मित्रो आप सभी गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ....
आज बातचीत के लिए कविताएँ और टिप्पणी प्रस्तुत है....
कविताएँ
1- बड़ा कोन-
तुम बड़े गर्व से पूछते हो
बताओ,
धरती बड़ी है या आकाश ?
नदी बड़ी है या सागर ?
मै मुस्करा देती हूँ
तुम्हारा आशय समझ कर |
तुम्हेँ क्यों है इतनी शंका ?
सृष्टि के आदि से अब तक
बिना प्रतिवाद के
स्वीकारी है मैंने तुम्हारी श्रेष्ठता
लेकिन आज
जब तुम पूछते हो
तब कहती हूँ मै भी
बड़े आदर के साथ
कि,
बड़ा तो आकाश है
लेकिन आश्रय धरा ही देती है
बड़ा तो सागर है
लेकिन प्यास नदी ही बुझाती है |
2-मै एक नदी -
मै एक नदी
तटों, बांधो का नियंत्रण सहती
दुःख को समेटती
सुख को बिखेरती
सींचती, उगाती
अनवरत श्रमरत हूँ |
मुझे डुबाने का प्रयास सतत जारी है
किन्तु मै स्थिर हूँ|
आता है उफान अन्तस् में मेरे भी
किन्तु संयम रख लेती हूँ
ताकि कल-कल की स्वर लहरी का
संगीत फूटता रहे
पथिक ले सकें विश्राम मेरे आंचल में|
फूटती रहें असंख्य प्रेमधाराएँ
जो हरा-भरा कर दें
सूखे बंजर हृदय को |
युगों-युगों से पाला गया यह भ्रम
कि रोक देगे मेरी निर्बाध गति को
पोसती रही मै खुश होकर
क्रोध में उफन पडूं
और डुबा दूँ ब्रह्मांड
ये शक्ति है मुझमें
किन्तु सृष्टि चलती रहे
और सभ्यताएं फैलती रहें
इसलिए मै स्वयं ही डूबती हूँ
और डूबती ही जा रही हूँ
स्वयं की अथाह गहराई में|
3-बेटा-
बेटा प्रश्न करता है
अपनी असहमति के साथ
बेटी कुछ नहीं पूछती
वह सब समझती है
पालन करती है निर्देशों का
सिर झुकाकर
सब खुश हैं घर में
बेटी के मौन से
उसकी जीभ सबने
बचपन में ही
काट दी थी|
4. तर्पण भोग-
पितृ-मोक्छ अमावस्या की रात
स्वर्ग सिधार चुके सज्जन को
अपने दरवाजे पर खड़ा देख
मैंने पूछा----
आप यहाँ कैसे?
वे बड़ी निरीह आवाज में बोले ----
बहुत भूखा हूँ, कुछ खिला दो
मैंने कहा --आज आपके बेटे ने
आपका श्राद्ध किया,
हजारों लोगों को भोजन कराया
आपकी आत्मा तृप्त रहे
इसलिए पैसे को पानी की तरह बहाया
फिर भी आप भूखे हैं?
उन्होंने कहा--बेटी!
जिस बेटे ने जीते जी
कभी मेरी सुधि नहीं ली
उसके तर्पण भोग को
मै कैसे स्वीकार करूं ?
अरे, मै मर गया तो क्या
स्वाभिमान अब भी बाकी है
मै युगों-युगों तक भूखा-प्यासा रह जाऊंगा
किन्तु बेटे के श्राद्ध-तर्पण को
हाथ नहीं लगाऊंगा|
5-पिता-
पिता!
नहीं देखा मैंने अब तक
तुम-सा गछ्नार वृक्ष
जिसके पत्तों के बीच
बारीक़ -सी भी फांक ना हो
कि झर कर न आ सके
सूरज की चिलचिलाती धूप|
न ही देखा ऐसा आकाश
जिसके नीचे बैठ सकूँ
निश्चिन्त होकर
कि नहीं भिगो सकता है मुझे
चाहे जितना भी बरसे बादल|
न ही होता है विश्वास पलभर भी
कि नहीं बिगाड़ सकेगा कोई कुछ भी मेरा
रहूँ चाहे अपने घर में
बंद दरवाजों के बीच|
इतने अपनों के होने पर भी
असुरक्छा का गहरा भाव!!
एक तुम ही काफी थे पिता
पतझड़ ,धूप एवं बरसते आकाश से
मुझे बचाने के लिये |
बस ,तुम ही थे पिता
मेरे लिये
ख़ुशी एवं सुरक्छा से भरी
पूरी दुनिया|
टिप्पणी
सभी पांचों कविता सरल-सहज भाषा में अपनी बातें पाठकों के सामने रखती है ।बिना किसी बौध्दिक चतुराई या छद्म के कवित्री अपनी कोमल भावनाओं के साथ पाठकों से रूबरू होती हैं। कविता में यही मौलिकता प्रभावित कर जाती है ।
(1) बड़ा कौन
बड़ा तो आकाश
आश्र धरा देती
बड़ा सागर
प्यास नदी बुझाती ।
इस कविता में कवित्री का प्रकृति प्रेम स्पष्ट झलकता है ।छोटे-बड़े कः चक्कर में उलझे तो इस दुनिया को सुन्दर और सुरक्षित बनाने के लिए सभी ज़रूरी है ।अपने विचारों से हम उसे छोटे-बड़े का दर्जा देते रहे है ।
(2) मैं एक नदी हूँ
स्त्री और नदी दोनों एक प्रवृति की होती है । नदी अपने आंचल में धरती पुत्रों की कितनी गंदगी, कितनी मलिनता छुपा लेती है पर ऊफ तक नहीं करती। प्रतिकार नहीं लेती, कष्ट नहीं पहुँचाती ।वह चाहे तो अपनी विनाशकारी ताकतों सः इस धरा को नेस्तानाबूद भी कर सकती है पर करूणा और ममता से ब॓धी वह सदैव सृष्टि और सभ्यता के विकास का ही स्वप्न आँखों में स॔जोये रहती हैं ।
(3)बेटा
यह कविता थोड़ा विस्तार और सघन दृष्टि की मांग करती है ।
(4) तर्पण भोग
पिता-पुत्र के सम्बन्ध को लेकर लिखी यह कविता मेरे व्यक्तिगत जीवनानुभाव में मात्र पुत्र को नीचा दिखाने का षड्यंत्र जैसी लगी ।इसी समाज में ऐसे पिता भी हुए.जिन्होंने अपनी पुत्रवधु के साथ मुह काला कर समाज को लज्जित किया ।इसी समाज में ऐसे पिता भी हुए जिन्होंने दहेज के लोभ में अपने पुत्र से निगाह बचाकर अपनी बहू को जला दिया । इसी समाज ऐसे पिता भी है जिन्हें अपने बेटे को छोड़ बाकी सभी कः बेटे में अच्छाई ही अच्छाई नज़र आती है और अपने बेटे में ढूँढ़ने पर भी एक भी अच्छाई नज़र नहीं आती ।हालांकि माता-पिता से अधिक पूजनीय इस धरती पर अन्य कोई नहीं हो सकता- यह सच्चाई मैं स्वीकार करता हं पर यह भी उस बड़े सच के सामने एक छोटा सच है।सच छोटा होने के कारण झूठ नहीं हो सकता। अत: मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि जब भी इस विषय पर लिखा जाये-पुत्र की मन: स्थिति, उनकी विवशता को भी समझने की कोशिश करना चाहिए ।
(5) पिता
तर्पण भोग,बेटा और पिता कविता में प्रत्यक्ष और परोक्ष रंप से पिता विद्यमान है । इस कविता में पिता,अपने पिता होने के एहसास और कत्तव्यों से लबरेज एक आदर्श पिता के रूप में हमारे सामने आते है ।पुत्र का माता से.पुत्री का पिता से बेहद संवेदनशील रिश्ता होता है जो प्रकृतिजन है ।इस कविता की भाषाशैली और बुनावट अन्य कविताओं की अपेक्षा ज़्यादा सटीक हैं ।
अन्त में कवि/कवित्री को अच्छी कविताओं के लिए बधाई
कविताएँ डॉ. आशा पाण्डेय जी की हैं..और टिप्पणी श्री राजेश झरपुरे जी की हैं...
दोनों साथी का बहुत-बहुत शुक्रिया...
और बाक़ी मित्रो का भी आभार.....
26.01.2015
आज बातचीत के लिए कविताएँ और टिप्पणी प्रस्तुत है....
कविताएँ
1- बड़ा कोन-
तुम बड़े गर्व से पूछते हो
बताओ,
धरती बड़ी है या आकाश ?
नदी बड़ी है या सागर ?
मै मुस्करा देती हूँ
तुम्हारा आशय समझ कर |
तुम्हेँ क्यों है इतनी शंका ?
सृष्टि के आदि से अब तक
बिना प्रतिवाद के
स्वीकारी है मैंने तुम्हारी श्रेष्ठता
लेकिन आज
जब तुम पूछते हो
तब कहती हूँ मै भी
बड़े आदर के साथ
कि,
बड़ा तो आकाश है
लेकिन आश्रय धरा ही देती है
बड़ा तो सागर है
लेकिन प्यास नदी ही बुझाती है |
2-मै एक नदी -
मै एक नदी
तटों, बांधो का नियंत्रण सहती
दुःख को समेटती
सुख को बिखेरती
सींचती, उगाती
अनवरत श्रमरत हूँ |
मुझे डुबाने का प्रयास सतत जारी है
किन्तु मै स्थिर हूँ|
आता है उफान अन्तस् में मेरे भी
किन्तु संयम रख लेती हूँ
ताकि कल-कल की स्वर लहरी का
संगीत फूटता रहे
पथिक ले सकें विश्राम मेरे आंचल में|
फूटती रहें असंख्य प्रेमधाराएँ
जो हरा-भरा कर दें
सूखे बंजर हृदय को |
युगों-युगों से पाला गया यह भ्रम
कि रोक देगे मेरी निर्बाध गति को
पोसती रही मै खुश होकर
क्रोध में उफन पडूं
और डुबा दूँ ब्रह्मांड
ये शक्ति है मुझमें
किन्तु सृष्टि चलती रहे
और सभ्यताएं फैलती रहें
इसलिए मै स्वयं ही डूबती हूँ
और डूबती ही जा रही हूँ
स्वयं की अथाह गहराई में|
3-बेटा-
बेटा प्रश्न करता है
अपनी असहमति के साथ
बेटी कुछ नहीं पूछती
वह सब समझती है
पालन करती है निर्देशों का
सिर झुकाकर
सब खुश हैं घर में
बेटी के मौन से
उसकी जीभ सबने
बचपन में ही
काट दी थी|
4. तर्पण भोग-
पितृ-मोक्छ अमावस्या की रात
स्वर्ग सिधार चुके सज्जन को
अपने दरवाजे पर खड़ा देख
मैंने पूछा----
आप यहाँ कैसे?
वे बड़ी निरीह आवाज में बोले ----
बहुत भूखा हूँ, कुछ खिला दो
मैंने कहा --आज आपके बेटे ने
आपका श्राद्ध किया,
हजारों लोगों को भोजन कराया
आपकी आत्मा तृप्त रहे
इसलिए पैसे को पानी की तरह बहाया
फिर भी आप भूखे हैं?
उन्होंने कहा--बेटी!
जिस बेटे ने जीते जी
कभी मेरी सुधि नहीं ली
उसके तर्पण भोग को
मै कैसे स्वीकार करूं ?
अरे, मै मर गया तो क्या
स्वाभिमान अब भी बाकी है
मै युगों-युगों तक भूखा-प्यासा रह जाऊंगा
किन्तु बेटे के श्राद्ध-तर्पण को
हाथ नहीं लगाऊंगा|
5-पिता-
पिता!
नहीं देखा मैंने अब तक
तुम-सा गछ्नार वृक्ष
जिसके पत्तों के बीच
बारीक़ -सी भी फांक ना हो
कि झर कर न आ सके
सूरज की चिलचिलाती धूप|
न ही देखा ऐसा आकाश
जिसके नीचे बैठ सकूँ
निश्चिन्त होकर
कि नहीं भिगो सकता है मुझे
चाहे जितना भी बरसे बादल|
न ही होता है विश्वास पलभर भी
कि नहीं बिगाड़ सकेगा कोई कुछ भी मेरा
रहूँ चाहे अपने घर में
बंद दरवाजों के बीच|
इतने अपनों के होने पर भी
असुरक्छा का गहरा भाव!!
एक तुम ही काफी थे पिता
पतझड़ ,धूप एवं बरसते आकाश से
मुझे बचाने के लिये |
बस ,तुम ही थे पिता
मेरे लिये
ख़ुशी एवं सुरक्छा से भरी
पूरी दुनिया|
टिप्पणी
सभी पांचों कविता सरल-सहज भाषा में अपनी बातें पाठकों के सामने रखती है ।बिना किसी बौध्दिक चतुराई या छद्म के कवित्री अपनी कोमल भावनाओं के साथ पाठकों से रूबरू होती हैं। कविता में यही मौलिकता प्रभावित कर जाती है ।
(1) बड़ा कौन
बड़ा तो आकाश
आश्र धरा देती
बड़ा सागर
प्यास नदी बुझाती ।
इस कविता में कवित्री का प्रकृति प्रेम स्पष्ट झलकता है ।छोटे-बड़े कः चक्कर में उलझे तो इस दुनिया को सुन्दर और सुरक्षित बनाने के लिए सभी ज़रूरी है ।अपने विचारों से हम उसे छोटे-बड़े का दर्जा देते रहे है ।
(2) मैं एक नदी हूँ
स्त्री और नदी दोनों एक प्रवृति की होती है । नदी अपने आंचल में धरती पुत्रों की कितनी गंदगी, कितनी मलिनता छुपा लेती है पर ऊफ तक नहीं करती। प्रतिकार नहीं लेती, कष्ट नहीं पहुँचाती ।वह चाहे तो अपनी विनाशकारी ताकतों सः इस धरा को नेस्तानाबूद भी कर सकती है पर करूणा और ममता से ब॓धी वह सदैव सृष्टि और सभ्यता के विकास का ही स्वप्न आँखों में स॔जोये रहती हैं ।
(3)बेटा
यह कविता थोड़ा विस्तार और सघन दृष्टि की मांग करती है ।
(4) तर्पण भोग
पिता-पुत्र के सम्बन्ध को लेकर लिखी यह कविता मेरे व्यक्तिगत जीवनानुभाव में मात्र पुत्र को नीचा दिखाने का षड्यंत्र जैसी लगी ।इसी समाज में ऐसे पिता भी हुए.जिन्होंने अपनी पुत्रवधु के साथ मुह काला कर समाज को लज्जित किया ।इसी समाज में ऐसे पिता भी हुए जिन्होंने दहेज के लोभ में अपने पुत्र से निगाह बचाकर अपनी बहू को जला दिया । इसी समाज ऐसे पिता भी है जिन्हें अपने बेटे को छोड़ बाकी सभी कः बेटे में अच्छाई ही अच्छाई नज़र आती है और अपने बेटे में ढूँढ़ने पर भी एक भी अच्छाई नज़र नहीं आती ।हालांकि माता-पिता से अधिक पूजनीय इस धरती पर अन्य कोई नहीं हो सकता- यह सच्चाई मैं स्वीकार करता हं पर यह भी उस बड़े सच के सामने एक छोटा सच है।सच छोटा होने के कारण झूठ नहीं हो सकता। अत: मैं इस बात का पक्षधर हूँ कि जब भी इस विषय पर लिखा जाये-पुत्र की मन: स्थिति, उनकी विवशता को भी समझने की कोशिश करना चाहिए ।
(5) पिता
तर्पण भोग,बेटा और पिता कविता में प्रत्यक्ष और परोक्ष रंप से पिता विद्यमान है । इस कविता में पिता,अपने पिता होने के एहसास और कत्तव्यों से लबरेज एक आदर्श पिता के रूप में हमारे सामने आते है ।पुत्र का माता से.पुत्री का पिता से बेहद संवेदनशील रिश्ता होता है जो प्रकृतिजन है ।इस कविता की भाषाशैली और बुनावट अन्य कविताओं की अपेक्षा ज़्यादा सटीक हैं ।
अन्त में कवि/कवित्री को अच्छी कविताओं के लिए बधाई
कविताएँ डॉ. आशा पाण्डेय जी की हैं..और टिप्पणी श्री राजेश झरपुरे जी की हैं...
दोनों साथी का बहुत-बहुत शुक्रिया...
और बाक़ी मित्रो का भी आभार.....
26.01.2015
आपका साथी
सत्यनारायण पटेल
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