिमा परमाणु संयंत्र दुर्घटना का वर्णन करना सरल हो जाता है। तब किसी भी औसत जिज्ञासु की तरह इन दुर्घटनाओं के आलोक में उन्हें यह सवाल उठाना बेहद जरूरी लगता है कि 'जब परमाणु संयंत्र इतने खतरनाक हैं, तब किसी दुर्घटना की बाट न जोह कर इन्हें बंद क्यों नहीं कर दिया जाता?' जाहिर है इस सवाल के जवाब में खीसें निपोरती विवशता के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता क्योंकि अपने पूर्वजों की तरह उन्नीसवीं या बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध की शारीरिक श्रम से भरपूर जीवन शैली अपनाने का विकल्प किसी को भी प्रिय नहीं। सिर्फ सूचनाएँ ही नहीं, कंट्रास्ट पद्धति का प्रयोग भी करती हैं महुआ माजी। वे जान चुकी हैं कि 'किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए एक साल में अधिकतम एक मिली सिवर्ट तक ही विकिरण की मात्रा को सुरक्षित सीमा में माना जा सकता है (पृ. 228), लेकिन पाती हैं कि अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा मानकों को धता बता कर गाँव के बिल्कुल पास - 50 फुट से भी कम दूरी पर - टैलिंग डैम बना लिए जाते हैं और इस कचरे में से बीन कर रेडियोएक्टिव पत्थरों को घर की दीवारों पर भी लगा लेते हैं साधनहीन गरीब ग्रामवासी।
मैं पाती हूँ कि इन सूचनाओं ने हिमशिला की तरह मुझे भीतर तक जमा दिया है। एदिता मोरिस के दो लघु उपन्यासों 'हिरोशिमा के फूल' और 'वियतनाम को प्यार' तथा मृदुला गर्ग की छोटी सी कहानी 'विनाशदूत' ने भय, आक्रोश, करुणा, निरुपायता के फेनिल ज्वार को घुला मिला कर संघर्ष और सक्रियता की जिन लहरों को तरंगायित किया था, वे अब सिरे से नदारद हैं। मैं रेडिएशन से विकृत मरंग गोड़ा के स्थानीय लोगों की परिकल्पना करती हूँ, लेकिन जेहन में 'वियतनाम को प्यार' का निशीना शिंजो अपनी जानलेवा व्यथा और पैशन के साथ कौंध जाता है। आठ वर्ष की अवस्था में नागासाकी के इस बाशिंदे ने जिस हौलनाक अनुभव को तन और चेतना पर झेला है, वहाँ जिंदा रहते हुए भी जिंदगी से बाहर कर दिए जाने का तल्ख अहसास ही उसकी कुल पूँजी है। 'मैं अपने चेहरे तक को हमेशा इतना बाईं ओर मोड़ कर चलता हूँ कि मेरी गर्दन की एक नस ही अकड़ गई है जो अब ठीक नहीं हो सकती।' (पृ. 120)। मैंने लेखिका महुआ माजी के मुँह से सुना है कि बुधनी का दायाँ हाथ-पैर निरंतर लंबा होता जा रहा है जबकि बाएँ हाथ-पैर का विकास न के बराबर है। मैंने उन्हें इस बात पर खेद व्यक्त करते भी देखा है कि उंकुरा का आठवर्षीय सूखापीड़ित बेटा चेहरे पर बैठी मक्खी तक को उड़ाने में असमर्थ है। लेकिन मैं इन्हें साँस लेते, रोते-खिलखिलाते, अभावों की पोटली में से सपनों की कलियाँ चुनते नहीं देख पाती। मुझे लेखिका की इस बात पर पूरा यकीन है कि मरंग गोड़ा की रोगग्रस्त लड़कियाँ ही नहीं, बल्कि स्वस्थ लड़कियाँ भी तीन अलग-अलग तरह की त्रासदियाँ झेलती हैं। या तो वे बाँझ बनी रहने के लिए अभिशप्त हैं या विकृत/विकलांग बच्चों को जन्म देने को, या फिर ब्याही ही नहीं जातीं क्योंकि स्वस्थ संतति की कामना हर व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। लेकिन 'खबर' का चोला परे फेंक कर कोई भी लड़की अपने पूरे चरित्र और व्यक्तित्व के साथ मेरे सामने जीवंत नहीं होती। मैं जब भी ऐसी किसी लड़की की खोज करने को निकलती हूँ, 'हिरोशिमा के फूल' की ओहात्सू अपने मासूम सौंदर्य, प्यार से पगे सपनों और जटिल मनोविज्ञान के साथ सामने आकर मुझे चौंका देती है। 6 अगस्त 1945! हिरोशिमा पर परमाणु बम वर्षण की तारीख! एक ओहात्सू वह है जिसके अवचेतन में दर्ज है यह बर्बर तारीख और साथ ही तीन साल की बच्ची की आँख से देखी गईं स्मृतियाँ कि जिंदा मशाल में तब्दील हाकेर माँ जान बचाने की खातिर हिरोशिमा नदी में कूद कर जान गँवा बैठी। चेतन स्तर पर हर रोज नदी के उसी छोर पर सफेद पैंजी का गुलदस्ता अर्पित कर माँ को श्रद्धांजलि देते हुए वह मानो अपने जख्मों को हरा रख रही है। यह ओहात्सू गंभीर, भीत, भावुक और आत्मकेंद्रित है। एक ओहात्सू वह है जो जीवन के उल्लास से भरपूर सपनों का इंद्रधनुष आँखों में बसाए है। हर पल आखिरी पल है, इसीलिए उत्सव और सार्थकता का अनिवार्य पल भी। हिरु उसके सपनों का केंद्र है और बड़ी बहन युका-सान के दो प्यारे-प्यारे बच्चों जैसे अपने बच्चे उन सपनों की मंजिल। लेकिन लेखिका के तौर पर एदिता मोरिस काष्ठकार नहीं कि कठपुतलियाँ तराश कर संतुष्ट हो जाएँ। प्राण-प्रतिष्ठा किए बिना मनुष्य की रचना संभव नहीं। इसलिए इस 'सफेद परी' ओहात्सू के भीतर उठते कितने ही झंझावातों को वे अनमोल निधि की तरह सहेज कर रखती हैं तो कभी धीमे से उन्हें खोल देती हैं। इसलिए हिस्टीरिया के स्तर पर जीती यह लड़की जब चट्टान सी अडोल बन कर प्रेमी की जिंदगी से चुपचाप निकल जाती है, तब दुख जरूर होता है, आश्चर्य नहीं। उसने प्रयोगशाला में देखा है कि रेडिएशन की शिकार मछली के दो सिर चार आँखें हैं। वह जानती है कि 'विकृतियाँ कई बार एक नस्ल छोड़ जाती हैं। जो आदमी रेडिएट हुआ हो, वह नहीं कह सकता कि उसके नाती-पाते इस मछली की तरह भयानक नहीं लगेंगे।' (पृ. 90)।
वह अपने प्यार की गहराई को समझती है तो साथ ही हिरु के माता-पिता की आँखों में उभरे डर के भीतर तैरती मछली को भी देख सकती है। लापता होना उसका 'पलायन' नहीं, भावी पीढ़ी को विकृतिजन्य शारीरिक-मानसिक परिताप से बचाने का संकल्प है। मनुष्यता के पाप का प्रायश्चित। महुआ माजी के पास ऐसा एक भी पात्र नहीं जिसके सहारे चार सौ पृष्ठों में फैली इस समाजवैज्ञानिक शोध को उपन्यास का दर्जा दिया जा सके। जाहिर है साहित्यकार समाजवैज्ञानिक की तरह तथ्यों को एकत्रित करके और उनका बौद्धिक विश्लेषण कर किन्हीं निष्कर्षों तक पहुँचने की प्रक्रिया को अपना गंतव्य नहीं मान सकता। दरअसल बोध के स्तर पर यह सारी प्रक्रिया उसके भीतर चलती रहती है जो उसकी संवेदना, दृष्टि, कल्पना और सर्जनात्मकता को भावनात्मक ऊँचाई देकर कलम के जरिए भीतर के लोक को बाहर उतारने की व्याकुलता देती है। कलम से उसे न तर्क देने हैं, न आप्त वचन। चित्रकार की तरह कलम को कूची की तरह प्रयुक्त करते हुए जीवन का चित्रा चित्रित करना है - किसी एक खास पल, खास जन, खास स्मृति/घटना, खास भूभाग से जुड़ा गतिशील जीवन-चित्र - जिसके भीतर मानस में पलने वाली जटिल मानवीय प्रकृति भी है और बाहरी प्रभावों से मुठभेड़ करती विवेकशीलता भी। पाठक को लेखकीय हस्तक्षेप जरा भी पसंद नहीं। न उसकी ओर से की जाने वाली बयानबाजी, न तथ्यों-जानकारियों की पोटली। वह सिर्फ और सिर्फ पात्र को तलाशता है जो अपने निजी वैशिष्ट्य और गंध के साथ उसे भी अपना सहयात्री होने का अहसास दिला कर एकात्म बना सके। इसलिए साहित्य में सामाजिक समस्याएँ अपनी प्रत्यक्षता/लाउडनैस खोकर विडंबना की कचोट भरी अनुभूति के रूप में उपस्थित होती हैं। साहित्यकार समाजवैज्ञानिक की तरह पाठक से उन समस्याओं पर चिंतन-मनन की अपील नहीं करता, शूल की तरह यह आवश्यकता उसके कलेजे में पिरो कर उसकी भावनाओं का उदात्तीकरण करता है। चूँकि साहित्य सेल्फ एक्सप्लोरेशन की बीहड़ यात्रा है, इसलिए एक कौम, एक प्रजाति, एक मुद्दे पर बात करते हुए भी यह मूलतः एक व्यक्ति-चरित्र की कथा होने का आभास देता है। कहना न होगा कि इस समूची प्रक्रिया में लेखक द्वारा बटोरी गई तमाम सूचनाओं की ठोस प्रस्तुति बेमानी हो जाती है। अलबत्ता अनुभूति बन कर वे व्यक्ति-चरित्र सपनों, दर्द के रिश्तों और संघर्ष की जमीन को रचते हैं। हिंदी में इन दिनों शोध आधारित लेखन का जादू रचनाकारों के सिर चढ़ कर बोल रहा है, लेकिन तथ्य को कला और कला को उदात्त जीवन बनाने की सर्जनात्मकता उनमें प्रायः नहीं है। संजीव यदि एक बेहतर अपवाद के रूप में याद किए जा सकते हैं तो सर्जनात्मकता के अभाव में अपनी रचनाओं को डाक्यूमेंट्री फिल्म में विघटित कर देने की दुर्बलता मधु कांकरिया के उपन्यास 'सेज पर संस्कृत' और शरद सिंह के उपन्यास 'पिछले पन्ने की औरतें' में खास तौर पर देखी जा सकती है।
'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ' उपन्यास लेखिका की प्रीमेच्योर डिलीवरी का नमूना है। 'विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा' कहने के लिए वे सगेन और आदित्यश्री जैसे प्रवक्ताओं की कल्पना जरूर करती हैं (झारखंड क्षेत्र के लेखक रणेंद्र, जिन्होंने इसी क्षेत्र की राक्षस जनजाति को केंद्र में रख कर 'ग्लोबल गाँव के देवता' उपन्यास भी लिखा है, ' मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ' उपन्यास की समीक्षा करते हुए सगेन और आदित्यश्री को आइडेंटिफाई करते हैं। उनके अनुसार 'जोआर' ( झारखंडी ऑर्गेनाइजेशन अगेंस्ट रेडिएशन) से जुड़े घनश्याम बिरुली सगेन हैं और फिल्मकार श्रीप्रकाश आदित्यश्री हैं। स्वयं महुआ माजी ने स्वीकार किया है कि इन दोनों वास्तविक पात्रों के अतिरिक्त मेधा पाटेकर सुमेधा पाणिकर नाम से उपन्यास में आई हैं और जेवियर डॉयस जॉन डॉयस के नाम से। देखें ' नया ज्ञानोदय' जून एवं जुलाई 2012 अंक), लेकिन उनके व्यक्तित्व को एक विशिष्ट रचाव नहीं दे पातीं। विकिरण प्रभावित क्षेत्र की फिल्म बना कर व्यवस्था, समाज और स्वयं पीड़ितों को जागरूक करने का महत उद्देश्य इन दोनों जुझारुओं का सपना है, लेकिन मिशन को पैशन बना देने वाली इन्टेंसिटी की बजाय एक खास तरह की निःसंगता उन्हें अंत तक 'बाहरी तत्व' बनाए रखती है। ध्यातव्य है कि आदित्यश्री और सगेन की तरह इस्सा और निशीना शिंजो ('वियतनाम को प्यार') भी फिल्में बना कर मानव-निर्मित त्रासदी (एटम बम और नापाम बम से होने वाले भीषण नर-संहार) के पीछे सक्रिय साम्राज्यवादी ताकतों के निहितार्थों को पूरे विश्व तक संप्रेषित कर देना चाहते हैं। यह अपने दर्द को बाँट कर मुक्त होने की युक्ति भी है और दर्द का रिश्ता कायम कर विश्व-बंधुत्व का प्रसार करने की कोशिश भी। इस मिशन को पालने के बाद 'बम की संतान' शिंजो एक बार फिर 'जिंदा' होने के अहसास से भर कर आठवर्षीय बच्चे की तरह एक टाँग पर कुदक्के मार कर चलने लगता है; नापाम बम की शिकार वियतनाम की लड़की मिस दान थान्ह की यातना में उसे अपना अतीत, वर्तमान, भविष्य सब दिखाई पड़ रहा है। नहीं, एक और शिंजो को जिंदा लाश बना कर जिंदगी का मखौल नहीं बनाने देगा वह। मिस दान थान्ह व्यक्ति रूप में एक इकाई है जिसकी यातना के साथ गहरा रिश्ता जोड़ कर उसने अपने भीतर के भावनात्मक शून्य को भर लिया है। दान हर पीड़ित का प्रतिरूप है जिसे बर्बर अमानुषिक इरादों से बचाने के लिए उसे सिर पर कफन बाँध कर निकल पड़ना है। मिस दान थान्ह ने भावनात्मक सुरक्षा देकर उसे मोहग्रस्त किया है, लेकिन प्रतीक दान ने मोह के बंधनों को काट कर अकेले निःसंग भाव से अपने कर्म पथ पर बढ़ते रहने का हौसला भी दिया है। राग और विराग की अंतर्लीन लहरियों में निरंतर अपने को खोजता और माँजता है शिंजो - स्वप्न और संकल्प को संवेदनात्मक अंतर्दृष्टि के सहारे एकमेक कर लेने वाला पैशन! शिंजो की तुलना में सगेन और आदित्यश्री इकहरे पात्र हैं। चूँकि उनका लक्ष्य मुग्ध भाव से लेखिका द्वारा एकत्रित सूचनाओं को यथास्थान प्रत्यारोपित करना है, इसलिए उनके सारे प्रयास पाठक के तईं 'यूरेनियम पर्यटन' से ज्यादा कुछ नहीं रहते। इसे घनश्याम बिरूली, जेवियर डायस और श्रीप्रकाश जैसे यथार्थ जीवन के सक्रिय कार्यकर्ताओं की संघर्षशीलता का अवमूल्यन और विघटन भी कहा जा सकता है। फिर उपन्यास किस मुँह से लार्जर दैन लाइफ का दावा कर सकता है?
इस कड़ी में लंदन से रिसर्च करने आई प्रज्ञा को भी लिया जा सकता है। आदित्यश्री और सगेन आदि के साथ हजारों हैक्टेयर में फैले जंगल के एक खास हिस्से का पर्यटन करते हुए सगेन की जुबानी 'हो' आदिवासी जनजाति की सांस्कृतिक विशिष्टताओं से परिचित होने, आदित्यश्री द्वारा बनाई गईं विकिरण-पीड़ितों की फिल्में देखने, और सगेन के मोआर की गतिविधियों को जानने के बाद वह स्वयं अपनी आँख से विकिरण पीड़ितों को देखना चाहती है। यह बिंदु सैम-सान ('हिरोशिमा के फूल') और शिंजो ('वियतनाम को प्यार') की तरह आत्मविस्तार का बिंदु बन कर प्रज्ञा के चरित्र को औदात्य देने की संभावनाओं से भरपूर था, लेकिन लेखकीय कन्सर्न का अभाव उसे प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता/मनुष्य का रूप न देकर आत्मरतिग्रस्त स्नॉब के रूप में विघटित कर देता है। प्रमाणस्वरूप उसकी दो प्रतिक्रियाएँ द्रष्टव्य हैं। एक, यूरेनियम विकिरण प्रभावी क्षेत्र का दौरा (पर्यटन) करते समय सगेन अपने साथियों को बताता है कि उनके पैरों से लिपट कर जो सफेद धूल उनके संग-संग चल रही है, वह दरअसल यूरेनियम कचरा है जो आदिवासियों की जिंदगी और साँस में घुल मिल कर उन्हें निरंतर रेडिएट करता रहता है। पाँच सदस्यों के उस दल में पहली और आखिरी प्रतिक्रिया प्रज्ञा की है - 'अब क्या होगा? मेरे पास तो एकस्ट्रा जूते भी नहीं हैं।' (पृ. 375) बेशक यह प्रज्ञा की तात्कालिक प्रतिक्रिया है, लेकिन इसके भीतर पलता भय और रेडिएशन से आत्मरक्षा का भाव उसे अंततः 'बाहरी' व्यक्ति ही बनाए रखता है। इसलिए शोध के दौरान वह मरंग गोड़ा न रह कर जमशेदपुर रहने और 'पर्सनल कांटैक्ट' की बजाय गौण स्रोतों से जानकारी जुटाने के विकल्प को अपने शोध और स्वास्थ्य दोनों के लिए बेहतर मानती है।
दूसरी प्रतिक्रिया मरंग गोड़ा के स्थानीय लोगों से मिलने के बाद की है - 'मामले को जितना गंभीर समझ कर मैं यहाँ आई थी, शायद उतना नहीं है। स्वस्थ लोग भी तो हैं यहाँ।' (पृ. 354) जाहिर है तब प्रज्ञा के व्यक्तित्व का जो खाका उभरता है, वह दूसरों की पीड़ा का इस्तेमाल करके अपनी रोटियाँ सेंकने वाले वर्ग की आत्मरतिग्रस्तता का प्रतिनिधित्व करता है। पाठक ऐसे संवेदनहीन पात्र से कैसे तादात्म्य स्थापित करे? वह तो बल्कि उसकी भविष्य की योजनाओं को उससे पहले ही पढ़ लेता है कि इस शोध कार्य के बलबूते विदेश में अच्छी नौकरी का जुगाड़ कर वह पहला मौका मिलते ही यहाँ से भाग खड़ी होगी। इसलिए जब वह आदित्यश्री के सामने चुग्गा फेंकती है तो पाठक को जरा भी आश्चर्य नहीं होता - 'लंदन में जाकर साथ रहेंगे हम। तुम चाहो तो शादी भी कर लेंगे। ...इस शोध के आधार पर मुझे तो नौकरी मिल ही जाएगी। सोचो श्री सोचो। क्या शानदार जिंदगी होगी हमारी।' (पृ 393)।
प्रज्ञा का विलोम रचता है 'हिरोशिमा के फूल' का सैम सान। पारिवारिक व्यवसाय के सिलसिले में सप्ताह भर के लिए हिरोशिमा आया यह युवक ओहात्सू के सौंदर्य में बंध कर उनके घर पेइंग गेस्ट की हैसियत से रुका है, लेकिन ढाँपने की तमाम कोशिशों के बाद भी कोनों-अँतरों से उघड़ पड़ती विकिरण पीड़ितों की त्रासदी ने उसे बार-बार 1945 में लौटने को बाध्य किया है। 'चौदह साल हो गए हैं उसे (एटम बम को) गिरे, लेकिन उसका काम अभी तक चल रहा है। इस बीच हम खामोश बैठे दूसरे बम के गिरने का इंतजार कर रहे हैं। हम जानते हैं कि वह बम हिरोशिमा को तबाह करने वाले बम से हजार गुना ज्यादा शक्तिशाली होगा, लेकिन क्या हमें इसकी परवाह है?' (पृ. 103)। साम्राज्यवाद का इतना क्रूर चेहरा! सैम सान व्यवसायी है, अतः न नीरो का दृष्टांत जानता है, न कालिगुला का मिथक, लेकिन एक अमरीकन की हैसियत से स्वयं को हंता समझते हुए वह भरी-पूरी जिंदगी उजाड़ने के अभिशाप से स्वयं को ग्रस्त पाता है। 'एक तरह से मैं यहाँ हिरोशिमा में आकर बड़ा हुआ हूँ। एक तरह से नहीं, बल्कि कई तरह से।' (पृ. 86) जिस अमरीका को ताकत, समृद्धि और गरिमा का पर्याय मान कर वह आज तक इतराता रहा है, उस विश्वास की बुनियाद क्या इतनी खोखली है? हिरोशिमा यदि अमरीका की विकृत सोच और खूँखार प्रकृति का परिणाम है तो वही उसके पापों का प्रायश्चित भी हो सकता है। 'तुम्हारे जरिए मैंने हिरोशिमा का अर्थ जाना है। यह वह चीज है जिसे ज्यादा लोग नहीं जानते। मैं कुछ एक लोगों को बताऊँगा। यही कुछ मैं इस समय कर सकता हूँ कि लोगों को बताऊँ।' वह अपने मेजबान दंपति को कहता है जो उसकी हर अनुकंपा और आर्थिक सहायता को विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करते हुए उसे 'घर' बनाने में मशगूल गिलहर को दाना डालने का निवेदन करता है, बस। सैम सान जान गया है कि यह दंपति सैम को इसलिए अपनी पीड़ा की परिधि से बाहर नहीं करना चाहते कि वह अमरीकी है(उल्लेखनीय है कि पूरे उपन्यास में मेजबान युका-सान अमरीकी युवक सैम को साम-सान कह कर ही बुलाती है। यह जापानी शिष्टाचार का नमूना ही नहीं है , बाहरी व्यक्ति को आत्मीय बनाने की सांस्कृतिक विशिष्टता का एक उदाहरण भी है।), बल्कि इसलिए कि घावों को दिखा कर दूसरों की दया नहीं पाना चाहते वे। उनमें इतना गहरा आत्मसम्मान है और प्यार बाँटने का इतना औदार्य कि मृत्यु के मुँह में फँस कर शारीरिक रूप से विकृत हुआ फ्यूमियो सौंदर्य और औदात्य का विराट रूपक रचता है। क्या 'हम कठपुतलियों की दुनिया में रहते हैं?' आत्मग्लानि से रुद्ध है सैम। मेजबान दंपति के जीवन-सौंदर्य में सन्निहित सत् और शिव ने अतिक्रमण के जरिए उसका भी उदात्तीकरण कर दिया है - 'मैं जीना चाहता हूँ। मैं युवा हूँ। मुझे कोई बटन दबाने वाला अफसर बुहार नहीं सकता।' यह उसका प्रतिरोधात्मक संकल्प है और आत्मविस्तार की सर्जनात्मक भावभूमि भी। जाहिर है प्रज्ञा और सैम-सान, महुआ माजी और एदिता मोरिस एक-दूसरे का विलोम रचते हैं। वस्तुतः यही नीलकंठ की भूमिका भी है - विष के संहारक प्रभावों को स्वयं झेल कर शिवत्व का निरंतर प्रसार। महुआ माजी उपन्यास (क्या इसे डाक्यूमेंट्री फिल्म या फीचर रिपोर्ताज कहना बेहतर नहीं होगा?) के शीर्षक में 'नीलकंठ' शब्द शामिल कर भ्रमित बेशक कर दें, लेकिन यह जरूर स्वीकारना होगा कि मरंग गोड़ा को नीलकंठ बनाने का प्रयास उनकी ओर से कभी हुआ ही नहीं।
4.
' लो सोनचिड़ी / वायदा हुआ पूरा / रहेगी जमीन रहेगा पानी / आसमान / आँगन' (अलका सरावगी , एक ब्रेक के बाद, पृ. 172 ) बनाम ' औरत हूँ मैं... मैं पालना-पोसना, सहेजना-सँवरना चाहती हूँ। मैं सर्जक होना चाहती हूँ' (मृदुला गर्ग, कठगुलाब, पृ0 104 )
पारिस्थितिकीय विमर्श यदि प्रकृति और पर्यावरण के साथ मनुष्य के संतुलित समन्वयात्मक संबंध का नाम है तो इसकी परिधि में जैविक विविधता को बचाने की जद्दोजहद के साथ प्रकृतिरूपा स्त्री की गरिमा को बचाने की संवेदनात्मक पहल भी शामिल है। स्त्री अमूमन हर देश-काल में तिरस्कृत रही है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था का उदार मुखौटा न्याय की भरसक कोशिशों के बावजूद स्त्री की अस्मिता को पुरुष निरपेक्ष स्वायत्त मानवीय इकाई के रूप में नहीं देख पाता। प्रकृति की भाँति स्त्री में सहने और सृजन करने की अकूत ताकत है, लेकिन प्रकृति की तरह उसका अत्यधिक दोहन मनुष्य के लिए घातक हो सकता है। मृदुला गर्ग हिंदी की पहली रचनाकार हैं जो पूँजीवादी सभ्यता और पितृसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर प्रकृति और स्त्री के साथ पुरुष और समाज के अंतर्संबंधों को नए सिरे से जाँचने की आवश्यकता पर बल देती हैं। बेहद सचेष्ट भाव से रचा गया उनका उपन्यास 'कठगुलाब' इको फैमिनिज्म को अपनी दृष्टि से व्याख्यायित करता है। इस प्रक्रिया में मृदुला गर्ग ने कुछेक कथा युक्तियों का सहारा लिया है, जैसे पात्रों का स्याह और सफेद दो कोटियों में विभाजन; प्रत्येक देश-काल, आयु-वर्ग की स्त्री की अलग-अलग व्यथा-कथा कहते हुए भी यह ध्यान रखना कि अंतिम टेक में वह पुरुष-प्रताड़ना की एक-सी ध्वनि बन जाए; अपनी प्रवक्ता तिरस्कृत स्त्रियों - स्मिता, असीमा, मारियान, नर्मदा - को बाँझ दिखाना; तथा पुरुष को अनिवार्य रूप से खलनायक चित्रित करना, हालाँकि अर्धनारीश्वर की परिकल्पना में वे जिस पुरुष - विपिन- को रचती हैं, पह पूरा न सही, आधा-पौना स्त्री तो है ही (स्वयं विपिन स्वीकार करता है कि 'मेरा उस अहसास में भागीदारी कर पाना, जो मेरे साथ की स्त्री महसूस कर रही थी, इस बात का सबूत था कि मेरे भीतर नारीसुलभ गुण अन्य पुरुषों की तुलना में अधिक मात्रा में विद्यमान थे। तभी मैं इतना संवेदनशील था कि स्त्री की संवेदनशक्ति को महसूस कर सकता था।' वही, पृ. 199 )। वे प्राणपण से इस तथ्य को रेखांकित करना चाहती हैं कि स्त्री मूलतः स्रष्टा है और मातृत्व उसकी सार्थकता। लेकिन उनकी मान्यता में मातृत्व को गद्गद् भाव से महिमामंडित करने वाले परंपरागत भारतीय उच्छ्वास नहीं हैं, वरन सृष्टि के क्रम को आगे बढ़ा कर आत्मविस्तार करने और अपनी गलतियों से सबक लेते हुए नई पीढ़ी का बेहतर संस्कार करने की ललक है। सृजन के अर्थ को संतानोत्पत्ति के रूढ़ अर्थ में देखने की हर संकीर्णता का सख्ती से विरोध करती हैं मृदुला गर्ग। 'संतान पैदा न कर पाने से कोई बंजर नहीं हो जाता। और बहुत कुछ है जिसका सृजन हम कर सकते हैं' (पृ. 242) - 'कठगुलाब सृजन की उन संभावनाओं की तलाश है जो मारियान के संदर्भ में शब्दों का संसार रच कर मूर्त हुई है (उल्लेखनीय है कि सभी नारीवादी सिद्धांतकार स्त्रियों द्वारा स्वयं अपना इतिहास लिखने की पैरवी करती हैं ताकि अपने शब्दों के जरिए वे अपने मानस में छिपे रहस्यों और आकांक्षाओं , सपनों और यातनाओं के इतिहास को दर्ज कर सकें। वे पुरुष द्वारा परिभाषित होने की अपेक्षा स्वयं अपने को ' डिस्कवर' करके शब्दों में अपने को परिभाषित करें। ऐलन सिक्सू मानती हैं कि स्त्री लेखन का कंटेट ही नहीं, बल्कि अभिव्यक्ति का माध्यम भी अनिवार्य रूप से पुरुष से भिन्न है। इस भिन्नता का पाठ और विश्लेषण बेहद अनिवार्य है क्योंकि एक ओर यह स्त्री के महत्व को एक विशिष्ट जैविक इकाई के रूप में दर्ज करता है तो दूसरी ओर पितृसत्तात्मक व्यवस्था की सांस्कृतिक संरचनाओं और षड्यंत्रों को समझने का अवसर भी देता है। वे लिखती हैं - ' किसी जनसभा में स्त्री को बोलते हुए सुनो। वह ' बोलती' नहीं, अपने पूरे शरीर को आगे धकेलती है, वह अपने को भूल कर उड़ान भरती है, उसका समग्र उसकी वाणी में समाता है। वह अपने शरीर के द्वारा अपने भाषण के 'तर्क' को जीवंत करती है। एक खास तरीके से वह जो कुछ कर रही होती है, उसे लिखती या दर्ज करती है क्योंकि वह बोलते समय अपने आवेगयुक्त और अनचीन्हे प्रवाहों को रोकती नहीं। उसका भाषण जब सैद्धांतिक या राजनीतिक भी होता है, तब भी सरल या एकरेखीय या तटस्थ रूप से सामान्य नहीं होता। वह अपने इतिवृत्त को इतिहास रूप में ढालती है।' ( कथादेश, जुलाई 2012 में प्रकाशित विभास वर्मा का लेख ' मेडूसा की हँसी' पृ. 45)मारियान-इर्विंग प्रकरण की नियोजना के जरिए मृदुला गर्ग एलेन सिक्सू की तरह यह मानती प्रतीत होती हैं कि स्त्री की तरल, प्रवाहपूर्ण, विवेकातीत, तर्क-स्वतंत्र, चक्रीय लेखन शैली के समानांतर पुरुष की लेखन शैली अमूमन ' तर्काधारित, विवेकाधीन, सोपानिक या अनुक्रमिक और एकरेखीय' होती है जो जड़ता और ठस्सपने के साथ-साथ पुरुष-अधिनायकवाद को भी रेखांकित करती है।); असीमा के संदर्भ में गरीब बच्चों को बेहतर शिक्षा-सुविधाएँ उपलब्ध कराने वाले स्कूल खोल कर; दर्जिन बीबी के संदर्भ में आत्मदया और अपराध बोध के भय से सिकुड़ी स्त्रियों को आत्मनिर्भरता और आत्माभिमान का पाठ पढ़ा कर; और स्मिता के संदर्भ में बंजर को हरियाने का संकल्प बन कर।
मृदुला गर्ग पर टाइप्ड पात्रों को गढ़ने का आरोप आसानी से लगाया जा सकता है क्योंकि उनके स्त्री पात्र जिस साँचे से तैयार होकर निकले हैं, वह उन्हें 'स्वप्नदर्शिता और भावुकता' से भरपूर बनाता है। यहाँ तक कि पुरुषों को 'हरामी' का खिताब देकर कराटे किक के साथ जब-तब 'ठोक' देने वाली 'उग्र' असीमा बेशक कितने ही दावे क्यों न करे कि 'नारीसुलभ कोमलता और करुणा' से मुक्ति पाकर ही स्त्री जीवित रहते मोक्ष पा सकती है, लेकिन भीतर से बेहद तरल और स्वप्नदर्शी है वह। सिर्फ असीमा क्यों, विपिन की मानें तो 'स्वार्थी से स्वार्थी स्त्री के पास निःस्वार्थ प्रेम कर पाने की सामर्थ्य है। ऐसी पूँजी के होते उदात्तीकरण भला क्यों न होगा? भावनाओं का। अनुभूति का।' (पृ. 200) ठीक इसी तरह उनके सभी पुरुष पात्रों का साँचा भी एक ही है जिसे लेखिका ने नाम दिया है - नर सूअर। जिम जारविस(मनोविश्लेषक जिम जारविस को मनोरोगी के रूप में चित्रित किया है मृदुला गर्ग ने, जो पत्नी स्मिता से चाहता था कि वह प्यार, स्नेह, विश्वास, जरूरत, अपनत्व, दोस्ती, संतोष सबको शब्दों में अभिव्यक्त' करे। ' वह नहीं कर पाती तो उसके पास एक ही विकल्प बचता - सेक्स। उसकी हर चुप उससे उसकी देह को भोगने का नया तरीका ईजाद करवा देती। पहले से ज्यादा तिरस्कारपूर्ण, अपमानजनक और अशालीन।,' मृदुला गर्ग, कठगुलाब, पृ. 49 ) हो या इर्विंग ह्निटमैन (इर्विंग-मारियान प्रकरण प्रसिद्ध कवि फिट्जेराल्ड और जेल्डा फिट्जेराल्डकथा-प्रकरण की आधुनिक पुनरावृत्ति है जहाँ बौद्धिकता और संवेदना का जीवंत प्रतिरूप बन कर लेखक पति पत्नी की डायरियों को ज्यों का त्यों ' उड़ा' कर पाठकों की सराहना बटोरता है। उल्लेखनीय है कि पत्नी द्वारा न्याय की गुहार लगाए जाने पर न्याय व्यवस्था पितृसत्तात्मक चरित्र अपनाते हुए पुरुष के पक्ष में फैसला सुनाती है क्योंकि पुरुष के साझे हितों की रक्षा सामूहिकता में ही संभव है। जाहिर है तब सीमोन द बउवार का यह कथन बेहद सटीक हो उठता है कि ' अब तक औरत के बारे में पुरुष ने जो कुछ भी लिखा, उस पूरे पर शक किया जाना चाहिए क्योंकि लिखने वाला न्यायाधीश और अपराधी दोनों ही है।' (स्त्री उपेक्षिता, पृ0 28) मृदुला गर्ग ने मारियान को पुरुष के भावनात्मक बलात्कार के शिकार के रूप में चित्रित किया है। ' जैसे ही यह उपन्यास छप कर आएगा, हम एक और बच्चा बनाएँगे। ...हमारी चेतना और देह, दोनों के मिलन का चिह्न ...फ्लैश ऑव अवर फ्लैश' - इर्विंग के इस वादे में चतुर शिकारी की मुस्तैद घात मौजूद है जो उपन्यास के विषय - इमीग्रेंट स्त्रियों का मानस - में स्वयं न उतर पाने की असमर्थता में मारियान द्वारा रची गई इमीग्रेंट स्त्रियों के मनोलोक को ज्यों का त्यों उपने उपन्यास में उतार लेता है।); गैरी कूपर (गैरी कूपर को'चिर युवा' या टीन एज पर अटके ऐसे 'छोकरे' के रूप में चित्रित किया गया है जिसका शरीर और दिमाग चाहे जितना परिपक्व हो जाए, भावनात्मक आयु वही बनी रहती है। ऐसे लोगों को अपने सिवाय किसी और की इमोशनल जरूरत समझ में नहीं आती। ऐसे ही पुरुष को लेकर वर्जीनिया वुल्फ ने 'अपना कमरा' में लिखा है कि स्त्री रूपी दर्पण मे स्वयं को कई-कई गुणा बढ़ा-चढ़ा कर देखने के बाद ही चैन से जी पाता है पुरुष। (पृ. 45)चूँकि वह जानता है स्त्री उसकी तमाम भौतिक-भावनात्मक जरूरतों की पूर्ति का केंद्र है, इसलिए उसका उद्धत अहं हीन होने की आशंका मात्र में आक्रामक होकर श्रेष्ठ/समर्थ हो जाने का प्रपंच रचता है। मृदुला गर्ग ने विपिन के जरिए पुरुष की इस बेचारगी का खूब मखौल उड़ाया है - ' बेचारा पर-निर्भर पंगु पुरुष अपनी अस्मिता सिद्ध करने के लिए इतनी उछलकूद मचाए रखता है।' ( कठगुलाब, पृ. 200) हो या स्मिता का जीजा या नर्मदा का जीजा गनपत (दो भिन्न वर्गों से संबंध रखने के बावजूद मृदुला गर्ग ने इन दोनों पुरुषों को एक-दूसरे का प्रतिरूप बताया है। दोनों पत्नी पर हिंसा और स्त्रियों के यौन शोषण को अपना विशेषाधिकार मानते हैं।) - मृदुला गर्ग हिकारत के साथ इन पुरुष पात्रों पर थूकते हुए एक बड़ा सवाल उठाती हैं कि प्रताड़ना-लांछना करने वाले पुरुष की अनुकंपा और साहचर्य ही क्यों चाहती है स्त्री? क्या इसलिए कि वह उसे बच्चा दे सकता है? लेकिन बच्चे पैदा करने के लिए जब स्पर्म बैंक या टेस्ट ट्यूब बेबी जैसे विकल्प मौजूद हों, तब क्या अहमियत रह जाती है स्त्री के जीवन में पुरुष की? खासतौर पर उन आत्माभिमानी आत्मनिर्भर स्त्रियों के लिए जो मानती हैं कि 'जिंदगी की असल नेमत है औरत की दोस्ती' (पृ. 107) लेकिन मृदुला गर्ग के भीतर का विवेकशील मनुष्य उनके भीतर रची-बसी 'औरत' को धकिया कर सवाल पूछता दीखता है कि क्या लैंगिक इकाई में रिड्यूस होकर व्यक्ति अपनी मनुष्यता को अखंड पा सकता है? क्या स्त्री के शोषण के मूल में लैंगिक विभाजन को प्राकृतिक और जायज ठहराने वाली राजनीति नहीं है जो एक ओर स्त्रियों में अपने ही शरीर और अस्तित्व के प्रति हिकारत का भाव पोसती है तो दूसरी ओर स्त्री को स्त्री के खिलाफ खड़ा कर उनकी सर्जनात्मक शक्तियों को नष्ट करती है। इसलिए अकारण नहीं कि मृदुला गर्ग की स्त्रियाँ आत्ममुग्धता से मुक्त हैं (यह आत्म-मुग्धता फेमिनन वाइल्स की जनक है जो पहले स्त्रियों को 'पुरुष-आखेटक' की काम्य भूमिका में उतरने का न्यौता देती है, और फिर उन्हें मुग्धा, पद्मिनी,शंखिनी आदि नायिकाओं की कोटि में विभाजित कर अंततः पुरुष के विलास की सामग्री ही बनाती है। मृदुला गर्ग उपन्यास में वरजीनिया - मारियान की माँ - के रूप में ऐसी ही आत्ममुग्धा स्त्री की रचना करती हैं जो न प्रेम-समर्पण-भावनात्मकता के मूल्य को जानती है, न संवेदनात्मक संवेगों के जरिए संबंधों की हार्दिकता को। मृदुला गर्ग आत्ममुग्धता को आत्म-प्रवंचना का पर्याय भी मानती हैं। इसीलिए वरजीनिया किसी ' दुर्लभ' को पाने की तृष्णा में जीवन भर रंक बनी रहती है।) और अपराध बोध से भी। वे मानती हैं कि विशिष्ट लैंगिक भूमिकाओं में स्त्री-पुरुष का विभाजन न उन्हें स्वस्थ जैविक इकाई बने रहने देता है, न संवेदनशील-विवेकशील मनुष्य। पुरुष अपनी समग्रता को अधिनायकवाद में केंद्रित कर ले और स्त्री मातृत्व के बहाने प्रजनन की मशीन बन कर रह जाए - जहाँ संबंधों की ऊष्मा से भरा जीवन नहीं, वहाँ यांत्रिकता, विकृति और विघटन ही शेष बचते हैं। दरअसल नीरजा को गढ़ने के मूल में उनकी यही छटपटाहट सक्रिय रही है। बिना विवाह किए अधेड़ विपिन के साथ रह कर उसे बच्चा देने का अनुबंध स्वीकार करती है मेडिकल साइंस की छात्रा नीरजा - बोहेमियन वृत्ति, प्रयोग का कौतुक या संबंधों के पारंपरिक ढाँचे के प्रति अनास्था - कारण जो भी हो। लेकिन ढाई-तीन बरस के साहचर्य के बाद भी संतान न दे पाना, अनेकानेक मेडीकल टेस्टों से गुजरने के बाद अपनी ही असमर्थता जान कर लगभग विक्षिप्त और हठी हो जाना, मेडीकल विज्ञान की हर संभव तकनीक का सहारा लेकर अपनी बायलॉजिकल अक्षमता को पलटने का संकल्प... पराभव... टूटन... नीरजा विपिन के साथ संबंध नहीं जीती, चैलेंज के साथ दिन ब दिन खुद को छीलती-छलती चलती है। उसकी भरी-पूरी शख्सियत यंत्रा-मानव में तब्दील हो गई है या फिर 'गिनीपिग' में। मौसम का आह्वान, भावनाओं का ज्वार, मदन-गंध से गंधाता विपिन - उसके लिए सब बेमानी हैं। सच और मानीखेज है तो उस एक पल की प्रतीक्षा जब पोस्ट कोयटल टेस्ट और ओव्यूलेशन टेस्ट की रिपोर्टें यह तस्दीक करें कि हाँ, अब इस एक खास पल में वह माँ बन सकती है। उसके लिए विपिन नहीं, विपिन का स्पर्म ज्यादा जरूरी है। लेखिका और विपिन दोनों आतंकित हैं नीरजा के इस विघटन से। 'जब सायास, निर्मम बन कर अपने बारे में बेबाक जानकारी दी जाती है, तब न तिलिस्म बचता है, न साहचर्य पैदा होता है' (पृ. 234) - लेखिका अपनी राय देती हैं तो विपिन असीमा के कंधे पर सिर रख कर रो लेना चाहता है। नहीं, अपेक्षाओं के बावजूद स्त्री-पुरुष संबंध का दारुण अंत इस बिंदु पर नहीं हो सकता। दुख से प्रतिस्थापित होकर मनुष्य अपने संवेगात्मक कोश को दिखाता है, लेकिन तकनीक से प्रत्यारोपित होकर वह संवेगात्मक रिक्ति का ही पर्याय बन जाता है। चयन, वरण, विस्मरण मनुष्य की नेमतें हैं जो यांत्रिकता और जड़ता को छिन्न-भिन्न कर मनुष्य को मनुष्य - निरंतर गतिशील, विकासशील प्राणी - बनाती हैं। इसी मान्यता के कारण विपिन तमाम नैराश्य के बीच भी जीवन के उल्लास को चिह्नित करने में सक्षम है। विपिन को अपना प्रवक्ता बना कर मृदुला गर्ग मानो नीरजा की यांत्रिकताओं को समझा देना चाहती हैं कि 'संयुक्त स्मृति के उन अंशों को जो प्रासंगिक नहीं रहे, हम अस्वीकार नहीं करेंगे तो जड़ हो जाएँगे। सोचने-विचारने, निर्णय लेने लायक नहीं रहेंगे। ...यानी मनुष्य ही नहीं रहेंगे। मनुष्य बने रहने के लिए संयुक्त स्मृति को संपूर्ण नहीं, चयन करके ग्रहण करना होता है। ...तुम अच्छी तरह जानती हो, तुम केवल अंडकोश या गर्भाशय नहीं हो, जो उसके सक्रिय न होने पर तुम बंजर हो जाओगी। यह सारा नाटक तुम मुझे पीड़ा पहुँचाने के लिए करती हो। पर मुझसे ज्यादा दुख तुम खुद पाती हो। यही होता है। पर-पीड़न की परिणति आत्मपीड़न में ही होती है।' (पृ. 242)
जाहिर है जैव वैज्ञानिक शोध के सहारे प्रकृति के विधान में हस्तक्षेप करना संजीव की तरह मृदुला गर्ग को भी पसंद नहीं। विज्ञान और पूँजी के गठबंधन ने उन्हें चिंतित जरूर किया है, भविष्य के प्रति अनास्थावान नहीं बनाया है। अपने-अपने स्तर पर यथार्थ का अतिक्रमण करते हुए फैंटेसी के सहारे वे एक बेहतर भविष्य की सर्जना करते हैं। उल्लेखनीय है कि बेहतर भविष्य की परिकल्पना के मूल में दोनों के पास 'अर्धनारीश्वर' का कन्सैप्ट है। संजीव की वैज्ञानिक एप्रोच और जानकारी कहीं इस अर्धनारीश्वर को जैव वैज्ञानिक तथ्यों के रूप में उकेरती है जहाँ मादा क्लाउन मछली के मरते ही सबसे सक्षम नर क्लाउन मछली सेक्स बदल कर मादा और अपनी प्रजाति का मुखिया बन जाता है (रह गईं दिशाएँ इसी पार, पृ. 276) तो कहीं समुद्री घोड़े की प्रजनन विशिष्टताओं के आधार पर वे स्त्री-पुरुष के प्रजनन संबंधों में बुनियादी परिवर्तन की फैंटेसी करते हैं - 'यह क्या, इन समुद्री घोड़े महोदय को क्या हुआ। ...क्या याचना करने आए हैं अपनी मादा के पास? पुरुष आया है नारी के पास? नहीं, भर्तृहरि आए हैं पत्नी के पास... भिक्षा? कैसी भिक्षा? ...क्या कहा, डिंब? यह कैसा दान है? ...और मादा ने दया करके डाल दिया है अपना डिंब पुरुष की झोली में। ...अब वह अपने गर्भ में अपने वीर्य से निःशेषित कर रहा है डिंब को। मातृत्व की कैसी पावन छाया है पितृत्व पर! उलट गए हैं मातृत्व और पितृत्व के पारंपरिक विधान। ...गर्भधारिणी नहीं, गर्भधारक। गर्भवती नहीं, गर्भवान।' (पृ. 273) स्त्री-पुरुष के बीच समन्वयात्मक संबंध की कामना के बावजूद मृदुला गर्ग स्त्री की पूर्णता/श्रेष्ठता को मातृत्व से अलगा कर नहीं देखतीं। स्पीशीज के विकासानुक्रम में सेक्स परिवर्तन या भूमिका परिवर्तन के उदाहरण एक सत्य हो सकते हैं, लेकिन इनसान के लिए जो प्राकृतिक नहीं, उसका आरोपण या परिकल्पना ही क्यों? औरत होने से उन्हें कोई गुरेज नहीं। 'दर्द और पीड़ा से घबरातीं तो मर्द क्या, मशीन न होना चाहतीं?' (कठगुलाब, पृ. 107)
मृदुला गर्ग का नारीवाद दो अवधारणाओं के खूँटे से बँधा है। एक, दर्जिन बीबी का जीवन दर्शन कि 'हम औरतें हैं। हमें माफ करना आना चाहिए।' दूसरा, स्मिता की आकांक्षायुक्त पीड़ा कि अमेरिका प्रवास के दौरान 'हमेशा कठगुलाब क्यों याद आता रहा मुझे?' ये दोनों अवधारणाएँ - क्षमाशीलता और सौहार्दपूर्ण तरलता - स्त्री की शक्ति और अपेक्षाओं को एक ही प्लेटफार्म पर समझने की संवेदना देती हैं। 'मैं मर्द नहीं सर्जक होना चाहती हूँ' जैसे उद्गार में पुरुष को अ-सृजनशील (अ-संवेदनशील) प्राणी बता कर उसकी अधिनायकवादी स्थिति के प्रति स्त्री के असंतोष को ही नहीं रखतीं, बल्कि स्त्री की संपूर्णता को कठगुलाब में प्रतीकित कर मनुष्य से प्रकृति की इस अद्भुत विशिष्ट संरचना को समझने और संरक्षित करने का आग्रह भी करती हैं। स्त्री गुलाब, नीम का पेड़ या किसी भी सामान्य वनस्पति की तरह फूलने, खिलने और मुरझा जाने की समयबद्ध प्रक्रिया में नहीं बँधी है। कठगुलाब की तरह सृजन की हजारों संभावनाओं से भर कर वह खिलने को तैयार है, लेकिन समय, समाज और सहचर की संवेदनात्मक तरलता और आत्मीयता का संस्पर्श पाकर ही। हर प्रकार की दैहिक-भावनात्मक अवमानना उसकी रागात्मकता को अवरुद्ध कर उसे बंजर बना देगी, जैसे पानी की बौछार के बिना मुट्ठी की तरह कसी कलियाँ धीरे-धीरे भूरी से काली पड़ कर नष्ट हो जाती हैं, काठ में तराशे गुलाबों का अकूत सौंदर्य और खजाना असंवेदनशील हाथों में नहीं जाने देतीं। बेशक मृदुला गर्ग स्त्री के उत्पीड़न की कथा कहती हैं, लेकिन उसकी यातना को प्रतिशोध या असृजनशीलता में विघटित नहीं करतीं। वे प्रकृति के साथ तादात्मीकृत हो कर स्त्री को भगिनीवाद के सूत्र में बाँध कर अपनी जातीय अस्मिता को पहचानने और बचाने का संकल्प देती हैं। इस प्रक्रिया में यकीनन हर कदम पर उसकी लड़ाई पुरुष की सत्ता और वर्चस्व से है, लेकिन लक्ष्य भी यहीं से होकर गुजरता है कि अपनी क्षमताओं और संवेदना से पुरुष के अंतर्मन की सूख कर कठोर हुई जमीन को सींच कर नम करना, उसे मनुष्य (अर्धनारीश्वर) होने का संस्कार देना। जिस सरलता से तीन साल की मेहनत के बाद गोधड़ के वंथाल क्षेत्र को स्थानीय महिलाओं की मदद से हरिया दिया है स्मिता और असीमा ने, और उस बंजर क्षेत्र के भूतल जल स्तर को बढ़ा कर पौधों की पच्चीस स्थानीय प्रजातियों के साथ व्यावसायिक लाभ हेतु लहसुन की खेती की जाने लगी है, उस सरलता के साथ पुरुष के भीतर की अधिनायकवादी मानसिकता की कठोर गाँठों को घुला नहीं पाईं हैं मृदुला गर्ग। यही नहीं, उनका एकमात्र पुरुष प्रवक्ता - स्त्रीमानस से युक्त विपिन - भी अपनी तमाम कोशिशों के बाद कठगुलाब की तरह सूख गई स्त्री को तरलता की बौछार से हरिया नहीं पाया है। यह अपनी-अपनी ग्रंथियों से न उबर पाने की पीड़ा है? या पितृसत्तात्मक व्यवस्था की कंडीशनिंग और दबाब जो यथार्थ की दारुण भयावहता के आगे आकांक्षाओं को उड़ान भरने का मौका ही नहीं देते? मृदुला गर्ग का इको फैमिनिज्म प्रकृति को स्त्री की शरणस्थली भी बनाता है और कर्मस्थली भी, लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था के शिकंजे से मनुष्य की मुक्ति का प्रयास नहीं करता। शायद इसलिए कि वे मानती हैं स्त्री और प्रकृति की मुक्ति तब तक संभव नहीं जब तक अधिनायकवादी मानसिकता से मुक्त होकर स्वयं पुरुष अपने भीतर के 'मनुष्य' का साक्षात्कार न कर ले। विपिन और स्मिता दोनों को प्रकृतिरूपा यानी सत्य, संवेदनपूर्ण, समर्पित चित्रित करती हैं मृदुला गर्ग। इसलिए दोनों की मुट्ठी में कठगुलाब के बीज हैं - बंजर को हरियाने का सामर्थ्य लेकिन दोनों उन बीजों को मुट्ठी में दबाए अपने-अपने तईं अकेले हैं, रिक्त और अपूर्ण। मृदुला गर्ग इस स्थिति को उपन्यास के केंद्रीय सवाल के रूप में प्रस्तुत करती हैं कि सहचर सहमना न हो तो क्या एक की संवेदहीनता अनिवार्यतः दूसरे के भीतर जड़ता का प्रसार नहीं करेगी? इको फैमिनिज्म में प्रकृति और स्त्री (मृदुला गर्ग स्त्री को जैविक इकाई मानते हुए भी पुरुष-प्रकृति से संचालित स्त्री को अपना प्रवक्ता नहीं मानतीं। स्मिता, असीमा, मारियान, दर्जिन बीबी या नर्मदा के जरिए वे जिस स्त्री की बात करती हैं, वह इसेंशियली ' अर्धनारीश्वर' की परिकल्पना को ही जीती है। इसलिए इन स्त्रियों के समूह में विपिन भी शामिल है।) को समरूपा मानकर उन्हें पुरुष/वर्चस्ववादी ताकतों के शोषण के खिलाफ खड़ा करने की मान्यता को नहीं स्वीकारतीं मृदुला गर्ग। वे स्वीकारती हैं कि प्रकृति बेशक अन्याय का प्रतिकार करने हेतु पूरे समाज और समय से टक्कर ले, स्त्री अपने घावों के साथ-साथ प्रकृति के घावों को सहलाने का बीड़ा भी स्वयं उठाती है। यह मिल-बाँट कर अपने दर्द को कम करने लेने का नुस्खा भी है और अपने ही सहचर या कोख से उत्पन्न संतान की ज्यादतियों का प्रायश्चित भी। लेकिन एक टीस भरी गहरी गूँज के साथ वे पाठकों और समय के लिए इस सवाल को अनुत्तरित छोड़ देती हैं कि स्त्री के घावों पर मरहम लगाने के लिए सहचर पुरुष का संवेदनात्मक हाथ कब आगे आएगा? स्त्री कभी बंजर नहीं रह सकती, लेकिन यदि उसकी कोख बंजर रह गई तो इस नुकसान की क्षतिपूर्ति आखिर कौन करेगा?
5.
' होना हमेशा दो तरफा होता है / मैं हूँ, इसलिए यह दुनिया है / मेरे होने से ही ये पेड़, पहाड़, नदी / ये चाँद और सितारे हैं / मैं इसमें शामिल भी हूँ / और अलग हूँ' ( संजीव, रह गईं दिशाएँ इसी पार, पृ. 290)
सवाल! समस्याएँ! चुनौतियाँ! खतरे! स्खलन! विचलन!
सृजन की उड़ान भरने से पहले पाँवों में बेड़ियाँ डाल लेने को आतुर रहती हैं ढेर सी अंतनिर्हित दुर्बलताएँ या दुविधाएँ। बहुत आसान होता है निःसंगता का मुखौटा ओढ़ कर 'प्रीच' करना, लेकिन लेखक को तो डूब कर पार उतरना है - अकेले नहीं, अपने समय और समाज के साथ। नैरेटर की भूमिका में भले ही पाठक से मुखातिब होता है वह, लेकिन नायक बन कर उसका, वर्तमान और भविष्य का परिसंस्कार करने का दायित्व भी वही निभाता है। इसलिए तमाम आलोचनाओं और असहमतियों के बावजूद मैं नायक को उपन्यास की सफलता की एकमात्र कसौटी मानती हूँ - ऐसा नायक जो सायास गढ़ा हुआ न हो, जीवन की भट्ठी में तप कर खुद ब खुद कुंदन बन चला हो या संजीव के शब्द उधार लूँ तो एक ऐसा पगला यायावर जिसके होने में पूरे ब्रह्मांड के होने का रहस्य छिपा हो - 'सारे रिश्तों, नातों, स्थितियों, दिशाओं और काल को पीछे धकेलते हुए जारी है उसका यह सफर। तेरह नहीं, तेरह सौ नहीं, तेरह लाख, तेरह करोड़ नहीं, अरबों-खरबों वर्षों का प्रवासी है वह, उसके आनंद, उसके संताप, उसके संघर्ष और उसकी संप्राप्ति का वाहक।' (रह गईं दिशाएँ इसी पार, पृ. 312) दरअसल नायक लेखक की अंतर्दृष्टि और उपन्यास के क्राफ्ट की संयुक्त संतान है। इसी नायकविहीनता के कारण 'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ' उपन्यास सोद्देश्यपूर्ण शोधपरक तथ्यात्मक सामग्री के बावजूद औंधे मुँह गिर पड़ता है। वह 'मैला आँचल' (फणीश्वरनाथ रेणु) की तरह पूरे अंचल को नायक होने का श्रेय भी नहीं दे सकता क्योंकि आत्मविस्मरण और आत्मदया का शिकार मरंग गोड़ा नामक यह क्षेत्र शोषण और आँसुओं को अपनी नियति मान कर घुटा बैठा है; दिशाओं को हिला देने वाली चीत्कार नहीं बन पाया है। अलका सरावगी 'एक ब्रेक के बाद' में जरूर नायक गढ़ने की चेष्टा करती हैं, लेकिन उपन्यास के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में गुरु (नायक) को धुर विपरीत दिखाने का कौतुक रचने में ही वे इतनी चुक जाती हैं कि गुरु के साथ बाजार के प्रतिरोध की बड़ी लड़ाई लड़ने का धैर्य नहीं रख पातीं। लेखिका भले ही गुरु पर करिश्माई व्यक्तित्व का आरोपण करती रहें, लेकिन के.वी. शंकर अय्यर और अन्य स्त्रियों के संपर्क में वह या तो ठस्स है या रसिया। जाहिर है दोनों ही भूमिकाएँ पाठक के साथ उसे तादात्मीकृत नहीं कर पातीं। अलका सरावगी ने गुरु को बड़े-बड़े सपने और दावे दिए है, लेकिन लड़ने का एक छोटा सा अवसर तक नहीं दिया। इसके विपरीत संजीव उन व्यक्तियों और स्थितियों में भी जद्दोजहद की संभावनाएँ ढूँढ़ लेते हैं जहाँ स्वयं पाठक और चरित्र को भी अपेक्षा नहीं होती। उदाहरण के लिए बेला, जिसे प्रतिकूल परिस्थितियों ने बेशक तिनके की तरह बहा कर नेस्तनाबूद कर देना चाहा हो, लेकिन भीतर की जिजीविषा और स्वप्नशीलता ने उसे हर समंदर तैर कर किनारे आ लगने का जीवट दिया है। मछुआरों और मत्स्य पालन उद्योग के सहकर्मियों को अपने हकों के लिए लड़ना सिखाने वाली यह नवयौवना 'एलिस ओशन फूड' जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से लोहा लेगी और उसे नाकों चने चबवा देगी, क्या वह स्वयं जानती थी? बेला की रणनीतियाँ जमीनी हकीकतों से उपजी हैं, इसलिए वह जानती है कि 'सिर्फ गुस्से के दम पर इस अन्याय का खात्मा नहीं किया जा सकता। हमें मुक्ति चाहिए इस दरिद्रता से, बेबसी से, हर घड़ी मुँह बाए चली आ रही असुरक्षा से, ...हमें खुद आगे बढ़ कर इसे हासिल करना है। ...जिस तरह पूरे देश के जंगल, पहाड़, नदी और जमीन और संपदा को छीन कर बेचा जा रहा है, उसी तरह हमारे आठ हजार किलोमीटर सागर तट के अधिकारों को हमसे छीन कर बड़ी कंपनियों को बेच दिया जाएगा। अब भी वक्त है, आप चेत जाइए।' (पृ. 195) बेला के प्रति संजीव के पूर्वग्रह और मोहग्रस्तता के कारण उसे लेखक द्वारा गढ़ा गया चरित्र कह कर खारिज किया जा सकता है, लेकिन जिम...? सुरक्षा, सतर्कता, समृद्धि, विलासिता और निरंकुशता की संतान जिम ने पागलपन की हद तक जाकर विवेकशील तर्काश्रिता के सहारे जीवन-सत्य पाया है; मृत्यु की अँधेरी अतल गहराइयों में डूब कर जीवन के लास्य और मोल को समझा है। अनास्था के सहारे उसने आस्था को अर्जित किया है, विज्ञान और तकनीक के सहारे भावनात्मकता की अनंत राशि को। चाक-चौबंद सुरक्षा ने उसके भीतर की असुरक्षा को गहरा कर सुरक्षा के मूल्य को समझाया है तो अपरिभाषित संबंधों में पिसते चले जाने की बाध्यता ने रिश्तों के भीतर छिपे सौंदर्य, सुरक्षा और तरलता को चीन्हने का बोध दिया है। बेशक वह असंवेदनशील वैज्ञानिक है, या इससे भी आगे भावशून्य यंत्र-मानव। लारा, कौशल्या, शाहनवाज उसके भावहीन क्रूर प्रयोगों की मिसालें हैं; और नौ माह के भ्रूण की हत्या की वीडियो रिकार्डिंग अमानुषिकता की नृशंस कथा, लेकिन कौन नहीं जाता कि संज्ञान, आत्मसाक्षात्कार और आत्मोपलब्धि का भासमान आलोक अतल गहराइयों में दबे निविड़ अँधेरे लोकों में ही विराजता है। 'उस निर्दोष बच्ची (पूर्ण विकसित भ्रूण) की हत्या में मैंने सारे निर्दोषों की हत्याएँ देख लीं और उसकी खामोश चीख में सारी अनसुनी चीखें सुन लीं। ...मैं अपने पिता और चाचा की विरासत नहीं, प्रायश्चित हूँ।' (पृ. 311) अतिक्रमण का यह बिंदु जिम को समूची मानवता से जोड़ता है। तब उपन्यास वर्तमान विभीषिकाओं का यथार्थपरक चित्राण न रह कर एक रूपक बन जाता है - आत्मसाक्षात्कार की अंतर्यात्रा पर निकली एक विराट खोज का रूपक। इसी वजह से उपन्यास हाय-हाय करते हुए इस नोट के साथ खत्म नहीं होता कि 'यह समय देव मलाई (यूनानी मिथक के अनुसार देव मलाई दिन के समय अपने प्रियतम को आकार में छोटा कर बटुए में बंद कर लेती है और रात के समय उसे ' बड़ा' बना कर उसके साथ रतिक्रीड़ा करती है। अगले दिन फिर वही क्रम - सुबह छोटा करके बटुए में बंद करना और रात को बड़ा बना देना। इस खींचतान में एक दिन उसके प्रियतम की मृत्यु हो जाती है और इस प्रकार लुका-छिपी में उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता।) है', बल्कि क्रंदन करती निष्क्रिय बेचारगी को कस कर तमाचा मारता है कि 'इस समय को आदमखोर बनाया किसने?' यह सवाल दूसरों पर उँगली उठाने की प्रक्रिया में अपनी ओर उठी तीन उँगलियों की तीखी चुभन को जीवन का मकसद बनाने की प्रेरणा भी है। खुदगर्जी और हिंसा को मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति कह कर नजरअंदाज भी किया जा सकता है, और इसे कायर मनुष्य के अराजक डर का अक्स कह कर व्यक्ति को नैतिक रूप से बलशाली बनाने का बीड़ा भी उठाया जा सकता है। जरूरत है अपने भीतर इतना साहस अर्जित करने का कि प्रचलित मान्यताओं के विपरीत जाकर निशीना शिंजो (वियतनाम को प्यार) की तरह कहा जा सके - 'नागासाकी का रहमदिल मसीहा गलत था। इनसान जरूर जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। मैं यह बात बखूबी समझ गया हूँ।' (पृ. 169) प्रकृति के साथ सामंजस्य बना कर चलने और प्रकृति की रक्षा के जरिए खुद अपनी रक्षा करने के सिद्धांत को सिद्ध करने के लिए संजीव (और अन्य रचनाकार भी) किसी समाजवैज्ञानिक की तरह सीधे-सीधे सलाह नहीं देते कि अपनी अनंत तृष्णाओं का दमन करके ही ऊर्जा संकट, उपभोक्तावाद, हिंसा और आतंकवाद से मुक्ति पा सकता है मनुष्य; कि निरंकुशता नहीं, सहकारिता के सहारे व्यक्ति-व्यक्ति और व्यक्ति-प्रकृति के बीच संतुलित संबंध स्थापित कर सकता है मनुष्य; कि नई पारिस्थितिकीय सभ्यता वैज्ञानिक प्रगति या तकनीकी विकास की विरोधी नहीं, बस इनके अंधाधुंध दुष्प्रयोग की विरोधी है; कि उन्नति की वर्टीकल यात्रा उसका लक्ष्य नहीं, सहअस्तित्व और सौहार्द का हॉरीजॉण्टल प्रसार उसका संकल्प है। यह सब न कहते हुए भी इससे कहीं ज्यादा कह जाते हैं संजीव। टेस्ट ट्यूब बेबी जिम उनका नायक है क्योंकि वे मानते हैं कि मनुष्य का प्रवासी स्वभाव दुर्लभ की खोज में अपनी जड़ों से दूर जाने कहा-कहाँ भटकता है। लेकिन इस भटकन में न यायावरी है, न फकीरी; है तो जय और अधिकार की आदिम लिप्सा जो कभी मूल निवासियों को उनके ही भूखंड से उजाड़ती है तो कभी अपनी संस्कृति का परचम लहरा कर मस्तिष्क को गुलाम बनाने का कुचक्र फैलाती है। दूसरों को छिन्नमूल करने की दुष्टता में स्वयं छिन्नमूल होने की कड़वी प्रतीति भी छिपी है। अधिनायकवादी लिप्सा यह बात नहीं जानती। जानते हैं संजीव और जिम, इसलिए सृष्टि को हरियाने (विकास क्रम को निरंतर उन्नत बनाए रखने) के लिए वे प्रतिकूलताओं के बीच से अपने लिए जीने के अवसर जुटाती प्रतिरोधात्मक शक्ति को अनिवार्य मानते हैं। यह प्रतिरोधात्मक शक्ति सत्ता संस्थानों, वित्तीय निगमों या वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में बनाई या खरीदी नहीं जा सकती; यह हवा-पानी-घास की तरह अनायास बहती-बढ़ती चलती है - मिट्टी के जर्रे-जर्रे में। जिम की नजर में उसके पिता, पितामह, प्रपितामह राजस्थान की तंगहाली और विभीषिकाओं से घबरा कर कोलकाता भाग आए भगोड़े हैं जो ताउम्र दुधमुँहे बच्चे की तरह अपनी खुराक के लिए दूसरों के हाथ से कौर छीनते रहे हैं। इन भगोड़ों की तुलना में वहीं रह कर अपने और सूखी जमीन के लिए पानी का जुगाड़ करतीं अनाम औरतें कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं क्योंकि जल, जमीन और जीवन के साथ जुड़ कर वे प्रकृति के संग गलबहियाँ डाले हैं।
बेशक आज का हिंदी उपन्यास अपने परंपरागत स्वरूप को छोड़ कर शोध, आलोचना और पत्राकारिता की खिचड़ी से तैयार समाजशास्त्रीय अध्ययन की मुद्रा अख्तियार कर लेना चाहता है, लेकिन नायक के संग-संग उसके अंतर्मन और समय की यात्रा करते हुए जब वह अतिक्रमण की उदात्त छलाँग लगाता है, तब अनायास भावनात्मकता के सहारे अपने सपनों की पोटली खोलने लगता है। जाहिर है सपने न तर्क की कमांड मानते हैं न कार्य-कारण श्रृंखला की अनिवार्यता। वे न सीधे-सपाट एकरेखीय होते हैं, न ठोस और ठस्स। तर्कातीत कल्पनाशीलता से रचे ये सपने जिस चक्रीय लोक की सृष्टि करते हैं, वहाँ पाठक को किरदारों के रूप में अपनी ही अनुकृतियाँ मिलती हैं। उपन्यास यदि शोध-ग्रंथ नहीं, 'रचना' है तो कथारस की जमीन पर सपनों के बीज रोपना उसकी मजबूरी है। तब उपन्यास के बुनियादी क्राफ्ट में परिवर्तन कहाँ? संजीव, मृदुला गर्ग और एक सीमा तक अलका सरावगी यह समझते हैं, इसलिए मनु-श्रद्धा और नूहा की नाव की स्मृतियों के सहारे पाठक को स्व, मनुष्य, प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ते हैं। इन चारों का परस्पर सौहार्दपूर्ण संबंध ही तो पारिस्थितिकीय संकट से जूझने का एकमात्र उपाय है।
संदर्भ ग्रंथ सूची अलका सरावगी, 'एक ब्रेक के बाद', राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2008 एदिता मोरिस, हिरोशिमा के फूल, राजकमल पेपरबैक्स, संस्करण 1984 एदिता मोरिस, वियतनाम को प्यार, राजकमल पेपरबैक्स, संस्करण 1984 महुआ माजी, 'मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ', राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2012 मृदुला गर्ग, 'कठगुलाब', भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, संस्करण 1996 संजीव, रह गईं दिशाएँ इसी पार, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 2011 कथादेश, जुलाई 2012 अंक नया ज्ञानोदय, जून एवं जुलाई 2012 के अंक समयांतर, फरवरी 2012 अंक
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