मित्रो आज बातचीत के लिए कविताएँ और टिप्पणी
प्रस्तुत है....
ये कविता आज़म खान की भैसों को समर्पित......
.................
कौन जात तुम...........
सुनउ महाराज
तुम्हारी भैस कौन जात है
कि उसे ढूंढने खातिर
पुलिस महकमा हलकान हो गया
हमारी तो बिटिया खो जाने पर भी
दारोगा ने नहीं लिखी थी रिपोर्ट..
सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारे घर पिसा गेहूं
कि सबके चेहरों पर ताब ही ताब है
हमारे खेतों में उगने पर भी
हमको ही ताकत नहीं देते ससुरे..
सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारी रातें
जो हमारी मेहरारू को छूने पर गंदी नहीं होती
जबकि दिन तो हमारी परछाई से ही
हो जाते है अपवित्तर..
सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारी हवा, कुएं, मंदिर
जहां हमारी गंध पहुंचना भी पाप है
जो हम आदमजात को नहीं पहचानते..
सुनउ महाराज
कौन जात है ये समाज
जहां जच्चाघर में बच्चा जनते ही
तुम्हारे यहां बन जाता है मालिक
और हमारे यहां बंधुआ मजदूर....
०००
सबसे सही वक़्त
आसमान जब आग उगल रहा होता है
खेतों में उगने लगता है बारूद
हवा में घुलने लगता है ज़हर
जब बिकने लगता है धर्म
घायल हो जाती है आस्था
चेहरे हो जाते हैं पत्थर
दिखने में आदमी जैसा
जब नहीं रह जाता आदमी
जब चहुं ओर मंडराता है संकट
वही वक़्त होता है
कविता लिखने का सबसे सही वक़्त
०००
शोकगान......
हां - ये मेरा आधिकारिक बयान है....
टिप्पणी
ये कविताएं हमारे समय की विडंबनाओं पर सवालिया निशान लगाकर उन बड़े सवालों की ओर ले जाती हैं, जिन्हें हम जानबूझ कर या तो टाल जाते हैं या फिर जान कर भी अंजान बने रहते हैं और लगभग प्रतिक्रियाविहीन तरीके से मौन साधे रहते हैं। यही हमारे समय के समाज की सबसे बड़ी विडंबना या कहें कि नियति है।
पहली कविता आजम खां की भैंसों से शुरु होकर श्रेष्ठि वर्ग और दमित वर्ग के फासले को रेखांकित करती हुई प्रश्नों की एक पूरी शृंखला खड़ी कर देती है। दूसरी कविता मनुष्यता के संकटकाल में रचनाकार के दायित्व की पड़ताल करती हुई बताती है। 'शोकगान' हमारे समय की लाचारियों को बताती है और एक निर्विकल्प स्थिति में छोड़ देती है, जैसे हम इसी के लिए बने हैं। चौथी और पांचवीं कविता स्त्री के संघर्ष और मर्दवादी समाज की मानसिकता को प्रश्नांकित करती है और बहुत गहरी चोट करती है। अंत तक आते-आते ये दोनों कविताएं पाठक के विवेक को झकझोरते हुए अवाक कर देती हैं।
इन कविताओं की प्रश्नाकुलता हमारे समय की सतत और सघन चुनौतियों के प्रति कवि का एक सार्थक प्रतिरोधी स्वर है। कवतिा में ऐसी प्रश्नाकुलता, प्रतिरोध के तौर पर सामाजिक संवेदना का काव्यात्मक प्रतिफलन है अर्थात सुप्त समय और समाज की आवाजें हैं ये कविताएं।
लेकिन कई जगह कविता छूट जाती है और कवि का क्षोभ सपाटबयानी में बदल जाता है। यह बहुधा भाषा के तौर पर असहज होने या कि रचना पर और पूरे डिक्शन पर कविता लिखे जाने के बाद गहराई से पुनर्विचार न करने के कारण होता है। जैसे पहली कविता 'आजम खां की भैंसों को समर्पित' है, यह एक प्राणी के तौर पर भैंसों को राजनैतिक अंतर्वस्तु में बदल देता है, जबकि बिचारी भैंसों का कोई दोष नहीं। ऐसी असावधानियां कविता को ही गलत ट्रैक पर ले जाती हैं, शुक्र है कि यहां कविता सही रास्ते पर थी, बस शीर्षक में ही गड़बड़ी रही।
ये कविताएं बहुत कुछ अविश्वास की कविताएं भी हैं, जहां किसी पर भरोसा नहीं। लेकिन कितना भी विकृत समय हो मनुष्यता कहीं न कहीं बची ही रहती है। कवि को संबंधों पर नहीं मनुष्य और मानवता पर तो विश्वास करना ही चाहिए, यही कवि का 'आधिकारिक बयान' होना चाहिए।
कविताएँ श्रुति जी की हैं...और उन पर टिप्पणी प्रेमचंद गाँधी जी की है
23.01.2015
प्रस्तुत है....
ये कविता आज़म खान की भैसों को समर्पित......
.................
कौन जात तुम...........
सुनउ महाराज
तुम्हारी भैस कौन जात है
कि उसे ढूंढने खातिर
पुलिस महकमा हलकान हो गया
हमारी तो बिटिया खो जाने पर भी
दारोगा ने नहीं लिखी थी रिपोर्ट..
सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारे घर पिसा गेहूं
कि सबके चेहरों पर ताब ही ताब है
हमारे खेतों में उगने पर भी
हमको ही ताकत नहीं देते ससुरे..
सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारी रातें
जो हमारी मेहरारू को छूने पर गंदी नहीं होती
जबकि दिन तो हमारी परछाई से ही
हो जाते है अपवित्तर..
सुनउ महाराज
कौन जात है तुम्हारी हवा, कुएं, मंदिर
जहां हमारी गंध पहुंचना भी पाप है
जो हम आदमजात को नहीं पहचानते..
सुनउ महाराज
कौन जात है ये समाज
जहां जच्चाघर में बच्चा जनते ही
तुम्हारे यहां बन जाता है मालिक
और हमारे यहां बंधुआ मजदूर....
०००
सबसे सही वक़्त
आसमान जब आग उगल रहा होता है
खेतों में उगने लगता है बारूद
हवा में घुलने लगता है ज़हर
जब बिकने लगता है धर्म
घायल हो जाती है आस्था
चेहरे हो जाते हैं पत्थर
दिखने में आदमी जैसा
जब नहीं रह जाता आदमी
जब चहुं ओर मंडराता है संकट
वही वक़्त होता है
कविता लिखने का सबसे सही वक़्त
०००
शोकगान......
शोक ही करना है
तो प्रेम पर क्यों
समय पर करें
समय..जिसने अपने नाखूनों की धार तेज़ कर ली है
अब जीने के लिए और कवच जुटाने होंगे..
विलाप ही करना है
तो कुछ महाविलाप हो
जूझने, लड़ने और संघर्ष की वेदनाओं पर
मनुष्य के वर्गों में बंटने की नियति पर
शताब्दियों से चली आ रही साज़िश पर..
बाज़ार पर..जो बन गया है जीवन
और जीवन..जो बन गया बाज़ार
आप या तो बिचौलिये हो सकते हैं
..या मोहरा
बाज़ार से बाहर रहना अब मुमक़िन नहीं
आओ एक शोकगीत गाए
समय, बाज़ार, स्वप्न, सत्य, भीड़, शोर, समर्पण और विवशता के नाम
जिनके बीच खो गया है जीवन
और हम सांसों के आरोह अवरोह में
जीने का भ्रम पाल बैठे हैं....
............................................
क्या तुम जानते हो
क्या तुम जानते हो डौआला की जूली की कहानी
16 की उम्र में जिसके वक्षों को गर्म पत्थर से दागा गया था
मर्दों की गंदी नजरों से बचाने के लिए
कैमरून में अर्से से हो रही है ब्रेस्ट आयरनिंग..
क्या तुम्हे पता है पद्मा डोंगवाल के बारे में
बच्चा पैदा करने के लिए -35 डिग्री तापमान में
जिसे बर्फ से ढंकी नदी पर पैदल चलकर जाना पड़ा..
क्या तुम जानते हो लक्ष्मी के बारे में
15 साल की उम्र में शादी से इनकार पर
जिसपर फेंक दिया गया था तेज़ाब..
क्या तुम्हे पता है अमीना शेख की कहानी
भाई के प्रेमविवाह के बदले
जिसके साथ 13 लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया..
चलो ये सब छोड़ो...
क्या तुम जानते हो
सालों से अपने घर के भीतर रहने वाली
अपनी पत्नी के बारे में
जो हर रात सोती है तुम्हारे बाद
हर सुबह उठती है तुमसे पहले
क्या उसने नींद पर विजय पा ली है
जो हर वक्त पकाती है तुम्हारी पसंद का खाना
क्या यकीनन उसे भी वही पसंद है हमेशा से
जो बिस्तर बन जाती है तुम्हारी कामना पर
क्या वो हर बार तैयार होती है देह के खेल के लिए...
सच बताओ
क्या तुम इनमें से किसी के भी बारे में
कुछ भी जानते हो
जानते हो...?
कि औरत होकर पैदा होना ही
एक आजीवन संघर्ष की शुरूआत है...
०००.
वक़्त कितना कठिन है साथी
वक्त कितना कठिन है साथी
मैं कैसे प्रेम के गीत गाऊं
जबकि मैं ही महफूज़ नहीं प्रेम गली में
जाना-अनजाना कोई भी
नोंच सकता है मेरी देह
मैं कैसे घर का सपना संजोऊं
घर के भीतर भी तो है मर्द ही
मर्द जो भाई पति प्रेमी है
वो दूसरी लड़कियों के लिए
भेड़िया साबित हो सकता है कभी भी
मैं कैसे विश्वास की नाव चढ़ूं
जबकि उसमें छेद ही छेद है हर तरफ
वक्त कितना कठिन है साथी
कि देश दुनिया समाज
मेरे पास किसी को सोचने का वक्त नहीं
हर समय अपने शरीर पर पड़े
गंदी नजरों के निशान खुरचते खुरचते
उसके दाग मेरी आत्मा पर पड़ने लगे हैं
वक्त कितना कठिन है साथी
मैं औरत हूं
और हर वक्त बलात्कार के भय से घिरी हूं
तो प्रेम पर क्यों
समय पर करें
समय..जिसने अपने नाखूनों की धार तेज़ कर ली है
अब जीने के लिए और कवच जुटाने होंगे..
विलाप ही करना है
तो कुछ महाविलाप हो
जूझने, लड़ने और संघर्ष की वेदनाओं पर
मनुष्य के वर्गों में बंटने की नियति पर
शताब्दियों से चली आ रही साज़िश पर..
बाज़ार पर..जो बन गया है जीवन
और जीवन..जो बन गया बाज़ार
आप या तो बिचौलिये हो सकते हैं
..या मोहरा
बाज़ार से बाहर रहना अब मुमक़िन नहीं
आओ एक शोकगीत गाए
समय, बाज़ार, स्वप्न, सत्य, भीड़, शोर, समर्पण और विवशता के नाम
जिनके बीच खो गया है जीवन
और हम सांसों के आरोह अवरोह में
जीने का भ्रम पाल बैठे हैं....
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क्या तुम जानते हो
क्या तुम जानते हो डौआला की जूली की कहानी
16 की उम्र में जिसके वक्षों को गर्म पत्थर से दागा गया था
मर्दों की गंदी नजरों से बचाने के लिए
कैमरून में अर्से से हो रही है ब्रेस्ट आयरनिंग..
क्या तुम्हे पता है पद्मा डोंगवाल के बारे में
बच्चा पैदा करने के लिए -35 डिग्री तापमान में
जिसे बर्फ से ढंकी नदी पर पैदल चलकर जाना पड़ा..
क्या तुम जानते हो लक्ष्मी के बारे में
15 साल की उम्र में शादी से इनकार पर
जिसपर फेंक दिया गया था तेज़ाब..
क्या तुम्हे पता है अमीना शेख की कहानी
भाई के प्रेमविवाह के बदले
जिसके साथ 13 लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया..
चलो ये सब छोड़ो...
क्या तुम जानते हो
सालों से अपने घर के भीतर रहने वाली
अपनी पत्नी के बारे में
जो हर रात सोती है तुम्हारे बाद
हर सुबह उठती है तुमसे पहले
क्या उसने नींद पर विजय पा ली है
जो हर वक्त पकाती है तुम्हारी पसंद का खाना
क्या यकीनन उसे भी वही पसंद है हमेशा से
जो बिस्तर बन जाती है तुम्हारी कामना पर
क्या वो हर बार तैयार होती है देह के खेल के लिए...
सच बताओ
क्या तुम इनमें से किसी के भी बारे में
कुछ भी जानते हो
जानते हो...?
कि औरत होकर पैदा होना ही
एक आजीवन संघर्ष की शुरूआत है...
०००.
वक़्त कितना कठिन है साथी
वक्त कितना कठिन है साथी
मैं कैसे प्रेम के गीत गाऊं
जबकि मैं ही महफूज़ नहीं प्रेम गली में
जाना-अनजाना कोई भी
नोंच सकता है मेरी देह
मैं कैसे घर का सपना संजोऊं
घर के भीतर भी तो है मर्द ही
मर्द जो भाई पति प्रेमी है
वो दूसरी लड़कियों के लिए
भेड़िया साबित हो सकता है कभी भी
मैं कैसे विश्वास की नाव चढ़ूं
जबकि उसमें छेद ही छेद है हर तरफ
वक्त कितना कठिन है साथी
कि देश दुनिया समाज
मेरे पास किसी को सोचने का वक्त नहीं
हर समय अपने शरीर पर पड़े
गंदी नजरों के निशान खुरचते खुरचते
उसके दाग मेरी आत्मा पर पड़ने लगे हैं
वक्त कितना कठिन है साथी
मैं औरत हूं
और हर वक्त बलात्कार के भय से घिरी हूं
हां - ये मेरा आधिकारिक बयान है....
टिप्पणी
ये कविताएं हमारे समय की विडंबनाओं पर सवालिया निशान लगाकर उन बड़े सवालों की ओर ले जाती हैं, जिन्हें हम जानबूझ कर या तो टाल जाते हैं या फिर जान कर भी अंजान बने रहते हैं और लगभग प्रतिक्रियाविहीन तरीके से मौन साधे रहते हैं। यही हमारे समय के समाज की सबसे बड़ी विडंबना या कहें कि नियति है।
पहली कविता आजम खां की भैंसों से शुरु होकर श्रेष्ठि वर्ग और दमित वर्ग के फासले को रेखांकित करती हुई प्रश्नों की एक पूरी शृंखला खड़ी कर देती है। दूसरी कविता मनुष्यता के संकटकाल में रचनाकार के दायित्व की पड़ताल करती हुई बताती है। 'शोकगान' हमारे समय की लाचारियों को बताती है और एक निर्विकल्प स्थिति में छोड़ देती है, जैसे हम इसी के लिए बने हैं। चौथी और पांचवीं कविता स्त्री के संघर्ष और मर्दवादी समाज की मानसिकता को प्रश्नांकित करती है और बहुत गहरी चोट करती है। अंत तक आते-आते ये दोनों कविताएं पाठक के विवेक को झकझोरते हुए अवाक कर देती हैं।
इन कविताओं की प्रश्नाकुलता हमारे समय की सतत और सघन चुनौतियों के प्रति कवि का एक सार्थक प्रतिरोधी स्वर है। कवतिा में ऐसी प्रश्नाकुलता, प्रतिरोध के तौर पर सामाजिक संवेदना का काव्यात्मक प्रतिफलन है अर्थात सुप्त समय और समाज की आवाजें हैं ये कविताएं।
लेकिन कई जगह कविता छूट जाती है और कवि का क्षोभ सपाटबयानी में बदल जाता है। यह बहुधा भाषा के तौर पर असहज होने या कि रचना पर और पूरे डिक्शन पर कविता लिखे जाने के बाद गहराई से पुनर्विचार न करने के कारण होता है। जैसे पहली कविता 'आजम खां की भैंसों को समर्पित' है, यह एक प्राणी के तौर पर भैंसों को राजनैतिक अंतर्वस्तु में बदल देता है, जबकि बिचारी भैंसों का कोई दोष नहीं। ऐसी असावधानियां कविता को ही गलत ट्रैक पर ले जाती हैं, शुक्र है कि यहां कविता सही रास्ते पर थी, बस शीर्षक में ही गड़बड़ी रही।
ये कविताएं बहुत कुछ अविश्वास की कविताएं भी हैं, जहां किसी पर भरोसा नहीं। लेकिन कितना भी विकृत समय हो मनुष्यता कहीं न कहीं बची ही रहती है। कवि को संबंधों पर नहीं मनुष्य और मानवता पर तो विश्वास करना ही चाहिए, यही कवि का 'आधिकारिक बयान' होना चाहिए।
कविताएँ श्रुति जी की हैं...और उन पर टिप्पणी प्रेमचंद गाँधी जी की है
23.01.2015
आपका साथी
सत्यनारायण पटेल
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