12 मई, 2015

अनुपमा तिवाड़ी की कवितायेँ

स्त्रियाँ कभी बूढी नहीं होतीं

स्त्रियाँ कभी बूढी नहीं होतीं
हर दिन टांची लगते रहने से
उनकी देह मूर्ती बनने लगती है
दिन - ब - दिन.
बढती उम्र,
के साथ देह का सारा प्रेम
सिमट कर आ जाता है आँखों में
फिर फैलता है
सारी देह में.
छलकता है देह से रंग - रंग.
बढती उम्र,
की स्त्रियों की अंटी में
बिना टके भी होता है खजाना.
बढती उम्र,
की स्त्रियों के आँचल में होता है
भरपूर अमलतास और पलाश.
बढती उम्र,
की स्त्रियाँ
वसंत से पकते हुए बनती हैं फागुन
बढती उम्र,
की स्त्रियाँ
निखरती जाती हैं
दिन - ब - दिन
खूबसूरत होती जाती हैं
ठीक मेरी तरह !

जो किनारे पर खड़े हैं ....

जो किनारे पर खड़े हैं
वही सबसे पहले डूबेंगे ।
सबसे पहले उनकी नौकरियाँ जाएँगी
सबसे पहले उन्हीं की बस्तियाँ,
आग के हवाले होंगी ।
सबसे पहले वही विस्थापन के नाम पर
धकेले जाएँगे
यहाँ - वहाँ, वहाँ - यहाँ पर कहीं नहीं।
सबसे पहले उन्हीं की गलतियाँ अक्षम्य होंगीं
सबसे पहले उन्हीं की माँ - बहन बलात्कार की शिकार होंगी
रोंदी जाएँगी, कुचली जाएँगी और अंततः मार दी जाएँगी
ये किनारों पर खड़े आदमी
नहीं डरते हैं,
प्राकृतिक विपदाओं से
नहीं डरते हैं
किसी अज्ञात ताकत से
इन्हें डर है,
आदमी की ताकत का ।
कितना डर है, एक आदमी को, एक आदमी से ।
क्या तुम भी किसी से डरते हो ?
यदि डरते हो
तो वह आदमी नहीं है
जिससे तुम डरते हो ।

जुमला तोड़ती औरतें

दर्द के समंदर
में डूबी
औरतें,
स्वागत करती हैं
हर उस नई
औरत का
जो डूबने आती है
इस नए समंदर में ।
चाहे वैश्यालय में
आई कोई नवयौवना हो
या घर से दूर
कामकाजी कोई स्त्री हो।
वह गहरे से जी चुकी होती हैं
उस दर्द को
जिस में डूब कर वो बनी हैं फौलाद
जिनके आँसू भी हो चुके हैं
अब गाढे
जो दिखते नहीं कच्चे आंसुओं से
वो तोड़ती हैं
जुमला कि
" औरत ही औरत कि दुश्मन होती है” ।

कोई क्यों लिखता है कविता ?

कि, मैं क्यों लिखती हूँ कविता ?
किसी ने काम तो नहीं दिया कविता लिखने का
पर फिर भी मैं लिखती हूँ कविता.
कविता ने ही सिखाया
उगते सूरज से ही नहीं,
स्लेटी रूई के फाहों जैसे बादलों की पीछे ढलते सूरज से भी प्यार करना.
कविता ने ही सिखाया,
चिड़ियों को भी शुभकामनाएं देना
कि चिड़ियों, तुम उडो उन्मुक्त आकाश में,
अनंत काल तक,
तुम इतनी ही खुश रहना,
जितनी कि आज हो.
कविता ने ही उगते पेड़ों को देख,
जीवन में संभावनाएं देखना सिखाया
कभी कविता पैदा हुई,
बाहरी पीड़ा के प्रसव से
तो कभी,
भीतर बह रहे झरने की झर - झर से.
जब कभी मन हारा
तो कविता ही सिरहाने आ,
झिंझोड़ कर बोली
" पागल समूचा समाज एक हो जाता है
तो क्या सुकरात गलत हो जाता है ?
क्या ईसा गलत हो जाता है ?
कविता है, तो तू है
कविता नहीं, तो तू भी नहीं !
तुम दोनों पर्याय हो एकदूसरे के".
शायद इसलिये लिखती हूँ
मैं कविता,
शायद इसलिए लिखता है
कोई कविता !
यूँ ही नहीं लिखता कोई कविता,
यूँ ही नहीं लिखता कोई कविता ........

सर्वश्रेष्ठ तो हो चुका

रोको उन्हें,
जो नित नए चित्र / कार्टून बना रहे हैं
रोको उन्हें,
जो नित नए तरीके की कविता / गीत रच रहे हैं
रोको उन्हें,
जो सुन्दर दिख रहे हैं
रोको उन्हें,
जो प्रेम कर रहे हैं
और रोको उन्हें,
जो नया - नया सोच रहे हैं
नई - नई बात कर रहे हैं
रोको उन्हें भी,
जो चौराहों पर तुम्हें नंगा कर रहे हैं
रोको - रोको ,
सबको रोको ......
ये सब तुम्हारे धर्म के खिलाफ हैं
तुम्हारी संस्कृति के विरोध में हैं
ये सब तुम्हारी चूलें हिला रहे हैं
इन सबको रोकने से पहले
बस ये जान लेना कि
ये कभी रुकते नहीं
ये कभी मरते नहीं
और अगर
ये रुक गए
तो मानवों की एक नई पीढी पैदा होगी
जिसका रक्त नसों में दौड़ेगा नहीं,
नसों में रक्त रुका होगा !

प्रस्तुति:-अंजू शर्मा
-----------------------
टिप्पणियाँ:-

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
पांच कविताएं और पांच अलग विश्व। सभी कविताएं शानदार। पीड़ा इतनी सरलता से चित्रित की जा सकती है, पता चला।

अमिताभ मिश्र:-
कविताएँ वाकई अच्छी हैं।  स्त्रियाँ कभी बूढ़ी नहीं होती, जुमला तोड़ती औरतें स्त्री की हालत पर कविताएँ हैं।  मुझे एक नाटक याद आया माँ कभी रिटायर नहीं होती। 
और तीनों कविताएँ भी समय के साथ आँखों में आँखें डालती कविताएँ हैं।

प्रदीप मिश्र: अरे भाई ई ता गज़ब के कविता बा। माई कबो बूढ़ नाइ होले। कविता में मेहररून के मन के भाव सीझ गइल बा। बधाई। कई यार कविताओं ने तो मगज़ हेड़ दी।

वसंत सकरगे: 'टांची' शब्द की उपस्थिति से लगता है,प्रस्तुत कविताएं उस कवयित्रि की हैं जिसकी मातृभाषा मराठी है।क्यों यह शब्द  बड़ी सहजता से काव्य प्रवाह में शामिल है।...'उनकी देह मूर्ति बनने लगी है' अच्छा बिम्ब है।'जुमला तोड़ती औरतें' भी प्रभावित करती है।जो किनारे खड़े हैं-अनिश्चितता और विस्थापन की पीड़ा उजागर करती है।लेकिन क्षमायाचना सहित कि 'सर्वश्रेष्ठ तो हो चुका' अपेक्षाकृत मर्मस्पर्शी आयाम नहीं रच पाई।

स्वरांगी साने:-
बढ़ती उम्र की स्त्रियां निखरती जाती है पंक्तियों से मुझे मेरी नानी और मौसी याद आ गई। और मेरी बेटी का मेरी नानी को ‘क्यूट’ कहना भी। कुछ तो होता है जो स्त्रियों को उनके लोन जाने के बावजूद और खूबसूरत बना देता है। अच्छी कविता। 
जो किनारे पर खड़े है, कविता तकनीकी रूप से थोड़ी अटपटी लगी। किनारे पर क्यों खड़े हैं ? कविता जिनको उद्देश्य कर लिखी गई है वे लोग हाशिये पर हो सकते हैं, दरकिनार भी पर किनारे पर खड़े नहीं। समुद्र में डूबिए, उतरिए और थपेड़ों को झेलिए। किनारे खड़े लोग किनारे खड़ी नौका जैसे होते हैं जो जंग लग जाना पसंद करते हैं। इसे फिर लिखा जाना चाहिए।
बिलकुल जुमला तोड़ती औरतें, कविता से सहमत। अंतिम दो कविताएं भी अच्छी।  

गीतिका द्विवेदी: पहली कविता मुझे सबसे अच्छी लगी।अपने ही घर की कई महिलाओं की आकृति उभर कर आने लगी।मेरी माँ की कही वह बात भी और सत्य साबित होने लगी कि हम औरतें कभी रिटायर नहीं होतीं।

अलकनंदा साने:-: ये कवितायेँ पढ़ी हुईं हैं, लेकिन एक अच्छी कृति को कई बार पढ़ा जा सकता है और वह हमेशा आनंददायी होता है .धन्यवाद अंजू.बेहतरीन कविताओं के लिए

अंजू शर्मा :-: शुक्रिया कविताएँ आपको पसंद आईं। ये कविताएँ जयपुर की कवयित्री अनुपमा तिवाड़ी की कविताएँ हैं। अनुपमा जी समूह की सदस्य नहीं है हालाँकि मैं यह सुनिश्चित करूंगी कि आप सभी की अमूल्य प्रतिक्रियाएं उन तक अवश्य पहुंचे। इन कविताओं पर चर्चा कल भी जारी रहेगी।  अन्य  साथियों की प्रतिक्रिया की भी प्रतीक्षा रहेगी। सादर।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें