31 दिसंबर, 2015

ग़ज़ल : सिया सचदेव

सिया सचदेव की ग़ज़लें
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6 अगस्त 1969को लखनऊ के पास सीतापुर में जन्मी सिया सचदेव को बचपन से ही कला-संगीत का वातावरण मिला। उन्होंने कच्ची उम्र से ही कविताएं लिखना शुरू कर दिया।हिन्दी,उर्दू,अंग्रेजी व पंजाबी में
इन्होने कई    गीत,दोहे,कहानियां,लेख,भजन,नज्म तथा ग़ज़लें लिखी जो समय समय पर देश की स्थापित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं..2011 में  उनकी ग़ज़लों का पहला मजमुआ ‘उफ़ ये ज़िन्दगी’ शाया हुआ। उस्तादों से ‘उफ़ ये ज़िन्दगी’ को भरपूर सराहना मिली उनकी चौथी किताब जल्द प्रकाशित होने वाली है। जिंदगी के तमाम मरहलों के साथ-साथ एक सदा-शांत सूफियाना भाव सिया की ग़ज़लों-गीतों का स्थायी भाव है। साहित्य की दूसरी विधाओं पर भी सिया की खूब पकड़ है। उनकी कहानियों पर दो लघु फिल्में बन चुकी हैं। जाने माने मंचों से सिया जी ने प्रस्तुति दी है।उन्हे निराला सम्मान,साहित्य मणि,साहित्य कलश,काव्य शिरोमणि इत्यादि कई सम्मान से नवाज़ा गया है।वर्तमान में बरेली (उ.प्र.) में रह रहीं सिया जी अनेक साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओ में विभिन्न पदों पर रहते हुए सफल संचालन कर रही हैं।
                साथियों आज की पोस्ट सिया जी के नाम है,,,पेश है उनकी लिखी कुछ ग़ज़लें......

एक
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आईना रख के सामने बैठा न कीजिये
अपने को इतने गौर से देखा न कीजिये

यादों की ज़िंदगी का भरोसा न कीजिये
बिस्तर को आँसुवों से भिगोया न कीजिये

इस रोग का इलाज़ नहीं है कहीं जनाब
पहरों किसी की सोच में डूबा न कीजिये

एहसास यूँ करोगे तो दिल पे बन आएगी
ऐसे किसी के वास्ते रोया न कीजिये

कितने नक़ाब ओढ़े है हर आदमी यहाँ
आइना लेके शहर में घूमा न कीजिये

रिश्तों का कुछ तो आप भी रक्खा करे लिहाज़
हर बात को बढ़ा के उछाला न कीजिये

बरसों के बाद खुशियों की दस्तक सुनाई दी
इस घर में ग़म का कोई भी चर्चा न कीजिये

में'आर_ ए_इश्क़ आपने समझा नहीं है क्या ?
दुनिया के सामने हमें रुसवा न कीजिये

तंग आ गए है आपकी इन बंदिशों से हम
ऐसा न कीजिये कभी वैसा न कीजिये

फिरते है लोग मुट्ठे में अपनी नमक लिए
यूं ज़ख्म दूसरों को दिखाया न कीजिये

कुछ तो हमें सकूं से जीने भी दे ज़रा
सांसों पे मेरी आप यूँ क़ब्ज़ा न कीजिये

अपनी ज़बान पे भी कभी कायम रहे ज़रा
झूठा कभी भी आप यूँ दावा न कीजिये

आदाब ए दोस्ती का तकाज़ा है ये सिया
गैरों के सामने कोई चर्चा न कीजिये
०००

दो
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कैसे कह दूँ तुझे तू मेरा है
तेरा अपना अलग बसेरा है

मैं तुझे किस तरह दिखाई दूँ
तेरी दुनिया ने तुझको घेरा है

तेरे आँगन में रौशनी हरसू
मेरे चारो तरफ अँधेरा है

हम में इतना सा बस ताल्लुक़ है
मैं हूँ इक रात तू सवेरा है

हर तरफ शोर है क़यामत का
दिल में खामोशियों का डेरा है

देख कर तुझ में इतनी तबदीली
एक अनजान डर ने घेरा है
०००

तीन
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याद रह जायेगी बस फ़िक्र की फन की खुशबू
छोड़ जाएंगे यहाँ हम तो  सुखन की खुशबू

थरथाते  हुए लफ़्ज़ों से मेरे ज़ाहिर है
मेरे लहजे में उतर आई थकन की खुशबू

कुछ शहीदों ने बहाया है लहू सरहद पर
हर तरफ फैल गयी मेरे वतन की खुशबू

उसका पैकर है की इक इत्र का मजमुआ है
जैसे इक गुल में सिमट आये  चमन की खुशबू

खासियत है ये मेरे मुल्क की दुनिया वालो
मिलके रहती है यहाँ गंग ओ जमन की खुशबू

तेरे आमाल बता देंगे हकीकत तेरी
छुप  नहीं सकती सिया  चाल  चलन की खुशबू
०००

चार

मसाइब हमसफ़र रहते हैं मेरे
मरासिम दर्द से ग़हरे हैं मेरे
कोई जब पोंछने वाला नहीं है
तो फिर ये अश्क़ क्यों बहते है मेरे
सभी रस्ते हुए मसदूद जब तो
तेरी जानिब क़दम उट्ठे हैं मेरे
मुझे ग़ैरों से कब शिकवा है कोई
मुख़ालिफ़ आज तो अपने हैं मेरे
नहीं आती मुझे तख़रीब कारी
नज़रिये आपसे अच्छे है मेरे
कहा उसने सिया साँसो पे तेरी
तेरी हर फ़िक्र पर पहरे मेरे
०००

पाँच
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दम उसकी झूठी मोहब्बत का भर रही हूँ मैं
खुद अपने आप को बर्बाद कर रही हूँ मैं

मेरी अना की गया है वो किर्चियां करके
चुभन सी हर घड़ी  महसूस कर रही हूँ मैं

यक़ीन प्यार का  अब आँधियों की जद में हैं
मुझे संभाल लो आकर बिखर रही हूँ मैं

मैं अपने क़दमों की आहट भी सुन नहीं पाती
ख़ुदा  ही जाने कहाँ से गुज़र रही हूँ मैं

तेरे ख़ुलूस ने इतना किया मुझे मोहतात
खुद अपने जिस्म के साये से  डर रही हूँ मैं

लगाओ अब मेरी कमज़ोरियों का अंदाज़ा
जो वादा करके भी तुमसे मुकर रही हूँ मैं

मेरी हयात में दो चार लम्हे बाक़ी है
ठहर जा मौत ज़रा सा संवर रही हूँ मैं
०००
सभी ग़ज़लः सिया सचदेव
प्रस्तुतिः रुचि गाँधी
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टिप्पणियाँ:-

राहुल वर्मा 'बेअदब':-

बहुत उम्दा सिया जी
तेरे आमाल बता देंगे हकीक़त तेरी
छुप नहीं सकती 'सिया' चाल-चलन की ख़ुशबू
बेहतरीन

फ़रहत अली खान:-
कुछ मसरूफ़ियत थी, सो सिया जी की ग़ज़लें अभी अभी पढ़ीं।
बहुत उम्दा ग़ज़लें कही हैं। पहली और पाँचवीं ग़ज़ल सबसे ज़्यादा पसंद आयीं। हालाँकि सभी ग़ज़लें क़ाबिल-ए-दाद हैं।
पहली ग़ज़ल का दसवाँ शेर,
दूसरी ग़ज़ल का दूसरा शेर,
तीसरी ग़ज़ल का पाँचवाँ शेर,
चौथी ग़ज़ल का तीसरा शेर
और पाँचवीं ग़ज़ल का छठा शेर
हासिल-ए-ग़ज़ल शेर हुए हैं।

सत्यनारायण:-
मित्रो आज का दिन भी इन्हीं ग़ज़लों पर चर्चा का दिन है...इसलिए बातचीत ज़ारी रहे....सिया जी अपनी ग़ज़लों की रचना प्रक्रिया के बारे में कुछ कहना चाहें तो कहें...अच्छा लगेगा....और कोई ग़ज़ल भी साझा करना चाहें तो कर सकती...सोमवार को नयी पोस्ट साझा होगी.....

सिया सचदेव:-
Farhat saheb aapne jis moHabbat aamez aur pur khulooS andaaz se mere kalaam ko saraha hai us ka shukriya adaa karne ke liye mere paas alfaaZ nahiN haiN. Allah ka martaba buland kare, tah e dil shukr guzaar hooN aapki main shukrguzar hoob bizoka group ki jo unhone  mujh jaise  adna se Qalamkaar  ko itna maan diya ..behad aabhari hoon main
Farhat saheb aapne jis moHabbat aamez aur pur khulooS andaaz se mere kalaam ko saraha hai us ka shukriya adaa karne ke liye mere paas alfaaZ nahiN haiN. Allah aapka ka martaba buland kare, tah e dil shukr guzaar hooN aapki

मेरी शायरी की उम्र बहुत मुख़्तसर है।  टूटे फूटे लफ़्ज़ों ने कब शायरी का रूप  धरा  पता ही  नहीं  चला .और  सिया नए सफर पे गामज़न हो गई।देखा जाए तो आप इससे कुल 5  बरस की मुददत  पर   आंक  सकते हैं ,,, लेकिन इंसान  को  उसका गुज़रा  हुआ  माज़ी कभी नहीं भूलता। । शायद  बचपन से ले कर आज तक जो कुछ मेरी ज़िन्दगी   ने देखा ,समझा ,जाना ,, उसी की अक्कासी मेरी शायरी में दर  आई  … अपने  संस्कार से मज़बूती से जुड़ी  एक घरेलू औरत . अपने दर्द का इज़हार कैसे करती होगी , मैं ने शायरी के माध्यम से उन् लाखों औरतों के दर्द को महसूस किया ,ये मुझे मेरी शायरी की देन  है. सोचती हूँ जिन को अपना दुःख कहने का कोई जरिया नहीं मिलता हो  कैसे अपना जीवन बिता पाती होंगी।
aap sabhi ne is qadar mohbbaton se nawaz diya to  hausla badh gaya कृतज्ञभाव धन्यवाद देती हूँ आप सभी आदरणीय गुणीजनों का आप इसी तरह हौसला देते रहें और  मैं आपके स्नेह को सार्थक सिद्ध कर सकूँ. आपकी इन नेक शुभकामनाओ के लिए आभारी हूँ !आपका स्नेह ही मेरा  सामर्थ्य है. सादर और ससम्मान नमन

20 दिसंबर, 2015

लघुकथाएँ : धर्मपाल साहिल

आज बिजूका पर प्रस्तुत हैं धर्मपाल साहिल जी की पाँच लघुकथाएं जिनका पंजाबी से हिंदी अनुवाद सुभाष नीरव ने किया है।

1. खुलती हुई गांठे

रोज़ाना की तरह मैं शाम के वक्त अपने एक्स-रे वाले मित्र की दुकान पर पहुँचा।
      ''मास्टर जी, ज़रा बैठो, मैं अभी आया। अगर कोई मरीज़ आए तो उसको बिठा कर रखना।'' कहता हुआ वह तेज़ कदमों से बाहर चला गया। मित्र के जाते ही मैं मरीज़ों वाले बैंच पर बैठने की बजाय मित्र की रिवॉल्विंग चेअर पर बैठ गया। तभी एक खूबसूरत औरत वहाँ आई और मेरी ओर पर्ची बढ़ाते हुए बोली, ''डॉक्टर साहब, एक्स-रे करवाना है।''
      ''बैठो-बैठो, करते हैं।'' पर्ची पकड़ते हुए उस स्त्री के शब्द 'डॉक्टर साहब' मुझे फर्श से अर्श पर ले गए। डॉक्टर बनने की मेरी तीव्र इच्छा तो पारिवारिक मज़बूरियों के नीचे दबकर रह गई थी और मुझे मास्टरी करनी पड़ी थी। ''डॉक्टर साहब, देर लगेगी क्या ?'' औरत की मीठी आवाज़ ने मेरी सोच की लड़ी तोड़ दी।
      ''अभी करते हैं एक्स-रे। मैंने एक्स-रे फिल्म लेने के लिए भेजा था। बड़ी देर कर दी उसने।'' वैसे मैं चाहता था कि मेरा मित्र और देर से पहुँचे ताकि मेरा डॉक्टरी ओहदा और देर तक सुरक्षित रह सके। मैंने पर्ची पर उड़ती-सी दृष्टि डाली, 'ए-पी बैकबोन।'
      ''तुम्हारी पीठ की हड्डी में तकलीफ़ है ?''
      ''जी, डॉक्टर साहब।''
      ''कहीं गिरे थे ?''
      ''नहीं, डॉक्टर साहब।''
      ''कोई वजनी चीज़ झटके से उठाई होगी ?''
      ''घर का काम करते हुए हल्की-भारी चीज़ तो उठानी ही पड़ती है, डॉक्टर साहब।''
      औरत के मुँह से बार-बार 'डॉक्टर साहब' शब्द सुनकर मुझे नशा हो रहा था और मैं अपनी औकात ही भूल बैठा था। उसी समय चार-पाँच आदमी दुकान पर पहुँचे। एक ने हाथ में पकड़ी रसीद-बुक की पर्ची पर दुकान का नाम लिखते हुए कहा, ''डॉक्टर साहब ! भंडारे के लिए दान दीजिए। कितने की पर्ची काटूँ ?''
      मेरा मन हुआ कि कह दूँ, मैं दुकान का मालिक नहीं। परन्तु अपनी ओर घूरती औरत को देखकर मैंने जेब में से पाँच का नोट निकाल कर पीछा छुड़ाना चाहा।
      ''डॉक्टर साहब! कम से कम इक्कीस रुपये का दान करो...।'' कहते हुए उसने इक्कीस रुपये की पर्ची काटकर काउंटर पर रख दी। जेब में इक्कीस रुपये की जगह इक्कीस रुपये की पर्ची रखते हुए मुझे लगा जैसे रिवॉल्विंग चेअर की गद्दी पर कांटे उग आए हों। उनके जाते ही मैं कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और बाहर झांकने लग पड़ा। मुझे मित्र के अब तक न लौटने पर गुस्सा आ रहा था।
     
2. औरत से औरत तक

टेलिफोन पर बड़ी बेटी शीतल के एक्सीडेंट की ख़बर जैसे ही सुनी, वासुदेव बाबू घबराये हुए-से संशय भरे मन से अपनी छोटी बेटी मधु को संग लेकर तुरन्त समधी के घर पहुँचे। उन्हें गेट से भीतर प्रवेश करते देखकर रोने-पीटने वालों की आवाज़ें और तेज़ हो उठीं। दामाद सुरेश ने आगे बढ़कर वासुदेव बाबू को संभालते हुए भरे गले से बताया, ''बाज़ार से एक साथ लौटते हुए स्कूटर का एक्सीडेंट हो गया। शीतल सिर के बल गिरी और बेहोश हो गई। फिर होश नहीं आया। डॉक्टरों का कहना है, ब्रेन हेमरेज हो गया था।''
      वासुदेव बाबू बरामदे में सफ़ेद कपड़े में लिपटी अपनी बेटी की लाश को देखकर गश खाकर गिर पड़े। मधु ''दीदी उठो... देखो, पापा आए हैं... दीदी उठो...'' पुकार-पुकार कर रोने लगी। शीतल की सास मधु को अपनी छाती से लगाकर सुबकते हुए बोली, ''बेटी, हौसला रख... ईश्वर को यही मंजूर था।'' पीछे बैठी औरतों में से एक आवाज़ आई, ''सुरेश की माँ, रो लेने दो लड़की को, उबाल निकल जाएगा।''
      लेकिन मधु जोर-जोर से रोये जा रही थी और औरतों के 'वैण' आहिस्ता-आहिस्ता धीमे पड़ते-पड़ते खुसुर-फुसुर में बदल रहे थे। एक अधिक आयु की औरत ने शीतल की सास का कंधा हिलाया और कान के पास मुँह ले जाकर पूछा, ''अरी, क्या यह सुरेश की छोटी साली है ?''
      ''हाँ, बहन।'' सुरेश की माँ ने दुखी स्वर में कहा।
      ''यह तो शीतल से भी अधिक सुन्दर है। तुम्हें इधर-उधर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी। शीतल की बेटी की खातिर इतना तो सोचेंगे ही सुरेश की ससुराल वाले।''
      इतने में ही गुरो बोल उठी, ''छोड़ परे, बच्ची को हवाले करो उसके ननिहाल वालों के। मैं लाऊँगी अपनी ननद का रिश्ता। खूब सुन्दर! और फिर घर भर जाएगा दहेज से।''
      ''हाय, नसीब फूट गए मेरे बेटे के। बड़ी अच्छी थी मेरी बहू रानी। दो घड़ी भी नहीं रहता था उसके बगैर मेरा सुरेश। हाय रे!'' सुरेश की माँ चीखने लगी तो पास बैठी भागो ने उसे ढाढ़स देते हुए कहा, ''हौसला रख, सुरेश की माँ। भगवान का लाख-लाख शुक्र मना कि तेरा सुरेश बच गया। बहुएँ तो और बहुत हैं, बेटा और कहाँ से लाती तूँ ?''
      शीतल की लाश के पास बैठी मधु पत्थर हो गई।

3. मुआवज़ा

वर्षा के कारण गेहूं की फसल बर्बाद होने पर सरकार द्वारा मुआवज़ा वितरित किया जा रहा था। पटवारी द्वारा बनाई गई लिस्ट के उम्मीदवारों की सरपंच तसदीक कर रहा था। तभी भीड़ को चीरते हुए एक सत्तर वर्षीय फटेहाल बूढ़ी औरत लाठी के सहारे आगे बढ़ी। कुर्सियों पर विराजमान एस.डी.एम. तथा तहसीलदार के सामने पहुँच कर वह प्रार्थना करने लगी, ''साहब, मेरा नाम भी मुआवज़े की लिस्ट में चढ़ा लिया जाए। मैं जल्दी में इंतजाम न कर सकी, इसलिए पटवारी ने मेरा नाम लिस्ट में नहीं चढ़ाया।''
      ''इंतज़ाम ! कैसा इंतज़ाम ?'' दोनों अफ़सर एक साथ बोल पड़े।
      ''साहब, गाँव का लंबरदार कह रहा था जो इंतजाम करेगा, उसी का नाम लिस्ट में चढ़ाया जाएगा। और यह भी कह रहा था कि माई, इसका हिस्सा तो ऊपर तक जाता है, इसीलिए मैं सीधे आपके पास ले आई। कहीं पटवारी ही न पूरा का पूरा...।'' कहते-कहते बूढ़ी औरत ने थैले में से कागज में लिपटी बोतल जैसी चीज़ मेज़ पर रख दी।
      ''साहब, अब तो मुझे भी मुआवज़ा मिल जाएगा न ?''
      ''साहब, यह बुढ़िया पागल है। इसकी बात का विश्वास न करें।'' कहते हुए क्रोध से लाल-पीले होते हुए सरपंच और पटवारी बुढ़िया को खींचकर दूर ले जाने लगे। बुढ़िया हाँफती हुई बोल रही थी, ''लोगो, मैं पागल नहीं हूँ। पिछली बार भी जब बाढ़ के कारण मकान गिरने से मेरा पति दबकर मर गया था, तब भी मुझे मुआवजा नहीं मिला था क्योंकि मैं इतंजाम...।'' बाकी के शब्द भीड़ के शोर में विलीन हो गए।

4. लक्ष्मी

जगमग करती दीवाली की रात।
बच्चे पटाखे चला रहे थे। पाँच वर्षीय पिंकी अपने बाबा की बगल में बैठी नज़ारा देख रही थी। पिंकी ने अचानक प्रश्न किया, ''बाबा जी, दीवाली क्यों मनाते हैं ?''
      ''बेटी, दीवाली मनाने से घर में लक्ष्मी आती है।''
      ''फिर लक्ष्मी से क्या होता है ?''
      ''बेटी जिस घर में लक्ष्मी आ जाए, उस घर की किस्मत ही खुल जाती है। धन-दौलत की कमी नहीं रहती।''
      ''बाबा जी, अगर हमारे घर लक्ष्मी आ गई तो आप मुझे सिम्मी की साइकिल जैसी साइकिल लेकर दोगे न ?''
      ''हाँ-हाँ बेटा, क्यों नहीं। ज़रूर ले देंगे अपने बेटे को साइकिल। अच्छा, चल अब सो जाएँ। रात बहुत हो गई है।''
      पिंकी बाबा के साथ करवटें ले रही है। उसे नींद नहीं आ रही। उसे तो माँ के साथ सोने की आदत है न! पर उधर माँ साथ के कमरे में प्रसव-पीड़ा से बेहाल है। तभी पिंकी की दादी घबराई हुई अन्दर आई और भरे गले से कहने लगी, ''पिंकी के बाबा! हमारे घर फिर लक्ष्मी आई है।''
      ''आहा जी ! हमारे घर लक्ष्मी आ गई। आहा...जी। हमारे घर...'' सुनते ही पिंकी खुशी से झूम उठी। पर दूसरे ही पल, बाबा का उतरा चेहरा देख पिंकी ने हैरानी से पूछा, ''बाबा जी, हमारे घर तो लक्ष्मी आई है, फिर आप उदास क्यो हो गए ?''

5. मंगता

पंडाल में खाना ठंडा हो रहा था। नाचते हुए बारातियों की ताल मद्धम पड़ गई थी। खाना खाने के लिए बारात और मीठी गालियों की बरसात करने के लिए प्रतीक्षा करती औरतों की आँखें दुखने लगी थीं। पंडाल के एक ओर गुलाबी पगड़ी बाँधे नशे में धुत्त लड़के के बाप पर सभी की निगाहें टिकी हुई थीं। उसके सामने लड़की का बाप कमान की तरह दोहरा होकर अपनी पगड़ी उसके पैरों में रखता हुआ पंडाल में चलकर खाना खाने की विनती कर रहा था।
      ''बस, थोड़ी मोहलत और दे दो। अब चलकर रोटी खाएं, ठंडी हो रही है। आपको लौटने में दे हो जाएगी।''
      ''नहीं... हमारी शर्त अभी इसी वक्त नहीं मानी गई तो हम जा रहे हैं।'' कहते हुए लड़के के बाप ने पाँव गेट की ओर बढ़ाए।
      बाहर काफी देर से एक फटेहाल मंगता कुछ मिलने की आशा में बैठा था। उसने पास खड़े एक अपटडेट बाराती के आगे हाथ फैलाया तो उस बाराती ने गेट की ओर जाते लड़के के बाप की ओर इशारा करते हुए कहा, ''उससे मांग, वह लड़के का बाप है।''
      ''बाबू जी, वह क्या देगा ? वह तो खुद ही मंगता है।'' मंगते के शब्द सुनते ही बाहर जाते लड़के के बाप के पैर एकाएक रुक गए ।
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प्रस्तुति तितिक्षा
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टिप्पणियाँ:-

निधि जैन :-
'बाप बड़ा न भैया के साथ साथ हुस्न की भी अहमियत नही रुपैया की बाबत' दर्शाती हुई 'खुलती हुई गांठें' अच्छी बन पड़ी...

'औरत से औरत तक' आज भी समाज में स्त्रियों की दशा दर्शाती हुई अच्छी लघुकथा

'मुआवजा' इंतजाम करने वाले को ही मिलता है, मने लक्ष्मी उसी के घर जाती हैं जहाँ शुद्ध घी के दीपक  पहले से ही जल रहे हों, बढ़िया व्यंग्य

'लक्ष्मी' सभी को ईश्वरीय चाहिए मानवीय लक्ष्मी किसी को नही अच्छी लघुकथा

सुवर्णा :-
अच्छी लघुकथाएँ। "औरत से औरत तक" एक कटु सत्य। जाने कब तक सोच बदल पाएगी। लक्ष्मी.. अच्छी लगी। मुनव्वर जी का एक शेर याद आ गया लक्ष्मी पर..
फिर किसी ने लक्ष्मी मैया को ठोकर मार दी।
आज कूड़ेदान में फिर एक बच्ची मिल गई।
मंगता पढ़कर अच्छा लगा। शायद ऐसे शब्द सुनकर ऐसे लोगों का ज़मीर जाग जाए।

रेणुका:-
Itni achchi aur samvedansheel kathayein ..padhkar bahut achcha laga....aurat se aurat tak aur laksmi samaj Ki burayion ko darshati.......

स्वाति श्रोत्रि:-
आज के ज्वलंत मुद्दों पर रचि कहानियां बेहद खूबसूरत है। लक्ष्मी ,मुआवजा, औरत से  औरत मनभावन लगी

फ़रहत अली खान:-
क्या ख़ूब कहानियाँ हैं। मुझे सभी पसंद आयीं। सभी आम आदमी की नब्ज़ पकड़कर लिखी गयी कहानियाँ हैं।
शुक्रिया मनीषा जी।

कविता : लीलाधर जगूड़ी

1.असंत-वसंत के बहाने

हवा, पानी और ऋतुओं में बदल कर समय
हेमंत और शिशिर का कल्याणकारी उत्पाती
सहयोग ले कर
अनुवांशिकी के लिए खोजता या ख़ाली करवाता 
है जगह

संत या असंत आगंतुक वसंत ने
वृक्षस्थ पूर्वज— वसंत के पीछे
हेमंत—शिशिर दो वैरागियों को लगा रक्खा है
जो पत्रस्थ गेरुवे को भी उतार अपने सहित
सबको
दिगम्बर किए दे रहे हैं
और शीर्ण शिराओं से रक्तहीन पदस्थ पीलेपन के
ख़ात्मे में जुटे हुए हैं

हिम—शीत पीड़ित दो हथेलियों को करीब ले आने वाली
रगड़ावादी ये दो ऋतुएँ
जिनका काम ही है प्रभंजन से अवरोधक का
भंजन करवा देना
हवाओं को पेड़ों और पहाड़ों से लड़वा देना
नोचा—खोंसी में सबको अपत्र करवा देना
ताकि प्रकृति की लड़ाई भी हो जाए और बुहारी
भी
और परोपकार का स्वाभाविक ठेका छोड़ना भी न 
पड़े

पिछला वसंत अगर एक ही महंत की तरह
सब ऋतुओं को छेके रहे
तो नवोदय कहाँ से होगा
कैसे उगेगी नवजोत एक—एक पत्ती की

हर ऋतु के अस्तित्व को कोई दूसरी ऋतु धकेल
रही है
चुटकी भर धक्के से ही फूटता है कोई नया फूल
खिलती है कोई नई कली
शुरु होता है कोई नया दिल
चटकता है कोई नया फूट कछारों में
ब्राह्म मुहूर्त में चटकता है पूरा जंगल

रोंगटों—सी खड़ी वनस्पतियों के पोर—पोर में
हेमंत और शिशिर की वैरागी हवाएँ
रिक्तता भेंट कर ही शांत होती हैं जिनकी चाहें और 
बाहें
स्त्रांत में पत्रांत ही मुख्य वस्त्रांत है जिनका
वसनांत के बाद खलियाई जगहें ऐसे पपोटिया
जाती हैं
जैसे पेड़ भग-वान इन्द्र की तरह सहस्त्र नयन हो
गए हों
घावों पर वरदान-सी फिरतीं
वसंत की रफ़ूगर उँगलियाँ काढ़ती हैं पल्लव
सैंकड़ों बारीक पैरों से जितना कमाते हैं पादप
उतना प्रस्फुटित हज़ारों मुखों को पहुँचाते हैं
टहनियों के बीच खिल उठते हैं आकाश के कई 
चेहरे

दो रागिये—वैरागिये
हेमंत और शिशिर
अधोगति के तम में जाकर पता लगाते हैं उन
जड़ों का
जिनके प्रियतम-सा ऊर्ध्वारोही दिखता है अगला
वसंत

पिछली पत्तियाँ जैसे पहला प्रारूप कविता का
झाड़ दिये सारे वर्ण
पंक्ति—दर—पंक्ति पेड़ों के आत्म विवरण की नई 
लिखावट
फिर से क्षर —अक्षर उभार लाई रक्त में
फटी, पुरती एड़ियों सहित हाथ चमकने लगे हैं
पपड़ीली मुस्कान भी स्निग्ध हुई 
आत्मा के जूते की तरह शरीर की मरम्मत कर दी
वसंत ने
हर एक की चेतना में बैठे आदिम चर्मकार
तुझको नमस्कार !

2.जाति विहीन

अयोग्य की जाति मत बनने दो
अयोग्यता को मत बनने दो इन्द्रियों का गोत्र
कोई न कोई योग्यता पैदा करने में मदद करो
अयोग्य की

वह जाति विहीन होगा तो कम बोझ होगा
जातीय बोध से बनी व्यवस्थाओं के लिए ।

3.एक बुढ़िया का इच्छा-गीत 
 
जब मैं लगभग बच्ची थी
हवा कितनी अच्छी थी

घर से जब बाहर को आई
लोहार ने मुझे दराँती दी
उससे मैंने घास काटी
गाय ने कहा दूध पी
 
दूध से मैंने, घी निकाला
उससे मैंने दिया जलाया
दीये पर एक पतंगा आया
उससे मैंने जलना सीखा
 
जलने में जो दर्द हुआ तो
उससे मेरे आँसू आए
आँसू का कुछ नहीं गढ़ाया
गहने की परवाह नहीं थी
 
घास-पात पर जुगनू चमके
मन में मेरे भट्ठी थी
मैं जब घर के भीतर आई
जुगनू-जुगनू लुभा रहा था
इतनी रात इकट्ठी थी ।

4.ऊँचाई है कि    

मैं वह ऊँचा नहीं जो मात्र ऊँचाई पर होता है
कवि हूँ और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूँ
हर ऊँचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊँचाई की पूँछ
लगता है थोड़ी सी ऊँचाई और होनी चाहिए थी

पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊँचाई है
लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊँचा होना चाहता है
पानी भी, उसकी लहर भी
यहाँ तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी
कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊँचा उठना चाहता है छल से
जल बादलों तक
थल शिखरों तक
शिखर भी और ऊँचा होने के लिए
पेड़ों की ऊँचाई को अपने में शामिल कर लेता है
और बर्फ़ की ऊँचाई भी
और जहाँ दोनों नहीं, वहाँ वह घास की ऊँचाई भी
अपनी बताता है

ऊँचा तो ऊँचा सुनेगा, ऊँचा समझेगा
आँख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को
लेकिन चौगुने सौ गुने ऊँचा हो जाने के बाद भी
ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है
छूने को ।

5.अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

हर चीज़ यहाँ किसी न किसी के अन्दर है
हर भीतर जैसे बाहर के अन्दर है
फैल कर भी सारा का सारा बाहर
ब्रह्मांड के अन्दर है
बाहर सुन्दर है क्योंकि वह किसी के अन्दर है

मैं सारे अन्दर-बाहर का एक छोटा सा मॉडल हूँ
दिखते-अदिखते प्रतिबिम्बों से बना
अबिम्बित जिस में
किसी नए बिम्ब की संभावना-सा ज़्यादा सुन्दर है
भीतर से ज़्यादा बाहर सुन्दर है 
क्योंकि वह ब्रह्मांड के अन्दर है

भविष्य के भीतर हूँ मैं जिसका प्रसार बाहर है
बाहर देखने की मेरी इच्छा की यह बड़ी इच्छा है
कि जो भी बाहर है वह किसी के अन्दर है
तभी वह संभला हुआ तभी वह सुन्दर है

तुम अपने बाहर को अन्दर जानकर 
अपने अन्दर से बाहर आ जाओ

6.आँधी

रात वह हवा चली जिसे आँधी कहते हैं
उसने कुछ दरवाजे भड़भड़ाए
कुछ खिड़कियाँ झकझोरीं, कुछ पेड़ गिराए
कुछ जानवरों और पक्षियों को आकुल-व्याकुल किया
रात जानवरों ने बहुतसे जानवर खो दिए
पक्षियों ने बहुत-से पक्षी
जब कोई आदमी नहीं मिले
तब उसने खेतों में खड़े बिजूके गिरा दिए
काँटेदार तारों पर टँगे मिले हैं सारे बिजूके
आदमियो! सावधान
कल घरों के भीतर से उठनेवाली है कोई आँधी

7.अपने से बाहर

जब घाटी से देखा तो, सुंदर दिखता था 
शिखर 
अब शिखर पर हूँ तो ज़्यादा सुन्दर दिखती है घाटी
अपने से बाहर जहाँ से भी देखो
दूसरा ही सुन्दर दिखता है ।

000 लीलाधर जगूड़ी

रचना चयन: कविता गुप्ता

प्रस्तुति:सत्यनारायण पटेल
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टिप्पणियाँ:-

किसलय पांचोली:-
अत्यंत सुंदर
और सारगर्भित कविताएँ!
पंक्तियाँ जिन्होंने दिल को छुआ और वाह बटोरी--
कैसे उगेगी नव ज्योत एक -एक पत्ती की
वरदान सी फिरती वसंत की रफुगर ऊँगलियाँ
अयोग्यता को मत बनने दो इन्द्रियों का गोत्र
ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती है छूने को
जो भी बाहर है वह किसी के अंदर है

फ़रहत अली खान:-
जगूड़ी जी बढ़िया कवि हैं, इनके बारे में सुना था लेकिन पढ़ा आज पहली बार ही है।
'जाति-विहीन', 'ऊँचाई है कि', 'अपने से बाहर' कविताएँ पसंद आयीं।
इन कविताओं के भाव अच्छे हैं।
हालाँकि कई जगह बिम्ब समझने में कठिनाई भी महसूस हुई।