13 मई, 2015

राजेश झरपुरे की कहानी स-कुशल

आज आप सभी के लिए राजेश झरपुरे जी की कहानी साझा करने जा रही हूँ ।स-कुशल पति पत्नी के बिच रिश्ते की कहानी है जिसमे पति व् पत्नी के मन के विचारों को बहुत ही भावपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है राजेश जी ने ।
कहानी दिल को छू जाती है कई सवालों को मन में छोड़ जाती है ।
सभी मित्रों से अनुरोध है पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें ।

स-कुशल
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अब वे हैं ।
वे दोनों और अकेले।
दोनों साथ रहते है पर अकेले-अकेले ।
जो घर पुरूष का है, वही स्त्री का ।
दोनों का घर एक है ।
आने-जाने का दरवाज़ा भी एक है।
वे एक घर में रहते हैं ।
उसी दरवाज़े से जाते है पर साथ-साथ नहीं । इसीलिये साथ-साथ आते नहीं। सब जानते हैं । वें भी मानते है कि लोग समझते है... वे दोनों साथ-साथ हैं । पर यह बात उनके अलावा और कोई नहीं जानता कि वे अकेले-अकेले साथ हैं ।
        वे दोनों पति-पत्नी है । पर वास्तविकता में एक पुरूष, एक स्त्री के अतिरिक्त उनमें कोई सम्बन्ध नहीं रह गया । वे जब भी बोलते किसी तीसरे की उपस्थिति में बोलते। वे जब भी सुनते बाहर से अन्दर आती आवाज़ को सुनते। घर में घर की आवाज़ सुनना उन्हें अच्छा नहीं लगता। न सुनना पड़े, इसीलिये न बोलने का लगातार अभ्यास कर उन्होंने कहे जाने से पूर्व की ज़रूरत और आपेक्षित वातावरण का निर्माण करना आरम्भ कर दिया था । अब वे इसी तरह के वातावरण में रहने के आदी हो चुके हैं । घर का घरेलुपन एकदम समाप्त हो गया। बस! समझौते की आदिम संस्कृति उस मकान में रहती है, जिसे सब उनका घर कहते। नयी संस्कृति में वे एक-दूसरे से चिर-परिचित, एक ही घर में रह रहें अजनबी जैसे है । उनका अज़नबीपन उनके सिवाय और कोई नहीं जानता। सब उन्हें आदर्श दम्पति समझते। वे सबके भ्रम को बड़ी कुशलता से भ्रमायें हुये है।
                 अकेले-अकेले रहने से पहले वे साथ-साथ थे । कब थे... वे भी नहीं जानते। थोड़ा बहुत जो जानते, उसे जीवन की एक बड़ी भूल समझने लगे हैं। विकल्प सभी समाप्त हो चुके हैं । दो लड़की, दोनों बड़ी हो चुकी  । विकल्प के रास्तों पर उत्तरदायित्व मुंहबांयें खड़े हैं इसीलिये वे बन्द रास्तों के चौराहे वाले मकान में रह रहें है ।
पुरूष का नाम दहेमन है पर दरवाज़े पर पूरे नाम की नेमप्लेट लगी है...  दहेमनराव वामनराव बागडे, एम.ए. । स्त्री का नाम स्त्री जैसा ही होगा, जैसा स्त्रियों का हुआ करता है । वह नाम उसके शैक्षणिक प्रमाणपत्र या विवाह के आमंत्रण पत्र में कहीं छपा होगा । पुरूष और उस घर को अब उस नाम से कोई मतलब नहीं । उनकी दोनों बेटियों के नाम, उस घर की दीवार या दरवाज़े पर कहीं लिखे नहीं थे पर जब भी घर में, घर बोलता... घर ही सुनता, और सुनता ... दो बड़ी होती चंचल बच्चियों की आवाज़ें । स्त्री-पुरूष भी इन्हीं आवाज़ों को सुनते ।
        भरी-पूरी हंसती-खिलखिलाती काॅलोनी में बने घरों के बीच उनका घर है । वह अन्य सभी घरों जैसा ही है । पड़ौसियों से मैत्रीय भाव, आगन्तुक का यथोचित आदर और अतिथियों का स्वागत-सत्कार अन्य घरों की तुलना में उस घर में कहीं अच्छा और स्मरणीय होता है । दूसरे अन्य घर, उसे अपने से अच्छा घर मानते। पर उस घर के घर नहीं रह पाने की ख़बर, घर की दीवार से जुड़े पड़ौसी घर को भी नहीं हो पायी थी ।
                 उनके घर की बैठक में दो खिड़की है । एक पूर्व, एक उत्तर दिशा की ओर खुलती  । पुरूष जब घर में होता... रविवार या अन्य अवकाश के दिनों में, पूर्व वाली खिड़की के पास की कुर्सी में बैठा या लेटा पढ़ता रहता। जब वह खिड़की के पास नहीं होता, घर के दूसरे अन्य काम जो घरेलू किस्म के होते, करता । कम्प्यूटर अपडेट करना, ओवर हेट टेंक साफ़ करना, मोटरबाईक साफ़ करना जैसे सभी काम बारी बारी से, जो उसे करना चाहिये...बस! वहीं करता वरन् खिड़की के पास बैठे पढ़ता रहता ।
               स्त्री घर पर ही बनी रहती। हप्ते पन्द्रह दिन में वह एक-आध दिन ही अड़ौस-पड़ैास में जाती , बहुत ज़रूरी होने पर... अन्यथा वह भली और उसका घर भला । सारा दिन घर पर बने रहने पर भी, उससे घर सम्भलता नहीं। दोनों बेटियों की मदद के बिना वह अपंग है । वे दोनों बड़ी दयालु और सहयोगी प्रवृत्ति की है । वे पुरूष की अपेक्षा स्त्री से जो उनकी मां है घुल मिलकर रहती है । पुरूष जो उनका पिता है से आवश्यक दूरी रखती और ज़रूरत भर बातें करती और सदैव डांट खाती है । स्त्री जब अकेली होती उत्तर की ओर खुलने वाली खिड़की के समीप खामोश बैठी रहती । छोटी-छोटी सांसें लेती और आंखें बंदकर रिश्ते और रिश्तेदारों से अपने घर के सम्बन्धों की जाँच-पड़ताल करती पर सब बिखरा-बिखरा हुआ ही होता । वह किसी निष्कर्ष पर पहुँच ही नही पाती।
वे शुरू से ऐसे नहीं थे । विवाह के बाद, साथ-साथ, पुरूष जो कहता , स्त्री बड़े मनोयोग से सुनती थीं । हंसकर, रूठकर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करती। पुरूष भी स्त्री के कहे का पूरा मान रखता था । वह अकसर उसे शाम में चैपाटी घुमाने ले जाता। पानी-पुरी, चाट, छोले-भटूरे खिलाता । वह ख़ुद नहीं खाता , उसे पसंद नहीं थे । वह स्त्री की प्रसन्नता के लिये उसका साथ देता । घर लौटने पर वह स्त्री के हाथ का बना भोजन करता । उसकी भूरी-भूरी प्रशंसा करता । हर कौर पर उसके द्वारा बनाये गये भोजन के जायकेदार होने की बात कहता । ऐसा भोजन और कोई पका ही नहीं सकता ...वह खुशामद करने वाले लहजों में कहता । स्त्री का पेट प्रसन्नता और चाट से भर जाता । उस दिन वह भोजन नहीं करती । पति के संतृप्त चेहरे से तृप्त होकर रह जाती। जिस दिन वे दोनों चैपाटी से लौटते, उनके साथ ढेरों खुशियाँ लौटती । स्त्री अपना सबसे सुन्दर और महीन गाऊन पहनती । वह दर्पण के सामने मिनटों खड़े रहकर अपने सामने खड़ी औरत को चिढ़ाया करती। तब वे स्त्री-पुरूष,पति-पत्नी हुआ करते थे...साथ-साथ, एक दूसरे में समाये हुये, एक-दूसरे के बिन अधूरे-अधूरे पर अकेले-अकेले नहीं ।
पता नहीं इस बीच क्या हुआ कि उनके घर, घर की ज़मीन, ज़मीन में रहने वालों के मध्य एक वक्र रेखा खींचती चली गई ।  स्त्री को इसका लेशमात्र भी नहीं हो पाया था । रेखा के बढ़ते और बढ़़ते चले जाने के ग्राफ से वह बहुत बाद में वाकिफ़ हो सकी थी । इसमें दोष स्त्री का ही था । उससे गलती हुई थी । जिसे भूल नहीं कहा जा सकता। कहा भी जाता तो पहला प्रयास उसे स्वीकार करने का होता...खेद प्रकट करने का होता, घर की नींव सम्भालने का होता, न कि घर की छत को सिर पर उठाने का। पुरूष की विरक्ति से जब उसे इस बात का एहसास हुआ, रेखा बहुत लम्बी खींच चुकी थीं । दाम्पत्य जीवन में पत्नी होने के एहसास पर एक औरत भारी पड़ रही थी... ऐसी सोच पुरूष के दिमाग में पुख़्ता हो चली थी।
        लम्बी और गहरी होती चली गई रेखा अमिट है...ऐसा वह मान बैठा था । कभी-कभार स्त्री ने इसे धोने मिटाने के प्रयास भी किये पर विफल रही । वह जब भी ऐसे प्रयास करती रेखा और अधिक गहरी और उजली होती चली जाती। मिस्त्री और स्त्री की एक भूल से पूरा घर बिगड़ जाता हैं। घर का बिगड़ा हुआ स्वरूप स्त्री-पुरूष दोनों देख रहे है। स्त्री विवश हो चुकी थी इसीलिये विनम्र थी। पुरूष पहले विनम्र था पर अब नहीं रहा। उसकी विनम्रता को पुरूषार्थ की ठोकर लग चुकी थी।
                पुरूष की तरह घर भी मान बैठा कि स्त्री के प्रयास में इच्छा शक्ति की कमी है । उससे दाम्पत्य जीवन में न होने वाली गलती हुयी है । उसने पुरूष के स्वाभिमान को ठेस पहुँचाई है । उसने ऐसी गलती की जो दाम्पत्य जीवन में पत्नी से कभी भी नहीं होना चाहिये। वह पुरूष के गुस्से को कढ़ी का उबाल समझ, चूल्हे की लौ को और तेज कर बैठी। गुस्से में पुरूष तो जला ही, स्त्री भी उसकी आंच में धीमें-धीमें सुलग रही है... सुलगती रहेगी ।
दाम्पत्य जीवन है... प्रेम का, प्यार का, आस्था का, विश्वास का, सहयोग का, साथ-साथ चलने का । यह जीवन घसीटने का नहीं, अवरोध या अड़चन पैदा करने का नहीं और न ही उदरपूर्ति के लिये किसी स्त्री या पुरूष का हाथ थाम कर रिश्ता बनाने का... यह जीवन बहुत ही महीन धागों से बुना सिर्फ़ प्यार का रिश्ता है । इसमें घृणा-बुराई या अलगाव जैसा कुछ नहीं होता ।
वह इस तरह स्त्री को समझाता नहीं था । स्त्री चाहती थी कि पुरूष उसे इस तरह समझाये पर पुरूष उससे पूरी तरह विमुख हो चुका था । एक ही घर में रहते हुये, किसी एक कमरे में वे दो मिनट से अधिक, एक साथ नहीं ठहरते  । जब भी ठहरते किसी अन्य की उपस्थिति में वरन् नहीं ।
      पुरूष अच्छी तरह से जानता है... स्त्री ने न की जाने वाली गलती की है । स्त्री जानती है कि वह पुरूष है इसलिए माफ़ नहीं कर पा रहा  ।
       वह कुछ-कुछ उदार भी था पर उसकी उदारता बहुत कम उसके साथ रहती। जब कभी होती वह स्त्री को माफ़ करने के बारे में सोचा करता था। पर इस तरह सोचना अब उसने बन्द कर दिया था। उसकी उदारता दिन-ब-दिन कठोरता में बदलती जा रही है । वह जब कभी ऐसा सोचता, उसका पुरूषोचित्त अहं सामने आकर खड़ा हो जाता, उसकी उदारता खंड-खंड होकर बिखर जाती है । इसे पति और पुरूष के बीच विचार और अहं की दूरी कहें या स्त्री और पत्नी के बीच उत्पन्न दुर्भाग्य कि वह पति होकर भी पत्नी को माफ़ नहीं कर पा रहा था । पत्नी, पत्नी होकर भी एक साथ एक ही घर में रह रहे पुरूष के साथ नहीं है। वह केवल बच्चों की माँ बनकर साथ है । वह अपनी गलतियों के कारण स्त्री रह जाने के दंश से मुक्त नहीं हो पा रही थी । पुरूष भी मुक्त नहीं है। वह अपनी मुक्ति को अपनी पराजय और स्त्री की जीत मानता है। स्त्री का जीतना उसे अच्छा नहीं लगता है।
स्त्री टूट रही है, बिखर रही है और ढह रही है... पुरूष भी । पर पुरूष के जिद के पेड़ की जड़ें उसके दाम्पत्य जीवन की धरातल में बहुत मजबूत और गहरे तक धंसी हुई है। आज भी उसमें पुरूष के अहं के फल लगे हैं । पुरूष का मानना है कि स्त्री ने ही इस पेड़ को रोपा है । स्त्री को एहसास है कि उससे गलती हुई पर इसका रूप विशालकाय पेड़ की तरह होगा और वह स्त्री साये में मूर्त हो उठेगी, कभी नहीं सोचा था ।
अब वे हैं ।
वे दोनों और अकेले ।
दोनों साथ रहते है पर अकेले-अकेले ।
लेकिन जब कहीं किसी घर से बर्तन गिरने की भी आवाज़ आती,वे दोनों दहल जाते है ।
वे दोनों अकेले-अकेले नहीं चाहते कि फिर कहीं किसी घर में ऐसा कोई रिश्ता टूटे । 

राजेश झरपुरे
प्रस्तुति:- तितिक्षा
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टिप्पणियाँ:-

जय पंजवानी:-
कहानी में वाक्यों  का दोहराव बहुत अधिक  हुआ है। जिसकी  वजह से  कहानी उतनी  प्रभावी  नही हो पाती । शब्द आगे बढ़ते हैं पर पाठक कहानी के आगे बढने का इंतजार करता रहता है।

शैली किरण:-
स्त्री पुरुष के अबोले रहस्यों को खोलती अच्छी कहानी..! आइसवर्ग जितना उपर से दिखता है.. रिश्तों का ,उससे कहीं ज्यादा..अनदिखा सत्य होता है..जिसे दिखाने में राजेश जी काफी सफल रहे हैं।

अरबाज़:-
इस तरह की कहानी पहली बार पढ़ी है। इसलिए तुरत फुरत में कुछ कहना नहीं चाहता। बस आखिरी का वाक्य कि अब वे नहीं चाहते कि कोई और रिश्ता टूटे हर मनुष्य में छुपे मानवीय पक्ष को ईमानदारी से रखता है।

ललिता यादव:
समझौते की आदिम संस्कृति  है जो घर को घर बनाने के लिए मजबूर करती है या पाॅलिश्ड छवि को बनाए रख दुनिया में सुरक्षित रहने की सुविधा।छीज चुके रिश्ते में रह जाने का औचित्य? क्या जीवन ढोने या झेलने के लिए है? बनावटी जीवन के विद्रूप से साक्षात्कार कराती अच्छी कहानी 'स- कुशल'।

गौतम चटर्जी:-
राजेश जी की कहानी भाषा में नया प्रयोग है। स्वागत। रचनाकार, कविता का रूप ले या कहानी का, कई बार शिल्प के स्तर पर ऊब रहा होता है और नया texure या नयी संरचना गढ़ने की कोशिश करता है। प्रयोग करता है। रचनाकार होने के कारण वह नया ढूंढता रहता है। राजेश जी की यह कहन या नैरेटिव ऐसा ही प्रयोग है। मुझे लगता है कि यदि आपके पास कहानी है, ज़ाहिर है मौलिक कहानी, तो वह नए रूप नए शिल्प में ही व्यक्त होगी। स्त्री का यह रूप पुरुष का ऐसा रूप कोई  नया तो नहीं .. हम पहली बार तो नहीं देख रहे !

प्रज्ञा:-
आदिम स्त्री पुरुष की अद्भुत कहानी जो दूर होते हुए भी किसी अदृश्य दिर से बंधे हैं। टूटने से उन्हें भय है यानि वह विवश टूटन है जिसे ह्रदय में स्वीकार नहीं किया है उन्होंने।उन्हें यह मालोम है कि यदि टूट गए तो बिखर जाएंगे।घुटन और असहमतियों में जीने की त्रासदी। कहने के ढंग में नयापन है।बधाई राजेश जी को।

अरुणेश शुक्ल :-
आखिर ढोए जा रहे सम्बन्ध में या तो मानसिक व शारीरिक सुख की तलाश बाहर की जाती या फिर घर में झगडे होते। इस तरह से जैसा कहानी में घर का जीवन आया है वैसा अमूमन नहीं होता

अरुणेश शुक्ल :-
एक बात मुझे नहीं समझ आई औरत ने गलती क्या की। पुरुष के दंभ को सामने लाने के लिए औरत को गुनाहगार बना के पेश करना कलात्मक असफलता भी है

सुरेन्द्र रघुवंशी:-
राजेश झरपुरे की कहानी  'सकुशल' में स्त्री और पुरुष वनाम पत्नी और पति के बीच सकुशल कुछ भी नहीं।दाम्पत्य  जीवन में कुछ भी सामान्य और व्यवहारिक भी नहीं
              आज के वैश्वीकरण और  बाजारबाद के दौर में रिश्तों की ठोस जमीन भी स्वार्थ और अहंकार की भूगर्वीय हलचल के कारण दरक और हिल रही है । यह हमारी सामाजिक और पारिवारिक पुरातन संरचना पर गंभीर प्रहार है ।सम्भवतः जिसे हम प्रहार नहीं मानते हुए सहर्ष फैशन मान रहे हैं ।
              स्त्री के अपने निर्धारित , मर्यादित और पारंपरिक स्थान से नैतिक और चारित्रिक विचलन और पुरुष का  पुरुषीय अहंकार ,दम्भ और ग्रन्थि दाम्पत्य जीवन में अलगाव का प्रमुख कारण है ।जो बढ़ते-बढ़ते आज के समय में पारिवारिक विघटन तक पहुँच गया है। दाम्पत्य जीवन के रिश्तों में  यह त्रासदी पूरे परिवार को तहस-नहस कर देती है ।
           लेखक सरल भाषा में बिना किसी घुमाव फिराव  अपनी बात रखने में सफल हुआ है। यह कहानी बिना किसी बड़ी घटना के बहुत धीरे -धीरे घर में ही घटित होती है।

धनश्री:-
"मिस्त्री और स्त्री की एक भूल से पूरा घर बिगड़ जाता है" . उदाहरण का अच्छा प्रयोग किया हैं किन्तु दोहराव ज्यादा है कहानी में शुरू में समझ आ चूका होता है की वो अकेले है परन्तु बारबार वही लिखने से कहानी का अंत पहले ही समझ आ जाता है।

बी एस कानूनगो:-
कहानी घटना प्रधान  न होकर भाव प्रधान है।कथाकार कहानी का हिस्सा नहीं है।जब ।मनो भाव व् अनुभूतियाँ केंद्र में हों तब रचनाकार पात्र के रूप में उपस्थित हो कर विश्वस्नीयता प्रदान कर सकता है।प्रस्तुत कहानी दाम्पत्य में आये ठंडेपन को अभिव्यक्त करती है।पर कहीं दूर तक लेकर नहीं जाती। कविता के करीब है इसकी बुनावट।

किसलय पांचोली:-
अनेक घरों के यथार्थ को अभिव्यक्त करने की कोशिश ने खास प्रभावित नहीं किया।
यह सही है कि कहानी का कोई तयशुदा ढांचा नहीं होता। लेकिन हर कहानी से 'कहानीपन'की दरकार को बिना जरूरत ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता। लगता है इस कहानी में यही हुआ है। साथ ही यह दुहराव की शिकार हुई है और जिज्ञासा को पोषित नहीं कर पाई  है। इसका पुनरलेख बेहतर कहानी बन सकता है।

आर्ची:-
सही है कई बार बाहर से सब कुछ ठीक ठाक बल्कि सामान्य से अच्छी दिखने वाली गृहस्थी मे भी कुछ भी ठीक नहीं होता ..
और अगर पुरूष हिंसक व्यव्हार नहीं कर रहा है तो गलती स्त्री की ही मान ली जाती है सामंजस्य और सुलह के रास्ते मे अहं आडे आता है... सबसे बडी बात कहानी इस यथार्थ को चित्रित करती है कि प्रेम विश्वास और संवाद जो कि दाम्पत्य की आधारभूत आवश्यकता है के बिना भी भारतीय परिवार यथावत् चलते रहते हैं

फ़रहत अली खान:-
कहानी का भाव अच्छा है। हालाँकि शुरुआत पढ़कर ऐसा लगा जैसे कोई कविता शुरू हुई हो। लेखक ने इस कहानी को लिखने के बाद शायद दोबारा ग़ौर से नहीं पढ़ा; इसीलिए कुछ विरोधाभासी बातें सामने आयीं। मिसाल के तौर पर:
"दो लड़की(लड़कियाँ होना चाहिए था), दोनों बड़ी हो चुकीं।" और "दो बड़ी होती चंचल बच्चियों की आवाज़ें"

इसके अलावा "वे भी मानते हैं कि लोग समझते हैं... वे दोनों साथ साथ हैं।" जैसे कई वाक्यों में सुधार की गुंजाईश है।

हालाँकि कुछ बातें क़ाबिल-ए-तारीफ़ कहीं; जैसे:
"विकल्प के रास्तों पर उत्तरदायित्व...रह रहे हैं।";
"स्त्री का पेट प्रसन्नता और चाट से भर जाता।";
"वह पुरुष के गुस्से को कढ़ी...सुलगती रहेगी।";
"मिस्त्री और स्त्री की एक भूल से पूरा घर बिगड़ जाता है।"

इससे लेखक की क्षमता का पता चलता है। ज़रुरत है तो बस स्वसम्पादन की।
अर्चना जी, किस्लय जी और धनश्री जी की बात से सहमत हूँ कि कहानी में दोहराव बहुत है।
ब्रजेश जी की बात भी सही है कि कहानी कहीं दूर लेकर नहीं जाती।

प्रज्ञा :-
कहानी बार बार एक ही बात को रेखांकित करती है । ये क्षणवादी कहानी है। अनुभववादी अधिक हो गयी है। भीतरी अंतर्द्वन्द्व को और बेहतर उभारा जा सकता था। सबसे बड़ी बात दोनों बच्चियों को किरदार के तौर पर परवान नहीं चढ़ाया गया। वे बस रख दी गयीं हैं। विषय बहुत अच्छा था पर विषय एक ही धुरी पर अटक गया। एक शून्य जो दाम्पत्य में गहराता जा रहा है वह वर्तमान की सच्चाई है जिसका एक यथार्थवादी अंकन अच्छा लगा कि बाहर वो एक सभ्य परिवार था पर भीतर दीवारें खोखली थी।

नंदकिशोर बर्वे :-
भाव के स्तर पर बढिया कहानी लेकिन कहन के स्तर पर उतनी ही कमज़ोर। छोटे बड़े अहं के कारण दरकते रिश्तों पर भी सामाजिक भय या आर्थिक निर्भरता के कारण किसी तरह घिसटते परिवार हमारे आसपास ही मिल जायेंगे। हमारे समाज में ऐसी बहुत साझा छतें हैं जिनके नीचे कई जोड़े साथ साथ होते हुए भी एकाकी हैं।

नयना (आरती) :-
कहानी पुरी तरह एक तरफ़ा लगी जिसमे स्त्री के प्रयास ना करने से घर-घर ना रहा.अंह और बिखराव के बीच कहानी भी एकाकी हो गयी.
"इसमें दोष स्त्री का ही था । उससे गलती हुई थी । जिसे भूल नहीं कहा जा सकता। कहा भी जाता तो पहला प्रयास उसे स्वीकार करने का होता...खेद प्रकट करने का होता, घर की नींव सम्भालने का होता, न कि घर की छत को सिर पर उठाने का।"-------ठीक से समझ नहीं पायी लेखक क्या कहना चाहता है.क्या गलती सिर्फ़ स्त्री की थी तो क्या?
अन्य साथी इस पर प्रकाश डाल सके तो बेहतर
घटना और भावना दोनो में ताल-मेल नही हो पाया.
कहानी स्मृति मे छाप नही छोड पायेगी,कुछ दिनों बाद लोग बिसार देंगे।

रूपा सिंह :-: बड़े मशक्कत से लिखी गैअद्भुत कहानी।दाम्पत्य जीवन के बहाने स्त्री और पुरुष कबना दिए गए संस्कारों के  जकड़न  की अद्भुत कहानी।दाम्पत्य आता या न आता स्त्री ..पुरुष के रिश्ते में यह अपराधबोध और ये अहम्बोध आता ही आता।कभी कभी थोडा जंगलीपन भी कितना जरुरी है कभी कभी कथित सभ्यता के खोल से निकल आना भी कितना जरुरी है..कभी कभी रिश्तों को चिरंतन मान के सहे जाना भी कितना खतरनाक है..कई गांठों को सामने लाने वाली कहानी..जो अपील करती है कि कभी कभी हम स्त्री ,पुरुष की परिधि से निकल मनुष्य या कहें यहाँ पति पत्नी की रूढ़ हो चुकी निर्धारित routin से अलग हो मात्र पड़ोसियों की तरह भी कभी कभी एक दूसरे के हाल चाल में सम्मिलित हो सकें...बदलाव की गुंजाइश कभी ख़त्म नहीं होती।स्त्री की रचना लग रही है..यदि पुरुष द्वारा लिखी गई है तो उसे सलाम क्योंकि  इतनी गहराई से वास्ता लिया है तो बदलाव  तीव्रगामी  होगा।कलात्मक संतुष्टि  मिली।धन्यवाद जी।

कविता वर्मा:
अलकनंदा जी बहुत बहुत धन्यवाद । कहानी पढ़ी शुरूआत अच्छी है विषय भी अच्छा है पर आगे जाकर दोहराव के कारण उबाउ हो गई है । कहानी में बच्चे पात्र के पिता से संबंध को ठीक से उभारा नही गया है ।बाकी बातें कह दी गई हैं ।

मनीषा जैन:-
आज सुबह से समय न मिल पाने के कारण अभी पढी कहानी। देर से टिप्पणी के लिए क्षमाप्रार्थी।
मुझे कहानी अच्छी लगी। आज बहुत से घरों में इसी तरह के दाम्पत्य रिश्ते होते जा रहे हैं । बच्चों के अपने काम पर लग जाने पर माता पिता के रिश्तो में भी रूखापन आ जाता है। और जब पति पत्नी की रूचियाँ भी अलग हो तो और अलगाव सा हो जाता है।कहानीकार ने स्त्री कि वह भूल नही बताई। उस भूल का हल्का इशारा तो करना चाहिए था और वह भूल पुरूष भी कर सकता था। वैसे प्रज्ञा जी की टिप्पणी से भी सहमत हूँ। वैसे कहानी मे आज के यथार्थ का चित्रण है । कहानी में यह बात भी अच्छी लगी कि उनके आपस के संबध चाहे जैसे हो उन्होंने परिवार से बाहर जा कर एक दूसरे पर छींटाकशी नही की है। चाहे भीतर का खोखलापन परिवार पर हाबी है।

राजेश झरपुरे:
अरूणेशजी कहानी लगाने से पूर्व तितिक्षाजी का भी यही प्रश्न था... क्या कारण था उनमें अलगाव का...
..?  तब मैंने उनसे कहा था...
" मुझे लगता है प्रायः  बुध्दीजीवी मध्यवर्गीय परिवार में यही स्थिति देखने को मिलती  है ।कारण पाठकों को खोजने दे । हर पाठक के पास अपना एक कारण होगा... इस कहानी को पढ़ने के बाद ... क्या आपको ऐसा नहीं लगता ...?"
कहानीकार की हैसियत से मैं कुछ बातें अपने पाठकों पर छोड़ना चाहता  हूं जिन्होंने लम्बे गृहस्थ जीवनकाल में अपने आसपास इस तरह महसूस किया हो ।
अलगाव की स्थिति में बाहर भीतर सुख तलाशने का मुद्दा इस कहानी से परे है ।
मैंने हमेशा कोशिश किया अपनी पहली कहानी के शिल्प को तोड़कर आगे बढू । यही कारण है कि मेरी एकसाथ पांच कहानी बिना नाम के पढ़ी जाये तो लगेगा... यह अलग -अलग लेखक की है ।
मैं अपने या कहानी के बचाव में यह बात नहीं कर रहा...
बस ! अपनी बात आपसे साक्षा करने के उद्देश्य से है ।
समूह के 80 सदस्यों ने कहानी पढ़ी । कुछेक ने प्रतिक्रिया दी। मैं सभी को शुक्रिया कहना चाहूँगा.
.. शुक्रिया ... मुकेश भाई, शैलीजी, तितिक्षजी,अरबाज़ भाई. ललिताजी, आशाजी, गौतमजी, प्रज्ञा जी, कंचनजी अरूणेशजी.सुरेन्द्र रधुवंशीजी एवम् पूर्णिमाजी । शुक्रिया ।

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