आज की पोस्ट में आपके लिए किरण येले जी की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं, जो हमारे बिजूका एक के साथी हैं।
कवि और कहानीकार किरण येले मराठी के युवा और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। उन्होंने महाराष्ट्र के प्रमुख अख़बारों में नियमित स्तम्भ लेखन किया है। नाटक और प्रसिद्द धारावाहिकों की पटकथाएं लिखी हैं। पहले ही काव्य संग्रह ''चौथ्यांच्या कविता'' के लिए पुरस्कृत और कवितायेँ हिंदी,पंजाबी,मलयालम ,अंग्रेजी में अनुवादित हुई हैं। मुंबई में निवास और न्यू इण्डिया इन्शुरन्स कंपनी में प्रशासकीय पद पर कार्यरत। प्रस्तुत कविताएँ उनके संग्रह ''बाई च्या कविता'' (स्त्री की कविताएँ) से ली गई हैं। ये इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि औरत के विभिन्न रूप और अवस्थाओं का एक पुरुष द्वारा लिखा गया अत्यंत सूक्ष्म लेखा-जोखा है।
तो पढ़िए किरण जी की कविताएँ और अपने निष्पक्ष विचार यहां साझा करें ।
1 .
औरत
साँझ ढले
ठाकुर घर में
दिया जलाती है
हाथ जोड़ती है
और बुदबुदाती है
कोई दोहा,चौपाई या आरती
धकेल देती है
अपने होठों से
बाहर के अँधेरे को
अपने भीतर. . .
2 .
पता नहीं कैसे
औरत जाग जाती है
बड़े सबेरे, सबसे पहले
वह उठती है
रसोई में जाती है
और जलाती है
चूल्हा,स्टोव या गैस
पकाती रहती है कुछ कुछ
अंदर ही अंदर
और सूरज माथे पर आ जाता है
तब परोसती है सबको
दोपहर में जब
सो जाते हैं सब
औरत भी सोती है घड़ी भर
तब भी वही जागती है सबसे पहले
फिर जाती है रसोई में
जलाती है
चूल्हा,स्टोव या गैस
और सूरज के डूबने तक
पकाती रहती है कुछ अंदर
परोसती है सबको
शाम ढलने पर
मैं यह सोचकर
अक्सर चौंक जाता हूँ
कि औरत
अंदर ही अंदर क्या जलाती है
और क्या परोसती है सबकी थाली में ......
3.
औरत
घर के अंदर
छीलती है
काटती है
उबालती है
पकाती है
तलती है कुछ कुछ
दिनभर काम करती है
बिना किसी सावधानी के
चाकू,छुरी,आग और भाप के साथ
उसे खरोंच तक नहीं आती
शाम ढले
आदमी लौटते हैं
घरों की ओर
तब वह चौकन्नी हो जाती है
और जख्मी भी होने लगती है .....
4.
औरत
जिन्दा रहती है
तब तक करती रहती है
कुछ न कुछ
घर के लिए,घरवालों के लिए
खाना खिलाने से
थपकियाँ देने तक
सुबह टिफिन भरने से
रात शरीर को खाली करने तक
पर उसकी ओर ध्यान नहीं देता
कोई भी,कभी भी
जिस दिन मरती है वह
सब देखते हैं उसी की तरफ
उसे नहलाते-धुलाते हैं
बड़े अदब से बिठाते हैं
चरण स्पर्श करते हैं
और ऐसे में
यदि उसका आदमी जीवित हो
तो आदर असीम हो जाता है
उस औरत के लिए ....
5.
औरत
चौंक जाती है
मेनापॉज का शक़ होते ही
ठीक वैसे ही
जैसे चौंकी थी
पहली बार रजस्वला होने पर
स्त्रीत्व की समाप्ति का डर नहीं
फिर भी एक अँधियारा घिर आता है
उसके भीतर
दर्पण में अपने आप को
निहारते समय
अहसास जागता है
कि वह कभी भी
एक बार भी
बह नहीं पाई
अपनी पसंदीदा दिशा की ओर
अंदर ही अंदर बहती रही
अशुद्ध रक्त की तरह
'व्हिस्पर' में
सहेलियों के साथ
या सिर्फ स्वच्छ,चमकदार जाँघों के बीच
एकमात्र यही नमी बची थी
जिसपर किसी का नियंत्रण नहीं था
इसे लेकर अपने आप को कोसती रही
बीजांड पर घिर आई
झुर्रियों के बावजूद
फिर भी एक गीली आशा बची रही
कि शायद वह कभी समझ पाए
शरीर की गोलाइयों के साथ
मन की गहराइयों को भी
कि उसके भीतर पनपेगा
कोई तरल पल
और वह बन जाएगी
बिलकुल असली औरत
इसी दुर्दम्य आशा के साथ
उठती है वह
और अलमारी में
ढूंढने लगती है
खत्म होते जा रहे
कुछ अंतिम सेनेटरी नैपकिंस.....
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(प्रस्तुति-बिजूका)
टिप्पणी:-
पूनम:-
बहुत ही कडवे सत्य मे
किरण जी
पगी हुई है ।आपकी
सभी कविताएँ ।
सहसा
कवि
नरेश मेहता
याद आ गये ।
वो कहते है कि
सिर से पैर तक
विवश देवत्व का नाम
स्री
और सिर से पैर तक
आक्रामक पशुता का नाम
पुरुष ।"
और
भवानी प्रसाद मिश्र भी
स्मरण हो आये।
जिस तरह हम बोलते है
उस तरह तू लिख।
और इसके बाद भी
हमसे बडा
तू दिख ।
आदरणीय
किरण जी
आपने औरत
और उसके
सरोकार
को
अपनी कविताओ मे
साकार कर दिया
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