03 मई, 2018

 डॉ ऋतु भनोट की कविताएं


मैं क्यों लिखती हूँ ?

अनुभूतियां मन के अंत:स्थल में अनेकानेक  प्रतिक्रियाएं और विचलन पैदा करती हैं. संवेदनशील व्यक्ति मात्र निजी अनुभवों से ही विचलित नहीं होता अपितु अपने आस-पास घटित होने वाली घटनाएं भी उसे उद्वेलित करती हैं. विचलन का विरेचन ही लेखन है. जीवन की निस्सारता, भीड़ में भी अकेले रह जाने की कसक, हाथों से सरकती रेत की मानिंद पल-पल छीजती उम्र, रिश्तों में ठगे जाने का एहसास…. और ऐसे कितने ही भूले-भटके भाव मन के आकाश पर उमड़-घुमड़ कर छातें हैं और बरस जाना चाहते हैं. कहने-सुनने की सीमा से परे जब मौन मुखर होना चाहता है तो लिखना अनिवार्य हो जाता है. लेखन स्व से संवाद है, आत्म का साक्षात्कार है.
मन के निगूढ़ अंधकार में खदबदाते कहे-अनकहे सत्य शब्दों में ढल कर ही मुक्ति पाते हैं..... और मुक्ति भला कौन नहीं चाहता ? यह मुक्ति कामना मनुष्य को कभी जंगलों में भटकाती है, कभी धन, पद-प्रतिष्ठा के चंगुल में फांसने का प्रलोभन बन जाती है, कभी देह के मायावी लोक की देहलीज़ पर ला खड़ा करती  है और कभी अहसासों को लफ्ज़ों का जामा पहनाने के जोखिम में धकेल देती है. कोई नहीं जानता कि मनुष्य अपनी जीवन यात्रा का चुनाव स्वयं करता है अथवा कोई अज्ञात लिपि उसके भविष्य का निर्धारण करती है. कोई नहीं जानता कि कुछ बेचैन रूहें क्योंकर दर्दजा बन कर जीने के लिये अभिशप्त होती हैं. अपने-पराये, सब का दर्द जिनके भीतर पलता है, परवान चढ़ता है और एक दिन ज्वालामुखी सा फूट पड़ता है.... कूल-किनारे तोड़ता हुआ. अनुभूतियों से लबालब भरना और बह जाना, फिर से भरने की बाट जोहना और दोनों हाथों से उलीच देना, यही तो है लेखन. मैं क्यों लिखती हूँ? यह सवाल कई बार पूछा गया है मुझसे. मैंने खुद से भी कई मर्तबा जानना चाहा है कि आखिर लिखना मेरे लिए लाज़िमी क्यों है? इतना ही कह सकती हूं कि गहरी उत्कंठा, छटपटाहट, असंतोष, वैचारिक ऊहापोह और मेरे भीतर कसमसाती व्यग्रता जब तक शब्दों का जामा ना पहन ले, मुझसे जिया नहीं जाता. ऐसा लगता है कि मेरे अन्तर्मन में मुझसे ही छिपकर बैठा कोई हमसाया जो सांसारिकता में उलझ कर भी कहीं दूर खड़ा साक्षीभाव से दुनिया का तमाशा देखा करता है, लिखना उसी रूहपोश की मानसिक खुराक है. जीवन में कई बार यह साक्षीभाव छूटा और सालों-साल लिखना भी छूट गया. तब भी मैं ज़िंदा थी, उम्र के कोस भी तय हो ही रहे थे मगर हमेशा लगता था कि कुछ है जो कम है. देकार्ते ने कहा था कि ‘मैं सोचता हूँ इसलिए मैं हूं’ और मैं कहना चाहती हूँ कि ‘ मैं लिखती हूँ इसलिए मैं हूँ ’


डॉ ऋतु भनोट


कविताएँ

मन

रोजी-रोटी के सवालों से फारिग होकर
कभी सच में मिलना मेरे हमसफ़र!
किसी बाग के कोने में
हरे-भरे छतनार पेड़ तले,
मेरा हाथ थाम कर मुझे
महसूस करना कभी,
मैं आज भी तुम्हारे स्पर्श
की तपिश में पिघलना चाहती हूं।
कानों में फुसफुसा कर
कोई भूली-बिसरी बात कहना,
मुझे याद दिलाना कि मेरा होना,
तुम्हारे जिन्दा रहने के लिए कितना जरूरी है!
रोज सुबह एक ही घर की
साझी छत के नीचे,
अलग-अलग कमरों में बैठे हम,
इतने दूर हो गए हैं
कि कदम भर का फासला
मीलों में बदल गया है।
अपने दिन-रात से दो पल
मेरे लिए चुरा कर,
कभी सामने आ कर बैठो तो सही,
शायद उस पल मैं तुम्हें बता सकूं
कि एक अर्से से मेरा
तुमसे मिलने का मन है।




औरत-मर्द

मैंने कहा ....
मुझे उस छोर तक जाना है ...चलो साथ चलते हैं ।
तुमने कहा...साथ रहेगा तो बात चलेगी ....बातों में बात आगे बढ़ेगी
दो-चार कदम चल कर
हाथों में हाथ गह कर,
तुमने आतुरता से कहा ....
आओ ! रिश्ते को एक नाम देते हैं ।
मैं बोली ...नाम वाले रिश्ते अब
मुझे दरकार नहीं ,
मैं तो बस अगले मोड़
तक जाने के लिए निकली थी,
तुम्हें रहगुज़र पाया तो
तुम्हारे साथ हो ली थी ।
दुनिया में इतना अपनापन तो
होना ही चाहिए
कि बिना किसी पहचान,
नाम, उपनाम,
कोई दो जन
सफर की थकान बांट लें,
मन भर बतियाएं,
कुछ वक्त साथ गुजारें
और मीठी यादें संजो कर
अपना-अपना रास्ता लें।
तुम भौंचक खड़े
ऐसे देख रहे थे,
मानो मैं किसी दूसरे
उपग्रह से आई हूँ ...
कोई ऐसी भाषा बोलती हूं
जो तुम्हें सुनाई तो देती है ...
पर समझ नहीं आती।
झल्लाकर बोले ...ऐसे साथ
का क्या मतलब?
बेनाम रिश्तों से
क्या फायदा?
मैं बेसाख्ता हंसी और चल दी...
सोच रही थी...
मतलब और फायदे की भाषा
जब तक रिश्तों पर हावी रहेगी ,
तब तक मर्द सिर्फ मर्द होगा
औरत बस औरत रहेगी ।








 तुम और मैं

बारिश की बूंदों सा परस कर
जब तुम लौट जाते हो…तो…
मैं सोंधी खुश्बू की तरह
फ़िजाओं में बिखर जाती हूं।
बादलों से आंख मिचोली खेलते
सूरज की किरणों में
सतरंगी सपनों के
 इंद्रधनुष टांग आती हूं।
 मन की सूनी देहरी पर
 यादों की रंगोली सजाकर,
 मीलों तक फैले सन्नाटे से
 आहट तुम्हारी ढूंढ़ लाती हूं।
 अपने वजूद से तुमको सिरज कर
 रेशा-रेशा छीजकर
 ज़र्रा-ज़र्रा पिघल कर,
 सागर में बूंद सी
  माहित हो जाती हूं।….
  बारिश की बूंदों सा परस कर
  जब तुम लौट जाते हो…..





परिवर्तन

निषेधों, वर्जनाओं की प्रतिध्वनियों
पर दुस्साहस की हावी होती चीख
भीड़ के समवेत स्वरों की
एकसुरता भंग करती...
अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की ज़िद में
अनहद-सी गूंजती है।
अपने-पराये सब,
किसी अनहोनी की आशंका में
चौकन्ने होकर भांप रहे हैं....
करवट बदलते समय के विद्रोही तेवर।
सत्ता का अघोषित व्यापार
नफा-नुकसान बांचता,
चुप्पी लगाए,
दम साधे,
सर्वहारा में खदबदाते, खौलते
असंतोष की नब्ज़ पहचान...
आशंकित है...कि न जाने कब
संस्कारों की दीवारें लांघ कर
कोई परिवर्तनकामी चेहरा....बिसात पलट डाले
हवाओं का रुख मोड़ दे,
दिशाओं की दूरियां उलांक डाले।
अविश्वास की पथरीली धरती पर
आस्था का अंकुर रोपते
यह दो कमजोर हाथ...
इतिहास की इबारत बदल रहे हैं।
और बौखलाए हुए बिचौलिये
भय का संजाल रचने के लिए
संभावनाओं की उर्वर
धरती खोज रहे हैं।







अनुत्तरित प्रश्न 

न जाने मन बदल गया है या हालात
कि तपते सूरज के दिनों की चटख तंबियारी धूप,
बरसात के मौसम की कृष्णवर्नी आभा और
सुबह-शाम के धुंधलके में
दिशाओं के ओर-छोर तक फैली
केसरिया सिंदूरी लालिमा,
अब दिख कर भी नहीं दिखती,
तुम्हारे जाने के बाद
संन्यासी के मन जैसा अनिकेतन, बंजारा,
दिशाहीन मुसाफिर सा मैं,
ठूंठ बन कर अंधे रास्ते के छोर पर ऐसे खड़ा हूँ,
जैसे सदियों से बसे-बसाये
घर आंगन के परिंदे
हमेशा के लिये उड़ जाएं और
पीछे इंतज़ार में छूट गये डयोढ़ी-दरवाज़े,
हाथ पसारे,
खाली आंखों से टुकुर-टुकुर तकते
बस पूछ्ते ही रह जाएं,
दोस्त! इतना तो बता दो
लौट कर कब आओगे?


 कृष्ण


जीवन के महाभारत में
कोई पार्थसारथी नहीं आता,
 रथ को दिशा दिखाने,
रिश्तों की चौसर पर जब
अस्तित्व की बाज़ी लगती है,
कोई कृष्ण नहीं आता,
उघड़े मन की लाज ढांकने,
व्यवस्था के अधिपति जब
व्यंग्यबाण बरसाते हैं....
तो कोई गोवर्धनधारी नहीं पहुंचता
डूबे आत्मविश्वास को किनारे लगाने,
संशय के संग्राम में,
विश्वासों के रण में,
निर्णय की घड़ी में,
चुनाव के क्षण में,
आत्म्बल से बड़ा कोई हथियार नहीं…..
और विवेक से बढ़कर कोई कृष्ण नहीं ।




घर का चिराग 

धीरू, बुधिया, कलुआ,
रतना, केसरी, किन्ना,
रात की बासी रोटी खाकर,
पौ फटते ही. . .नंगे पाँव
पैबंद लगी खाली पोटली टांग
चल पड़ते हैं. . .
शहर की उजली गलियों,
दमकती सड़कों,
सजीले मोड़-चौराहों से दूर,
बदबूदार. . .गंधाती. . .
अपनी कर्मस्थली ।
कूड़ा बीनते,
जीवन के साधन छीनते,
दो जून रोटी का जुगाड़ बिठाते
भिनभिनाती मक्खियों में
पन्नियां, बोतलें,
फटे कपड़े, जूते,
जूठी पत्तलें टटोलते,
शाम ढले, छुट्टे पैसे कमाकर लौटते  हैं ।
मिट्टी सने पैरों में
टूटी चप्पल घसीटते,
बदरंग चेहरों पर उजली मुस्कान सजाये
मैले चीकट नन्हे हाथों
में मजबूरी थामे चलते ये बच्चे,
समाज का दाग नहीं
घर का चिराग हैं
क्योंकि इनकी कमाई
रेज़गारी से ही
घर का चूल्हा जलता है. . . .
पेट की आग बुझती है ।







नव्या नवेली

सहेज कर रखा है एक सूखा फूल
तेरी याद सा,
अपने मन की किताब में।
वक्त की छाप से मटमैली हुई
पत्तियों में अभी तक समाई है
तेरे हाथों की छुअन।
मेरे छूते ही तेरा स्पर्श जीवंत
हो उठता है,
गुलाल सा बिखर जाता है,
मन की दहलीज पर।
मेरे पोरों में सुलग उठती है,
तेरी हथेलियों की तपिश।
ताज़ा हो उठते हैं,
अनकहे अहसास।
धड़क उठती है जिंदगी,
जो न जाने कहाँ खो जाती है अकसर,
फिसल जाती है जब-तब,
मेरी भिंची मुट्ठियों से सरक कर।
तुमसे बतियाते, रूठते, मनाते,
तदाकार हो जाती हूं तुझमें।
भूल जाती हूं दुनिया
रिश्ते-नाते, उलझनें-दिक्कतें।
तेरा दिया फूल हाथों में थाम,
जब चाहे बुला लेती हूं, तुम्हें
मन के निगूढ़ एकांत में।
कोई बंधन, सामाजिकता,
नैतिकता जहां नहीं पहुंच पाती,
तुम्हें आमंत्रित कर वहां
नवेली हो उठती हूं मैं,
नव्या – नवेली




मिट्टी

मैं मिट्‌टी हूं,
मेरी कोख में पलती हैं...
संभावनाएं,
भविष्य के अंकुर,
कल्पना के इंद्रधनुष।
कैसी शब्दातीत अनुभूति है !
अपने भीतर किसी को
सांस लेते महसूस करना,
अंशी से अंश का
निर्मित होना,
स्रष्टा होने का अधिकार जीना।
जानती हूं-चाहूं तो आकाश छू सकती हूं,
क्षितिज को मुट्ठी में भर सकती हूं।
पर मुझे...
जमीन से जुड़ने की ललक
और धरती के गर्भ की तपिश के आगे...
हर ऊंचाई झूठी लगती है।
सच्ची लगती है सिर्फ मिट्टी
और अपना मिट्‌टी होने का अहसास।





चालीस पार की औरतें

चालीस पार की औरतें....
संदर्भों से कटी,
अपने होने का अर्थ तलाशती हैं।
रिश्तों में तोलती हैं अपना अस्तित्व,
आस-पास मौजूद चेहरों में
अपने नक्श खोजती हैं।
कभी सोचती हैं...
उम्र की ढलान पर
पकते बालों,
माथे की सिलवटों को कैसे संवारूं ?
दिन-ब-दिन सरकती उम्र
के पीछे छूटे पग- चिह्न
मुंह चिढ़ाते,
हंसी उड़ाते,
गये दिनों की याद दिलाते हैं ।
अपना ही प्रतिबिंब
अजनबी सा लगता है,
स्थूल होती काया,
झुर्रीदार चेहरा,
एक अनजाना भय बनकर
शिराओं में दौड़ जाता है।
एलबम में जड़ी पुरानी तस्वीरें
अपरिचित-सी जान पड़ती हैं।
चुस्त कपड़ों,
खिजाब रंगे बालों से
करना चाहती हैं भरपाई,
वक्त के खामियाजे की।
कभी महसूस करती हैं...पति की अनुपस्थिति
उपस्थिति की तुलना में घटती ही जाती है,
जवान होते बच्चों की दुनिया,
पहुंच से परे मालूम होती है।
बहुत गहरे कहीं कसकती है
तलछट सी बिखरी अपनी मौजूदगी।
चाहती हैं... कोई तो कह दे कि
तुम आज भी खूब जंचती हो।
तुम्हारे होने से ही मकान
घर हो जाता है,
जब भी छू देती हो
तन-मन महक जाता है।
कोई तो हो, जो दो
पल ठहरकर
हाथों में हाथ गहकर,
मौन बैठे,
आंखों ही आंखों में सहलाए
हाल पूछे।
यूं ही आवारा सी ख्वाहिशें
मन में छिपाए,
बिन पते की चिट्ठी सी
अपनी गुमशुदा पहचान के साये में,
जिए जाती हैं...
चालीस पार की औरतें।







प्रेम कविता

औरत होकर प्रेम कविता लिखती हो,
बड़ा जोखिम उठाती हो,
बेजा हिमाकत करती हो।
प्यार-व्यार तुम्हारे बूते की बात नहीं,
लिखना ही है तो लिखो
अपनी पीड़ा का दस्तावेज,
आँसुओं की नमी में पगी
औरतपने की लाचारी,
हारी-बीमारी,
बच्चे, परिवारदारी।
कुछ नया लिखना चाहो तो रचो
नारीवादी रचना कोई,
जिसमें फूटते हों विद्रोह के अँकुर,
 क्रांति की लपट भभक कर जलती हो,
जिसमें बहनापे की बात चलती हो।
प्रेम कविताएँ तो देह की भाषा में
जिस्म के उतार-चढ़ावों से गुजर कर,
स्पर्श के छंदों में ढल कर,
गोपन रहस्यों की बात करती हैं ।
ऐसी अभिव्यक्ति हो तो
कविता रस देती है,
पत्र- पत्रिकाओं में छपती है ।
कागज-कलम का मोह त्यागो,
चूल्हा चौका संभालो,
तीज त्योहार निभाओ,
खुद को सजाओ-संवारो,
गली-मुहल्ले की खबरों
में मन लगाओ,
छोड़ो भी क्या बेसुरा राग
अलापती हो,
औरत होकर प्रेम कविता लिखती हो!
००
डॉ ऋतु भनोट का लेख: कथा का समकाल: पन्द्रह कहानीकार, नीचे दी गई लिंक पर पढ़िए।
http://bizooka2009.blogspot.com/2018/04/1-2-36-3-4-12-5-6-7-8.html


परिचय:

 डॉ. ऋतु भनोट
शिक्षा :
पोस्ट डॉक्टरेट (हिंदी), पंजाब विश्वविद्यालय, चण्डीगढ़ से पी-एच.डी. (हिंदी),एम.ए. (हिंदी), अनुवाद में डिप्लोमा (अंग्रेजी से हिंदी), राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा (नेट)
प्रकाशित रचनाएँ:
अमन प्रकाशन, कानपुर से कविता संग्रह ‘पुनर्नवा’ प्रकाशित
डॉ. राजिंद्रपाल सिंह जोश के सहयोग से 'महिला आत्मकथा लेखन के सन्दर्भ में नारी विमर्श' नामक पुस्तक की रचना।
विभिन्न समाचार पत्रों हिन्दू, जनसत्ता, दैनिक अजीत, दैनिक ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, आज समाज तथा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में १०० के लगभग आलेख, पुस्तक समीक्षा, साक्षात्कार, कहानियाँ तथा कविताएँ प्रकाशित।
समावर्तन, माटी, विभोम स्वर, परिशोध, शोधश्री, प्रतिमान, शब्द सरोकार, अनुसन्धान, e पत्रिका शब्दांकन, शिवना साहित्यकी, पल-प्रतिपल, आगमित एवं अन्य साहित्यिक पत्रिकाओं में शोध पत्र, पुस्तक समीक्षा, कहानियाँ, कविताएँ व साक्षात्कार प्रकाशित।
सम्मान:
श्री विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान एवं गाँधी हिंदुस्तानी साहित्य सभा द्वारा संचालित सन्निधि संगोष्ठी द्वारा वर्ष २०१७ के विष्णु प्रभाकर साहित्य सम्मान से सम्मानित 
अनुवाद कार्य:
पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के पंजाबी भाषा विकास विभाग की ओर से ‘गुरु शब्द रत्नाकर महान कोश’ के पंजाबी से हिंदी अनुवाद में संलग्न।
नोबल पुरस्कार विजेता उपन्यासकार वी.एस.नायपॉल के उपन्यास 'ए हाउस फॉर मिस्टर बिस्वास' के पंजाबी से हिंदी अनुवाद में संलग्न।
स्टेट काउंसिल ऑफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एससीइआरटी) के लिए राष्ट्रीय जनसँख्या शिक्षण परियोजना के अंतर्गत नेशनल पापुलेशन एजुकेशन प्रोजेक्ट का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद
नाबार्ड (भारत सरकार) की वार्षिक दो रिपोर्टों का अंग्रेजी से पंजाबी में अनुवाद
प्रसिद्ध वास्तुकार श्री संगीत शर्मा की पुस्तक ^The Corb’s Capitol’ का अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद



7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत दिनों बाद इतनी सुन्दर कविताओं का गुलदस्ता मिला. ऋतु जी, आपकी प्रत्येक कविता सोचने को मजबूर करती है, झकझोरती है लेकिन साथ-साथ अन्दर कहीं कचोटती भी है. आपकी भाषा बहुत प्र्रान्जल है जो कभी पन्त जी की याद दिलाती है तो कभी महाकवि प्रसाद की. वैसे दो-चार उर्दू के शब्द भी आ जाएं तो क्या हर्ज़ है?

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  2. ऋतु भनोट05 मई, 2018 20:22

    हार्दिक आभार ...

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  3. ऋतु भनोट06 मई, 2018 15:07

    शुक्रिया....

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  4. बेनामी06 मई, 2018 18:10

    बहुत बढ़िया। इशवर आप पर अपनी कृपा बनाऐ रखे।
    पंकज गुपता।

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  5. बेनामी24 मई, 2018 08:50

    वाह। प्रणाम एवं बधाई। राजेन्द्र गुप्ता।।

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  6. भनोत जी!पहले आपकी कुछ कवितायें पढ़कर आपकी सन्वेदनशीलता पर बधाई दी थी लेकिन आज फ़ुरसत में आपकी समग्र विद्वता को समझा है।मेरा सुझाव है कि आप 'हन्स'व 'नया ग्यानोदय जैसी पत्रिकाओं में अपनी कवितायें ज़रूर भेजें.

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  7. ऋतु भनोट30 मई, 2018 21:14

    जी मैडम ...कविताएँ आपको अच्छी लगीं ....अहोभाग्य

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