24 फ़रवरी, 2018

स्कन्द शुक्ल की कविताएं




स्कन्द शुक्ल 




स्त्रीलिंग-पुल्लिंग

संस्कृत में देवता स्त्रीलिंग रहा
तुमने उसे पुल्लिंग कर लिया ,
संस्कृत में अग्नि पुल्लिंग रहा
तुमने उसे आग कर स्त्रीलिंग बना लिया ,
इस तरह औरत के सामने आदमी के अर्पित
होने के क्रम का विपर्यय हुआ
और औरतें आदमियों के सामने अर्पित स्वधा-स्वाहा होने लगीं।





जन्मदिन की ड्रेस

हर साल मेरे जन्मदिन पर तोहफ़ा देता है समय
एक पुरानी पड़ती देह के लिए
नयी ड्रेस बिना प्राइस-टैग के
कि इसे पहनो , विचरो , दुनिया-भर में घूम आओ।
बिना जताये परिधान धरने का ढंग
और न बताता था गुर कि साल-भर ढँके घूमने का ड्रेस-कोड क्या है।
दिनों के रेशों से बनीं-सिलीं महीनों की तहें
उन तहों से बने तमाम क़िस्म के वार्षिक डिज़ायन
अपनी-अपनी फ़ितरत के अनुसार
जिस्म की अलग-अलग कमज़ोरियों को छिपाते समाज से।
हर वर्तमान जो मैंने जिया वस्त्र हो लिया
यादों-सबकों के ढेर को रखने लगा इतनी देर तक
कि दिन-दिन मेरे ही अतीत में घिर कर दम घुटने लगा और थमने लगीं साँसें।
समय को पुरानेपन के साथ पहनते जाना है
आलमारियों में नहीं धरना
इतने उपहार हर साल मिलते हैं कि उनका भण्डार बेकार है
सबसे नये बासी साल वस्त्र बनते हैं फिर होते हैं घर
और फिर अगर उन्हें पहन-पहन कर नहीं फाड़ा-झाड़ा गया
तो हो जाते हैं कब्र
इसलिए मैंने अपनी नग्नता से सीखा गुज़रे समय को तार-तार करने का हुनर
हर बीतते वर्ष के साथ स्वयं को देह के और क़रीब पाया है
सामने सड़क पर गुज़रते उस नंगे आदमी को देखते हुए
जिसके पास सालों से अपना कोई अतीत नहीं है।





निजता-सार्वजनिकता

कुछ भी कविता करते समय
किसी को भी मन में भरते समय
मैं आँखों के आगे अपना पसरा अँधेरा रखता हूँ ,
जो मेरे इर्द-गिर्द मुझे और केवल मुझे नज़र आता है।
जब कहीं उस किये-भरे को सुनाता हूँ
तो फिर ठहरता हूँ मेधा की मचान पर सामने चढ़ी काली कालीनों पर ;
क्योंकि ये ही तो हैं जो आगे की उम्मीद हैं ,
कालिम तरुणाई ही बुझेगी-जूझेगी अपने समय के अँधेरे से
क्योंकि समस्याओं और उनके समाधानों के गुणधर्म समान होते हैं।
वसुधा इतनी कुटुम्ब कभी न थी
कभी न जोड़ा गया था इस तरह सबके उजालों-अँधेरों को
पर फिर भी आदमी किसी यन्त्र का पुर्ज़ा नहीं है
इसलिए उसे अपने निजी प्रकाश और अन्धकार की पहचान भूलनी नहीं चाहिए।
ताकि सहयोग-साझेपन के इस दौर में भी बनी रहे मौलिकता
क्योंकि बिना व्यक्ति हुए कोई कितना भी कहे , समष्टि हो नहीं सकता
इसलिए मुझे नौजवानों से प्रत्याशा है
कि वे अपनी निजता को बनाये रखकर
दुनिया के हर दर्द को उतना ही महसूस करेंगे
जितना दूरी को दूर से और नज़दीकी को नज़दीक से किया जा सकता है
और जब सालों बाद जब वे सारे सफ़ेद हो जाएँगे
तो नज़र आएगा उनका गढ़ा समाज तमाम मूलों की माला-सा
जब कोई कवि उन्हें यहाँ मंच से अपनी कोई कविता सुनाएगा।








चिड़िया

कम्प्यूटर-स्क्रीन पर मरी हुई चिड़िया
को उभरा देखकर फटी रह गयी थीं
तुम्हारी जिज्ञासु आँखें अचानक
जम गया था माउस के सहारे
पेजों को कुतरता हाथ वह
गायब हो गये थे जबड़े के थम जाने से
उठते-मिटते कपोलों के वे कोमल उभार।
'नक़ली है' मैंने कहा था :
चिड़िया नहीं मरती किसी चूइंग गम को खाकर इस तरह
चबैने को चीन्हना उसकी चोंच जानती है ,
मगर उतनी ही कृत्रिम है
मशक़्क़त करते मुँह के संग
तुम्हारी मुक्ति की मेहनतकश चाह
---- समय आ गया है कि तुम यह भी जान लो !
समय आ गया है कि तुम यह भी जान लो
कि जानकारियों की फेहरिस्त में ज़्यादातर नक़ली हैं
उड़ानों की कोशिशें इस तरह नहीं की जातीं
अधिकांश आसमान यों झूठमूठ उड़कर नहीं न…




नग्नता-बोध

लगभग छह के हो चले मेरे बेटे ने
जब मना किया सबके सामने बदलने से अपने कपड़े
कहा कि वह अब अकेले नहा सकता है बिना किसी सहयोग के ,
मैं जान गया कि वह भी हम सब की तरह
अदन के बगीचे से बाहर निकल आया है
खाकर वह शैतानी फल जिसे अनजाने चखकर
हम सब बाहर निकले थे कभी।
आदमी का जान जाना कि वह नंगा है
और नंगे होकर रहना सम्भव नहीं है
क्योंकि उसके पास इतना कुछ है ढाँपने-छिपाने के लिए
उसे अदन छोड़ना ही होगा आख़िर गगन में जाने के लिए
उसे आग जलानी है , उसे चाक चलाना है
यन्त्रों पर चढ़कर उसे आगे तक जाना है
पहनावे की एक प्रथा-सी बढ़ती भीड़ में
नग्नता एक पतनप्रियता का अपवाद है
विकास की क़समें खाते हमें पोशाकें पहननी ही होंगी
टहलना होगा सुरक्षा और सरपरस्ती के बगीचों के बाहर
अपनी चाम को बचाते , आराम को धता बताते
लेकिन इस तरह कि भीतर के किसी सूने कोने में गिलहरी की कोई फुदकन बाकी रहा करे।
इसलिए मेरे बेटे , तुम्हें इस नग्नता-बोध के लिए बधाई देता हूँ
लेकिन मुझे सबसे ज़्यादा प्रसन्नता उस दिन होगी
जिस दिन तुम पोशीदगी के साथ कुछ ऐसा कर जाओगे
कि कोटर से बाहर झाँकेगी वह गिलहरी
कुतूहल से कहती हुई कि अब भी ज़िन्दा हूँ मैं।






आदमी-औरत

सिर झुकाये आदमी उदास नहीं होता हमेशा
वह परकार-सा अपने केन्द्र में गड़ा
अपनी ही परिधि के निर्माण में लगा होता है
भीड़भरे जवान बस-अड्डे पर , सुनसान बुज़ुर्ग पार्क में
दिन में दफ़्तर , रात में घर पर
ज़िन्दगी में फैलने के लिए पहले कोशिश करता है
वह गड़ने की
क्योंकि बिना ख़ुद में खूँटा लगाये कहीं जाया न जा सकेगा
और औरत ? वह क्या ?
वही तो एक है जो
बिना केन्द्रों के कहीं भी वृत्त बना सकती है
जो त्रिज्याओं के तीरों पर वापसी के विश्वास के साथ
कहीं बिना जाए भी हर जगह जा सकती है !








अंग-विन्यास 

आदमी शरीर लिए जन्मा
उसमें अलग-अलग अंग थे
और उन अंगों का अपना अलग-अलग विधान।
पैर सबको ढोने लगे
पेट सबको पालने लगा
बाँहों ने जिम्मा सम्हाला सबकी सुरक्षा का
और मुँह ने सबको , सबके जिम्मे बताने-सिखाने का।
बात यहाँ तक ठीक थी
लेकिन फिर एक दिन जब पैरों ने
मुँह बनने की इच्छा जतायी
तो उन्हें जूते दिखाये गये
याद दिलाया गया उन जूतों में उनका ठिकाना है
और यह बताया गया कि उनके पास जीभ और दाँत नहीं हैं
इसलिए शिक्षा और स्वाद उनके लिए नहीं है
अपनी पंजों-एड़ियों से वे वही करें जो आज तक इतने साल करते आये हैं
यह तो बहुत पहले तय कर लिया गया था कि कौन क्या करेगा
कि किसका किरदार क्या होगा
तो आज फिर यह सवाल क्यों उठाया जाता है ?
और बहुत से जरूरी काम भी तो हैं शरीर के
आओ , क्यों न हम मिलकर उनपर चर्चा करें।
एक अनुमोदन भरे ठहाके से पेट फूला ,
और आज्ञाकारी भुजाओं ने पैरों को मोज़ों में कसकर
उन्हें वहीं पहुँचा दिया जहाँ उनका पुराना ठिकाना था।
पैरों ने खूब कोशिश की भरोसा जीतने की ,
यह समझाया कि उनमें बिवाइयाँ तो फूटा ही करती हैं
उनमें से किसी एक को वे गहरा कर देंगे , मुँह के छेद सा
स्वाद और भाषा की गहराई समेटने के लिए
और किसी एक उँगली को पतला-मुलायम-सुर्ख करके
जीभ भी पैदा करने का प्रयास करेंगे।
और हो सकता है कि इतनी लगन देख कर
दाँतों की पैदावार भी अन्ततः होने ही लगे।
मगर बात बन न सकी , कैसे बनती ?
भला अंग-विन्यास भी कभी ऐसे बदला है ?
इसलिए मुँह का स्वस्तिवाचन जारी रहा
और पसीने में तर पैर चमड़े के ठिकानों से उन्हें हसरत लिए सुनते रहे ,
और फिर अपनी ऐच्छिक राह पर चल पड़े
फिर उनमें बिवाइयाँ फूटी , उनमें से एक मुँहनुमा गहरी हुई
एक पतली उँगली ने जीभ की भूमिका में खुद को ढाल लिया
और ज्यों ही दाँतों की पहली पंक्ति फूटने को हुई
तो नोकदार जीभ चलाकर मुख ने पूछ लिया अचानक चुभता सवाल
कि इतनी देर से श्रम-साधन में लगे पाद-युगल !
तुम तो परन्तु दो हो ,
और मेरा किरदार एक ,
सोच तो लो आख़िरकार
दोनों में से कौन उसे निभायेगा ?





चौदह फ़रवरी

आज चौदह फ़रवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं
सिसक रहे हैं , फफक रहे हैं
आँसुओं के सैलाब में वसन्त को गीला कर रहे हैं
उनकी पुरानी दुकान जो कॉलेज के सामने थी
आज सुबह बेरहमी से तोड़ी गयी है
बिन पते के रंगीन ग्रीटिंग कार्ड फाड़े गये हैं
नाज़ुक गिफ़्टों को क्रूरता से पटका गया है।
जो कुछ क़िस्मत से बच गया है ,
उसे वे सहेज कर सँजो रहे हैं।

आज चौदह फरवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं
उनकी जीविका को जम कर लहूलुहान किया गया है
उनके लड़कों को ख़ूब पीटा-घसीटा गया है
वे मुझसे पूछते हैं कि यह कैसी ऋतु खिली है ?
पैंसठ सालों की ज़िन्दगी में यह आज कैसा वसन्त है ?
अपनी पुरानी फरवरियों की यादों को वे सिरे से पिरो रहे हैं।
आज चौदह फ़रवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं।

आज चौदह फ़रवरी है
और गुप्ता अंकल रो रहे हैं
उन्होंने वैलेंटाइन और वसन्त को एक ही माना था
आज उन्हें सुबह बताया गया कि वैलेंटाइन और वसन्त
दो अलग-अलग मेल के इश्क़ हैं
एक फिरंग है , दूसरा स्वदेशी
इसलिए भारत में विदेशी ढंग से प्यार नहीं किया जाएगा
आप भला क्यों आधुनिकता के नाम पर
अश्लीलता छात्रों में बो रहे हैं ?

मत रोइए अंकल
आँसू पोंछ दीजिए अपने
जिन्होंने यह बलवा काटा है
वे जानते नहीं कि सरस्वती और कामदेव , दोनों
एक ही दिन की पैदाइश हैं
उनका असर एक ही उम्र पर गहरा है
उन दोनों को लाख कोशिश के बाद भी
अलग-अलग किया नहीं जा सकता।
तालीम और मुहब्बत , एक ही दिमाग के कमरे में
एक उम्र तक , एक ही संग रहा करते हैं
अगर एक पर चोट की जाएगी
तो दूसरा चोटिल होगा
अगर एक को घाव दिया जाएगा
तो दूसरा घायल होगा
वैलेंटाइन तो बहाना है अंकल
दमन का दर्द तो असल में दिया जा रहा है
सरस्वती और कामदेव को , एक साथ
प्रेम और विद्या एक ही मेल के होते हैं
हमेशा , हर जगह , हर समय
और अगर दोनों ही नहीं जन्मेंगे
तो न जिस्म पैदा होंगे और न बुद्धि
और तब पूरी दुनिया में
अखण्ड , एकछत्र राज्य होगा मौत का।
ग्रीटिंग कार्ड फाड़ने वाले ,
कोर्स की किताबों को भी नहीं बख्शेंगे
और न गिफ्ट तोड़ने वाले ये देखेंगे कि वह फैंसी पेन
कभी इम्तेहान लिखने के भी काम आ सकती है
इसलिए यह ऋतुराज के मौसम में पतझड़ की आहट है
पर्यावरण बदल रहा है , इसे बूझिए भलीभाँति
आप क्यों वैलेंटाइन और वसन्त के नामों में
उलझ कर उनके गहरे सारांश को खो रहे हैं ?











ओले की गलन

कमरे के भीतर से झाँकते हैं शहरी
कि आज बाहर ओले गिरे हैं !
पकौड़ियाँ तली जा रही हैं यहाँ
चाय के घूँटों के साथ उतारी जाएँगी नीचे हलक से अभी ,
यहाँ से महज डेढ़ किलोमीटर दूरी पर
गेहूँ की खड़ी फसल चित हो गयी है
मगर अन्नदाता के पास आँसू भी नहीं बचे हैं अब
हलक से नीचे उतारने को।
ये ओले नहीं हैं
रबर की गोलियाँ हैं
जो प्रदर्शन करती हरी भीड़ पर
आसमानी सत्ता ने चलायी हैं
उपज को तितर-बितर करने को
ताकि भूख का वर्चस्व यों ही कायम रहे।
ये ओले नहीं हैं
मधुमक्खियों का झुण्ड है
शान्ति से प्रदर्शन करती जनता पर
किसी ने आन्दोलन को रफा-दफा करने के लिए
ऊपर नीले छत्ते पर शरारत से ढेला उछाला है।
और यहाँ ? न जाने क्या खाया जा रहा है तल कर
गर्म पकौड़ियाँ , ठंडे ओले या निश्ताप अन्नदाता !
ओला भी क्या चीज़ है
कितनी तरह से रूप बदल कर
वह लोगों की भूख मिटाता है
गाँवों में वह स्वर्ग से पेट पर पथराव है
और शहर के लिए वह तेल पर तैरती पकौड़ियाँ और मरते किसान है ,
गाँवों और शहरों दोनों के लिए
ओलों की बारिश की मार एक सी ही है
मगर गाँव तुरन्त और सीधे मरता है
और शहर कल पकौड़ी और किसान को खाकर मरेगा।





संक्षिप्त परिचय

सितम्बर 22 1979 को राजापुर , बान्दा में जन्म।
वर्तमान में लखनऊ में गठिया-रोग-विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत।
वृत्ति से चिकित्सक होने के कारण लोक-कष्ट और उसके निवारण से सहज जुड़ाव।
साहित्य के प्रति गहन अनुराग आरम्भ से।
अनेक कविताएँ-कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
साथ ही दो उपन्यास 'परमारथ के कारने' और 'अधूरी औरत' भी।
सामाजिक मीडिया पर भी अनेकानेक वैज्ञानिक-स्वास्थ्य-समाज-सम्बन्धी लेखों-जानकारियों के माध्यम से सक्रिय।
फ़ोन : 9648690457
ईमेल : shuklaskand@yahoo.co.in

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