23 अक्तूबर, 2017


रवीन्द्र के दास की कविताएं

रवीन्द्र के दास





पिता

वाजश्रवा नहीं हो पाए थे निरासक्त
संकल्प के अनुसार,
उन्हें निरासक्त हो जाना चाहिए था
कुमार नचिकेता व्याकुल हो उठा
जबकि उसे चिंता नहीं करनी चाहिए थी
उसे अपने भविष्य
और वर्तमान के विषय में सोचना चाहिए था
अपने चतुर पिता से
लेन देन का गुर सीखना चाहिए था
पिता को टोका टाकी कतई नहीं भाती
वह बच्चा था
उसे बच्चा बनकर रहना चाहिए था
उसने ऐसा नहीं किया
बित्ते भर का होकर
निपुण पिता को समझाने चला
पिता तो पर्वत की तरह महान होते हैं
वे सदैव अनुकरणीय होते हैं।
००

उसके हाथ में तीन इक्के थे
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उसके हाथ में तीन इक्के थे
उसने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया
और जीत की खुशी में इतनी जोर से चीखा
कि उसकी नींद खुल गई
और पाया कि,
वह पड़ा है असहाय और एकांत
हो गया ख़ामोश।
हारा हुआ जुआरी
बार-बार हारने बावजूद
देखता है सपने जीत के
इस तरह हो जाता है, धीरे-धीरे , बेख़बर
हक़ीक़त की दुनिया से ।
धीरे धीरे
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धीरे धीरे
लोग आरामतलब होते गए
यह
सुविधा का विकास है
धीरे धीरे
शासन स्वेच्छाचारी होता गया
यह
संस्कृति का विकास है।
धीरे धीरे
एक दिन ऐसा आएगा
जब
सभ्यता और संस्कृति का विकास
अपने चरम पर होगा
००



चित्र: अवधेश वाजपेई

सभ्यता का एक चरण
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बुरी राजनीति ने
अच्छी राजनीति को
बुरे साहित्य ने
अच्छे साहित्य को
बुरे कार्यक्रम ने
अच्छे कार्यक्रम को
बुरी बात ने
अच्छी बात को
बुरे लोगों ने
अच्छे लोगों को
पछाड़ दिया है
उखाड़ फेंका है
यह सभ्यता का विकास ही है
सभ्यता के विकास में
आते हैं ऐसे चरण भी
जब पहाड़ बौना हो जाता है
और समुद्र उथला
इसे नया युग कहा जाता है

तुम्हें पाना चाहता हूँ स्त्री
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मैं तो जानता हूँ
कि बदन कोई ठहरा रेगिस्तान है तुम्हारा
और मैं कोई भटका हुआ मुसाफ़िर
न जाने सदियाँ, सहस्राब्दियाँ गुजर गईं
मैं भाग रहा हूँ आज भी, अभी
कि मुझे पहुंचना है कहीं
कहाँ? यह नहीं जानता हुआ भी
तुम्हारे शब्दों को मैं
हरबार समझता रहा अपने मुताबिक
कि तुमने जो कहा
तुमने वो नहीं कहा
यह मेरा साम्राज्य था कोई निरंकुश
ऐसा नहीं था कि मुझे राहत न मिलती हो
तुम्हारी साँसों से
या सुकून न मिलता हो तुम्हारी
पनीली आँखों की मुस्कराहट से
किन्तु हर बात तुम्हें मैंने ढँक लिया
अपने थके डैनों से
कि मैं पुरुषत्व की विडम्बना से ग़र्क था
मैं भाग रहा हूँ आज भी उसी अनंत मरु प्रदेश में
मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ स्त्री
मैं मुक्त होना चाहता हूँ नहीं पा सका के संशय से
तुम्हारी स्वीकृति मुझे लज्जित करती है
तुम्हारा मौन करता है निस्तेज...
००


बदमाश लड़कियां
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थोड़ा बहुत तो चलता है
उससे देह गल तो नहीं गई
बैठ गईं धरने पर
क्या माँ बाप ने यही संस्कार दिए हैं
कम से कम,
मोदीजी का तो लिहाज़ कर लेतीं
मेरा कहा मानतीं
अपनी बेटी की तरह रखता
लेकिन नहीं
नेतागिरी का शौक जो चर्राया है
'अधिकार चाहिए, अधिकार चाहिए'
क्या है अधिकार?
अपने माँ बाप तक के लिए नहीं सोचा!
अब कौन शादी करेगा
इन लंकिनों से ....

उदारीकरण
बड़ी मछली
छोटी मछली को खाने को थी.
छोटी मछली ने शोर मचाया
और बराबरी की दुहाई दी
कि हम सब समान हैं
कोई
किसी को नहीं दबा सकता है.
बड़ी मछली ने कहा,
मैं बराबरी-समानता नहीं जानती,
पर तुम मुझे खाना चाहो
तो खा सकती हो,
मैं झगड़ा नहीं करुँगी.
छोटी मछली
अपना छोटा सा मुंह खोलकर
बड़ी मछली को खाने को दौड़ी,
पर उसे खा नहीं पायी.
इसके बाद
बड़ी मछली ने
छोटी मछली को खा लिया
००

जागरण
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उसने कहा, जागो
मैं जाग उठा

उसने कहा, मुझे देखो
मैं उसे देखने लगा


उसने पूछा, कैसा हूँ मैं
मैंने कहा, बदसूरत


उसने कहा,
तुम सोते ही अच्छे थे
मैंने कहा,
अब तो जाग चुका हूँ मैं
००



चित्र: विनीता कामले


बड़ी सी कील
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बड़ी सी कील
कि इसे ठोंकना है, टिकाना है कहीं
एक मोटी दीवार चाहिए
इसके पहले मिले कोई दीवार
सोचता हूँ
क्या ज़रूरत है इस कील को टिकाने की
काफ़ी सोचता हूँ
और इस उधेड़-बुन में खो जाती है वो
बड़ी सी कील
मेरे घर में
गोया मेरी ज़िन्दगी में भी हैं ऐसी
कई सारी चीज़ें, लोग
जिनकी क्या ज़रूरत है
नहीं जानता हूँ
जिस किसीसे पूछता हूँ
वो शख्स बदल जाता है प्रश्न चिह्न में
और धीरे धीरे
लुप्त हो जाता है वो शख्स मेरे जीवन से
भोर के निस्तेज चन्द्रमा की तरह
अक्सर कविता में
राजनीतिक नारों में आप सुनते हैं
इसी तरह के शब्द
जिनका मतलब आपके लिए
या तो सारहीन है या अर्थहीन
पर उन्हें सँजोए रखा जाता है
कि इसी बीच
मुझे दिख जाती है वो बड़ी सी कील
मैं किसी मोटे दिमाग की ख़ोज में
निकलता हूँ इस बार
और प्रजातंत्र में पराजित हो जाता हूँ
वो बड़ी सी कील
मोटे दिमाग पार्टी का प्रतीक चिह्न हैं इन दिनों

साँसों ने अनुमति दी है
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वो जो बर्फ़ सा ठहरा है
कि जैसे
पुराना और ख़ास दुःख
उसमें एक कील भी है
प्रेम प्रक्रिया के सघन दिनों में
सचेष्ट
ठोंकी थी वो कील
आँसू भी निकल आए थे तुम्हारे
और मेरे रुआँसे होने पर
तुमने मुझे समझाया था
स्वप्न के मानचित्र
और उसकी यात्रा जा सच
पर वो सच नहीं था इतना दमदार
कि खड़ा रह पाता ब जब्र
कैसे कैसे व्यापता गया भय
अकेलेपन के दंभ की सिहरन से
कब तक चलती रही थी वो
शीत लहर
मैं तुम्हारे नील पड़ रहे चहरे को
देखता रहा
किसी चेतना शून्य दृष्टि से
और तुम बहुत मुश्किल से मुस्कुराती रही
कि तुमने क़िताब के झूठ का सच
जान लिया था
और मान लिया था समय को
कितना असहाय क्यों हूँ मैं
या सभी होते हैं इसी तरह के कायर
और वाग्वीर
प्रिये ! मुझे क्षमा करो
हालाँकि इससे भी मैं
अपनी नज़रों में नहीं हो पाउँगा खड़ा
चाहे पिघला भी दूँ बर्फ़
वो जो ठहरा है बर्फ़ सा कुछ
क्या वो प्रेम है
या स्वप्न पुंज है
तुम्हारी आश्वस्त साँसों ने मुझे
मुस्कुराने की अनुमति दी है
००




परिचय:
नाम : रवीन्द्र कुमार दास
शिक्षा: पीएच. डी
संप्रति: अध्यापन [दिल्ली विश्वविद्यालय]
जन्म: २८-४-१९६८, इजोत, मधुबनी[बिहार]
प्रकाशन:
1. प्रजा में कोई असंतोष नहीं [कविता-संकलन],
2. 'जब उठ जाता हूँ सतह से'[कविता-संकलन],
3. 'सुनो समय जो कहता है' [संपादन, कविता संकलन],
4. 'सुनो मेघ तुम' [मेघदूत का हिंदी काव्य रूपांतरण] और
5. स्त्री उपनिषद् [दो भागोंमें ] कविता संग्रह
भाग १. मुखौटा जो चेहरे से चिपक गया है;
भाग २. हमारे समय की नायिका काम पर जा रही है.
6. 'शंकराचार्य का समाज दर्शन' [दर्शन शास्त्र]
जयपुर से निकलने वाली साहित्यिक मासिक पत्रिका उत्पल  के लिए “सब्दहि सबद भया उजियारा” नाम से कविता आलोचना विषय पर कॉलम लेखन.
महत्त्वपूर्ण पत्रिकाओं आदि में कतिपय प्रकाशन.
शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान चयन समिति के सचिव
संपर्क: 125, सेकेण्ड फ़्लोर, राइट फ्रंट, टी एक्सटेंशन, विश्वास पार्क, उत्तम नगर, नई दिल्ली- 110059
मोबाईल: 08447545320

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