22 अक्तूबर, 2017

शिरोमणि महतो की कविताएँ




शिरोमणि महतो:
29 जुलाई 1973 को जन्म, शिक्षा एम.ए. (हिन्दी) प्रथम वर्ष
सम्प्रति : अघ्यापन एवं ‘‘महुआ‘‘ पत्रिका सम्पादन
प्रकाशन:  कथादेश, हंस, कादम्बिनी, पाखी, वागर्थ, परिकथा, तहलका, समकालीन भारतीय साहित्य, समावर्तन,द पब्लिक एजेन्डा, यथावत,सूत्र, सर्वनाम, जनपथ, युद्धरत आम आदमी, शब्दयोग, लमही, प्रसंग, नई धारा, पाठ,पांडुलिपि, अंतिम जन, कौषिकी, दैनिक जागरण ‘पुनर्नवा‘ विषेषांक, दैनिक हिन्दुस्तान, जनसत्ता विषेषांक, छपते-छपते विषेषांक, राँची एक्सप्रेस, प्रभात खबर एवं अन्य दर्जनों पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।


  उपेक्षिता (उपन्यास) 2000
  कभी अकेले नहीं (कविता संग्रह)2007
  संकेत-3 (कविताओं पर केन्द्रित पत्रिका)2009
  भात का भूगोल (कविता संग्रह)2012
  प्रकाशितहै  करमजला (उपन्यास) अप्रकाशित है।
  डॉ0 रामबली परवाना स्मृति सम्मान
  अबुआ कथा कविता पुरस्कार
  नागार्जुन स्मृति सम्मान
  सव्यसाची सम्मान(चयनित)


कविताएं

चाँद का कटोरा


बचपन में
भाइयों के साथ
मिलकर गाता था-
चॉद का गीत

उस गीत में
चंदा को मामा कहते
गुड के पुआ पकाते
अपने खाते थाली में
चंदा को परोसते कटोरे में
कटोरा जाता टूट
चंदा जाता रूठ ।

उन दिनों
मेरी एक आदत थी-
मैं अक्सर अपने आंगन में
एक कटोरा पानी लाकर
कटोरे के पानी में
-चॉद को देखता

बडा सुखद लगता -
कटोरे के पानी में
चॉद को देखना

मुझे पता हीं नही चला
कि चंदा कब मामा से
कटोरा में बदल गया......?

तब कटोरे के पानी में
चॉद को देखता था
अब चॉद के कटोरा में
पानी देखना चाहता हूँ ....!
००
सभी चित्र: अवधेश वाजपेई



















चापलूस

वे हर बात को ऐसे कहते जैसे -
लार के शहद से शब्द घुले हों
और उनकी बातों से टपकता मधु

चापलूस के चेंहरे पर चमकती है चपलता
जैसे समस्त सृष्टि की उर्जा उनमें हो
वे कहीं भी झुक जाते हैं ऐसे -
फलों से लदी डार हर हाल में झुकती है:
और कही भी विछ जाती है मखमल-सी उनकी आत्मा !

चपलूसों ने हर असंभव को संभव कर दिखया है
उनकी जिह्वा में होता है मंत्र -‘खुल जा सिम -सिम‘
और उनके लिए खुलने लगते हैं -हर दरवाजे
अंगारों से फूटने लगती है -बर्फ की शीतलता

चापलूस गढें हैं -नई भाषा नये शब्द
जरूरत के हिसाब से रचते हैं -वाक्जाल
जाल में फंसी हुई मछली भले ही छूट जाये
उनके जाल से डायनासोर भी नहीं निकल सकता

उनके बोलने में चलने में हँसने में रोने में
महीन कला की बारीकियाँ होती हैं
पतले-पतले रेशे से गँढता है - रस्सा
कि कोई बंधकर भी बंधा हुआ नहीं महसूसता

चापलूस बात-बात में रचते हैं -ऐसा तिलिस्म
कि बातों की हवा से फूलने लगता है गुब्बारा
फिर तो मुष्किल है डोर को पकडे रख पाना
और तमक कर खडे हो उठते है ं निति-नियंता

यदि इस धरती में चापलूस न होते
तो दुनिया में दम्भ का साम्राज्य न पसरता !
००


 हिजडे

न नर है न मादा बीच का आदमी
उसने जीवन में कभी नहीं जाना-
सहवास के अंतिम क्षणों का तनाव
न गर्भ -धारण के बाद की प्रसव -पीडा

अक्सर लोकल ट्रेन में वे मिल जाते
दोनों हथेलियों को पीटते -चौके छक्के लगाते
शायद इसीलिए लोग उन्हें कहते भी हैं -“छक्के”
लोगों को रिझाने के लिए उनसे पैसे निकलवाने को
अजीब-अजीब हरकतें करते -भाव भंगिमा दिखाते
कभी साडी उठा युवाओं को ढँकने लगते
तो कभी सलवार -समीज खोलने का ड्रामा
बांकी चितवन चमकाते -छाती के उभारो को मटकाते

कुछ लोग रिझते दस-बीस रूपये दे भी देते
कुछ खीझते और दो-चार गालियाँ भी देते
वे भी प्रत्युत्तर देना भली -भाँति जानते
खुष हुए तो ‘सारा-वारा-न्यौरा‘ कर देते
वरना मुॅह बिचका कर भाव-भंगिमाओं से मजाक उडाते

कौन जाने उनकी नियति ऐसी क्यों हुई
किसी देवता का श्राप या पूर्वजों का पाप
जिसका वे ज्यादातर समय करते परिहास
जो भी हो इसके लिए वे तो दोषी नहीं
शायद इसीलिए वे करते रहते हैं-मनुष्यता का उपहास !
००





















स्कूटी चलाती हुई पत्नी

स्कूटी चलाती हुई पत्नी
किसी मछली -सी लगती है
जो आगे बढ रही है-
समुन्दर को चीरती हुई
और मेरे अंदर
एक समुन्दर हिलोरने लगा है

स्कूटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कूल जाती है
लोग उसे देखते हैं-
आँखे फाड-फाडकर
गाँव की औरते ताने कसती हैं-
‘मैडम, स्कूटी चलाती है,
भला कहॉ की ‘जैनी‘ स्कूटी चलाती है ?‘

स्कूटी चलाती हुई
मेरी पत्नी को देखकर
औरतों की छाती में सांप
मर्दो के ह्रदय मे हिचकौले....

स्कुटी चलाती हुई पत्नी
जब स्कुल जाती है
मेरी माँ बेचैन रहती है-
देखती रहती -उसका रास्ता
कि-कब लौटेगी वह
कहीं कुछ हो न जाये !

मेरी पत्नी ने बहुत मेहनत से
सीखा है-स्कुटी चलाना
उसने कभी साईकिल नही चलाई
उसके लिए स्कूटी चलाना कठिन था
और उससे भी ज्यादा कठिन था
अपने भीतर के डर को भगाना-
जो सदियो से पालथी मारे बैठा था !

अब तो
मेरी पत्नी के हौसले बुलंद हैं
माप लेने को-देस दुनिया
पंख उग आये-उसके पावों में

पत्नी स्कुटी चलाती है-
अपने मन की गति से
अब में उसके पीछे बैठकर
देख सकता हूँ-देस-दुनिया !
००

पिता की मूँछें


पिता के फोटो में
कडप-कडप मूंछे हैं
पिता की मूंछे
ऊपर की ओर उठी हुई हैं....

शुरू से ही पिता
कडप-कडप मूंछे रखते थे
 जिसकी नकल कई लोग किया करते थे

पिता बीमार पडते
उनका शरीर लत हो जाता
पीठ पेट की ओर झुक जाती
लेकिन उनकी मूंछे उपर की ओर उठी-हुई

उनकी मूंछो की नकल कर
लोग मुझे चिढाते
मैें खीज कर रोता
और सोचता-
पिता मूंछे कटवा क्यो नहीं देते ?


कभी-कभी देखता-
पिता मूंछों को सोटते हुए
उन्हे ऐंठते हुए
बडे निर्विकार-निर्लिप्त लगते

एक बार मेले में
पिता के साथियों की
कुछ लोगों से लडाई हुई
पिता लाठी ठोकते हुए
मूंछों पर ताव देने लगे
लडाई करने वाले
दुम दबाके खिसक गये
यह कहते हुए कि-बाप रे बाप
कडप-कडप मूंछ वाला मानुष !

फिर क्या -
पुरे इलाके में
पिता की मूंछो की धाक जम गई

पिता को मूंछो से
कभी कोई शिकायत नहीं रही
उन्होंने चालीस साल
मुंछो को सोटते हुए काटे....
दुखोः को चिढाते हुए....

पिता नौकरी से निवृत्त हुए
और गुमसुम-गुमसुम रहने लगे
दूर क्षितिज को ताकते
धंटो मूंछो को सहलाते-चुपचाप

और एक दिन
बिना कुछ बोले
पिता ने मूंछंे कटवा लीं.....

अब मैं रोज ढूँढता हूँ-
पिता के चेहरे पर-पिता की मूंछे !
००



















गुलगुलनी

ट्रेन की खिडकी से
लगकर बैठी थी-गुलगुलनी
उसके बाद हाथ भर सीट खाली थी
उससे हटकर लोग बैठे थे
कुछ खडे भी थे
उस खाली सीट पर
कोई बैठना नहीं चाहता था
गुलगुलनी से कोई सटना नहीं चाहता था

एक हाथ खाली सीट पाकर
वह बैठ गया झेंपता हुआ-सा
स्वंय को गुलगुलनी से सटने से बचाता-सा
उसके गंदे कपडे और शरीर की बास
मोटा-सा अहसास फूल रहे श्वास

धडाधड चलती टेन के हिचकौले
हवा के झोंको से पिघलता अहसास -
गरमी उमस व आलस से उंघता शरीर
बार-बार कंधे पर दुलकता माथा
गुलगुलनी के बदन का स्पर्ष व उष्णता
बदलने लगा उसके शरीर का ताप
भरने लगा मन में कोमल अहसास
और आत्मा में आदिम गंध !
००


गुलगुलनी की गोद में

उसका ढाई साल का बच्चा
जो अबतक देख रहा.था-‘मुलुक-मुलुक‘
पढ रहा था-चेहरे के रंगों को
अचानक दिया मूत-छर्र से....

धत्-धत्-धत्
सामने की सीट पर बैठे लोग
कपडे -झाडने लगे चेहरा पोंछने लगे
एक ने कहा-‘बडा बदमाश है-बच्चा‘
दुसरे ने कहा - ‘बच्चे ऐसे हीं होते ‘

गुलगुलनी ने बच्चे को डांटा-
बच्चा मुसक रहा था
सबको मन को कूट रहा था !
००

बंदरिया
अपने मालिक के इशारे पर
नाचती है बंदरिया
करती -उसके इशारों का अनुगमन
जैसे कोई स्त्री करती है -
अपने पुरुष के आदेशों का पालन ।

बंदरिया के गले में लगा सिकड
खींचता बंदरियावाला
हांथ में डंडा लिए उसे नचाता
उछल-उछल नाचती बंदरिया
जैसे वह समझती है -सब कुछ
अपने मालिक की बातों को इषारों को
डंडे की मार खाने से बचती:
और वह नाचती.....
जिसे उसने युगों से साधा है !

बंदरियावाला गाता-
‘‘असना पातेक दोसना
कोरइया पातेक दोना ।
दोने -दोने मोद पीये
हिले कानेक सोना ।।‘‘
बंदरिया मोद पीने का अभिनय करती
अपने कानों को पकडती
जैसे सचमुच उसके कानों में हो
-सोने की बाली ।

बंदरियावाले के डंडे के इशारे पर
वह नाचती रूठती रोने का स्वांग करती
जिसे देखकर -सभी खुश हो रहे -
बच्चे बूढे जवान और औरतें

औरतें तो ज्यादा खुश
वे खिलखिलाकर हँसती हैं-
देखकर अपने हीं-दुःख का स्वांग !
००

पानी

पानी खीरे में होता है
पानी तरबूजे में होता है
पानी आदमी के शरीर में होता है
धरती के तीन हिस्से में पानी ही तो है.....

हम पानी के लिए
अरबों -खरबों खरच रहे
धरती -आकाष एक कर रहे
हम तरस रहे-
अंतरिक्ष में बूंद भर पानी के लिए
शायद कहीं अटका हो -बूंद भर पानी
किसी ग्रह की कोख में
किसी नक्षत्र के नस में
या आकाष के कंठ में
पारे -सा चमक रहा हो-पानी !

पानी जरूरी है
चाँद पर घर बनाने के लिए
चाँद पर सब्जी उगाने के लिए
चाँद पर जीवन बसाने के लिए

जिस दिन मिलेगा-
बूंद भर पानी
मानो हमने पा लिया -
आकाष -मंथन से -अमृत !
००




















पुरुष बिनु नारी


(जिया बिनु देह नदिया बिनु बारी।
तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी ।।)

एक दिन एक बैरागी ने
तुलसी दास की
चौपाई की व्याख्या की-
इस प्रकार-
देह बिना जिया के
नदिया बिना पानी के
वैसे ही पुरुष बिना नारी के
अर्थात नारी के बिना पुरुष बेकार !

मुझे अचंभित कर गई
उस वैरागी की व्याख्या-
जिसने युगों से चली आ रही
व्याख्या को ही उलट डाला
और एक स्त्री के महत्व को बताया।

प्रसंग को छोडकर
छंद को देखने से-
पद का अर्थ सटीक बैठता
-नदी पानी के बिना
पुरुष नारी के बिना
बिल्कुल बेबस बेकार !

सामान्य पढा-लिखा बैरागी
और एैसी नवीन अपूर्व व्याख्या
जीवनानुभव का फलन हीं तो है:

अपना अनुभव भी यही कहता-
जो बैरागी कह रहा... !
००

इस जंगल में

पलाष के फूलां से
लहलाहाते इस जंगल में
महुए केे रस से सराबोर
इस जंगल में
कोई आकर देखे-
कैसे जीते है-जीवन
आदिमानव-आदिवासी !

जिनके लिए जीवन
केवल संधर्ष नही
संधर्ष के साज पर
संगीत का सरगम है
और कला का सौर्न्दय

उनके बच्चे खेलते कित-कित
गुल्ली डंडा दुबिया रस-रस
और चुनते लकडियाँ
तोडते पत्ते-दतुवन
जिसे बाजार में बेचकर
वे लाते-नमक प्याज और स्वाद

अब जब पूरा विश्व
एक ग्राम में बदल रहा है
इस जंगल की फिजाओ में
बारूद की गंध भर रही है

कोरइया के फूल खिलते
वन प्रांत इंजोर हो जाता है
चाँदनी उतर आती हे-प्रांतर में
सहसा भर जाता-धमाको का धुआँ
दम धुटने लगता-इस जंगल में

खिलते हुए पलाष के फूल-से
जंगल में आग लहक उठती है
महुए के फूल से चु रहा-
धायल पंडुक का रक्त

मांदर की थाप पर
थ्री नॉट थ्री की फायरिंग
सिहर उठता समुचा जंगल
खदबद करते पशु-पक्षी

कोयल की कूक, पंडुक की घू-घू चू
सुग्गे की रपु-रपु, पैरवे की गुटरगू
बंदर की खे-खे, सियारो का हुआँ-हुआँ
सात सुरो व स्वरो को घोट रही
छर्रो की सांय-सांय, गोलियो की धांय-धांय

शहर वाले कहते हैं-
ज्ंागल में मंगल होता है
फिर इस जंगल में क्यो
फूट रहा मंगल का प्रकोप !

इसके लिए दोषी है कौन
पूछ रहे  सखुए शीषम के पेड
सरकार है मौन-संसद भी मौन !
००


संपर्क:
पता : नावाडीह, बोकारो, झारखण्ड -829144
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