22 फ़रवरी, 2018


पड़ताल: महेश पुनेठा की कविताएं


मैं जीते जी मुर्दा बनना नहीं चाहता हूं

डॉ अनिल कुमार सिंह



"आजकल " का जनवरी अंक 'युवा कविता के प्रखर स्वर' पर केन्द्रित है।इसमें एक बड़ा एवं महत्वपूर्ण स्वर मेरे प्रिय कवि महेश चंद्र पुनेठा जी का भी है।उनकी कविताएं उनके सहज व्यक्तित्व और जन सरोकारों की सच्ची बानगी हैं। अपने जीवन में वह जितने सरल और कोमल हैं, अपनी वैचारिकी और रचना में उतने ही सुदृढ़। सत्ता के सामने घनघोर चुप्पी के दौर में भी मरने से पहले उन्हे 'मुर्दा-चुप्पी' स्वीकार नहीं है-

मुझे मालूम है कि 
मेरे बोलने की सजा मृत्यु दंड भी हो सकती है
लेकिन मैं चुप नहीं रहूँगा क्योंकि 
मुझे यह भी मालूम है कि 
मुर्दे बोलते नहीं हैं 
मैं जीते जी मुर्दा नहीं बनना चाहता हूँ ।



अनिल कुमार सिंह

महेश जी अपनी एक छोटी सी कविता 'गांव में सड़क' में विकास की पूंजीवादी अवधारणा की पूरी पोल पट्टी खोल देते हैं और उसमें विन्यस्त आमजन के शोषण के मंसूबे को सरेआम नंगा कर देते हैं ।आमजन इस कविता की रौशनी में समझ सकते हैं कि कैसे विकास के नाम पर उनके संसाधनों को छीना जा रहा है और इसका विरोध क्यों जरूरी है?सड़क के बहाने महेश जी इस कविता में संवाद करते हैं ठीक वैसे ही जैसे कबीर अपने समकालीनों को बार-बार 'सुनों भई साधो' कहकर संबोधित और सचेत कर रहे थे। कविता में संबोधन की यह प्रविधि गहरी निष्ठा, गहरी पीड़ा और खुद विक्टिम होने से पैदा होती है।

अब पहुंची हो सड़क तुम गांव 
जब पूरा गांव शहर जा चुका है 
सड़क मुस्काई
सचमुच कितने भोले हो भाई
पत्थर-लकड़ी और खटिया तो बची है न।

इस कविता को हमारी युवा पीढ़ी को जरूर पढ़ना चाहिए जो दलाल मीडिया के प्रभाव में कई बार लेखकों, संस्कृतिकर्मियों और सोशल एक्टिविस्टों को विकास विरोधी समझने लगते हैं ।दरअसल यह हमारे संसाधनों की लूट का सवाल है, असमान विकास का मुद्दा है और सबसे बढ़कर यह बहुत कुछ को बेरहमी से नष्ट कर दिए जाने का प्रतिकार है।सैकड़ों वर्षों में जो प्रकृति और संस्कृति विकसित होती है उसे विकास के नाम पर पल भर में खत्म कर दिया जाता है ।यह साझी मनुष्यता की अपूर्णनीय क्षति है।जिसे किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए सहन करना बहुत कठिन है, इसलिए कवि अपने दोस्तों से प्रार्थना करता है कि शहर से गांव लौटी आमा को मत बताना कि उसका गांव भी डूब क्षेत्र में आने वाला है।आमा के लिए गांव महज गांव भर नहीं है।यह एक भरी-पूरी संस्कृति है।जहां स्मृतियों का एक जीवन्त कोलाज़ सांसे लेता है जिसे विस्थापित करना किसी के लिए भी संभव नहीं है। यह जीवन से सम्पृक्त है।इस कविता में महेश जी ने शहर से गांव लौटती आमा के उमंग और उत्साह को व्यक्त करने के लिए एक अद्भुत बिम्ब रचा है-

गांव को लौटते वक्त जिसकी चाल में 
बहुत दिनों बाद गोठ से खोले गये
बछिया की सी गति देखी गई ।

दरअसल केवल आमा का गांव ही डूब क्षेत्र में नहीं है, हम सभी इसकी जद में हैं ।राजेश जोशी की कविता 'जो सच बोलेंगे मारे जायेंगे 'की तर्ज पर, क्योंकि बहुत थोड़े से स्वर हैं जो सच के हक में मुखर हैं ।शेष समाज सोये हुए आदमियों का समाज है ।सोया हुआ आदमी सबसे कमजोर और अपने ही प्रति सबसे लापरवाह होता है।बावजूद इसके कि -

दुर्घटना में मारे जाने की
सबसे अधिक आशंका सोए हुए 
आदमी की ही होती है 

उसे जगाए रखना आसान नहीं ।



यह और मुश्किल तब हो जाता है जब सोने वाले को लगातार जाति,धर्म, नस्ल की शक्ल में नींद की गोलियां दी जाती रही हो और वह इसी में आनंद पाने का आदी हो जाए। पर जैसा कि हमारे साहित्यिक पुरखे कह गये हैं कि 'अब और अधिक सोना मृत्यु का लक्षण है ' महेश जी जगाने को उद्धत हैं ।

उनकी कविताएं यह चुनौती स्वीकार करती है ।अपनी ग्राह्य भाषा और सहज शिल्प के कारण कविताएं पाठक को रुचती हैं और इन्हें पढ़कर पाठक वही नहीं रहता जो पढ़ने से पूर्व था।ये कविताएं बकौल मुक्तिबोध 'अन्तः करण के आयतन' को विस्तारित करने में सक्षम हैं ।

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