26 जून, 2016

कविता : चंद्रशेखर गोखले

आइये आज आपके लिए प्रस्तुत है चतुष्पदी  यानी की चार चार पंक्तियों की (मराठी)कविताएँ
जिनके मूल कवि चंद्रशेखर गोखले है और अनुवाद (हिन्दी)किया है अशोक बिंदल जी ने ।
आज इन चतुष्पदी को पढ़कर अपने विचार अवश्य रखें।
----------------------------------------

सर्वस्व तुम्हें समर्पित किया 
  अंजुरी मेरी फिर भी भरी थी
चौंक कर देखा तब जाना
     तुम्हारी अंजुरी, मेरी अंजुरी पर धरी थी ।
                          ***
बीती यादों के झरोखें, मैं
     तुम्हें छूने नहीं देता हूँ
कैसे कहूँ खुद ही डरता हूँ
     जब पास से गुजरता हूँ ।
                            ***
स्पर्शों का अर्थ होता है
       जानते ही, बालपन मुझे छोड़ गया
और जाते जाते वह,  नये
       सपनों से नाता मेरा जोड़ गया ।
                            ***
फिर फिर तेरे 
     नाजुक स्पर्श का आभास
और एक ही पल में
     कितने गुजरे वर्षो का प्रवास ।
                              ***
सच बोलने में 
     मुझे किसका है डर
यह वाक्य मन ही मन
     दोहराता हूँ रात भर ।
                               ***
अकेले में खुद को आईने में देखना
     ये अनुभव सहज नहीं होता
वैसे हम सब सीधे होते है
     पर मन का चोर सरल नहीं होता ।
                              ***
राह भूला कोई ख़त
     कभी मेरे द्वार भी आये
और पढ़ते पढ़ते, मुझे
     सुख के घर ले जाये ।
                                 ***
एक बारिश होती है प्यासी
     जो आकाश से नहीं बरसती है
उस वक्त और कुछ नहीं होता
     बस आँखें ही छलकती है ।
                                 ***
बाहर आँगन में 
     द्वार पर ठहरी रात
उस वक्त कैनवस पर रंग रहा था
     सूर्य की लालिमा बिखेरता प्रभात ।
                                 ***
पोंछने वाला कोई हो तो 
     आँसूओं का अर्थ है
किसी की आँखें ही न भरे
     तो मरना भी व्यर्थ है ।
                                ***
तालाब अपनी पोथी में 
     भेदभाव नहीं लिखता
जो झाँकता है,  उसमें उसे
      खुद का चेहरा ही दिखता ।
                                   ***
उमर भर जलने पर भी
     अंत में जलना है
इंसान को तो लकड़ी की ही
     नियती पर चलना है ।
                                  ***
पेड़ की हर डाल पर
     कुल्हाड़ी का घाव हैं 
बात इतनी सी,  हाट में
     लकड़ी का भाव है ।
                                ***
मकान बनने में नहीं 
    घर बनने में समय लगता है
घर के निर्माण में
     दो मनों का अपार संयम लगता है ।
                              ***
जल के आचरण की भी
     अजब विसंगती है
जिंदों को डूबोती है
     मुर्दो का तैराती है ।
                           ***
इक अंतहीन हसीन रात
     जिसकी सुबह न हो
है असंभव सी बात, पर
     सपनों की कमी न हो ।
                    ****

प्रस्तुति-बिजूका      

परिचय :

मूल कवि  :  श्री चंद्रशेखर गोखले ,  मुंबई

चार चार पंक्तियों की कविता के लिये बहुत ही प्रसिध्द नाम ।

६-६ कविता संग्रह,  मनोगत तथा मर्म,  संस्मरण संग्रह । धारावाहिकों में लेखन ।
                           ***
भावानुवाद   :  अशोक बिंदल  ,  मुंबई

डाँ.  भवान महाजन की संस्मरणों की पुस्तक "मैञ जिवाचे " का भावानुवाद,  "अंतस के परिजन" ।

महानगर की प्रतिष्ठित सांस्कृतिक संस्था के सक्रिय सदस्य ।
इन चतुष्पदियों का भावानुवाद ।

प्रस्तुति : बिजूका
------------------------------------टिप्पणियाँ:-

पाखी:-
सचमुच कमाल है, चार-चार पंक्तियों की ये कविताएँ हमारे मन के भीतर गहरे झांकती दीखाई पड़ती हैं.. 'वैसे हम सब सीधे हाेते हैं / पर मन का चाेर सरल नहीं होता' .. बेहतरीन अनुवाद.. हार्दिक बधाई कवि एवं अनुवादक को...

सुषमा सिन्हा:-
सभी कविताएँ अच्छी लगीं।छोटी-छोटी पंक्तियों में बड़े-बड़े कथ्य को बहुत बेहतर साधा गया है। अनुवाद बेशक बहुत खूब है। मेरे लिए तो यही मूल है। बहुत बधाई कवि और अनुवादक दोनों को।

कल किरण येले जी की कविताएँ भी बहुत बढ़िया लगी थीं और उससे पहले पूनम शुक्ला की की कविताएँ भी बहुत अच्छी लगी थीं। 
दोनों की कविताएँ पूर्व में भी किसी समूह में पढ़ी थी और अपनी टिप्पणी भी दी थी। अफ़सोस कि इस बार समय नहीं मिला।
बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आप दोनों को।

ब्रजेश कानूनगो:-
गोखले जी की कविताओं का बहुत बढ़िया अनुवाद किया बिंदल जी ने।जैसे हिंदी में ही मूल रूप से कही गई हों।बधाई।

तिथि:-
अनुवाद बेहतरीन है अशोक जी का। ये चतुष्पदियां कहीं -कहीं  सामान्य तो कहीं बेहद प्रभावशाली हैं  जैसे - बाहर आंगन में द्वार पर खड़ी रही रात,तालाब अपनी पोथी में भेदभाव नहीं लिखता।

ममता सिंह:-
बहुत बढ़िया प्रभावशाली हैं चतुष्पदियाँ.....चंद्रशेखर गोखले और अशोक बिंदल जी को बहुत बधाई

ममता सिंह:-
मकान बनने में नहीं
घर बनने में समय लगता है
घर के निर्माण में
दो मनों का अपार संयम लगता है ....बिलकुल सही और सटीक पंक्तियाँ

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें