07 दिसंबर, 2017

वन्दना गुप्ता की कविताएं
    
वंदना गुप्ता


कविताएं

एक

खोखला आदर्शवाद

ये वर्ष का सबसे नग्न समय था
जब आसमां की छाती पर जलता अलाव धधक रहा था
और धरती का सीना चाक चाक

तो क्या हुआ जो
हैवानियत के नंगे नाच पर
नहीं हुआ बवाल

ये इस समय की दरिंदगी नहीं
दरियादिली है
कसमसाओ , जलो भुनो या चीखो
समय दर्ज कर रहा है हर इबारत
अपने सुभीते से ही बदला जाता है नक्शा

फिर मौसम बदलने को जरूरी नहीं शहर बदले ही जाएँ
बेतरतीब इबारतें काफी हैं
दर्ज करने को इतिहास

तो क्या हुआ जो
जेठ की तपती धूप में कम्बल ओढ़ सो रहा है शमशान

जिंदा ज़मीर महज खोखला आदर्शवाद है आज
फिर स्त्री और देश की दशा दुर्दशा पर चिंतन कौन करे
एक प्रश्न ये भी उठाया तो जा सकता है
मगर हल के कोटर हमेशा खाली ही मिलेंगे

ये पंछियों के उड़ने और दाना चुगने का वक्त है
जाओ तुम अपना दर्शन कहीं और बखान करो
गिद्ध गिद्दा कर रहे हैं ...

सुनीता


दो

अभी अध्ययन का विषय है ये 

लिंग कोई हो
स्त्री या पुरुष
भावनायें , चाहतें
एक सी ही प्रबल होती हैं
और प्यास भी चातक सी
जो किसी पानी से बुझती ही नहीं
सिवाय अपने प्रेमी के
और घूम जाते हैं
ना जाने कितने ब्रह्मांड एक ही जीवन में
अधूरी हसरत को पूर्ण करने की चाह में
मगर प्यास ज्यों की त्यों कायम
सागर सामने मगर फिर भी प्यासे
साथी है साथ मगर फिर भी एक दूरी
क्योंकि
साथी से रिश्ता देह से शुरु होता है
मुखर कभी हो ही नहीं पाता
स्वाभाविक छाया प्रदान करता रिश्ता
कभी जान ही नहीं पाता उस उत्कंठा को
जो पनप रही होती है
छोटे - छोटे पादप बन उसकी छाँव में
मगर नहीं मिल पाता उसे सम्पूर्ण पोषण
चाहे कितनी ही आर्द्रता हो
या कितनी ही हवा
ताप भी जरूरी है परिपक्वता के लिये
बस कुम्हलाने लगता है पादप
मगर यदि
उस छायादार तरु के नीचे से
उसे हटाकर यदि साथ में रोंप दिया जाये
और उसका साथ भी ना बिछडे
तो एक नवजीवन पाता है
उमगता है, उल्लसित होता है
अपना एक मुकाम कायम करता है
सिर्फ़ स्नेह की तपिश पाकर
जहाँ पहले सब कुछ था
और नही थी तो सिर्फ़
तपिश स्नेह की …………
हाँ वो स्नेह, वो प्रेम , वो राग
जहाँ शारीरिक राग से परे
एक आत्मिक राग था
जहाँ प्रेम के राग के साथ
देहात्मक राग भी था

क्योंकि
जहाँ प्रेम होता है वहाँ शरीर नहीं होते
आत्मिक रिश्ता अराधना, उपासना बन रूह मे उतर जाता है
जीवन में नव संचार भरता है
क्योंकि
चाहिये होता है एक साथ ऐसा
जहाँ प्रेम का उच्छवास हो
जहाँ प्रेम की स्वरलहरियाँ मनोहारी नृत्य करती होँ
और कुम्हलायी शाखाओं को
प्रेमरस का अमृत भिगोता हो
तो कैसे ना अनुभूति का आकाश विस्तृत होगा
कैसे ना मन आँगन प्रफ़ुल्लित होगा
क्योंकि
जीवन कोरा कागज़ भी नहीं
जिसका हर सफ़ा सफ़ेद ही रह जाये
भरना होता है उसमें भी प्रेम का गुलाबी रंग
और ये तभी संभव है जब
आत्मिक राग गाते पंछी की उडान स्वतंत्र हो

और जहाँ शरीर होते हैं वहाँ प्रेम नहीं होता
दैहिक रिश्ता नित्य कर्म सा बन जाता है
क्योंकि
कोरे भावों के सहारे भी जीवन यापन संभव नहीं
जरूरी होता है ज़िन्दगी में यथार्थ के धरातल पर चलना
भावना से ऊँचा कर्तव्य होता है
इसलिये जरूरी है
दैहिक रिश्ते को आत्मिक प्रेम के लबरेज़ रिश्ते से विलग रखना
क्योंकि
गर दोनों इसी चाह मे जुट जायेंगे तो
सृष्टि कैसे निरन्तरता पायेगी
इसलिये प्रवाह जरूरी है
देहात्मक रिश्ते का अपनी दिशा में
और आत्मिक रिश्ते का अपनी दिशा में
और मानव मन इसी चाह मे भटकता ढूँढता फ़िरता है
किसी एक रूप मे दोनो चाहतें
जो संभव नहीं जीवन के दृष्टिकोण से

वैसे भी प्रेम कभी दैहिक नहीं हो सकता
और वासना कभी पवित्र नहीं हो सकती
इसलिये दैहिक रिश्ता कभी प्रेमजनित नही हो सकता
हो सकता है तो वो सिर्फ़ आदान - प्रदान का माध्यम
या कर्तव्य कर्म को निभाती एक मर्यादित डोर

इसलिये चाहिये होता है
एक समानान्तर रिश्ता देह के साथ नेह का भी
चाहिये होता है
एक प्रेमपुँज जिसकी ज्योति से आप्लावित हो
जीवन की लौ जगमगा उठती है
मगर ऐसे रिश्ते स्वीकार्य कब होते हैं ?
कैसे संभव है दो रिश्तों का समानान्तर चलना?
दैहिक रिश्ते जीवन यापन का मात्र साधन होते हैं
और आत्मिक रिश्ते ज़िन्दगी का दर्शन, अध्ययन, मनन और चिन्तन होते हैं

क्या स्वीकारेगा ये समाज समानान्तर रिश्ता
स्त्री हो या पुरुष …………दोनो का , दोनों के लिये ?
अभी अध्ययन का विषय है ये ………………


 तीन

समय तुम अपंग हो गए हो


आज हैवानियत के अट्टहास पर 
इंसानियत किसी बेवा के सफ़ेद लिबास सी
 
नज़रबंद हो गयी है
 
ये तुम्हारे वक्त की सबसे बड़ी तौहीन है 
कि तुम नंगे हाथों अपनों की कब्र खोद रहे हो
 
और तुम मजबूर हो, ऐसा तुम सोचते हो
 
मगर क्या ये वाकई एक सच है ?
क्या वाकई तुम मजबूर हो  
?
या मजबूर होने की दुहाई की आड़ में
 
मुंह छुपा रहे हो
 
गंदले चेहरों के नकाब हटाने की हिम्मत नहीं
 
या सूरत जो सामने आएगी
 
उससे मुंह चुराने का माद्दा नहीं
 


न न वक्त रहम नहीं किया करता कभी खुद पर भी 
तो तुम क्यों उम्मीद के धागे के सहारे उड़ा रहे हो पतंग
 


सुनो 
अब अपील दलील का समय निकल चुका है
 
बस फैसले की घडी है
 
तो क्या है तुममे इतना साहस
 
जो दिखा सको सूरज को कंदील
 
हाँ हाँ .........आज हैवानियत के सूरज से ग्रस्त है मनुष्यता
 
और तुम्हारी कंदील ही काफी है
 
इस भयावह समय में रौशनी की किरण बनकर
 
मगर जरूरत है तो सिर्फ
 
तुम्हारे साहस से परचम लहराने की
 
और पहला कदम उठाने की
 
क्या तैयार हो तुम ...............
?


या फिर एक बार 
अपनी विवशताओं की दुहाई देना भर है
 
तुम्हारे पलायन का सुगम साधन 
?
निर्णय करो 
वर्ना इस अपंग समय के जिम्मेदार कहलाओगे
 
तुम्हारी बुजदिली कायरता को ढांपने को
 
नहीं बचा है किसी भी माँ का आँचल 
छातियों में सूखे दूध की कसम है तुम्हें
 
या तो करो क्रान्ति
 
नहीं तो स्वीकार लो
 
एक अपंग समय के साझीदार हो तुम
 


जो इतना नहीं कर सकते 
तो फिर मत कहना
 
समय तुम अपंग हो गए हो
 

चार

' यात्रा में हूँ मैं '

मैं यात्राओं पर नहीं जाती
कहते हैं यात्राएं जरूरी हैं
भिन्न परिवेश की जानकारी के लिए
तुम्हारा क्रमिक विकास तभी संभव है
जब तुम परिचित हों अपने आस पास के परिवेश से
वर्ना कुएं के मेंढक से टर्र टर्र करते रहोगे

मैं यात्राओं पर नहीं जाती
क्योंकि जानती हूँ
यात्रा में हूँ मैं
जीवन भी तो एक यात्रा ही है

मिलती हूँ रोज खुद में छुपे
जाने  कितने प्रान्तों से
जाने कितने चेहरों से
जाने कितने लोगों से
सभी अजनबी से लगते हैं
तो कभी बहुत अपने से

दे जाते हैं अक्सर कोई न कोई सीख
बता जाते हैं कौन से अक्षांश पर
कितना तापमान होगा
भूमध्य रेखा कहाँ से गुजरेगी
और कहाँ होंगे मौसम परिवर्तित

यात्रा के लिए जरूरी सामान है मेरे पास
कुछ संवेदनाएं , कुछ खुदगर्जी
कुछ प्रेम , कुछ नफरत
कुछ अपनापन , कुछ परायापन
तमाम आडम्बरों के खोल ओढ़कर जारी है यात्रा

फिर क्या जरूरी है
बाहरी यात्रा में शामिल हो
दूसरे परिवेश से परिचित होना
जबकि हकीकत में तो
जरूरी है अंतर्यात्रा
खुद का विकास
खुद के परायेपन से मुक्त हो
उन्मुक्त परिवेश में उड़ान भरना
और मैं जानती हूँ
कहाँ है मेरा अंतिम पड़ाव

गंतव्य तक पहुँचने तक ' यात्रा में हूँ मैं ' सोच निश्चिन्त हूँ ...........क्या तुम हो ?

महावीर वर्मा


पांच

सिर्फ एक शब्द " सम्भोग "

सिर्फ एक शब्द " सम्भोग "
कितने गहन अर्थ समेटे
और कितना उथला भी
कि शब्द भर का लिखना
लिख डालता है एक फलसफा
रच देता है एक तिलिस्म
जिसे भेदने को आतुर
खोजी निगाहें चली आती हैं
पीछा करते हुए
जाने कौन सा व्याकरण है बाकी
जो अभी नहीं पढ़ा गया
जाने कौन सी अबूझ लिपि है
जो अभी नहीं गयी गढ़ी
सिर्फ एक शब्द भर का प्रयोग
जिज्ञासा के चरम पर पहुंचा जाता है
भावनाओं को भटका जाता है
एक उथल पुथल सी
सीने में मचा जाता है

खिंची चली आती हैं चींटियाँ गुड़ पर जैसे
खिंचे चले आते हैं श्वान हड्डी पर जैसे
इस तरह खिंची चली आती हैं मधुमक्खियाँ शहद पर
मानो देखा न हो खिला कँवल कभी जल में जैसे
चरम उत्सुकता के बादल का लहलहाना
मानो मिला हो कोई खजाना

ओह ! इतना विध्वंसक है शब्द का प्रयोग भर
या है इतना आकर्षक
मानो मेनका ने की हो भंग तपस्या किसी विश्वामित्र की
या सोच के आखिरी सिरे पर
पहुँच जाती हैं कुछ खदबदाती कुंठाएं
जो शब्द के प्रयोग भर से ही हो जाती हैं भावनाएं स्खलित
और ढूंढने लगते हो तुम उसमे
अपनी तुच्छ वासनाओं के आकर्षण
बिना जाने सम्भोग का मर्म

महज जिस्मों का यौगिकीकरण ही नहीं होता सम्भोग
महज सुप्त जिज्ञासाओं को पोषित करना ही नहीं होता सम्भोग
महज पुरुषोचित दम्भ का प्रकटीकरण ही नहीं होता सम्भोग

दोनों का दोनों के प्रति
सम्पूर्ण समर्पण, सहयोगी  मानसिकता ही
सम्भोग शब्द को ही सार्थक नहीं करती
बल्कि देती है परमानन्द की अनुभूति और उच्चता संबंधों को भी

सम्भोग अनुभूत प्रक्रिया है
न कि जिस्मानी अनुभूति
यदि होती सिर्फ जिस्मानी हलचल या अनुभूति
तो मिल जाती एक बार में ही परिपूर्णता
क्योंकि मानसिक कुंठा करती है
बलात्कार को प्रोत्साहित
या बार बार सम्भोग को
मगर तृप्ति न कहीं मिलती है
जो सिद्ध करता है सम्भोग जिस्मानी से ज्यादा मानसिक उद्वेलन है
और किसी भी उद्वेलन से मुक्ति तभी मिलती है
जब मिले मानसिक शांति
और मानसिक शांति के लिए
मानसिक स्तर का सम होना जरूरी होता है
तभी स्त्री पुरुष का साहचर्य आकार पाता है

जब शब्द का प्रयोग भर
कर देता है तुममें वासना का आह्वान
फिर भला कैसे समझोगे तुम
स्त्री पुरुष संबंधों के उच्चतम स्तर
कैसे पहुँच सकते हो तुम
संबंधों के शिखर पर
जहाँ मानसिक स्तर पर जब
होता है संबंधों का आह्वान
तभी क्रियान्वित होता है
जिस्मों का आदान प्रदान
और हो जाती है सम्पूर्ण क्रिया सम्भोग की

एक उच्चावस्था ही सम्भोग शब्द को करती है सार्थक
मगर ये कैसे तुम जान सकते हो
जब सम्भोग शब्द के प्रयोग भर से
हो जाती हैं विचलित तुममें
मानवसुलभ जिज्ञासाएं
क्योंकि
जिस्मों से परे दोनों का
उच्च सम मानसिक स्तर ही सम्भोग की उच्चतम स्थिति होती है


छः

खुद को ख़ारिज करने से पहले

खुद को ख़ारिज करने से पहले
जरूरी हैं कुछ काम निबटाने

रखी है एक दवात , एक कागज और एक कलम मेरे सिरहाने
हाँ हाँ , दवात में है मेरी उम्र की स्याही
और ज़िन्दगी के पन्ने पर
लिखने को इबारत
उठानी होगी मुझे नासूरों की कलम

भरने को पन्ने
कुरेदनी होंगी सुप्त पड़ी कुछ अवांछित नाड़ियाँ
जहाँ लहू ने बहना छोड़ दिया कब का
बस पैबस्त हैं अंगों में नाकारे उपकरणों की तरह

करना होगा हिसाब
मूलधन और ब्याज का
जो जाने कब से चढ़ता रहा
यहाँ तक कि
मूल का स्रोत जाने कहाँ खो गया
और ब्याज चुकाने को किश्त कभी बाँधी ही नहीं
बस एक बजाजिये की तरह
खुद से खुद का सौदा करते रहे
अपनो की दो टुकड़े ख़ुशी के लिए

चुकाना है अभी कर्ज़
कुछ मिटटी का भी
क्या फर्क पड़ता है
बदन की हो या देश की
मिटटी में मिलकर
खुद को मिटटी बनाकर
अपने सभी पोषक तत्वों को
हस्तांतरित करके
और खुद को निस्तेज करके
बिना उबटनों के भला कब रंगत निखरा करती है

बची खुची रक्तवाहिकाओं सी संवेदनाएं
कुछ ख्यालों की उपमाएं
कुछ निरस्त की गयीं जिजीविषाएं
कुछ बेदाम बिकी संभावनाएं
कुछ खुद से चुरायी निद्राएं
सबको देकर यथोचित स्थान और सम्मान
लिखनी होगी आखिरी वसीयत स्वरूप
खुद के प्रगाढ़ आलिंगनों के दस्तावेज
जहाँ हर आलिंगन पर उभरा फाला
स्वयंभू बन मुस्कुराता मिले

यूँ  ही जल्दबाजी में तो नहीं किया जा सकता खुद को ख़ारिज
क्योंकि
खुद को ख़ारिज करने के लिए
लड़नी है एक लड़ाई अभी खुद से भी
जहाँ मेरी इंसानियत ने ठोंका है दावा मुझ पर
की है नालिश
आखिर क्या मिला
इंसानियत की बुर्ज पर ज़िंदा चिनकर
सत्य के आलोकों में हलाल होकर
इसलिए देने को जवाब
अभी करना है अध्ययन कुछ दस्तावेजों का
ऐतिहासिक पौराणिक और समकालीन रूपकों का
और अपने अंदर छुपी डरी सहमी लिजलिजी सुपारियों का
जो जानती हैं बिना सरोंते से काटे भी
दाँत के नीचे आने पर कटना जरूरी होता है
तो
अभी लिखने है ऐतिहासिक दस्तावेज
अपने मन के हरम में छुपी नग्न किंवदंतियों के

इसलिए
जरूरी हैं कुछ काम निबटाने
खुद को ख़ारिज करने से पहले

महावीर वर्मा


सात

इबादत के मटके हमेशा खाली ही होते हैं

मैंने हवाओं के परों में
बाँधे थे कुछ लम्हे
और भेजे थे तुम्हारी ख्वाबगाह में
तुम्हारे तसव्वुर को
जाने तुमने कौन सा जादू किया
जाने तुमने उनसे क्या कहा
जाने कौन सी सींवन उधड़ी दिखा दी तुमने
बदहवास सा हर लम्हा यूँ सिसका
न अश्क निकले न जाँ

ए…................ सुनो
कहीं उस वक्त तुम फकीरी वेश में तो नहीं थे
और सज़दा करते इश्क की चौखट पर लहूलुहान
तुम्हारा माथा तो नहीं देख लिया उन्होंने

कहीं उस वक्त तुम जरूरत से ज्यादा मुस्कुरा तो नहीं रहे थे
और न आँख में नमी थी न हाथ में जाम
फिर भी तुम्हारे लड़खड़ाते कदमों तले
किसी फूल को मसला हुआ तो नहीं देख लिया उन्होंने

कहीं उस वक्त तुमने दिल की हर झिर्री पर
मेरी सिसकती रूह का लिहाफ तो नहीं ओढ़ा था
जो तुम्हारे सीने की पोर पोर में दग्ध
तप्त सुर्ख सुलगता रेगिस्तान तो नहीं देख लिया उन्होंने

या तुम्हारी आँखों में सदियों से ठहरी वीरानी के
सिसकते शोर तो नहीं सुन लिए उन्होंने

या तुम्हारी जुबाँ पर बरसों से ठहरी ग़ज़ल के
दर्द के शीरे में भीगे शेर तो नहीं सुन लिए उन्होंने

सुनो ………तुम ही बताओ अब
कौन से दुर्लभ  देव का दर्शन करा दिया तुमने
जो थोड़े बहुत जीने के बहाने थे इन लम्हों में
वो भी मुझसे , मेरे चैन से , मेरे वजूद से छीन लिए तुमने

अब यहाँ
न फागुनी फुहार है
न बासन्ती बयार
न सावनी मल्हार
किस्मत की दी शिकस्त का आखिरी बाज़ार लगा है
बोली लगाने को
क्या खरीद सकोगे मुझे ................ खुद से ही
क्योंकि
मुझमे मैं तो कहीं बची ही नहीं अब …………………
और इबादत के मटके हमेशा खाली ही होते हैं
क्या भर सकोगे इनमे फिर से छलछलाता अमृत
जबकि जानती हूँ ये सच
कि
तुम नहीं हो , कहीं नहीं , कहीं नहीं
न यहाँ न वहाँ
न दूर न पास
न इस लोक में न परलोक में
फिर भी न जाने क्यों
आस का बादल बरसे बिना मानता ही नहीं

क्या होगा तुम्हारा पुनर्जन्म मोहब्बत को ज़िन्दगी देने के लिए
मोहब्बत को श्वांस देने के लिए
मोहब्बत को मोहब्बत का लिबास देने के लिए
क्या चल सकोगे एक बार फिर
फफोले पड़े पैरों से मोहब्बत की पोशीदा लाश को उठाये जलते अंगारों पर
रूह के रूह से मिलन होने तक
मेरे लबों पर सदियों से मचलता , तड़पता , सिसकता बोसा रखने को
क्या आ  सकोगे जन्नत के दरवाज़े से लौटकर
मेरी रूह की ये आखिरी सिसकारी सुनकर
क्योंकि सुना है
मोहब्बत के बागीचों में सिर्फ खारों के गलीचे हुआ करते हैं
जिन पर नंगे पाँव चलना उनकी पहली शर्त
और जब रातों के सीने चाक हुआ करते हैं
तब सुबह की नक्काशी उभरा करती है
यूँ ही नहीं उजास की दुल्हन उभरा करती है

मेरी इबादत का पहला और आखिर पन्ना हो तुम
तुमसे गुजरे बिना मेरी सुबह नहीं हुआ करती
जानते हो न ................ अँधेरे से डरती हूँ मैं
फिर भी आज
एक तुम्हारे साथ की चाह में मैंने अंधेरों की जयमाला पहन रखी  है
बस इंतज़ार है तो सिर्फ तुम्हारा
कब दिल के अरमानों से बनी
ख्वाबों की डोली लेकर आओगे
मेरे इंतज़ार की दुल्हन को विदा कराओगे
मेरी कुंवारी अभिलाषाओं के मुख से घूंघट उठाओगे
और मोहब्बत आलिंगनबद्ध हो जायेगी कभी न बिछड़ने को
मोहब्बत में तो प्रियतम का साथ ही
प्रथम और अंतिम रति होती है
बस इसके बाद भी क्या मोहब्बत में कोई चाह बचती है
क्योंकि ............. सभी जानते हैं
मोहब्बत की किस्मत में अभिसार रात्रि नहीं हुआ करतीं ………

आठ

भ्रम कोरे नहीं होते

बधाइयों के लकवे से
ग्रसित है मन की त्वचा
कि
भ्रमजाल जरूरी है जीने के लिए

सम्मोहन ही तो है
रिश्तों का व्यूह्जाल
जिसमे उलझाकर गुजारी जाती है एक ज़िन्दगी

तो फिर
दिमागी संतुलन के लिए
यदि बना लिया जाता है एक भ्रम का औरा
तो कैसे कहा जा सकता है उसे
फरेब या दिमागी फितूर

कि
हम नहीं होते खुद में मुकम्मल कभी
जानते हैं सत्य
इसलिए जरूरी हैं सहारे
फिर वो झूठे ही क्यों न हों

एक बेतरतीबी से तो बेहतर है
उंगल भर मन में उगा जंगल

ख्वाब खुली आँखों का प्रमाण नहीं बनते
जानते हैं सब
तो फिर बंद आँख
बंद प्रज्ञा कर
क्यों न निथार लिया जाए
लकवाग्रस्त शहर से
अपने लिए एक मुट्ठी भर भ्रम

आइये बने बंधुआ बधाइयों के
कि
खुराक हैं जीवन की
जिंदा होने के सबूत की
थोड़ी सी अविश्वसनीयता की
वर्ना
मन की सीलन से ही उपजता है कोढ़
अविश्वास का , हताशा का, विरक्ति का , सुसाइड का

तो मान लो
भ्रम कोरे नहीं होते
उनके नीचे भी होती है
मिटटी, हवा, पानी और बचाए रखने की ऊष्मा ...

नौ

कच्चे रास्ते पक्की दस्तकें 

उदास दिनों की उदास शामों से गुफ्तगू
ज़िन्दगी के रंग कई रे ...
कौन जाने ?
यहाँ रास्ते कच्चे हैं और दस्तकें पक्की

सारंगियों की आवाज़ पर अब नहीं उड़ा करतीं तितलियाँ
एक अजनबियत , एक धोखा और एक शहर
बस इतना सा फलसफा ही तो है ज़िन्दगी का
तुम बदल दो अपने चश्मे का नंबर इस बार
क्योंकि देखने के लिए एक तजुर्बे की जरूरत होती है
और वो उम्र को बेचने पर ही मिला करता है
फिर खरीदार कोई हो या नहीं

यहाँ आतिशबाजियों की जुबान नहीं होती
जो तुम्हारी नस्ल से हो सकें बावस्ता
दिनों की ख़ामोशी एक पहाड़े के सिवा कुछ भी तो नहीं
दो दूनी चार हो या चार दूनी आठ
याद करने के गुर बदल चुके हैं ठिकाना

नीयतों के छिलके कभी उतारना
हर छिलके का रंग स्वार्थ की चाशनी में लिपटा
फिर उँगलियों को दोष देने का रिवाज़ क्यों
यहाँ बजरबट्टू लगाने के रिवाज़ को बदला गया है बेशर्मी से

ढीठ हैं मधुमक्खियों की भिनभिनाहटें
अक्सर गुनगुन करती छेड़ जाती हैं सुप्त तार
फिर वो सप्तपदी के हों या अष्टपदी के
यहाँ विशद नहीं उल्काएं
जो एक ही पल में ध्वस्त कर दें संगीत के सुर

किसी खुशनुमा सुबह और अलसाई शाम को
पढना डूबते सूरज की आयतों को
न वहां दिन मिलेगा न शाम न रात
बस एक खौलता लावा , एक तन्हाई और एक मातमी सन्नाटा आवाज़ देता मिलेगा
उसके अनुवाद को कम पड़ेंगी
दुनिया की तमाम लिपियाँ
गाँव , शहर या देश सिर पटक पटक मचाते रहें कोहराम
आतंक का अनुवाद आज तक किसी भाषा में हुआ ही नहीं

फिर कहो
मौसमों के बदलने से कब बदली है दिनों की भाषा , परिभाषा
और
सन्नाटों ने भला कब नहीं शोर का बिगुल बजाया

ये मेरे और तुम्हारे गिनने के दिन नहीं
जो कच्चे रास्तों पर चलते हुए सुन लें पक्की दस्तकें
आओ कहें
खुशामदीद
खुशामदीद
खुशामदीद
बंजारे चाँद की चाँदनियों ने उलट दिए हैं आसमां के सभी सितारे
किसी खोये दिन की तलाश में

दस्तकें किसी आमद का सूचक हों जरूरी तो नहीं ....


दस

सुन्न हुई शिराओं में

अब मेरे पास नहीं कुछ लिखने को
न ही कुछ कहने को
शब्दों के सन्नाटे
रेंग रहे हैं मेरी रूह के अस्तबल में
विचार, भावबोध के झींगुर
नहीं करते गुन गुन
जो बेताबी की आँच पर पका
परोस दूँ
एक चटखारेदार व्यंजन बना
किसी समीक्षक/पाठक की थाली में

नया, कहने को बचा न पढने को
तुम कहते हो  पढो दुनिया को
तो यहाँ कौन सा नया तीतर बेताब है उड़ने को
वही झगडे फसाद हत्या बलात्कार आतंक
कहाँ ढूँढूँ ऐसा मजहब
जिसकी मीनार पर चढ़ आवाज़ लगाऊं
तो हर खुदा बहरा हो जाए
और इंसानियत जिंदा

राजनीति के अखाड़े में
अब पहलवानी नहीं करती इंसानियत
जो मुर्गे की बांग पर हो जाये सुबह

अल्लाह और भगवान दोनों चढ़े हैं सूली पर
और यीशू अपने बिंधे शरीर से
झल रहे हैं पंखा
कि हवाओं का रुख कर ले इबादत
और झुक जाए किसी चौखट पर सिरकटा कोई
क्योंकि
बदल चुका है मौसम नकाब लगाने का

ऐसे में कैसे संभव है
सुन्न हुई शिराओं में रक्त प्रवाह ?





ग्यारह

अंतिम संस्कार


ये मेरे अंतिम संस्कार की रस्में हैं
कि
करो सिंगार मेरा ऐसा
जाने का गम न रहे मुझे
और न भेजने का तुम्हें

लाल बिंदी टीका सिन्दूर की रस्में तो पुरानी हैं
मुझे सजना है दिव्य आभूषणों से
जहाँ
प्रेम का आलता लगाओ तुम मेरे पाँव में
और
धड़क उठे मुस्कान मेरी धड़कन में
हाँ , जिंदा रहने को साँसों का होना जरूरी नहीं

तुम्हारी दी मोहब्बत काफी है
मेरे श्रृंगार को
कि
उसमे शामिल है
तुम्हारे इश्क का नमक


मुस्कान के साथ विदाई
कर देगा मुझे सुहागन
और मुखाग्नि के लिए
रख देना मेरे अधरों पर अपने अधर
कि सुलग उठे रूह का ज़र्रा ज़र्रा
धू धू कर जलने से ही नहीं हुआ करते अंतिम संस्कार

और सुनो
मत करना मेरी कपाल क्रिया
सुना है
जिनकी कपाल क्रिया नहीं होती
याद रहता है उन्हें पिछले जन्मों का
और मैं
अपने प्रेम को फिर से शून्य से शुरू नहीं करना चाहती
जीना है मुझे अपना प्रेम
इस अर्धविराम से आगे

फिर प्रेम के अंतिम संस्कार में
रस्मों का निर्वाह
सिर्फ रस्म निभाना भर नहीं होता

कसम है तुम्हें
मत निभाना दुनियावी रिवाज़
कि
मुक्त हो चुकी है हमारी मोहब्बत

अपना अपना रिवाज़ है अमरफल को चखने का
बस एक चटकारा
और हो जाएगा मेरी रूह का तर्पण
000







नाम: वन्दना गुप्ता
जन्म तिथि : 8-6-1967

 स्नातक : कामर्स ( दिल्ली यूनिवर्सिटी , भारती कॉलेज )
               डिप्लोमा : कम्प्यूटर
                 फोन : 9868077896
                निवास : डी ---19 , राणा प्रताप रोड , आदर्श नगर ,दिल्ली---110033
              मेल : rosered8flower@gmail.com
                                    विधाएँ : कविता, उपन्यास, कहानी, समीक्षा, लेख

     कविता संग्रह : 1) “ बदलती सोच के नए अर्थ “
                                            (हिंदी अकादमी दिल्ली के सौजन्य से 2014 प्रकाशि1त
                                           2) “प्रश्नचिन्ह...आखिर क्यों ?” जनवरी 2017
                                           ३) “कृष्ण से संवाद” जनवरी 2017
                                         
                              कहानी संग्रह : “बुरी औरत हूँ मैं” जनवरी 2017
                                 उपन्यास : “अँधेरे का मध्य बिंदु” जनवरी 2016
                            समीक्षा संग्रह  : “सुधा ओम ढींगरा – रचनात्मक दिशाएं” जनवरी 2016
                          इ - कहानी संग्रह : “अमर प्रेम व अन्य कहानियाँ” जनवरी 2016 नॉटनल पर

                   इ – कविता संग्रह : “ये बेहया बेशर्म औरतों का ज़माना है” स्टोरी मिरर ऑनलाइन पोर्टल पर
                         साझा कहानी संग्रह : अंतिम पड़ाव

                  प्रकाशित साझा कविता संग्रह : 16 साझा संग्रहों में कवितायें प्रकाशित    
                   प्रकाशित साझा पुस्तकें : 7 साझा संग्रहों में आलेख, समीक्षा, व्यंग्य  आदि प्रकाशित

       प्रकाशित रचनायें : सभी प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं तथा वैब माध्यमों आदि पर कहानी , कविता , समीक्षा और आलेख प्रकाशित
                   
                              आल इंडिया रेडियो पर कई बार कविता पाठ

सम्मान : शोभना काव्य सृजन सम्मान – 2012
                 "हिन्दुस्तानी भाषा साहित्य समीक्षा सम्मान"- 2015

 अनुवाद : सिन्धी , पंजाबी और नेपाली में कविताओं का अनुवाद
                                                                             

तीन ब्लॉग : ज़िन्दगी एक खामोश सफ़र , ज़ख्म जो फूलों ने दिए , एक प्रयास



2 टिप्‍पणियां:

  1. कविताओं की इतना मान देने के लिए तहेदिल से आभार सत्य पटेल जी. शुक्रगुजार हूँ बिजूका ब्लॉग की जो पहली बार मेरी कवितायें यहाँ शामिल हुईं.

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  2. We are urgently in need of kidney donors in Kokilaben Hospital India for the sum of $500,000,00, (3 CRORE INDIA RUPEES) All donors are to reply via Email only: hospitalcarecenter@gmail.com or Email: kokilabendhirubhaihospital@gmail.com
    WhatsApp +91 7795833215
    --------------------------------------------------------------------

    हमें कॉकैलेबेन अस्पताल के भारत में 500,000,000 डॉलर (3 करोड़ रुपये) की राशि के लिए गुर्दे के दाताओं की तत्काल आवश्यकता है, सभी दाताओं को केवल ईमेल के माध्यम से उत्तर देना होगा: hospitalcarecenter@gmail.com या ईमेल: kokilabendhirubhaihospital@gmail.com
    व्हाट्सएप +91 7795833215

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