30 सितंबर, 2015

मजदूर जू लिझी की कविता

फ़ॉक्सकाॅन के मज़दूर की कविताएँ
ये कविताएँ चीन की फ़ॉक्सकाॅन कम्पनी में काम करने वाले एक प्रवासी मज़दूर जू लिझी (Xu lizhi) ने लिखी हैं। लिझी ने 30 सितम्बर 2014 को आत्महत्या कर ली थी। लेकिन लिझी की मौत आत्महत्या नहीं है, एक नौजवान से उसके सपने और उसकी जिजीविषा छीनकर इस मुनाफ़ाख़ोर निज़ाम ने उसे मौत के घाट उतार दिया। लिझी की कविताओं का एक-एक शब्द चीख़-चीख़कर इस बात की गवाही देता है। आज भी दुनियाभर में लिझी जैसे करोड़ों मज़दूर अपने जीवन के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लिझी की कविताओं के बिम्ब उस नारकीय जीवन और उस अलगाव का खाका खींचते हैं जो यह मुनाफ़ाख़ोर व्यवस्था थोपती है और इंसान को अन्दर से खोखला कर देती है।

1-

मैंने लोहे का चाँद निगला है

मैंने लोहे का चाँद निगला है

वो उसको कील कहते हैं

मैंने इस औद्योगिक कचरे को,

बेरोज़गारी के दस्तावेज़ों को निगला है,

मशीनों पर झुका युवा जीवन अपने समय से

पहले ही दम तोड़ देता है,

मैंने भीड़, शोर-शराबे और बेबसी को निगला है।

मैं निगल चुका हूँ पैदल चलने वाले पुल,

ज़ंग लगी जि़न्दगी,

अब और नहीं निगल सकता

जो भी मैं निगल चुका हूँ वो अब मेरे गले से निकल

मेरे पूर्वजों की धरती पर फैल रहा है

एक अपमानजनक कविता के रूप में।

2-

एक पेंच गिरता है ज़मीन पर

एक पेंच गिरता है ज़मीन पर

ओवरटाइम की इस रात में

सीधा ज़मीन की ओर, रोशनी छिटकता

यह किसी का ध्यान आकर्षित नहीं करेगा

ठीक पिछली बार की तरह

जब ऐसी ही एक रात में

एक आदमी गिरा था ज़मीन पर

3-

मैं लोहे-सा सख़्त असेम्बली लाइन के पास

खड़ा रहता हूँ

मैं लोहे-सा सख़्त असेम्बली लाइन के पास

खड़ा रहता हूँ

मेरे दोनों हाथ हवा में उड़ते हैं

कितने दिन और कितनी रातें

मैं ऐसे ही वहाँ खड़ा रहता हूँ

नींद से लड़ता।

4-

मैं एक बार फ़ि‍र समुद्र देखना चाहता हूँ

मैं एक बार फ़ि‍र समुद्र देखना चाहता हूँ, बीत चुके आधे जीवन के आँसुओं के विस्तार को परखना

चाहता हूँ

मैं एक और पहाड़ पर चढ़ना चाहता हूँ,

अपनी खोई हुई आत्मा को वापिस ढूँढ़ना चाहता हूँ

मैं आसमान को छूकर उसके हल्के नीलेपन को महसूस करना चाहता हूँ

पर ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता,

इसीलिए जा रहा हूँ मैं इस धरती से

किसी भी शख़्स जिसने मेरे बारे में सुना हो

उसे मेरे जाने पर ताज्जुब नहीं होना चाहिए

न ही दुख मनाना चाहिए

मैं ठीक था जब आया था और जाते हुए भी ठीक हूँ

5-

मशीन भी झपकी ले रही है

मशीन भी झपकी ले रही है

सीलबन्द कारख़ानों में भरा हुआ है बीमार लोहा

तनख़्वाहें छिपी हुई हैं पर्दों के पीछे

उसी तरह जैसे जवान मज़दूर अपने प्यार को

दफ़न कर देते है अपने दिल में,

अभिव्यक्ति के समय के बिना

भावनाएँ धूल में तब्दील हो जाती हैं

उनके पेट लोहे के बने हैं

सल्फ़युरिक, नाइट्रिक एसिड जैसे गाढे़ तेज़ाब से भरे

इससे पहले कि उनके आँसुओं को गिरने का

मौक़ा मिले

ये उद्योग उन्हें निगल जाता है

समय बहता रहता है, उनके सिर धुँध में खो जाते हैं

उत्पादन उनकी उम्र खा जाता है

दर्द दिन और रात ओवरटाइम करता है

उनके वक़्त से पहले एक साँचा उनके शरीर से चमड़ी अलग कर देता है

और एल्युमीनियम की एक परत चढ़ा देता है

इसके बावजूद भी कुछ बच जाते हैं और बाक़ी बीमारियों की भेंट चढ़ जाते हैं

मैं इस सब के बीच ऊँघता पहरेदारी कर रहा हूँ

अपने यौवन के कब्रिस्तान की।

(ये कविताएँ libcom.org वेबसाइट से ली गयी हैं, जिन्होंने चीनी भाषा से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद सिमरन ने किया है।
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टिप्पणियाँ:-

सत्यनारायण:-
मित्रो आज जू लिझी की कविताएँ प्रस्तुत है...जैसा कि ऊपर दिया है
कि जू लिझी फ़ॉक्सकॉन कम्पनी में मज़दूर थे....लेकिन उन्होंने आत्महत्या कर ली...कवि, लेखक, फिल्मकार, चित्रकार, अदाकार आदि कलाकारों, रचनाकारों  के बारे में हम पढ़ते सुनते आ रहे हैं....वे शोषण...गैरबराबरी से उपजे तनाव से लड़ नहीं पाते हैं या फिर ऐसे माहौल में जीने से तंग आ जाते हैं....या वे कौन सी वजह होती हैं जो उन्हें आत्महत्या करने के लिए उकसाती है और ऐसा कर लेते हैं....आज आपसे अनुरोध है कि जू लिझी की कविताओं के ज़रिए हम उक़्त विषय की पड़ताल करने का प्रयास करें.....अतंतः यह हम सभी से जुड़ा और बहुत ही संवेदनशील मसला है....मैंने जो बाते कही वे एकदम त्वरित है...पर मुझे आशा है कि साथी गंभीरता से इस विषय की पड़ताल करेंगे.....

प्रेरणा पाण्डेय:-
शु लिझी की कविताँए उस दर्द का दस्तावेज़ हैं जो भोक्ता ने स्वयं कविताओं में ढाला है। कविता की मार्मिकता कवि के संवेदनशीलता का परिचय देते हैं । साथ ही शोषक की तानाशाही प्रवृति को भी प्रच्छन्न रूप में उजागर कर दिया गया है--'ये किसी का ध्यान आकर्षित नहीं करता....'
बेहद संजीदा कविताएं!!"

आशीष मेहता:-
कुछ यथार्थपूर्ण कविताएँ, अवसादग्रस्त कवि की। कुछ रचनाएँ बेहद महत्वपूर्ण। पर आत्म हत्या पड़ताल हेतु Xu महाशय कुछ प्रेरित नहीं कर पा रहे (समस्त संवेदना के बावजूद)

आनंद पचौरी:-
शोषण का ऐसा ही खेलहमारे देश मेम भी चल रहा है जिसकी ओर से सब आँखें बंद किये हुए हैं।multinational companies लालच का चारा डालकर नौवजवानों का खून चूस रही हैं ।१५- २० घंटे काम करा कर ,४-६ घंटे बसों में धक्के खाते जब ये बच्चे लौैटते हैं ते उनके  तनाव और अकेलेपन को भरने उनके पास कुछ नहीं होता सिवाह बढा़ हुआ blood pressure और नशे के।२८ की उम्र में heart attacks हो रहे हैं।इस तरह दुनिया की सबसे अधिक युवा आबादी वाला समाज घुन की तरह खोखला हो रहा है।दीपावली के दिन अवकाश होते हुए भी रात १२बजे corporate office में काम करतै युवा की मानसिक्और शारिरिक स्तिथि का आंकलन किया जा सकता है। सारे नियम कानून यहाँ धरे रह जाते हैं़ और कैरियर के नाम पर यह कुच्रक देश को चूस रहा है ।शायद हम में से बहुतों को यह जानकारी भी न हो कि हमारे ही बच्चों के साथ क्या हो रहा है । गुलामी का यह sophisticated तरीका है।हम कब सोचेंगे कि हमारे नवजवान किस तरह अवसाद ग्रस्त हो रहे हैं?  इन कविताओं में कहीं हम भी छुपे हुए हैं।

आशीष मेहता:-
बिल्कुल हैं, आनंद जी। पर क्या यह स्वैच्छिक नहीं  ? पिछले दशक ने हिन्दुस्तानी संदर्भ में कई उजले उदाहरण दिए हैं, जिन्होंने "पद/पैसे" को ठुकरा  कर, अपने सपने जाए हैं।

आनंद पचौरी:-
आप सही कह रहे हैं मगर इस दौड में हाँपती गिरती पीढी को हम नहीं समझा पाएँगे।आखिर हम ने उन्हे इसमें झोंका है और इसकी भयावहता से हम सब आखें मूँदे हुए है।

आभा :-
जनसँख्या और कम्युनिज़्म के कारण चीन के हालात बहुत ख़राब हैं। पैसे की वजह से सम्पन्नता और विकास तेज़ है लेकिन समानता और बेरोज़गारी से हालात खराब हैं

निधि जैन :-
सबसे पहले कहना चाहूंगी कि अनुवादित कविताओं के सन्दर्भसहित प्रस्तुतीकरण ने पढने में रूचि पैदा की है , हर बार ऐसा ही हो तो वैश्विक साहित्य में नए पाठकों की रूचि पनप सकती है।
दूसरी बात कवितायें बढ़िया हैं ,दूसरी कविता बेहतरीन, मुझे जो कहना था वो कमेन्ट पहले ही आ चुके हैं कि आदमी अब धातु का या रोबोट ही कह लें तो भी ठीक रहेगा, बन चूका है, फिर चाहे गरीब कामगार हों या सेठ; भावनाएं , संवेदनाएं मर चुकी है,

मजदुर को श्रद्धांजलि

वसुंधरा काशीकर:-
माओ के विचार पर आधारित कम्युनिस्ट शासन व्यवस्था जहा सर्वहारा, मज़दूर वर्ग का शासन अपेक्षित है, वहाँ एक मज़दूर आत्महत्या करता है इससे बड़ी शोकान्तिका क्या हो सकती है। ख़ैर चीन अब नाम का ही कम्युनिस्ट देश रह गया है।
कविताओं से पता चलता है की, कवी की मानसिक स्थिति बहुत ही विकल, अगतिक हो गयी है । जीने की चाह ख़त्म होती जा रही है। सभी व्यवस्थाओं के कुछ फ़ायदे और नुक़सान है। पर पूँजीवादी व्यवस्था मैं कुछ लोंगो के पास बहुत कुछ और बहुत सारे लोगों के पास कुछ भी नहीं एेसी स्थिती होती हैं।
राजेश रेड्डी साहब ने ख़ूब लिखा है।
ये जो ज़िंदगी की किताब है। ये किताब भी क्या किताब है। कही छिन लेती है हर ख़ुशी। कही मेहरबाँ बेहिसाब है।
मुझे इस वक़्त प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ हॅराॅल्ड लास्की का कथन याद आ रहा हैं। there should be sufficiency for all before there is superfluity for some few. बेहतरीन अनुवाद।

फ़रहत अली खान:-
सभी कविताएँ अंदर तक झिंझोड़ देती हैं। आज के मज़दूर की यही परिभाषा बन चुकी है; वो आदमी जिसके पास बुनियादी सुविधाओं का सबसे ज़्यादा अभाव है और जिसको मामूली तनख़्वाह पर सबसे ज़्यादा ज़ोख़िम भरे काम दिए जाते हैं। बे-रोज़गारी का ये आलम है कि एक बुलाओ तो दस आते हैं।
सरकार चाहे कम्युनिस्ट हो या लोकतांत्रिक, ग़रीब मज़दूरों का शोषण इसी तरह होता आया है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में मज़दूर संघ ज़रूर होते हैं, लेकिन वो भी अब स्वार्थी और कमज़ोर हो चले हैं।
ज़ू लिझी ने जिस ख़ूबी के साथ अपनी भावनाएँ व्यक्त कीं, उसने सचमुच दिल को छू लिया; यानी वो एक मज़दूर ही नहीं, एक बेहतरीन कवि भी थे।
मनीषा जी का बहुत ही उम्दा और विचारणीय चुनाव।

वीरेन डंगवाल की कुछ कविताएँ

कल से कवि वीरेन डंगवाल जी के निधन से हम सब शोकाकुल हैं। आज वीरेन डंगवाल जी को श्रद्धांजलि स्वरूप उनकी कुछ कविताएं दे रहे हैं। वीरेन जी हमारे समय के विरल कवि थे। वीरेन जी हिन्दी कविता का उजाला व उनकी कविताएं मनुष्यता की पहचान हैं। सहज शब्दों में गम्भीर बात कह देना उनकी विशेषता। तो आइये पढ़ते हैं उनकी कविताएं।
     
वह-सवेरे
मुंह भी मैला
फिर भी बोले
चली जा रही
वह लड़की मोबाइल पर
रह-रह
चिहुंक-चिहुंक जाती है

कुछ नई-नई-सी विद्या पढ़ने को
दूर शहर से आकर रहने वाली
लड़कियों के लिए
एक घर में बने निजी छात्रावास की बालकनी है यह
नीचे सड़क पर
घर वापस लौट रहे भोर के बूढ़े अधेड़ सैलानी

परिंदे अपनी कारोबारी उड़ानों पर जा चुके

सत्र शुरू हो चुका
बादलों-भरी सुबह है ठण्‍डी-ठण्‍डी
ताजा चेहरों वाले बच्‍चे निकल चले स्‍कूलों को
उनकी गहमागहमी उनके रूदन-हास से
फिर से प्रमुदित-स्‍फूर्त हुए वे शहरी बन्‍दर और कुत्‍ते
छुट्टी भर थे जो अलसाये
मार कुदक्‍का लम्‍बी टांगों वाली

हरी-हरी घासाहारिन तक ने
उन ही का अभिनन्‍दन किया
इस सबसे बेखबर किंतु वह
उद्विग्‍न हाव-भाव बोले जाती है

कोई बात जरूरी होगी अथवा
बात जरूरी नहीं भी हो सकती है

      
लाल-झर-झर-लाल-झर-झर-लाल
हरा बस किंचित कहीं ही ज़रा-ज़रा
बहुत दूरी पर उकेरे वे शिखर-डांडे श्वेत-श्याम
ऐसा हाल !
अद्भुत
लाल !
बकरियों की निश्चल आँखों में
ख़ुमार बन कर छा गया
आ गया
मौसम सुहाना आ गया

आतंक सरीखी बिछी हुई हर ओर बर्फ़
है हवा कठिन, हड्डी-हड्डी को ठिठुराती
आकाश उगलता अन्धकार फिर एक बार
संशय विदीर्ण आत्मा राम की अकुलाती

होगा वह समर, अभी होगा कुछ और बार
तब कहीं मेघ ये छिन्न -भिन्न हो पाएँगे

तहखानों से निकले मोटे-मोटे चूहे
जो लाशों की बदबू फैलाते घूम रहे
हैं कुतर रहे पुरखों की सारी तस्वीरें
चीं-चीं, चिक-चिक की धूम मचाते घूम रहे

पर डरो नहीं, चूहे आखिर चूहे ही हैं
जीवन की महिमा नष्ट नहीं कर पाएँगे

यह रक्तपात यह मारकाट जो मची हुई
लोगों के दिल भरमा देने का ज़रिया है
जो अड़ा हुआ है हमें डराता रस्ते पर
लपटें लेता घनघोर आग का दरिया है

सूखे चेहरे बच्चों के उनकी तरल हँसी
हम याद रखेंगे, पार उसे कर जाएँगे

मैं नहीं तसल्ली झूठ-मूठ की देता हूँ
हर सपने के पीछे सच्चाई होती है
हर दौर कभी तो ख़त्म हुआ ही करता है
हर कठिनाई कुछ राह दिखा ही देती है

आए हैं जब चलकर इतने लाख बरस
इसके आगे भी चलते ही जाएँगे

आएँगे उजले दिन ज़रूर आएँगे

फिर फिर निराला को

1.

स्टेशन छोटा था, और अलमस्त
आवाजाही से अविचलित एक बूढा बन्दर धूप तापता था
अकेला
प्लेटफार्म नंबर दो पर।
चिलम पी रहा एक रिक्शावाला, एक बाबा के साथ।
बाबा संत न था
ज्ञानी था और गरीब।
रिक्शेवाले की तरह।

दोपहर की अजान उठी।
लाउडस्पीकर पर एक करुण प्रार्थना
किसी को भी ऐतराज़ न हुआ।
सरयू दूर थी यहाँ से अभी,
दूर थी उनकी अयोध्या।

2.

टेम्पो
खच्च भीड़
संकरी गलियाँ
घाटों पर तख्त ही तख्त
कंघी, जूते और झंडे
सरयू का पानी
देह को दबाता
हलकी रजाई का सुखद बोझ,
चारों और स्नानार्थी
मंगते और पण्डे।
सब कुछ था पूर्ववत अयोध्या में
बस उत्सव थोडा कम
थोडा ज्यादा वीतराग,
मुंडे शीश तीर्थंकर सेकते बाटी अपनी
तीन ईंटों का चूल्हा कर
जैसे तैसे धौंक आग।
फिर भी क्यों लगता था बार बार
आता हो जैसे, आता हो जैसे
किसी घायल हत्-कार्य धनुर्धारी का
भिंचा-भिंचा विकल रुदन।

3.

लेकिन
वह एक और मन रहा राम का
जो
न थका।
जो दैन्यहीन, जो विनयहीन,
संशय-विरहित, करुणा-पूरित, उर्वर धरा सा
सृजनशील, संकल्पवान
जानकी प्रिय का प्रेम भरे जिसमें उजास
अन्यायक्षुब्ध कोटिशः जनों का एक भाव
जनपीड़ा-जनित प्रचंड क्रोध
भर देता जिस में शक्ति एक
जागरित सतत ज्योतिर्विवेक।
वह एक और मन रहा राम का
जो न थका।

इसीलिए रौंदी जा कर भी
मरी नहीं हमारी अयोध्या।
इसीलिए हे महाकवि, टोहता फिरता हूँ मैं इस
अँधेरे में
तेरे पगचिह्न।
   =========
परिचय

जन्म: 05 अगस्त 1947
जन्म स्थानकीर्ति नगर, टेहरी गढ़वाल, उत्तराखंड, भारत

कुछ प्रमुख कृतियाँ

इसी दुनिया में (1990), दुष्चक्र में सृष्टा (2002)

        पुरस्कार

रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (1992),
श्रीकान्त वर्मा स्मृति पुरस्कार (1994),
शमशेर सम्मान (2002), साहित्य अकादमी पुरस्कार (2004) सहित अनेक प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार से से विभूषित।

28 सितंबर, 2015

लियो तोलस्तोय की कहानी : मनुष्य के जीवन का आधार क्या है ?

आज एक कहानी रूस के विश्व प्रसिद्ध साहित्कार लियो तोलस्तोय की एक लम्बी कहानी जिसका अनुवाद किया है प्रेमचंद जी ने।
मनुष्य का जीवन आधार क्या है ?

माधो नामी एक चमार जिसके न घर था, न धरती, अपनी स्त्री और बच्चों सहित एक झोंपड़े में रहकर मेहनत मजदूरी द्वारा पेट पालता था। मजूरी कम थी, अन्न महंगा था। जो कमाता था, खा जाता था। सारा घर एक ही कम्बल ओढ़ कर जाड़ों के दिन काटता था और वह कम्बल भी फटकर तारतार रह गया था। पूरे एक वर्ष से वह इस विचार में लगा हुआ था कि दूसरा वस्त्र मोल ले। पेट मारमारकर उसने तीन रुपये जमा किए थे, और पांच रुपये पास के गांव वालों पर आते थे।

एक दिन उसने यह विचारा कि पांच रुपये गांव वालों से उगाहकर वस्त्र ले आऊं। वह घर से चला, गांव में पहुंचकर वह पहले एक किसान के घर गया। किसान तो घर में नहीं था, उसकी स्त्री ने कहा कि इस समय रुपया मौजूद नहीं, फिर दे दूंगी। फिर वह दूसरे के घर पहुंचा, वहां से भी रुपया न मिला। फिर वह बनिये की दुकान पर जाकर वस्त्र उधार मांगने लगा। बनिया बोला-हम ऐसे कंगालों को उधार नहीं देते। कौन पीछेपीछे फिरे? जाओ, अपनी राह लो।
वह निराश होकर घर को लौट पड़ा। राह में सोचने लगा-कितने अचरज की बात है कि मैं सारे दिन काम करता हूं, उस पर भी पेट नहीं भरता। चलते समय स्त्री ने कहा था कि वस्त्र अवश्य लाना। अब क्या करुं, कोई उधार भी तो नहीं देता। किसानों ने कह दिया, अभी हाथ खाली है, फिर ले लेना। तुम्हारा तो हाथ खाली है, पर मेरा काम कैसे चले? तुम्हारे पास घर, पशु, सबकुछ है, मेरे पास तो यह शरीर ही शरीर है। तुम्हारे पास अनाज के कोठे भरे पड़े हैं, मुझे एकएक दाना मोल लेना पड़ता है। सात दिन में तीन रुपये तो केवल रोटी में खर्च हो जाते हैं। क्या करुं, कहां जाऊं? हे भगवान्! सोचता हुआ मन्दिर के पास पहुंचकर देखता क्या है कि धरती पर कोई श्वेत वस्तु पड़ी है। अंधेरा हो गया, साफ न दिखाई देता है। माधो ने समझा कि किसी ने इसके वस्त्र छीन लिये हैं, मुझसे क्या मतलब? ऐसा न हो, इस झगड़े में पड़ने से मुझ पर कोई आपत्ति खड़ी हो जाए, चल दो।

थोड़ी दूर गया था कि उसके मन में पछतावा हुआ। मैं कितना निर्दयी हूं। कहीं यह बेचारा भूखों न मर रहा हो। कितने शर्म की बात है कि मैं उसे इस दशा में छोड़, चला जाता हूं। वह लौट पड़ा और उस आदमी के पास जाकर खड़ा हो गया।

2

पास पहुंचकर माधो ने देखा कि वह मनुष्य भलाचंगा जवान है। केवल शीत से दुःखी हो रहा है। उस मनुष्य को आंख भरकर देखना था कि माधो को उस पर दया आ गई। अपना कोट उतारकर बोला-यह समय बातें करने का नहीं, यह कोट पहन लो और मेरे संग चलो।

मनुष्य का शरीर स्वच्छ, मुख दयालु, हाथपांव सुडौल थे। वह परसन्न बदन था। माधो ने उसे कोट पहना दिया और बोला-मित्र, अब चलो, बातें पीछे होती रहेंगी।

मनुष्य ने परेमभाव से माधो को देखा और कुछ न बोला।

माधो-तुम बोलते क्यों नहीं? यहां ठंड है, घर चलो। यदि तुम चल नहीं सकते, तो यह लो लकड़ी, इसके सहारे चलो।

मनुष्य माधो के पीछेपीछे हो लिया।

माधो-तुम कहां रहते हो?

मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।

माधो-मैंने भी यही समझा था, क्योंकि यहां तो मैं सबको जानता हूं। तुम मन्दिर के पास कैसे आ गए?

मनुष्य-यह मैं नहीं बतला सकता।

माधो-क्या तुमको किसी ने दुःख दिया है?

मनुष्य-मुझे किसी ने दुःख नहीं दिया, अपने कर्मों का भोग है। परमात्मा ने मुझे दंड दिया है।

माधो-निस्संदेह परमेश्वर सबका स्वामी है, परन्तु खाने को अन्न और रहने को घर तो चाहिए। तुम अब कहां जाना चाहते हो?

मनुष्य-जहां ईश्वर ले जाए।

माधो चकित हो गया। मनुष्य की बातचीत बड़ी पिरय थी। वह ठग परतीत न होता था, पर अपना पता कुछ नहीं बताता था। माधो ने सोचा, अवश्य इस पर कोई बड़ी विपत्ति पड़ी है। बोलो-भाई, घर चलकर जरा आराम करो, फिर देखा जायेगा।

दोनों वहां से चल दिए। राह में माधो विचार करने लगा, मैं तो वस्त्र लेने आया था, यहां अपना भी दे बैठा। एक नंगा मनुष्य साथ है, क्या यह सब बातें देखकर मालती परसन्न होगी! कदापि नहीं, मगर चिन्ता ही क्या है? दया करना मनुष्य का परम धर्म है।

3

उधर माधो की स्त्री मालती उस दिन जल्दीजल्दी लकड़ी काटकर पानी लायी, फिर भोजन बनाया, बच्चों को खिलाया, आप खाया, पति के लिए भोजन अलग रखकर कुरते में टांका लगाती हुई यह विचार करने लगी-ऐसा न हो, बनिया मेरे पति को ठग ले, वह बड़ा सीधा है, किसी से छल नहीं करता, बालक भी उसे फंसा सकता है। आठ रुपये बहुत होते हैं, इतने रुपये में तो अच्छे वस्त्र मिल सकते हैं। पिछली सर्दी किस कष्ट से कटी। जाते समय उसे देर हो गई थी, परन्तु क्या हुआ, अब तक उसे आ जाना चाहिए था।

इतने में आहट हुई। मालती बाहर आयी, देखा कि माधो है। उसके साथ नंगे सिर एक मनुष्य है। माधो का कोट उसके गले में पड़ा है। पति के हाथों में कोई गठरी नहीं है, वह शर्म से सिर झुकाए खड़ा है। यह देखकर मालती का मन निराशा से व्याकुल हो गया। उसने समझा, कोई ठग है, त्योरी च़ाकर खड़ी हो देखने लगी कि वह क्या करता है।

माधो बोला-यदि भोजन तैयार हो तो ले आओ।

मालती जलकर राख हो गई, कुछ न बोली। चुपचाप वहीं खड़ी रही। माधो ताड़ गया कि स्त्री क्रोधग्नि में जल रही है।

माधो-क्या भोजन नहीं बनाया?

मालती-(क्रोध से) हां, बनाया है, परन्तु तुम्हारे वास्ते नहीं, तुम तो वस्त्र मोल लेने गए थे? यह क्या किया, अपना कोट भी दूसरे को दे दिया? इस ठग को कहां से लाए? यहां कोई सदाबरत थोड़े ही चलता है।

माधो-मालती, बसबस! बिना सोचेसमझे किसी को बुरा कहना उचित नहीं है। पहले पूछ तो लो कि यह कैसा....

मालती-पहले यह बताओ कि रुपये कहां फेंके?

माधो-यह लो अपने तीनों रुपये, गांव वालों ने कुछ नहीं दिया।

मालती-(रुपये लेकर) मेरे पास संसार भर के नंगेलुच्चों के लिए भोजन नहीं है।

माधो-फिर वही बात! पहले इससे पूछ तो लो, क्या कहता है।

मालती-बसबस! पूछ चुकी। मैं तो विवाह ही करना नहीं चाहती थी, तुम तो घरखोऊ हो।

माधो ने बहुतेरा समझाया वह एक न मानी। दस वर्ष के पुराने झगड़े याद करके बकवाद करने लगी, यहां तक कि क्रोध में आकर माधो की जाकेट फाड़ डाली और घर से बाहर जाने लगी। पर रास्ते में रुक गई और पति से बोली-अगर यह भलामानस होता तो नंगा न होता। भला तुम्हारी भेंट इससे कहां हुई?

माधो-बस, यही तो मैं तुमको बतलाना चाहता हूं। यह गांव के बाहर मन्दिर के पास नंगा बैठा था। भला विचार तो कर, यह ऋतु बाहर नंगा बैठने की है? दैवगति से मैं वहां जा पहुंचा, नहीं तो क्या जाने यह मरता या जीता। हम क्या जानते हैं कि इस पर क्या विपत्ति पड़ी है। मैं अपना कोट पहनाकर इसे यहां ले आया हूं। देख, क्रोध मत कर, क्रोध पाप का मूल है। एक दिन हम सबको यह संसार छोड़ना है।

मालती कुछ कहना चाहती थी, पर मनुष्य को देखकर चुप हो गई। वह आंखें मूंदे, घुटनों पर हाथ रखे, मौन धारण किए स्थिर बैठा था।

माधो-प्यारी! क्या तुममें ईश्वर का परेम नहीं?

यह वचन सुन, मनुष्य को देखकर मालती का चित्त तुरन्त पिघल गया, झट से उठी और भोजन लाकर उसके सामने रख दिया और बोली-खाइए।

मालती की यह दशा देखकर मनुष्य का मुखारविंद खिल गया और वह हंसा। भोजन कर लेने पर मालती बोली-तुम कहां से आये हो?

मनुष्य-मैं यहां का रहने वाला नहीं।

मालती-तुम मन्दिर के पास किस परकार पहुंचे?

मनुष्य-मैं कुछ नहीं बता सकता।

मालती-क्या किसी ने तुम्हारा माल चुरा लिया?

मनुष्य-किसी ने नहीं। परमेश्वर ने यह दंड दिया है!

मालती-क्या तुम वहां नंगे बैठे थे?

मनुष्य-हां, शीत के मारे ठिठुर रहा था। माधो ने देखकर दया की, कोट पहनाकर मुझे यहां ले आया, तुमने तरस खाकर मुझे भोजन खिला दिया। भगवान तुम दोनों का भला करे।

मालती ने एक कुरता और दे दिया। रात को जब वह अपने पति के पास जाकर लेटी तो यह बातें करने लगी-

मालती-सुनते हो?

माधो-हां।

मालती-अन्न तो चुक गया। कल भोजन कहां से करेंगे? शायद पड़ोसिन से मांगना पड़े।

माधो-जिएंगे तो अन्न भी कहीं से मिल ही जाएगा।

मालती-वह मनुष्य अच्छा आदमी मालूम होता है। अपना पता क्यों नहीं बतलाता?

माधो-क्या जानूं। कोई कारण होगा।

मालती-हम औरों को देते हैं, पर हमको कोई नहीं देता?

माधे ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया, मुंह फेरकर सो गया।

4

परातःकाल हो गया। माधो जागा, बच्चे अभी सोये पड़े थे। मालती पड़ोसिन से अन्न मांगने गयी थी। अजनबी मनुष्य भूमि पर बैठा आकाश की ओर देख रहा था, परन्तु उसका मुख अब परसन्न था।

माधो-मित्र, पेट रोटी मांगता है, शरीर वस्त्र; अतएव काम करना आवश्यक है। तुम कोई काम जानते हो?

मनुष्य-मैं कोई काम नहीं जानता।

माधो-अभ्यास बड़ी वस्तु है, मनुष्य यदि चाहे तो सबकुछ सीख सकता है।

मनुष्य-मैं सीखने को तैयार हूं, आप सिखा दीजिए।

माधो-तुम्हारा नाम क्या है?

मनुष्य-मैकू।

माधो-भाई मैकू, यदि तुम अपना हाल सुनाना नहीं चाहते तो न सुनाओ, परन्तु कुछ काम अवश्य करो। जूते बनाना सीख लो और यहीं रहो।

मैकू-बहुत अच्छा।

अब माधो ने मैकू को सूत बांटना, उस पर मोम च़ाना, जूते सीना आदि काम सिखाना शुरू कर दिया। मैकू तीन दिन में ही ऐसे जूते बनाने लगा, मानो सदा से चमार का ही काम करता रहा हो। वह घर से बाहर नहीं निकलता था, बोलता भी बहुत कम था। अब तक वह केवल एक बार उस समय हंसा था जब मालती ने उसे भोजन कराया था, फिर वह कभी नहीं हंसा।

5

धीरेधीरे एक वर्ष बीत गया। चारों ओर धूम मच गई कि माधो का नौकर मैकू जैसे पक्के मजबूत जूते बनाता है, दूसरा कोई नहीं बना सकता। माधो के पास बहुत काम आने लगा और उसकी आमदनी बहुत ब़ गई।

एक दिन माधो और मैकू बैठे काम कर रहे थे कि एक गाड़ी आयी, उसमें से एक धनी पुरुष उतरकर झोंपड़े के पास आया। मालती ने झट से किवाड़ खोल दिए; वह भीतर आ गया।

माधो ने उठकर परणाम किया। उसने ऐसा सुन्दर पुरुष पहले कभी नहीं देखा था। वह स्वयं दुबला था, मैकू और भी दुबला और मालती तो हिड्डयों का पिंजरा थी। यह पुरुष तो किसी दूसरे ही लोक का वासी जान पड़ता था-लाल मुंह, चौड़ी छाती, तनी हुई गर्दन; मानो सारा शरीर लोहे में ला हुआ है।

पुरुष-तुममें उस्ताद कौन है?

माधो-हुजूर, मैं।

पुरुष-(चमड़ा दिखाकर) तुम यह चमड़ा देखते हो?

माधो-हां, हुजूर।

पुरुष-तुम जानते हो कि यह किस जात का चमड़ा है?

माधो-महाराज, यह चमड़ा बहुत अच्छा है।

पुरुष-अच्छा, मूर्ख कहीं का! तुमने शायद ऐसा चमड़ा कभी नहीं देखा होगा। यह जर्मन देश का चमड़ा है, इसका मोल बीस रुपये है।

माधो-(भय से) भला महाराज, ऐसा चमड़ा मैं कहां से देख सकता था?

पुरुष-अच्छा, तुम इसका बूट बना सकते हो।

माधो-हां, हुजूर, बना सकता हूं।

पुरुष-हां, हुजूर की बात नहीं, समझ लो कि चमड़ा कैसा है और बनवाने वाला कौन है। यदि साल भर के अन्दर कोई टांका उखड़ गया अथवा जूते का रूप बिगड़ गया तो तुझे बंदीखाने जाना पड़ेगा, नहीं तो दस रुपये मजूरी मिलेगी।

माधो ने मैकू की ओर कनखियों से देखकर धीरे से पूछा कि काम ले लूं? उसने कहा-हां, ले लो। माधो नाप लेने लगा।

पुरुष-देखो, नाप ठीक लेना, बूट छोटा न पड़ जाए। (मैकू की तरफ देखकर) यह कौन है?

माधो-मेरा कारीगर।

पुरुष-(मैकू से) होहो, देखो बूट एक वर्ष चलना चाहिए। पूरा एक वर्ष, कम नहीं।

मैकू का उस पुरुष की ओर ध्यान ही नहीं था। वह किसी और ही धुन में मस्त बैठा हंस रहा था।

पुरुष-(क्रोध से) मूर्ख! बात सुनता है कि हंसता है। देखो, बूट बहुत जल्दी तैयार करना, देर न होने पाए।

बाहर निकलते समय पुरुष का मस्तक द्वार से टकरा गया। माधो बोला सिर है कि लोहा, किवाड़ ही तोड़ डाला था।

मालती बोली-धनवान ही बलवान होते हैं। इस पुरुष को यमराज भी हाथ नहीं लगा सकता, और की तो बात ही क्या है?

उस आदमी के जाने के बाद माधो ने मैकू से कहा-भाई, काम तो ले लिया है, कोई झगड़ा न खड़ा हो जाए। चमड़ा बहुमूल्य है और यह आदमी बड़ा क्रोधी है, भूल न होनी चाहिए। तुम्हारा हाथ साफ हो गया है, बूट काट तुम दो, सी मैं दूंगा।

मैकू बूट काटने लगा। मालती नित्य अपने पति को बूट काटते देखा करती थी। मैकू की काट देखकर चकरायी कि वह यह कर क्या रहा है। शायद बड़े आदमियों के बूट इसी परकार काटे जाते हों, यह विचार कर चुप रह गई।

मैकू ने चमड़ा काटकर दोपहर तक स्लीपर तैयार कर लिये। माधो जब भोजन करके उठा तो देखता क्या है कि बूट की जगह स्पीलर बने रखे हैं। वह घबरा गया और मन में कहने लगा-इस मैकू को मेरे साथ रहते एक वर्ष हो गया, ऐसी भूल तो उसने कभी नहीं की। आज इसे क्या हो गया! उस पुरुष ने तो बूट बनाने को कहा था, इसने तो स्लीपर बना डाले। अब उसे क्या उत्तर दूंगा, ऐसा चमड़ा और कहां से मिल सकता है! (मैकू से)-मित्र, यह तुमने क्या किया? उसने तो बूट बनाने को कहा था न! अब मेरे सिर के बाल न बचेंगे।

यह बातें हो ही रही थी कि द्वार पर एक आदमी ने आकर पुकारा। मालती ने किवाड़ खोल दिए। यह उस धनी आदमी का वही नौकर था, जो उसके साथ यहां आया था। उसने आते ही कहा-रामराम, तुमने बूट बना तो नहीं डाले?

माधो-हां, बना रहा हूं।

नौकर-मेरे स्वामी का देहान्त हो गया, अब बूट बनाना व्यर्थ है।

माधो-अरे!

नौकर-वह तो घर तक भी पहुंचने नहीं पाये, गाड़ी में ही पराण त्याग दिए। स्वामिनी ने कहा है कि उस चमड़े के स्लीपर बना दो।

माधो-(परसन्न होकर) यह लो स्लीपर।

आदमी स्लीपर लेकर चलता बना।

6

मैकू को माधो के साथ रहतेरहते छः वर्ष बीत गए। अब तक वह केवल दो बार हंसा था, नहीं तो चुपचाप बैठा अपना काम किए जाता था। माधो उस पर अति परसन्न था और डरता रहता था कि कहीं भाग न जाए। इस भय से फिर माधो ने उससे पताबता कुछ नहीं पूछा।

एक दिन मालती चूल्हे में आग जल रही थी, बालक आंगन में खेल रहे थे, माधो और मैकू बैठे जूते बना रहे थे कि एक बालक ने आकर कहा-चाचा मैकू, देखो, वह स्त्री दो लड़कियां संग लिये आ रही हैं।

मैकू ने देखा कि एक स्त्री चादर ओ़े, छोटीछोटी कन्याएं संग लिए चली आ रही है। कन्याओं का एकसा रंगरूप है, भेद केवल यह है कि उनमें एक लंगड़ी है। बुयि भीतर आयी तो माधो ने पूछा-माई, क्या काम है?

उसने कहा-इन लड़कियों के जूते बना दो।

माधो बोला-बहुत अच्छा।

वह नाप लेने लगा तो देखा कि मैकू इन लड़कियों को इस परकार ताक रहा है, मानो पहले कहीं देखा है।

बुयि-इस लड़की का एक पांव लुंजा है, एक नाप इसका ले लो। बाकी तीन पैर एक जैसे हैं। ये लड़कियां जुड़वां है।

माधो-(नाप लेकर) यह लंगड़ी कैसे हो गई, क्या जन्म से ही ऐसी है?

बुयि-नहीं, इसकी माता ने ही इसकी टांग कुचल दी थी।

मालती-तो क्या तुम इनकी माता नहीं हो?

बुयि-नहीं, बहन, न इनकी माता हूं, न सम्बन्धी। ये मेरी कन्याएं नहीं। मैंने इन्हें पाला है।

मालती-तिस पर भी तुम इन्हें बड़ा प्यार करती हो?

बुयि-प्यार क्यों न करुं, मैंने अपना दूध पिलापिलाकर इन्हें बड़ा किया है। मेरा अपना भी बालक था, परन्तु उसे परमात्मा ने ले लिया। मुझे इनके साथ उससे भी अधिक परेम है।

मालती-तो ये किसकी कन्याएं हैं?

बुयि-छह वर्ष हुए कि एक सप्ताह के अंदर इनके मातापिता का देहांत हो गया। पिता की मंगल के दिन मृत्यु हुई, माता की शुक्रवार को। पिता के मरने के तीन दिन पीछे ये पैदा हुईं। इनके मांबाप मेरे पड़ोसी थे। इनका पिता लकड़हारा था। जंगल में लकड़ियां काटतेकाटते वृक्ष के नीचे दबकर मर गया। उसी सप्ताह में इनका जन्म हुआ। जन्म होते ही माता भी चल बसी। दूसरे दिन जब मैं उससे मिलने गयी तो देखा कि बेचारी मरी पड़ी है। मरते समय करवट लेते हुए इस कन्या की टांग उसके नीचे दब गई। गांव वालों ने उसका दाहकर्म किया। इनके मातापिता रंक थे, कौड़ी पास न थी। सब लोग सोचने लगे कि कन्याओं का कौन पाले। उस समय वहां मेरी गोद में दो महीने का बालक था। सबने यही कहा कि जब तक कोई परबन्ध न हो, तुम्हीं इनको पालो। मैंने इन्हें संभाल लिया। पहलेपहल मैं इस लंगड़ी को दूध नहीं पिलाया करती थी, कयोंकि मैं समझती थी कि यह मर जायेगी, पर फिर मुझे इस पर दया आ गई और इसे भी दूध पिलाने लगी। उस समय परमात्मा की कृपा से मेरी छाती में इतना दूध था कि तीनों बालकों को पिलाकर भी बह निकलता था। मेरा बालक मर गया, ये दोनों पल गईं। हमारी दशा पहले से अब बहुत अच्छी है। मेरा पति एक बड़े कारखाने में नौकर है। मैं इन्हें प्यार कैसे न करुं, ये तो मेरा जीवनआधार हैं।

यह कहकर बुयि ने दोनों लड़कियों को छाती से लगा लिया।

मालती-सत्य है, मनुष्य मातापिता के बिना जी सकता है, परन्तु ईश्वर के बिना जीता नहीं रह सकता।

ये बातें हो रही थीं कि सारा झोंपड़ा परकाशित हो गया। सबने देखा कि मैकू कोने में बैठा हंस रहा है।

7

बुयि लड़कियों को लेकर बाहर चली गयी, तो मैकू ने उठकर माधो और मालती को परणाम किया और बोला-स्वामी, अब मैं विदा होता हूं। परमात्मा ने मुझ पर दया की। यदि कोई भूलचूक हुई हो तो क्षमा करना।

माधो और मालती ने देखा कि मैकू का शरीर तेजोमय हो रहा है।

माधो दंडवत करके बोला-मैं जान गया कि तुम साधारण मनुष्य नहीं। अब मैं तुम्हें नहीं रख सकता, न कुछ पूछ सकता हूं। केवल यह बता दो कि जब मैं तुम्हें अपने घर लाया था तो तुम बहुत उदास थे। जब मेरी स्त्री ने तुम्हें भोजन दिया तो तुम हंसे। जब वह धनी आदमी बूट बनवाने आया था तब तुम हंसे। आज लड़कियों के संग बुयि आयी, तब तुम हंसे। यह क्या भेद है? तुम्हारे मुख पर इतना तेज क्यों है?

मैकू-तेज का कारण तो यह है कि परमात्मा ने मुझ पर दया की, मैं अपने कर्मों का फल भोग चुका। ईश्वर ने तीन बातों को समझाने के लिए मुझे इस मृतलोक में भेजा था, तीनों बातें समझ गया। इसलिए मैं तीन बार हंसा। पहली बार जब तुम्हारी स्त्री ने मुझे भोजन दिया, दूसरी बार धनी पुरुष के आने पर, तीसरी बार आज बुयि की बात सुनकर।

माधो-परमेश्वर ने यह दंड तुम्हें क्यों दिया था? वे तीन बातें कौनसी हैं, मुझे भी बतलाओ?

मैकू-मैंने भगवान की आज्ञा न मानी थी, इसलिए यह दंड मिला था। मैं देवता हूं, एक समय भगवान ने मुझे एक स्त्री की जान लेने के लिए मृत्युलोक में भेजा। जाकर देखता हूं कि स्त्री अति दुर्बल है और भूमि पर पड़ी है। पास तुरन्त की जन्मी दो जुड़वां लड़कियां रो रही हैं। मुझे यमराज का दूत जानकर वह बोली-मेरा पति वृक्ष के नीचे दबकर मर गया है। मेरे न बहन है, न माता, इन लड़कियों का कौन पालन करेगा? मेरी जान न निकाल, मुझे इन्हें पाल लेने दे। बालक मातापिता बिना पल नहीं सकता। मुझे उसकी बातों पर दया आ गई। यमराज के पास लौट आकर मैंने निवेदन किया कि महाराज, मुझे स्त्री की बातें सुनकर दया आ गई। उसकी जुड़वां लड़कियों को पालनेवाला कोई नहीं था, इसलिए मैंने उसकी जान नहीं निकाली, क्योंकि बालक मातापिता के बिना पल नहीं सकता। यमराज बोले-जाओ, अभी उसकी जान निकाल लो, और जब तक ये तीन बातें न जान लोगे कि (1) मनुष्य में क्या रहता है, (2) मनुष्य को क्या नहीं मिलता, (3) मनुष्य का जीवनआधार क्या है, तब तक तुम स्वर्ग में न आने पाओगे। मैंने मृत्युलोक में आकर स्त्री की जान निकाल ली। मरते समय करवट लेते हुए उसे एक लड़की की टांग कुचल दी। मैं स्वर्ग को उड़ा, परन्तु आंधी आयी मेरे पंख उखड़ गए और मैं मन्दिर के पास आ गिरा।

8

अब माधो और मालती समझ गए कि मैकू कौन है। दोनों बड़े परसन्न हुए कि अहोभाग्य, हमने देवता के दर्शन किए।

मैकू ने फिर कहा-जब तक मनुष्य मनुष्यशरीर धारण नहीं किया था, मैं शीतगमीर्, भूखप्यास का कष्ट न जानता था, परन्तु मृत्युलोक में आने पर परकट हो गया कि दुःख क्या वस्तु है। मैं भूख और जाड़े का मारा मन्दिर में घुसना चाहता था, लेकिन मंन्दिर बंद था। मैं हवा की आड़ में सड़क पर बैठ गया। संध्यासमय एक मनुष्य आता दिखाई दिया। मृत्युलोक में जन्म लेने पर यह पहला मनुष्य था, जो मैंने देख था, उसका मुख ऐसा भयंकर था कि मैंने नेत्र मूंद लिये। उसकी ओर देख न सका। वह मनुष्य यह कह रहा था कि स्त्रीपुत्रों का पालनपोषण किस भांति करें, वस्त्र कहां से लाये इत्यादि। मैंने विचारा, देखो, मैं तो भूख और शीत से मर रहा हूं, यह अपना ही रोना रो रहा है, मेरी कुछ सहायता नहीं करता। वह पास से निकल गया। मैं निराश हो गया। इतने में मेरे पास लौट आया, अब दया के कारण उसका मुख सुंदर दिखने लगा। माधो, वह मनुष्य तुम थे। जब तुम मुझे घर लाये, मालती का मुख तुमसे भयंकर था, क्योंकि उसमें दया का लेशमात्र न था, परन्तु जब वह दयालु होकर भोजन लायी तो उसके मुख की कठोरता जाती रही! तब मैंने समझा कि मनुष्य में तत्त्ववस्तु परेम है। इसीलिए पहली बार हंसा।

एक वर्ष पीछे वह धनी मनुष्य बूट बनवाने आया। उसे देखकर मैं इस कारण हंसा कि बूट तो एक वर्ष के लिए बनवाता है और यह नहीं जानता कि संध्या होने से पहले मर जाएगा। तब दूसरी बात का ज्ञान हुआ कि मनुष्य जो चाहता है सो नहीं मिलता, और मैं दूसरी बार हंसा।

छह वर्ष पीछे आज यह बुयि आयी तो मुझे निश्चय हो गया कि सबका जीवन आधार परमात्मा है, दूसरा कोई नहीं, इसलिए तीसरी बार हंसा।

9

मैकू परकाशस्वरूप हो रहा था, उस पर आंख नहीं जमती थी। वह फिर कहने लगा-देखो, पराणि मात्र परेम द्वारा जीते हैं, केवल पोषण से कोई नहीं जी सकता। वह स्त्री क्या जानती थी कि उसकी लड़कियों को कौन पालेगा, वह धनी पुरुष क्या जानता था कि गाड़ी में ही मर जाऊंगा, घर पहुंचना कहां! कौन जानता था कि कल क्या होगा, कपड़े की जरूरत होगी कि कफन की।

मनुष्य शरीर में मैं केवल इस कारण जीता बचा कि तुमने और तुम्हारी स्त्री ने मुझसे परेम किया। वे अनाथ लड़कियां इस कारण पलीं कि एक बुयि ने परेमवश होकर उन्हें दूध पिलाया। मतलब यह है कि पराणी केवल अपने जतन से नहीं जी सकते। परेम ही उन्हें जिलाता है। पहले मैं समझता था कि जीवों का धर्म केवल जीना है, परन्तु अब निश्चय हुआ कि धर्म केवल जीना नहीं, किन्तु परेमभाव से जीना है। इसी कारण परमात्मा किसी को यह नहीं बतलाता कि तुम्हें क्या चाहिए, बल्कि हर एक को यही बतलाता है कि सबके लिए क्या चाहिए। वह चाहता है कि पराणि मात्र परेम से मिले रहें। मुझे विश्वास हो गया कि पराणों का आधार परेम है, परेमी पुरुष परमात्मा में, और परमात्मा परेमी पुरुष में सदैव निवास करता है। सारांश यह है कि परेम और पमेश्वर में कोई भेद नहीं।

यह कहकर देवता स्वर्गलोक को चला गया।

साभार @ हिन्दी समय