पड़ताल: अनामिका चक्रवर्ती की कविताएं
अनुभवों की कविताएं
नवनीत शर्मा
अनामिका जी की कविताओं को पढना जीवन से जुड़े कई अनुभवों को पढ़ना है। यह बात तय है कि अनामिका जी की नजर हर उस विषय पर है जो मनुष्य से जुड़ा है। कहीं आत्महत्या जैसे संवेदनशील विषय पर उनकी नजर है...कहीं वह किसी मां की इस सोच को पढ़ रही हैं कि बेटी पराया धन है... कहीं किसानों की अात्महत्या उन्हें कचोटती है... कहीं पुरुष कहाते वर्ग का पाशविक कृत्यों में गिरते जाना भी दर्ज है... । यह मेरी सीमा है कि इन्हें पहले नहीं पढ़ा और न इनके बारे में जानता हूं। यह एक प्रकार से अच्छा भी है। मुझे ये कविताएं संवेदना से सराबाेर, मनुष्यता के पक्ष में और जमीन से जुड़ी कविताएं लगीं.....हालांकि ऐसा भी प्रतीत हुआ कि इन्हें एक बार और अगर वह स्वयं ही देखतीं तो प्रभाव और मारक होता।
पहली कविता को पढ़ कर अपना एक शे'र याद आ गया :
कहते हैं कैसे लोग कि है खुदकुशी सही
हमने तो सारी उम्र यही जिंदगी सही।
दरअसल उर्दू शायरी में जान देने और आत्महत्या को ग्लोरीफाइ किया गया है, लेकिन इस पर जिम्मेदारी के साथ बात नहीं हुई। जबकि एक की आत्महत्या कई लोगों की हत्या में बदल जाती है। 'अंतिम यात्रा' कविता के दो हिस्से हैं। एक वह है जिसमें आत्महत्या करने वाले का मनोविज्ञान समझ कर उसे समझाने की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है.... लेकिन दूसरे हिस्से में आकर कविता ने अपनी बात जीवन के पक्ष में खुल कर कही है। दस सितंबर को विश्व आत्महत्या निवारण दिवस मनाया जाता है...ऐसे आंकड़े भरपूर हैं जो बताते हैं कि अपनी जान देने वालों की संख्या कैसे बढ़ रही है। लोग डरे हुए हैं...स्वयं पर विश्वास को खो चुके हैं....अंदर से खोखले हो रहे हैं....इसीलिए प्रवचन करने वाले बाबाओं की दुकानदारी भरपूर चमक रही है। यह कविता जीवन से जुड़ी है, जीवन जैसी अमूल्य निधि के बारे में बात कर रही है....इसलिए भी इस कविता का स्वागत। ये पंक्तियां जितनी सरल हैं उतनी ही मारक हैं :
....कि क्या तुम्हारे चले जाने से,
किसी का जीवन बाधित तो नहीं होगा
किसी के सर पर अनाथ का नाम तो न होगा
कोई बूढ़ा जीवित लाश बन तो नहीं जाएगा
आँखें होते हुए अंधा तो नहीं कहलाएगा
पेट चलाने की खातिर कोई बेवा,
बाजार की रौनक तो नहीं बन जाएगी
अपनी जवान भूख दबाते दबाते ,
कहीं खुद ही तो नहीं मिट जाएगी ।
बेहतरीन कहन लेकिन इसका अंत और अच्छा हो सकता था, ऐसा मुझे लगता है।
दूसरी कविता भी जीवन से जुड़ी है और हमारे परिवेश में जो पाश्विक वृत्ति बढ़ रही है, उस पन तंज़ है। कितना सच है कि जिसके लिए पुरुषार्थ जैसा शब्द आया, उसी के गिरने की सीमा नहीं रही। विषय बहुत प्रासंगिक है और कविता लाउड भी है पर यह खयाल भी आता है कि शायद इस कविता के लाउड होने में ही इसकी ताकत है।
..... फिर न उठ सके कभी तुम
न रहे तुम श्रेष्ठ
न रहे तुम पुरुष ।
क्या विडंबना है कि कोख अपनी और धन पराया। बिना शोर मचाए ये पंक्तिया कितनी बड़ी बात कह जाती हैं :
हर शनिवार को ढूँढती थी
इश्तेहारो में अपनी बेटियों की ज़िंदगी
पार कर देना चाहती थी सही वक़्त पर
आखिर अपनी कोख में,
पराये धन को जन्म जो दिया था।
इस कविता का अंत उस त्रासदी पर बोला है जो इस परंपरा को आगे से आगे हस्तांतरित करने में ही अपना कर्तव्य समझता है।
बोझ कविता की ट्रीटमेंट पूरी तरह मनोवैज्ञानिक है। भले ही ऐसी कविताएं बहुत लिखी गई और लिखी जा रही हैं लेकिन इस कविता की सरलता देखने वाली है। विसंगति बहुत है...थकन बहुत है लेकिन अंतत: चलते ही जाना है :
'और फिर जमे हुये रक्त से
जीने की ताकत को खींच कर
फिर एक सुबह खुद को ढोने के लिये
मलकर आँखों को मसल लेती है अपने सपनों को
और सर उठाती इच्छाओं को
बांधकर कर्त्तव्य के आँचल में
फर्ज के पहलू में
फिर एक बार खुद को सौप देती है।
'मृत्यु' कविता को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे मैं ओशो का कोई प्रवचन सुन रहा हूं। इस कविता का विषय ठीक है और दार्शनिकता भी भरपूर है लेकिन पाठक को कुछ नया देने के लिए आवश्यक था कि इसे दो तीन बार और देखा जाए। यह मेरा निवेदन है। महानगर की घुटन पर कई कविताएं देखने में आती रही हैं। डिटेल्स काफी हैं लेकिन इन अनुभवों को काव्य तत्व में ढालना आवश्यक था। उसके बगैर यह रिपोर्ताज की शक्ल दे रही है। शहर में ऐसा होता है, यह बहुत लोग कह चुके हैं फिर भी कहीं कहीं ऐसे वाक्य ध्यान खींचते हैं :
जवानी पगडंडियों पर छूट जाती है....
...दिन के उजाले डरते है जहाँ
खिड़कियों के अन्दर झाँकने से .....
लेकिन दिन और रात का पूरा विवरण देने के बाद कविता अंत में फिर यही कहें कि:
'वहाँ न जाने कैसे दिन
और कैसी रातें होती हैं।'
तो शायद यह ठीक नहीं...।
इसी तरह'रात का बचा हुआ बासी खाना' के बहाने कविता उस सोच पर बात करती है जिसमें किसी के लिए अपने पुण्य के लिए गाय महत्वपूर्ण है आदमी नहीं। कविता का विषय अच्छा है लेकिन इसे और बेहतर ट्रीटमेंट दिया जा सकता था।
'जब सारा पुण्य कमाकर
सुबह की पहली चाय के साथ
अख़बार के पहले पन्ने पर
खाली खेत के बीच में लगे पेड़ से
फाँसी में लटके किसान की तस्वीर देखतें है
और पढ़ते है फसल के नुक्सान और क़र्ज़ से परेशान
होकर मरने वालों किसानो का आँकड़ा बढ़ा
तब सारा पुण्य, पाप में बदला हुआ सा लगने लगता है।'
किसान फांसी में नहीं लटक सकता। कोई भी फांसी पर लटक सकता है लेकिन खुदकुशी में तो फंदा ही लगाता है। अनामिका चक्रवर्ती जी की कविताओं में जो आब्जर्वेशन है....हर स्थिति को पकड़ने और महसूस करने की जो ललक है...सरल ढंग से बात कहने का जो अंदाज़ है....वह इन कविताओं का पहला हासिल है। वर्तनी दोष तो संभवत: टाइपिंग के दौरान हो जाते हैं और उसी दौरान दूर भी हो जाते हैं। कवि को बधाई और शुभकामनाएं।
००
अनामिका चक्रवर्ती की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़ी जा सकती है।
https://bizooka2009.blogspot.in/2017/12/1-2-3-4.html?m=1
अनुभवों की कविताएं
नवनीत शर्मा
अनामिका जी की कविताओं को पढना जीवन से जुड़े कई अनुभवों को पढ़ना है। यह बात तय है कि अनामिका जी की नजर हर उस विषय पर है जो मनुष्य से जुड़ा है। कहीं आत्महत्या जैसे संवेदनशील विषय पर उनकी नजर है...कहीं वह किसी मां की इस सोच को पढ़ रही हैं कि बेटी पराया धन है... कहीं किसानों की अात्महत्या उन्हें कचोटती है... कहीं पुरुष कहाते वर्ग का पाशविक कृत्यों में गिरते जाना भी दर्ज है... । यह मेरी सीमा है कि इन्हें पहले नहीं पढ़ा और न इनके बारे में जानता हूं। यह एक प्रकार से अच्छा भी है। मुझे ये कविताएं संवेदना से सराबाेर, मनुष्यता के पक्ष में और जमीन से जुड़ी कविताएं लगीं.....हालांकि ऐसा भी प्रतीत हुआ कि इन्हें एक बार और अगर वह स्वयं ही देखतीं तो प्रभाव और मारक होता।
नवनीत शर्मा |
पहली कविता को पढ़ कर अपना एक शे'र याद आ गया :
कहते हैं कैसे लोग कि है खुदकुशी सही
हमने तो सारी उम्र यही जिंदगी सही।
दरअसल उर्दू शायरी में जान देने और आत्महत्या को ग्लोरीफाइ किया गया है, लेकिन इस पर जिम्मेदारी के साथ बात नहीं हुई। जबकि एक की आत्महत्या कई लोगों की हत्या में बदल जाती है। 'अंतिम यात्रा' कविता के दो हिस्से हैं। एक वह है जिसमें आत्महत्या करने वाले का मनोविज्ञान समझ कर उसे समझाने की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है.... लेकिन दूसरे हिस्से में आकर कविता ने अपनी बात जीवन के पक्ष में खुल कर कही है। दस सितंबर को विश्व आत्महत्या निवारण दिवस मनाया जाता है...ऐसे आंकड़े भरपूर हैं जो बताते हैं कि अपनी जान देने वालों की संख्या कैसे बढ़ रही है। लोग डरे हुए हैं...स्वयं पर विश्वास को खो चुके हैं....अंदर से खोखले हो रहे हैं....इसीलिए प्रवचन करने वाले बाबाओं की दुकानदारी भरपूर चमक रही है। यह कविता जीवन से जुड़ी है, जीवन जैसी अमूल्य निधि के बारे में बात कर रही है....इसलिए भी इस कविता का स्वागत। ये पंक्तियां जितनी सरल हैं उतनी ही मारक हैं :
....कि क्या तुम्हारे चले जाने से,
किसी का जीवन बाधित तो नहीं होगा
किसी के सर पर अनाथ का नाम तो न होगा
कोई बूढ़ा जीवित लाश बन तो नहीं जाएगा
आँखें होते हुए अंधा तो नहीं कहलाएगा
पेट चलाने की खातिर कोई बेवा,
बाजार की रौनक तो नहीं बन जाएगी
अपनी जवान भूख दबाते दबाते ,
कहीं खुद ही तो नहीं मिट जाएगी ।
बेहतरीन कहन लेकिन इसका अंत और अच्छा हो सकता था, ऐसा मुझे लगता है।
दूसरी कविता भी जीवन से जुड़ी है और हमारे परिवेश में जो पाश्विक वृत्ति बढ़ रही है, उस पन तंज़ है। कितना सच है कि जिसके लिए पुरुषार्थ जैसा शब्द आया, उसी के गिरने की सीमा नहीं रही। विषय बहुत प्रासंगिक है और कविता लाउड भी है पर यह खयाल भी आता है कि शायद इस कविता के लाउड होने में ही इसकी ताकत है।
..... फिर न उठ सके कभी तुम
न रहे तुम श्रेष्ठ
न रहे तुम पुरुष ।
क्या विडंबना है कि कोख अपनी और धन पराया। बिना शोर मचाए ये पंक्तिया कितनी बड़ी बात कह जाती हैं :
हर शनिवार को ढूँढती थी
इश्तेहारो में अपनी बेटियों की ज़िंदगी
पार कर देना चाहती थी सही वक़्त पर
आखिर अपनी कोख में,
पराये धन को जन्म जो दिया था।
इस कविता का अंत उस त्रासदी पर बोला है जो इस परंपरा को आगे से आगे हस्तांतरित करने में ही अपना कर्तव्य समझता है।
बोझ कविता की ट्रीटमेंट पूरी तरह मनोवैज्ञानिक है। भले ही ऐसी कविताएं बहुत लिखी गई और लिखी जा रही हैं लेकिन इस कविता की सरलता देखने वाली है। विसंगति बहुत है...थकन बहुत है लेकिन अंतत: चलते ही जाना है :
'और फिर जमे हुये रक्त से
जीने की ताकत को खींच कर
फिर एक सुबह खुद को ढोने के लिये
मलकर आँखों को मसल लेती है अपने सपनों को
और सर उठाती इच्छाओं को
बांधकर कर्त्तव्य के आँचल में
फर्ज के पहलू में
फिर एक बार खुद को सौप देती है।
अनामिका चक्रवर्ती |
'मृत्यु' कविता को पढ़ कर ऐसा लगा जैसे मैं ओशो का कोई प्रवचन सुन रहा हूं। इस कविता का विषय ठीक है और दार्शनिकता भी भरपूर है लेकिन पाठक को कुछ नया देने के लिए आवश्यक था कि इसे दो तीन बार और देखा जाए। यह मेरा निवेदन है। महानगर की घुटन पर कई कविताएं देखने में आती रही हैं। डिटेल्स काफी हैं लेकिन इन अनुभवों को काव्य तत्व में ढालना आवश्यक था। उसके बगैर यह रिपोर्ताज की शक्ल दे रही है। शहर में ऐसा होता है, यह बहुत लोग कह चुके हैं फिर भी कहीं कहीं ऐसे वाक्य ध्यान खींचते हैं :
जवानी पगडंडियों पर छूट जाती है....
...दिन के उजाले डरते है जहाँ
खिड़कियों के अन्दर झाँकने से .....
लेकिन दिन और रात का पूरा विवरण देने के बाद कविता अंत में फिर यही कहें कि:
'वहाँ न जाने कैसे दिन
और कैसी रातें होती हैं।'
तो शायद यह ठीक नहीं...।
इसी तरह'रात का बचा हुआ बासी खाना' के बहाने कविता उस सोच पर बात करती है जिसमें किसी के लिए अपने पुण्य के लिए गाय महत्वपूर्ण है आदमी नहीं। कविता का विषय अच्छा है लेकिन इसे और बेहतर ट्रीटमेंट दिया जा सकता था।
'जब सारा पुण्य कमाकर
सुबह की पहली चाय के साथ
अख़बार के पहले पन्ने पर
खाली खेत के बीच में लगे पेड़ से
फाँसी में लटके किसान की तस्वीर देखतें है
और पढ़ते है फसल के नुक्सान और क़र्ज़ से परेशान
होकर मरने वालों किसानो का आँकड़ा बढ़ा
तब सारा पुण्य, पाप में बदला हुआ सा लगने लगता है।'
किसान फांसी में नहीं लटक सकता। कोई भी फांसी पर लटक सकता है लेकिन खुदकुशी में तो फंदा ही लगाता है। अनामिका चक्रवर्ती जी की कविताओं में जो आब्जर्वेशन है....हर स्थिति को पकड़ने और महसूस करने की जो ललक है...सरल ढंग से बात कहने का जो अंदाज़ है....वह इन कविताओं का पहला हासिल है। वर्तनी दोष तो संभवत: टाइपिंग के दौरान हो जाते हैं और उसी दौरान दूर भी हो जाते हैं। कवि को बधाई और शुभकामनाएं।
००
अनामिका चक्रवर्ती की कविताएं नीचे लिंक पर पढ़ी जा सकती है।
https://bizooka2009.blogspot.in/2017/12/1-2-3-4.html?m=1
कविताओं की बाबत अच्छी बातें कही ।कविताओं का लिंक सही नही है ।ओपन नही हो रहा ।
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं नवनीत शर्मा जी
हार्दिक आभार आदरणीया।
हटाएंप्रवेश जी
जवाब देंहटाएंजब लिंक को प्रेस करते हैं, तब नीचे ब्लॉग की लिंक और गूगल क्रोम का साइन नज़र आता है। उसे छूने पर लिंक खुल जाती है।