कथा का समकाल:-पन्द्रह कहानीकार
डॉ ऋतु भनोट
हम जिस समय में से होकर गुज़र रहे है, यह हमारा समकालीन है या यूं भी कहा जा सकता है कि एक ही काल खंड में उपस्थित मनुष्य समकालीन होते हैं। समकाल की अवधारणा मात्र कालखंड पर अवस्थित न होकर उस काल विशेष की विभिन्न प्रवृत्तियों, सामाजिक-राजनीतिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाआें, जन मानस के भीतर खदबदाती आकांक्षाओं और उन आकांक्षाओं के बरक्स खौलती सच्चाइयों का समपुंज भी होती है। ‘‘कथा कहना यानी चिंतन से अनुभव तक और अनुभव से सीधे जीवन तक आना होता है।’’1 कथाकार कथा के माध्यम से अपने युग बोध के आधार पर संचित अनुभवों को शब्दों में पिरोकर अपनी रचनाधर्मिता का परिचय देता है। साहित्यकार की रचना उसकी कल्पनाशीलता, सपनों की अभिव्यंजना में सिद्धहस्तता और शाब्दिक अभिव्यक्ति के पैनेपन से चालित-परिचालित होती है। साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में आधुनिक युग कथा काल है और इस कथाकाल की निर्मिति में स्थापित रचनाकारों के साथ-साथ अपनी जगह तलाशते युवा रचनाकारों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ‘‘समकालीन कहानीकारों ने क्राइसिस को आर-पार देख, भोग कर मानवीय संवेदनाओं से लबरेज़ नई भाव-भूमि पर नवीन कथा-सूत्रों से पगी हुई कहानियां रची हैं। बेशक समकालीन कहानीकार भावना या आदर्शीकरण की रौ में बहकर किन्ही आरोपित समाधानों की तलाश में स्थिति की भयावहता को कमतर करके नहीं देखता लेकिन अमानवीय स्थितियों के साथ मानवीय संवेदनाओं की टकराहट से उत्पन्न होने वाली अनुगूंजों को भी अनसुना नहीं करता। ‘‘ 2
विमल चंद्र पांडेय कृत मस्तूलों के ईद-र्गिद, उमाशंकर चौधरी कृत कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां, कैलाश वानखेड़े कृत सत्यापन, सत्यनारायण पटेल कृत काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस, ज्योति चावला कृत अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, राकेश मिश्र कृत लाल बहादुर का इंजन, वंदना राग कृत ख़यालनामा, प्रत्यक्षा कृत एक दिन मराकेश, तरुण भटनागर कृत जंगल में दर्पण, कबीर संजय कृत सुरखाब के पंख, शिवेन्द्र कृत चाकलेट फ्रेंड्स और अन्य कहानियां, नीलाक्षी सिंह कृत इब्तिदा के आगे खाली ही, किरण सिंह कृत यीशू की कीलें, मनोज पाण्डेय कृत खजाना और आशुतोष कृत उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी इत्यादि कुछ ऐसे कहानी संग्रह हैं जो मात्र कहानी के समकाल के प्रति रचनात्मक समझ पैदा करने में सक्षम ही नहीं अपितु इनमें शिल्प की नई गढ़न, भावों की अभूतपूर्व उड़ान और अपने युग-समाज की सच्चाइयों का बेबाक साक्षात्कार दर्ज है। इन कथाकारों की कहानियां अपने समय की बर्बर अमानुषिकताओं में दबे-घुटे अंतिम व्यक्ति की चीख भी हैं और अंसभव परिस्थितियों से टकरा कर संभावनाआें की उर्वर भूमि तैयार करने का अदम्य संकल्प भी।
शिवेन्द्र का कहानी संग्रह ‘चॉकलेट फ्रेंड्स एवं अन्य कहानियां’ में राजकुमार घुटरू, नटई तक माड़-भात खाने वाली लड़की और बूढ़ा लेखक, चॉकलेट फें्रड़्स, लव जिहाद तथा कहनी नामक पाँच कहानियां संकलित हैं। पारम्परिक शैली के विपरीत शिवेन्द्र की कहानियां मिथकीय शैली में कथा का ऐसा समकाल रचती हैं जहां कहानी प्राचीन काल से प्रकट होकर समय के झरोखे से चुपचाप झांकती हुई वर्तमान में उपस्थित रहती है और लोक-कथाओं के ताने-बने में सिमटे-लिपटे कितने ही कथा सूत्र लुका-छिपी के खेल की मानिंद कभी उजागर हो उठते है और कभी रहस्यात्मकता के आवरण में छिप जाते हैं। स्वप्नलोक के बाशिंदे राजकुमार घुटरू का मृत्युलोक के लुटेरों द्वारा सर्वस्व लूट लेना जहां उसे नामविहीन, पहचान-शून्य एक आम व्यक्ति में तब्दील कर देता है वहीं उसके सामने यह कड़वा सत्य भी उजागर करता है कि मनुष्य का महत्त्व उसके गाँठ के पैसों और वैभव के प्रदर्शन मात्र से ही आंका जाता है।
‘नटई तक माड़ भात खाने वाली लड़की’ सपने देखने की हिमाकत करने वाली और उन सपनों को पूरा करने पर बजिद एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो प्रेम चाहती है, सम्मान चाहती है, संभावनाओं के आकाश में पंख पसार कर उड़ जाने की आजादी चाहती है। वह अपने भीतर क्रांति के बीज वैसे ही समाए है जैसे उसकी अँकुआती कोख में जीवन पाती संभावनाएं। सागर की लहरों से बतियाते चारों युगों की परिक्रमा करके उक्त कहानी के लेखक की तलाश जिस लड़की पर पूरी होती है, वह उस देश की निवासी है जहां ‘इतिहास एक कविता है और लड़की मिथक‘। (पृ 36) एक अंसभव की तलाश करती यह कहानी प्रत्येक संभावना को अपनी शक्ति बनाने की जिद का ही परिणाम है।
‘चॉकलेट फ्रेंड्स’ कहानी हमारे आस-पास बसने वाले लोगों के साधारण जीवन और उस जीवन से जुड़ी अनेकानेक समस्याओं को जादुई स्ांस्पर्श से सहलाते हुए कभी परियों की बात छेड़ती है, कभी वंडरलैंड वाली एलिस के साथ हंसती-बतियाती है, कभी आँसुओं के तालाब में ऊब-चूब करते हुए भविष्योंन्मुखी सपने बुनती है और कभी जादूगर के भीतर जलते -बुझते जादू के द्वारा एक-एक कर घर छोड़ जाने वालों को अपनी जड़ों तक लौटा लाने की असंभव सी कोशिश को अंजाम देना चाहती है। कंक्रीट के जंगल में विलुप्त हो रही गोरैया के प्रति अपने सरोकार की बौद्विक जुगाली करने वाले उत्तरआधुनिक युग के मानव और प्रकृति में उत्तरोत्तर बढ़ते अंतराल की कहानी है-‘लव जिहाद’। हम ऐसे खतरनाक समय में जिंदा हैं जब सपने मर रहे हैं, प्रेम मुरझा चुका है, स्वार्थ फल-फूल रहा है और अस्तित्व के संकट से जूझता हुआ मनुष्य जीवन की सभी खूबसूरत अभिव्यक्तियों से खाली होता जा रहा है।
‘कहनी’ कहानी राजकुमारी भागवंती और राजकुमार के माध्यम से पितृसत्ता के हाथों शोषित स्त्री की सार्वकालिक कथा है। सौतिया डाह की नई परिभाषा गढ़ती यह कहानी पुरुष सत्ता के अभेद्य दुर्ग में सेंध लगाने वाली स्त्री को स्त्री के ही विरू़द्ध खड़ा करने के सनातन षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है। जादूगर, राजकुमार, रानियों और पारियों वाले कथा- वितान को रचते हुए शिवेन्द्र आधुनिक युग की समस्याओं का इतना सूक्ष्म ब्योरा प्रस्तुत करते हैं कि जहां उनकी कहानी कहने की कला चमत्कृत करती है वहीं अपने परिवेश और समय के प्रति उनकी वचनबद्धता स्वतः ही ध्यान आकृष्ट करती है।
कहानी के समकाल का समर्थतम हस्ताक्षर ‘किरण सिंह’ का कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें, निषेधों और वर्जनाओं का अतिक्रमण करते हुए मनुष्य की जिजीविषा की पक्षधरता करता है। ‘‘यीशू की कीलें’ परंपरा, इतिहास, विचार-तीनों के अंत की घोषणा के बीच तीनों को पुनर्जीवित करने का हठीला आख्यान है। समय किसी एक पल या खंड की नोक पर सवार होकर इन कहानियों में झिलमिला कर गायब नहीं होता, अपने पूरे कालचक्र के साथ उपस्थित होकर व्यवस्था की गुंजलकों से टकराता है।’’3
द्रोपदी पीक, कथा सावित्री सत्यवान की, ब्रह्म बाघ का नाच, जो इसे जब पढ़े, यीशू की कीलें, हत्या, देश-देश की चुडैलें तथा संझा नामक आठ कहानियां इस सग्रह में संगृहीत हैं। उक्त संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी ‘द्रोपदी पीक’ दो समानान्तर कथा बिन्दुओं पर एक साथ आगे बढ़ती है-घुंघरू की कथा और पुरुषोत्तम की कहानी। द्रौपदी पीक की आरोहण यात्रा में घुंघरू और पुरुषोत्तम संन्यासी के मन जैसे निर्विकार प्रदेश में प्रकृति के विराटत्व का साक्षात्कार करते हुए अपनी-अपनी मनोग्रन्थियों के उलझे धागों को सिरे से खोलने की चेष्टा करते हैं। पंथहीन, पदचिह्नहीन और सम्बंधविहीन ऊर्ध्वता की यह यात्रा सांसारिकता के आवरण को भेदती हुई द्रोपदी और घुंघरू के भीतर साक्षीभाव का आह्वान करती है और इस आह्वान से मंत्रबिद्ध, आवेष्टित पाठक भी अपने अन्तर्मन को खंगालते हुए जीवन की नंगी सच्चाइयों से परिचय पाता है।
‘संझा’ कहानी थर्ड जेंडर के माध्यम से व्यक्ति के भीतर उमड़ती-घुमड़ती जिज्ञासाओं, जीवन एवं अस्मिता से जुडे़ प्रश्नों और उन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की प्रक्रिया में लहूलुहान होती संवेदनाओं को उकेरते हुए ‘संझा’ के माध्यम से जन्मजात शारीरिक व मानसिक कमियों की पड़ताल के पश्चात् इस निष्कर्ष पर जाकर परिणति को प्राप्त होती है कि परफेक्शन अथवा सम्पूर्णता नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। मनुष्य को अपने इस अधूरेपन के साथ ही जीना और निबाहना होता है।
‘कथा सावित्री सत्यवान की’ स्थूल रूप से स्त्री की उस छवि को परोसती है जो देह को हथियार बना कर पुरुष का शिकार करने और उसका मनमाना लाभ उठाने में सिद्धहस्त है परंतु सूक्ष्म रूप से यह कहानी स्त्री विमर्श की एक नवीन परिभाषा गढ़ते हुए स्त्री के भीतर विराजमान उस अदृश्य शक्ति का बयान है जो यदि अपने पक्ष में खड़ी हो जाए तो पितृसत्ता की चूलें हिला सकती है।
‘बह्मबाघ का नाच’ कहानी वर्चस्व की महत्त्वाकांक्षा के भीतर अदृश्य रूप से पनपने वाले उस भय का वृत्तांत है जिसमें अकर्मण्य, रीढ़विहीन और अपने पैरों पर खड़ा हो पाने में अक्षम हमारी भावी पीढ़ियों द्वारा किसी आदर्श की अनुपस्थिति में अपनी अस्मिता के संघर्ष को भूल कर भटकाव का शिकार हो जाने की परिकल्पना है।
‘यीशू की कीलें’ राजनीतिक परिदृश्य में स्त्री के संघर्ष और युग समाज में उसकी कठपुतली समान उपस्थिति की भयावह सच्चाई का उद्घाटन करने के साथ-साथ प्रत्येक दर्द के पीछे ताकत बन कर खड़ी होने वाली उसकी स्त्री सुलभ संवेदनशीलता, दुर्दम्य जिजीविषा और सवप्नशीलता की बानगी भी प्रस्तुत करती है। किरण सिंह का कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें’ कथा के समकाल में कालचक्र की विविध गतियों को मापता, भांपता एक ऐसा आख्यान गढ़ता है जिसकी मिसाल अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रत्यक्षा का कहानी संग्रह ‘एक दिन मराकेश’ समकालीन समय में कई युगों को कलमबद्ध करते हुए स्वप्न और यथार्थ दोनों धरातलों पर एक साथ यात्रा तय करता है। फैंटेसी रचती यह कहानियां एब्सट्रेक्ट के झीने पर्दे से निकल कर कभी छम से हमारे सामने आ उपस्थित होती हैं और कभी रहस्यलोक के सुरमई अंधेरे-उजाले में विलीन हो जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक प्यास है, एक अतृप्ति है, एक खोज है जो उसके आत्मबोध से उपजती है और आत्म साक्षात्कार पर जाकर पूर्ण होती है। यही उसका मराकेश है। मनुष्य की अरूप भावनाओं को शब्दबद्ध करती प्रत्यक्षा कहती हैं, ‘‘मराकेश का मतलब सपनों के संसार से है। एक ऐसी दुनिया जहां हम होना चाहते हैं। मराकेश वो सब लोग हैं जो हम होना चाहते हैं। हमारे जीवन का सबसे चमकता सितारा, सपनों का ध्रुवतारा, बचपन का टिनटिन, हमारी जवानी के देव आनंद, सबसे सुहाना गाना, हमारा पहला और दूसरा प्यार और इसके बाद की अनगिनत मोहब्बतें। ये सब कुछ ही है मराकेश।’’4
प्रस्तुत संग्रह में छोटी-बड़ी 12 कहानियां संगृहीत हैं। ‘मीठी ठुमरी’ स्त्री-पुरुष सम्बंधों में आने वाले अंतराल की कहानी है, ऐसा अंतराल जो दिखाई नहीं देता परन्तु धीरे-धीरे सब कुछ लील जाता है। प्रेम, अपनत्व, सम्बंधों की ऊष्मा, और तो और अपनी पहचान भी वक्त के चाक पर घूमते हुए कहीं खो जाती है। इस गुमशुदा की पहचान को कोई वक्त के झरोखे से झाँक कर टटोले या फिर समय में व्याप्त अंतराल की झिर्रियों में, यह एक बेबूझ पहेली है।
‘दिल दो लड़कियाँ और एक इतना सा नश्तर’ दो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों से सम्बंधित लड़कियों शर्मिला व नदीन की ऐसी कथा है जो स्त्री के अन्तर्मन की टकराहटों, पुरुष से परे अपने अस्तित्व को तलाशने की जिद, अपनी पहचान टटोलने के क्रम में बार-बार टूटने और टूट कर फिर साबुत जुड़ पाने की शक्ति की ईमानदार अभिव्यक्ति है।
‘भीतरी जंगल’, ‘ईनारदारा’, ‘हाय गजब कहीं तारा टूटा’, ‘सपने का कमरा उर्फ रात में कभी-कभी दिन भी होता है’ स्त्री-मन के उस एकांत की कहानियां हैं जहां सपने पलते हैं, कल्पना के रंग सजते हैं और तमाम बाधाओं से परे मन प्रेम के हिंडोले पर झूलते हुए सतरंगी फुहारों से भीग-भीग जाता है। प्रत्यक्षा की कहानियां कविता जैसे कलेवर में सपनों की महीन बुनावट से बुनी हुई मनुष्य के अंतर्जगत की अभिव्यक्ति हैं, तभी तो उनमें एक साथ फैंटेसी, कविता, भावनाओं का आरोह-अवरोह और एक गहरी छटपटाहट दर्ज है जो अपने मराकेश की प्राप्ति पर ही शांत होती है।
‘‘जीवन की तीन प्रमुख गुत्थियों स्मृति, इंतज़ार और मृत्यु को हर गंभीर रचनाकार अपनी रचना का विषय बनाता है और आजीवन अपनी रचनाशीलता के जरिए अनवरत उनसे जूझता है। नीलाक्षी सिंह ऐसे ही रचनाकारों में से एक हैं कहानी की जमीन पर वह तकनीक, समाज और राजनीति की नई अवधारणाओं, विकसित भाषा कें औजारों का बखूबी इस्तेमाल करती हैं।’’5
‘इब्तिदा के आगे खाली ही’ नीलाक्षी सिंह द्वारा रचित ऐसा कहानी संग्रह है जिसमें कुल जमा तीन लम्बी कहानियां हैं- ‘इब्तिदा के आगे खाली ही’, ‘लम्स बाकी’ और ‘बाद उनके।’ नीलाक्षी सिंह की कहानियां बाजारवाद के दौर में चकाचौंध से ऊबे हुए महानगरीय जीवन की भीड़ में अकेले छूट गए युवाओं की पीड़ा भी दर्ज करती हैं और संवेदनाशून्य सम्बंधों को ढोने की विवशता को बयान करने के साथ-साथ शिक्षा के व्यावसायीकरण और चिंदी-चिंदी हो रही मानवीय आस्था को सहेजने की सार्थक पहल की पक्षधरता भी।
‘इब्तिदा के आगे खाली ही’ में कुकुरमुत्ते की मानिंद देश में जगह-जगह खुले हुए तकनीकी शिक्षण संस्थानों, उनके लुभावने विज्ञापनों और बढ़िया नौकरी के सपने बुनते युवाओं के साथ प्लेसमेंट के नाम पर होने वाली धोखाधड़ी का पर्दाफाश किया गया है। बैंकों से कर्जा लेकर इन शिक्षण संस्थानों की मोटी फीस चुकाने वाली युवा पीढ़ी डिग्रीधारक तो बन जाती है परंतु हाथ खाली ही रह जाते हैं। कर्जे का दुष्चक्र, सपनों का व्यापार और अंततः खाली छूट जाने की पीड़ा की कसक ही इस कहानी का मूल कथानक है।
कहानी ‘लम्स बाकी’ दो ऐसे अजनबियों की कहानी है जो सामना होने पर हमेशा एक-दूजे की खिलाफ़त करते हैं मगर भाग्य उन्हें अनजान राहों पर बार-बार मिलवाता रहता है। नियति अपना पांसा फैंकती है और दोनों को शनैः-शनैः परस्पर प्रेम हो जाता है। ऐसा प्रेम जो प्रतिदान नहीं चाहता, सीमारेखा नहीं खींचता, जो देना जानता है, उलीचना चाहता है और जो ना कुछ होने में ही पूर्णता अनुभव करता है।
‘बाद उनके’ कहानी की पात्र कौशिकी सक्सेना बाहर की दुनिया के लिए एक ब्रोकर है लेकिन अपने निजी एकांतिक संसार में वह मूर्तिकार है। बाहर की दुनिया की सारी कड़वाहट को बटोर कर वह मूर्तियों के रूपाकार गढ़ती है, मन की अतृप्ति से मूर्तियों को जीवंतता प्रदान करती है। उसकी भीतरी दुनिया में एक ऐसा व्यक्ति घुसपैठ करता है जो सजायाफ़्ता है और पैसों के तराजू में ही सारी भावनाओं को तौलता है। एक तीसरा पात्र भी है जो शेष दोनों पात्रों के जीवन की संभावनाओं को पलट कर रख देता है। स्व को पाने की छटपटाहट और अपने अस्तित्व के मायने तलाश कर उनसे जीवन की सूनी कैनवास में रंग भरने की कवायद इस कहानी का मूल स्वर है। अर्धनारीश्वर अर्थात् नारी में नर और नर में नारी का समभाग है, इस समभागिता की स्वीकारोक्ति लेखिका कहानी के अंत में यो दर्ज करती है, ‘‘वह प्रतिभा एक साथ आदमी और औरत दोनों के होने का भ्रम दिला रही थी। एक उम्र के बाद आदमी और औरत अपना शारीरिक अंतर खो देते हैं।’’6
मनोज कुमार पाण्डेय एक सजग और गहरे भाव बोध से परिपूर्ण कहानीकार हैं। धर्मगत षड्यंत्र, राजनीतिक दाँव पेंच और परिवेशगत चुनौतियों के प्रति उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता उन्हें कथा के समकाल में विशिष्ट बनाती है। मनोज कुमार का कहानी संग्रह ‘खजाना’ सामाजिक और राजनीतिक जकड़बंदी के विरुद्ध असहमति दर्ज करता हुआ कहानी-दर-कहानी अपनी सर्जनात्मक सामर्थ्य के द्वारा न सिर्फ चमत्कृत करता है अपितु शैल्पिक सधाव के नवीन मानक गढ़ कर एक नई संभावना का संवाहक भी जान पड़ता है। ‘‘बेहद सूक्ष्म अभिव्यंजना की कहानियां है ‘खजाना’ कहानी संग्रह की सभी कहानियां। मानो समय, समाज व्यवस्थाओं और मान्यताओं की सारी विडंबनाओं को अपने नैरेटर में गूंथ दिया हो लेखक मनोज कुमार पाण्डेय ने। दरअसल नैरेटर के रूप में मनोज कुमार पाण्डेय जिस चरित्र को कथा के केंद्र में रखते हैं, वह उनके लेखकीय मंतव्य का संवाहक और भविष्य का विमर्शकार भी है। इसलिए अपनी तमाम सजगता और संवेदना को उसके चरित्र में गूंथ कर वे उसे अपने से पार देखने की गहरी अंतर्दृष्टि भी देते हैं।’’7 उक्त संग्रह में कुल आठ कहानियां हैं-चोरी, टीस, मदीना, खजाना, कष्ट, अशुभ, घंटा, मोह। अधिकतर कहानियों में नेरेशन का प्रयोग किया गया है।
‘टीस’ कहानी अध्यापकीय आदर्शों से रहित एक ऐसे अध्यापक और परिस्थितियों का शिकार विद्यार्थी पर केन्द्रित है जिनके बीच सम्मान अथवा श्रद्धा का सम्बंध न होकर भय का ही नाता है। विद्यार्थी की शारीरिक एवं मानसिक परेशानियों से असम्पृक्त यह अध्यापक उस नासूर जैसा है जो न तो पक कर फूटता है और न ही दब कर बैठता है, बस लगातार टीसता रहता है।
इस संग्रह की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कहानी ‘खजाना’ समय में परिवर्तन के साथ लोगों की बदली हुई मानसिकता को उकेरती है जिसके तहत लोग मेहनत के बल पर सफलता प्राप्त करने के स्थान पर किसी गुप्त धन को पाने अथवा किसी चोर खजाने को हासिल करने के सपने पालते हैं। ऐसे सपने जीवन में निराशा और हताशा का संचार करते हैं और यह हताशा आत्महंता परिस्थितियों को रचते हुए जीवन को नर्कतुल्य बना देती है। ‘कष्ट’ कहानी अवसरों के अभाव में रचनात्मक प्रतिभाओं द्वारा भोगे जाने वाले कष्ट को शब्दबद्ध करते हुए अपने मनमाफिक फैसले ना ले पाने की स्थिति में हीन भावना का शिकार होकर मन ही मन घुटने वाले नैरेटर की पीड़ा का आख्यान भी रचती है।
‘मदीना’ कहानी पर्यावरण चेतना पर आधारित ऐसी कहानी है जो आधुनिक युग में मनुष्य की धर्मांधता और अंधविश्वासों की कलई खोलते हुए हमारी तथाकथित आधुनिकता पर करारी चोट करती है। शुभ-अशुभ की अदृश्य तलवार हम सबके सिर पर लटकती रहती है और जब-तब जीवन की छोटी-बड़ी खुशियों को काट कर हमसे अलग करती रहती है। ‘अशुभ’ कहानी भी हमारे समाज में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार करती है और हमारे विभिन्न अंधविश्वासों पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए उनकी गिरफ्त से बाहर होकर जीवन जीने की हिमायत करती है।
‘घंटा’ कहानी सत्ता पर काबिज होने के षड्यंत्रों का ईमानदार बयान है। आधुनिक युग में सत्ता हथियाने के नाम पर जो दुष्चक्र चलाए जाते हैं और जो दुरभिसंधियां की जाती हैं, शिवराज सिंह के रूप में मनोज कुमार ने उनकी तह तक जाकर राजनीतिज्ञों की अवसरवादिता और पैंतरेबाजी की पर्तें उधेड़ कर रख दी हैं। ‘चोरी’ कहानी मनोविज्ञान पर आधारित है। मनोविज्ञान का नियम है कि मनुष्य स्वयं को जो समझता है वह समझ उसकी निजी मनःस्थिति न होकर उसके आस-पास रहने वाले लोगों के अभिमत पर अधिक निर्भर करती है। कहानी का नैरेटर परिस्थिति विशेष का शिकार होकर चोरी करता है और अपने अध्यापक, परिवार और अपने आस-पास के लोगों द्वारा चोर समझे जाने पर अपने अन्तर्मन में स्वयं को चोर ही समझने लगता है। ‘‘इस संग्रह की कहानियां बेचैन करने वाली कहानियां हैं। ये कहानियां न तो हमें अतीत से मोहग्रस्त होने देती हैं और न ही वर्तमान से गाफिल। मनोज हमें हमारी उन पहचानों की ओर खींचते हैं हम जिनसे बचकर निकलना चाहते हैं।’’8
आशुतोष का कहानी संग्रह ‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ मनुवादी सामाजिक संरचना में बदलाव की पैरवी करते हुए उस समाज की छवि चित्रित करता है जहां अभी भी सवर्णो का वर्चस्व है, परम्परा की बेड़ियों में जकड़ कर स्त्री का बदस्तूर शोषण जारी है, जहां अभी भी अंधविश्वासों का बोलबाला है और प्रेम तथा विवाह पर जाति, वर्ग और वर्ण के पहरे हैं। संग्रह में ‘उनके पर जानें और यह आसमाँ जानें’, ‘यही ठइयाँ नथिया हेरानी....’, ‘अगिन असनान, ‘आखिरी कसम‘, ‘घड़े का दुःख’, ‘ उम्र्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ नामक छः कहानियां दर्ज हैं।
‘उनके पर जाने और यह आसमाँ जाने’ ब्राह्मणों और राजपूतों के परस्पर जातिगत वैमनस्य के परिदृश्य में वैशाली और अभिजीत के प्रेम सम्बंधों को वोट बैंक का मोहरा भर बना दिए जाने के कूटनीतिक षड्यंत्र के माध्यम से छात्र राजनीति के कुत्सित चेहरे को सामने लाती है। ‘अगिन असनान’ कहानी उत्तरआधुनिक युग में मीडिया द्वारा दिन-रात परोसे जा रहे उस झूठ को उजागर करती है जो सच-झूठ को ऐसे गड्ड-मड्ड करके लोगों के समक्ष परोसता है कि सत्य की प्रमाणिकता पर ही संदेह होने लगता है। मीडिया के इस खेल में सत्तासीन वर्ग, व्यापारी समुदाय और प्रशासन तंत्र की भी सक्रिय भागीदारी होती है और सब इसे अपनी-अपनी तरह से भुनाने की कोशिश करते हैं। परम्परागत भारतीय समाज में जहां मर्द होना औरत को दबा-कुचल कर जब-तब उस पर धौल-धप्पा जमा कर अपना प्रभुत्व बनाए रखना ही माना जाता है वहां मगरु और सुनैना का प्रेम आधारित दाम्पत्य समाज की आंखों की किरकिरा बन व्यवस्था के हत्थे चढ़ जाता है। बंधे-बंधाए सामाजिक विधि-विधानों में रत्ती भर भी बदलाव व हस्तक्षेप की कीमत आज भी जान देकर ही चुकानी पड़ती है।
‘घड़े का दुख’ कहानी भारत में सरकारी कार्यालयों की सुस्त कार्यप्रणाली और बेकार की कागजी कार्रवाई पर व्यंग्य कसते हुए स्वतंत्र भारत के कार्यालयों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। घड़ा खरीदने का छोटा सा कार्य कार्यालीय कार्यप्रणाली की पेचीदगियों का शिकार होकर एक से दूसरे कार्यालय तक महीनों फाइलों में ही बंद होकर घूमता रहता है और अन्ततः तीन हजार सात सौ बयासी पृष्ठ की एक लम्बी चौड़ी फाइल में तब्दील हो जाता है। इस फाइल की टिप्पणियों पर टिप्पणियां जुड़ती रहीं, कागजों का पुलिंदा बड़ा होता गया परंतु घड़ा सिरे से ही नदारद रहा।
‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ में सवर्ण प्रभुता वाले समाज में अस्पृश्य समझी जाने वाली डोम जाति के दलित युवक के प्रेम और समानता के स्वप्न का हश्र दिखाया गया है। दलित लोगों को लुभावने नारों के प्रपंच में उलझाकर सवर्ण मात्र उन्हें बहलाए रखना चाहते हैं। किसी दलित द्वारा शिक्षा प्राप्त कर ऊँचे पद पर आसीन होने और सवर्ण वर्ग में ब्याहे जाने की संभावना को भी वह अंकुरित होते ही मसल देते हैं। समाज के पास कई मुखौटे हैं जो वक्त, परिस्थिति और परिवेश की मांग के अनुरूप बदलते रहते हैं। इन मुखौटों के पीछे छिपा वास्तविक चेहरा बहुत घिनौना और घृणास्पद है। ‘‘सत्ता का चूंकि वर्चस्व धन की ताकत और धर्म की महिमा के बिना नहीं चल सकता इसलिए चक्की में पिसने के लिए बस वही एक वर्ण! आशुतोष की यह कहानी पढ़ने के लिए नहीं गुनने के लिये हैं।’’9
वंदना राग समकालीन कहानीकारों में प्रतिष्ठित नाम हैं। उनके कथानक और पात्र यथार्थ जीवन को प्रतिबिम्बित करते हैं और इनकी कहानियों में किस्सागोई की विशेषता उसमें रोचकता का पुट भर देती है। ‘‘सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और गहरे भावनात्मक प्रवाह और परिपक्व भाषा वाली वंदना जिस तरह जीवन की विडम्बनाओं और छवियों को रचती हैं, वह अनूठा है। ‘ख़यालनामा’ में ख्यालों चुप्पियों, शोर, शरारतों और जीवन के व्यापक यथार्थ को समेटती हुई कहानियां हैं।’’10 आज रंग है, आँखें, सिनेमा के बहाने, दो ढाई किस्से, ख़यालनामा, क्या देखो दर्पण म,ें उस साल, सब हार गए नामक सात कहानियों के इन्द्रधनुषी रंगों से सजा कहानी संग्रह ‘ख़यालनामा’ वंदना राग की लेखकीय प्रतिबद्धता का जीवंत उदाहरण है।
‘आज रंग है’ और ‘सिनेमा के बहाने’ हमारे समाज की राजनैतिक उठा-पटक और प्रपंचों पर केन्द्रित कहानियां है। हमारे समाज में प्रेम जैसे व्यक्तिगत सरोकार भी राजनैतिक हस्तक्षेप से अछूते नहीं हैं। राजनैतिक पद की ठसक के बहाने मनमानी करने की छूट राजनेताओं का जन्म सिद्ध अधिकार है, इसी अधिकार का गैर वाजिब प्रदर्शन ‘आज रंग है’ में खुल कर हुआ है। ‘सिनेमा के बहाने’ कहानी दो स्तरों पर खुलती है, जिसमें एक मुद्दा प्रवासी बिहारियों के महाराष्ट्र विस्थापन से जुड़ा हुआ है और दूसरे स्तर पर शलभ, राजीव व माधव नामक तीन पात्रों द्वारा सिने जगत में अपना स्थान बनाने की जद्दोजहद और उस जद्दोजहद को असंभव बनाने वाले राजनैतिक दबावों का किस्सा दर्ज है। ‘और उस साल सब हार गए’ 1942 में महात्मा गांधी द्वारा छपरा जिले में किए गए राजनीतिक आन्दोलन को केन्द्र में रख कर तत्कालीन सामंतों के दोगलेपन और अंग्रेजों के अत्याचार से संत्रस्त भारतीय जनता की दुःखद स्थिति का कारुणिक चित्र प्रस्तुत करती है।
‘आँखें’ और ‘दो ढाई किस्से’ स्त्री प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमने वाली कहानियां हैं। पहली कहानी लड़कियों की परम्परागत छवि से परे मुँह जोर और बेपरवाह किस्म की लड़कियों डेजी, रीना, नेहा, संजना और लफ्फाज के माध्यम से स्मृतियों के वातायन में चोर आंखों से ताँक-झाँक करते हुए लड़के और लड़कियों के होने और बड़े होने के फर्क को बाँचती है। ‘दो ढाई किस्से’ एक ऐसी युवती की कहानी है जिसका पति काम की तलाश में घर से गया और फिर कभी नहीं लौटा। वह स्त्री न तो ब्याहता है, न विधवा, न परित्यक्ता और न ही समाज में समादृत पतिव्रता। ऐसी स्त्री समाज में हेय समझी जाती है और पति रूपी चरित्र प्रमाण पत्र की अनुपस्थिति में समाज उसे चरित्रहीन, कुलटा एवं छिनाल तक कहने से भी गुरेज नहीं करता।
‘क्या देखा दर्पण में’ कहानी धोखे की नींव पर निर्मित रिश्तों के घातक परिणामों से अवगत कराते हुए संबंधों के जटिल समीकरणों से हमारा परिचय करवाती है। ‘‘कहा जा सकता है कि वंदना के पास कहानियों का अपना खजाना है और कहन का खास अंदाज़। वन्दना राग का कहानीकार अपनी ओर से बहुत जजमेंटल नहीं होता। वह अपने पात्रों में से किसी एक के साथ खड़ा होने में यकीन नहीं रखता। ....अतः पाठकों को वहां गलदश्रु भावुकता कम ही मिलती है।’’11
अपने पहले कहानी संग्रह से हिन्दी कथा जगत् में विशेष स्थान बनाने वाली ज्योति चावला से हिन्दी साहित्य का परिचय एक कवियत्री के रूप में हुआ था। उनका काव्य लेखन जितना प्रौढ़ और परिपक्व है, उनकी कहानियों में भी जीवन की नब्ज टटोलने की वही क्षमता दिखाई देती है। ‘‘ज्योति के पास अपने समय को लेकर बहुत कन्सर्न हैं और चिंताएं भी इसलिए ये कहानियां अपने समय की धड़कन सी बन गई हैं।’’12 ज्योति चावला की कहानियां स्त्री मन का प्रतिबिम्ब हैं। इन कहानियों में स्त्री पीड़ा, स्त्री का शोषण और समाज की विभिन्न पितृसत्ताक संस्थाओं से स्त्री के संघर्ष के बयान ही नहीं अपितु इन सब टकराहटों के बीच निरन्तर सशक्त होती स्त्री की विभिन्न छवियां भी अंकित हैं। बंजर जमीन, खटका, तीस साल की लड़की, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, बड़ी हो रही है मीताली, सुधा बस सुन रही थी, वह उड़ती थी तो तितली लगती थी, वह रोज़ सन्नाटा बुनती है नामक आठ कहानियां संगृहीत हैं।
‘बंजर ज़मीन’ की पम्मी अपने पति मलकीत की अयोग्यता के कारण मातृत्व सुख से वंचित है परंतु पुरुष वर्चस्व चालित हमारा समाज प्रत्येक परिस्थिति में दोष का ठीकरा स्त्री के सिर पर ही फोड़ता है। शारीरिक सुख से वंचित, पति का स्नेह स्पर्श पाने को आकुल पम्मी घर के भीतर ज्यों मछली बिन पानी तड़पती है और घर के बाहर ‘बंज़र ज़मीन’ कहलाती है। पत्नी की दिन-रात की छटपटाहट से अनभिज्ञ मलकीत समाज की नज़रों में उसे दोषी ठहराकर अपने झूठे दंभ को सहलाने में तुष्ट है ।
‘खटका’ कहानी राजीव और अनुष्का के सपनों की बुनावट में आधुनिक जीवन के तनावों, प्रश्नों और सरोकारों का जीवंत दस्तावेज़ कही जा सकती है। संघर्ष और परिश्रम के बल पर खुशहाल जीवन जीने की नन्हीं सी आशा उन्हें कैसे पल-पल तोड़ती चली जाती है और किस प्रकार जीवट साधे यह युगल प्रत्येक बाधा के पार निकल जाने की हर संभव कोशिश करता है, कहानी का यह ताना-बाना हमारे आस-पास घटित होने वाले रोज़मर्रा जीवन का ही अंश प्रतीत होता है। संतान सुख को टालने की विवशता अनुष्का के मन में दिन-रात खटकने वाली फांस बन जाती हैं, जहां बच्चे के जन्म से सम्बंधित उम्र की धारणाएं उसे चैन नहीं लेने देती और हजार-हजार आशंकाओं के बीच ऊब-चूब करते हुए वह अपने संघर्ष की सार्थकता टटोलती है।
‘तीस साल की लड़की’ कहानी में शुभांगी के माध्यम से समाज की उन जड़ परम्पराओं पर चोट की गई हैं जहां लड़की के शिक्षित और आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा उसके शादीशुदा होने को अधिक तरजीह दी जाती है। एक विशेष उम्र पार कर जाने पर लड़की का अविवाहित होना उसके माता-पिता के लिए शर्म का बायस बनता है और लड़की के साथ कई प्रवाद जोड़ कर उसकी खामियां ढूँढने का सामाजिक कर्तव्य। इस कहानी में शुभांगी तमाम प्रतिरोध पार कर अपने पैरों के नीचे की जमीन खुद बनाती है और अपने पक्ष में खड़ी होती है।
‘वह उड़ती थी तो तितली लगती थी’ कहानी में उषा माँ न बन पाने की स्थिति में पारिवारिक दबाव में विभिन्न प्रकार के प्रयोगों को आज़माने की प्रयोगशाला बना दी जाती है। वह अपने पति से बहुत प्रेम करती है इसलिए सब चुपचाप सहर्ष सहने के लिए स्वयं को मनाती है लेकिन एक दिन उसका धैर्य चुक जाता है और वह प्रयोगशाला का चूहा बनने से साफ इनकार कर देती है।
‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ 1984 के दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखी एक ऐसी कहानी है जो धार्मिक उन्माद में उजड़ते घर-परिवारों के साथ-साथ बलात्कार के रूप में बार-बार उजड़ती लड़कियों की पीड़ा को शब्दबद्ध करती है। प्रत्येक युद्ध स्त्री की देह पर अवश्य लड़ा जाता है, इसकी बानगी देश-विदेश में समय-समय पर होने वाले युद्ध, गृह-युद्ध और साम्प्रदायिक दंगों में देखने को मिलती है। उक्त कहानी में हरप्रीत 1984 के दंगों में अपने माता-पिता को खो देती है, बलात्कार का शिकार होती है, नाना-नानी के परिवार में आश्रय पाती है परंतु वहां पर भी मामा द्वारा उसके साथ वही अनहोनी दोहराई जाती है। ज्योति चावला के शब्दों में, ‘‘सच पूछा जाए तो स्त्री की देह की इस आहुति के लिए किसी दंगे की जरूरत नहीं। उसके लिए तो चौरासी कभी खत्म नहीं हुई।’’13
‘बड़ी हो रही है मीताली’ कहानी संवादहीनता के दौर से गुजर रहे रिश्तों में आपसी प्रेम और स्नेह की ऊष्मा टटोलने की सार्थक पहल है और ‘सुधा सब सुन रही थी’ एक ऐसी लड़की के जीवन को शब्दबद्ध करती है जो अपने जीवन के तीन महत्त्वपूर्ण पुरुषों-पिता, पति और प्रेमी द्वारा मंझधार में छोड़ दिए जाने पर अपनी नैया को तूफान के हवाले न करके खुद उसकी खेवनहार बनती है और जीवन को एक दिशा प्रदान करती है।
‘वह रोज़ सन्नाटा बुनती थी’ महानगरीय जीवन में सूखते परिचय स्रोतों के बीच आत्मालाप और एकालाप की दुर्वह स्थिति से जूझ रही राधा के माध्यम से चमक-दमक से लैस आधुनिक जीवन शैली की नींव में दबे अंधेरों का आख्यान है। अन्ततः यही कहा जा सकता है कि ज्योति चावला की कहानियां निराशा के अंधेरे टुकड़ों को जोड़कर यथार्थ का मुकम्मल चेहरा गढ़ने की सार्थक कोशिश हैं।
समकालीन कहानीकारों में चर्चित और समर्थ कहानीकार हैं तरुण भटनागर। विषय की विविधता और कहन का एक विशिष्ट अंदाज़ उन्हें विशिष्ट साहित्यकारों की जमात से जोड़ता है। ‘‘नगरीय जीवन की जटिलताएं हों या उससे अलग आदिवासी-जनजातीय जीवन के अदेखे-अजाने पहलू, तरुण उन सब पर पकड़ बनाए रखते हैं। वास्तव में वह मानवीय जीवन में आ रहे उन बदलावों को पूरी शिद्दत से रेखांकित करते है, जिन्होंने ‘आदमी को इनसान’ नहीं रहने दिया है।’’14 ‘जंगल में दर्पण’ तरुण भटनागर का लोकप्रिय कहानी संग्रह है जिसमें रोना, ज़हर बुझे तीर के बाद, जंगल में दर्पण, प्रथम पुरुष, दवा, साझेदारी और एक आदमी, टेबिल और गुम नामक सात कहानियां संकलित हैं जो जनजातीय जीवन, जंगल, पूंजीवादी वर्ग के ब्योरे पर ही समाप्त नहीं होती अपितु इतिहास और मिथकों के जादुई संसार को भी अपने कलेवर में समेट लेती हैं।
‘रोना’ कहानी मशीनीकरण के युग में कुंद संवेदनशीलता की भावभूमि पर मशीनी जीवन जी रहे मनुष्य की भयावह तस्वीर उकेरती है। किसी प्रियजन की मृत्यु पर किराए के रोने वालों का बंदोबस्त जहां हमारे भीतर सूख रही भावनाओं को दर्शाता है वहीं भविष्य के उसे सवेदनाशून्य समाज की ओर इंगित भी करता है जब मानवोचित संवेदनाओं के अभाव में मनुष्य चलती-फिरती मशीन मात्र बनकर रह जाएगा।
‘ज़हर बुझे तीर के बाद ’ बस्तर के जंगलों से जुड़ी वह अकथ कहानी है जिसमें आधुनिक सभ्यता के घटकों की घुसपैठ और सियासती चालाकियों की सेंधमारी के बावजूद जंगल के तनावरहित जीवन का खाका तैयार किया गया है। जंगल को मिटाकर विकास के नाम पर सम्पदा को हड़प लेने की लगातार रची जा रही साजिशों का पर्दाफाश करते हुए यह कहानी जंगल में जीवन की संभावनाओं को नई दृष्टि से टटोलती है। ‘जगल में दर्पण’ कहानी इतिहास के पन्नों में महानता के नाम पर दर्ज होने से महरूम बस्तर के जंगल के अदेखे-अजाने सच को उजागर करती है। स्वार्थ के नाम पर युद्ध और मार-काट से अनजान यह सभ्यता अभी भी जंगल के कायदे-कानून से ही चलती है। क्षुद्र लालसाओं से चालित बाहर की दुनिया के षड्यंत्र उन पर काबिज होने की ताक में है लेकिन जंगल इस पैंतरेबाजी से अछूता रहकर अपने नैसर्गिक स्वरूप में ही उपस्थित है इसीलिए महान सभ्यताओं में उसका नामोनिशान भी देखने को नहीं मिलता।
‘प्रथम पुरुष’ कहानी लिंगों पेन नामक एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो संगीत का अन्वेषक, स्वप्नद्रष्टा, नवीनता का पक्षधर और सपनों की उड़ान भरने वाला आदिम सभ्यता का प्रथम पुरुष है। परिवर्तन की हिमायत करने वाला प्रत्येक व्यक्ति समाज की नजर में दोषी होता है, लिंगो पेन भी इसका अपवाद नहीं। पेट और शरीर की आदिम भूख मात्र को जीने वाली आदिम सभ्यता में लिंगो पेन को खतरा समझा जाता है, क्योंकि आदिम युग में और आज भी दुनिया परम्पराभंजक और नवीनता के प्रति आग्रह रखने वाले व्यक्ति को स्वीकार नहीं करती, उसे अपने युग-समाज का बहिष्कार झेलना ही पड़ता है।
‘दवा, साझेदारी और एक आदमी’ भूख की बेबसी के बीच जीवन की संभावनाओं को तलाशने का ईमानदार प्रयास है। गरीब व्यक्ति परिस्थितियों के चक्रव्यूह में इस प्रकार से घिरता है कि एक ओर उसे दायित्वबोध खींचता है और दूसरी ओर रोटी की अनिवार्यता। जीवन की पक्षधरता का हिमायती होकर भी वह भूख के सामने लाचार है। इस कहानी का प्रमुख पात्र कैमिस्ट भूख, जीवन और सिद्धान्तों की आर-पार की लड़ाई लड़ने वाला ऐसा बेबस व्यक्ति है जिसकी पीड़ा दुनिया के सभी गरीबों की साझी तकलीफ है।
‘टेबिल’ कहानी डॉक्टर राजन के माध्यम से केन्द्रीकृत शक्तियों की मनमानियों के चलते साधारण व्यक्ति की विवशता को रेंखांकित करती है और भारतीय परिप्रेक्ष्य में कार्यालीय जीवन की औपनिवेशिक शक्तियों का असली चेहरा उद्घाटित करती है। बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से तरुण भटनागर की ‘गुम’ कहानी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। कहानी में श्रवण, कांता और सनेही का पड़ोस के घर में ही गुम हो जाना बाल मनोविज्ञान के संदर्भ में आधुनिक जीवन की कई समस्याओं की पर्ते उधेड़ता है। अतः समग्र रूप से हम यही कह सकते हैं कि तरुण भटनागर अपनी कहानियों में समसामयिक समस्याओं की शिनाख्त करते हुए जंगल, जमीन, शहर और महानगरीय जीवन के सूक्ष्म संवेदनों की बड़ी बारीकी से पहचान करते हैं।
सत्यनारायण पटेल समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका तीसरा कहानी संग्रह ‘काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ उनकी विलक्षण लेखन प्रतिभा का परिचायक है। सत्यनारायण पटेल की कहानियां ग्रामीण परिवेश में रची-बसी अपने समय से संवाद रचाती ऐसी कहानियां हैं जिनकी किस्सागोई बेमिसाल है और कहन का ढंग लाजवाब। बकौल लेखक, ‘‘मैं अपनी कहानियों के पात्रों को वास्तविक जीवन से ही चुनता हूं। वास्तव में देखा जाए तो यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से ही कहानी बनती है लेकिन कल्पना उतनी ही होती है जितनी आटा गूंथनें के लिए पानी की जरूरत होती है अथवा स्वाद के लिए नमक की।’’15
पर पाजेब न भीगे, घटृ वाली माई की पुलिया, एक था चिका एक थी चिकी, ठग, न्याय, काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस नामक छह यथार्थपरक कहानियां उक्त कहानी संग्रह में संकलित हैं। ‘‘ स्याह अंधेरों को अपने हौसलों के बूते चीर देने का विश्वास इस संग्रह की कहानियों की ताकत है जो सबसे पहले अपने भीतर पसरे अंधेरों को चीन्हने की तमीज देता है। शायद इसीलिए बिजूका की तरह अपने मानवीय वजूद का उपहास सहता आम आदमी उनकी कहानियों में क्रमशः निखरता हुआ व्यवस्था की कठमुल्ला ताकतों के लिए पहले काफिर बन जाता है और फिर इब्लीस।’’16
‘पर पाजेब न भीगे’ तथाकथित विकास की आड़ में अपनी ज़मीन से बेदखल किए जा रहे लोगों की व्यथा-कथा बंजारा बांध के ज़रिये उद्घाटित करती है। विकास योजनाओं से लाभान्वित होने वालों में पूँजीपतियों की जमात शामिल है लेकिन जिन लोगों को स्वत्वहीन बनाकर इन योजनाओं का खाका तैयार किया जाता है, उन्हें मात्र विकास के झूठे नारों के शोर में ठगा जाता है। ऐसी तथाकथित विकास परियोजनाओं पर सवालिया निशान लगाती हुई कहानी वास्तविक विकास और कागजी विकास के अंतर की सूक्ष्म पड़ताल करती है।
घटृ वाली माई की पुलिया कहानी लोक जीवन के उन अनाम नायक-नायिकाओं की कहानी है जो इतिहास में अपनी जगह नहीं बना पाते परंतु अपने दृढ़ संकल्प और परहितकारिता के सदके वह एक ऐसा आदर्श कायम कर देते हैं जो सदियों तक निराशा के स्याह अंधेरों में आशावादिता का उजास फैलाता रहता है।
‘एक था चिका एक थी चिकी’ कहानी चिड़े और चिड़िया की प्रतीकात्मक कथा के माध्यम से पारिवारिक स्तर पर स्त्री की अधीनस्थ स्थिति और पुरुष की प्रभुतासम्पन्नता का कथा सूत्र बुनती है, जहां समय की धूल से मटमैले पड़े रिश्ते प्रेम के स्थान पर अधीनता और वर्चस्व के समीकरणों में तब्दील हो जाते हैं और तब स्त्री के हिस्से में न दो गज जमीन बचती है और न मुट्ठी भर आसमान ।
‘ठग’ कहानी दो ठगों की ठगी से आंरभ होकर होशियार की होशियारी से चमत्कृत करती हुई किस्सा-दर-किस्सा तिलस्मी कहानियों के समान आगे बढ़ती है। उक्त कहानी का कथानक बहुत सीधा परंतु इसका निहित अर्थ बहुत गहरा और विलक्षण है। मनुष्य की लिप्सा का कोई ओर-छोर नहीं और अपनी अनंत लालसाओं की पूर्ति हेतु वह जंगल, जमीन, हवा, पानी तक को भी बेचने से गुरेज़ नहीं करता। लालसा और लालच की यह अंधी दौड़ न जाने कहां जाकर थमेगी और न जाने किस-किस को लीलकर तुष्ट होगी ?
‘न्याय’ कहानी कथा-नायक आमिर के माध्यम से जन-विरोधी समय में न्यायतंत्र, राजनीतिक षड्यंत्रों, झूठ के प्रपंच और कार्यप्रणाली की असफलता पर प्रहार करते हुए आमिर जैसे साधारण जन के आक्रोश और अंसतोष को उद्घाटित करती है।
‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ धर्म की आड़ में होने वाले शोषण का आख्यान है। इस शोषण का पग-पग पर शिकार होते हुए व्यक्ति का अस्तित्व कभी बिजूका की तरह उपहासास्पद जान पड़ता है और कभी भ्रष्ट व्यवस्था के हाथों ठगे जाकर वह काफ़िर बनने की ओर उद्यत होता है और अन्ततः इब्लीस अर्थात् शैतान बन जाता है। ‘‘सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ मात्र पढ़ने के लिए नहीं, नागरिक दायित्वों के आलोक में अपनी भूमिका को जाँचने-परखने के लिए भी हैं कि हम इब्लीसों की जमात से कितने अलग हैं।’’17
कहानी के समकाल में अपनी सशक्त उपस्थिति से आश्वस्ति का भाव थमाने वाले बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कहानीकार उमा शंकर चौधरी अपना परिचय स्वयं है। उनकी कहानियों का भावबोध बहुत गहरा है और कथा-वितान अत्यंत विस्तृत। ‘कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां’ इनका दूसरा कहानी संग्रह है, इस संग्रह की कहानियों में भूमंडलीकरण के दौर में मनुष्य का शनैः-शनैः बाजारवाद का शिकार होना, उपभोक्तावादी संस्कृति में दरकते रिश्तों, भूख से उपजने वाले जुर्म की अनकही सच्चाइयां और अपने समय के चौंधियाते उजालों में पसरे हुए अंधेरों को पहचानने का उपक्रम है। इस संग्रह में ‘ललमुनिया मक्खी की छोटी सी कहानी,’ कन्हैयालाल वल्द रामरतन सिंह,’ मिसेज वाटसन की भुतहा कोठी,’ पोटृम, हरे पत्ते और दिल्ली की उमस भरी वह शाम,’ ’कट टु दिल्ली : कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश’ नामक पाँच कहानियां संगृहीत हैं। उनकी प्रयोगधर्मिता की बानगी संग्रह की पहली कहानी की प्रमुख पात्र मक्खी और अंतिम कहानी में प्रधानमंत्री को केन्द्रीय पात्र के रूप में चित्रित करना है।‘‘उमा शंकर चौधरी जिस पीढ़ी के लेखक है, उसमें भाषा और शिल्प के स्तर पर खूब प्रयोग हुए लेकिन शायद वे अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होनें अपने यहाँ भाषा और शिल्प के साथ-साथ विषय के स्तर पर भी खूब प्रयोग किए।’’18
‘ललमुनिया मक्खी की छोटी सी कहानी’ देवाशीष नामक एक ऐसे युवक की कहानी है जो महानगरीय चमक-दमक से चमत्कृत होकर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन के सपने संजोता है परंतु पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बिना पूँजी के सपनों का भुरभुरा कर ढहना उसकी नियति का ही हिस्सा है। यदि किसी दिन जीवन अलादीन के चिराग जैसे जादू के बल पर मनचाही दिशा में चलता भी है तो अर्थंव्यवस्था की मंदी ऐसे अनेक प्रतिभासम्पन्न नवयुवकों पर गाज सी गिरती है और एक ही झटके में देवाशीष स्वयं को उसी चौराहे पर खड़ा पाता है जहाँ से जीवन शुरू किया था। कहानी में एक सुखद संयोग के रूप में देवाशीष की कोल्ड ड्रिंक की बोतल में मरी हई मक्खी का मिलना और उसकी भरपाई के तौर पर कम्पनी द्वारा हरजाना देना किसी चमत्कार से कम नहीं परंतु प्रश्न यह उठता है कि ऐसे चमत्कारों का संयोग भला कितने लोगों के जीवन में बनता है?
कहानी ‘कन्हैयालाल वल्द रामरतन सिंह’ गुरबत की मार झेल रहे लोगों के बच्चों का जुर्म की दुनिया में व्यवस्थागत खामियों के कारण पदार्पण और भ्रष्ट पुलिस तंत्र के हत्थे चढ़ कर हज़ारों निर्दोष लोगों का साल-दर-साल जेल की कोठरियों में घुट कर मर जाने की कष्टदायी परिणति पर एक नए कोण से प्रकाश डालती है। प्रश्न यह उठता है कि परिस्थितिजन्य दबावों ओर परिवेशगत घटकों के प्रभाव से अपराध जगत् में प्रवेश करने वाले लोग क्या सचमुच दोषी हैं? अथवा यह हमारी भ्रष्ट व्यवस्था का दोष है कि एक बार अपराध की सीढ़ी पर कदम रखने के बाद मुख्यधारा में लौटने के सारे रास्ते व्यक्ति पर बंद कर दिए जाते हैं।
‘मिसेज वाटसन की भुतहा कोठी’ कहानी में एक भुतहा कोठी जिसके वंशजों के निःसंतान रह जाने की किंविंदति प्रचलित है, में रहने वाले त्रिलोचन के बड़े बेटे निरंजन और बहू अनुराधा के बेऔलाद रहने पर कोठी के प्रकोप का प्रवाद और भी गहरा जाता है। अनुराधा के रूप में कहानीकार ने हमारी पितृसत्ताक व्यवस्था की उस सोच को भी उजागर किया है जिसमें स्त्री के अस्तित्व की सार्थकता मात्र मातृत्व में ही निहित समझी जाती है। बांझ होने के कलंक को ढोती अनुराधा घर के नौकर के संसर्ग से संतान सुख पाती है और अपने खोए हुए सम्मान को फिर से पा लेती है परंतु सोचना यह है कि बच्चा पैदा करने में अक्षम स्त्री क्या घर परिवार और समाज में मान-सम्मान की अधिकारिणी नहीं है? क्या स्त्री जीवन मात्र मातृत्व का ही पर्याय है?
‘पोट्टम, हरे पत्ते और दिल्ली की उमस भरी वह शाम‘ कहानी केरल के हरे भरे प्राकृतिक परिवेश में पले-बढ़े पोट्टम द्वारा रोज़गार की तलाश में दिल्ली आने और महानगरीय जीवन से तालमेल न बिठा पाने की स्थिति में अवसाद का शिकार हो जाने की त्रासदी पर केन्द्रित है। एक बेहतर जीवन जीने की आशा में छोटे शहरों से महानगरों में आकर बसने वाले लोग महानगरीय आपाधापी से सामंजस्य न बिठा पाने पर निरंतर तनाव में रहते हैं, परिवार को समय न देने पाने की स्थिति में पारिवारिक विघटन की पीड़ा झेलते हैं और जीवन में प्रत्येक फ्रंट पर स्वयं को असफल पाकर मानसिक व्याधियों की चपेट में आ जाते हैं।
संग्रह की अंतिम कहानी ‘कट टु दिल्ली : कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश’ में प्रधानमंत्री के कमर दर्द और उसके ईलाज के लिए अमेरिका से बुलाए गए डॉक्टर, मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा चलाए जाने वाले अस्पताल और वैद्य के रूप में बच्चा बाबू द्वारा किए गए उपचार के रूप में सत्तासीन वर्ग की घटिया सियासत, भारत जैसे विकासशील देशों द्वारा अमरीका के तलुवे चाटने की प्रवृत्ति और देश के प्रतिभासम्पन्न नागरिकों को राजनैतिक षड्यंत्रों के चक्रव्यूह में उलझा कर नेस्तनाबूद करने की साजिशों का पर्दाफाश किया गया है। निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि उमा शंकर चौधरी की कहानियां समकालीन जीवन की दरारों में से झाँक कर उपभोक्तावादी संस्कृति के हत्थे चढ़ी प्रतिभाओं की पीड़ा को दर्ज करते हुए महानगरीय जीवन शैली के श्वेत-श्याम चित्रों को जोड़ कर बनाई गई जीवन की विविधता से सुसज्जित कैनवास जैसी हैं।
विमल चन्द्र पाण्डेय समकालीन कथा परिदृश्य में बेहद चर्चित नाम हैं। इनकी कविताएं और कहानियां अपने समय की खतरनाक सच्चाइयों को अभिव्यक्त करते हुए जीवन की अँकुराती संभावनाओं को खोज लाने की आश्वस्ति से परिपूर्ण हैं। ‘मस्तूलों के इर्दर्गिद’ कहानी संग्रह में युवा मन की जिज्ञासाएं, सेक्स सम्बंधी उत्सुकता और आत्महंता समय में से गुज़रते हुए बेरोज़गारी और असफलता के थपेड़ों से आहत होकर आक्रामकता पर उतारू हो जाना जैसे कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित है। ‘‘विमल की इन कहानियों में आज का हमारा पूरा समय अपने सही रूप में रचा गया है --आज के युवाओं की इतनी समृद्ध, रंगारंग और सच्ची दुनिया नए कथाकारों में से शायद ही किसी के पास हो।’’19
उक्त कहानी संग्रह में ‘पवित्र’ सिर्फ एक शब्द है, महानिर्वाण, वंशावलियों के शिलालेखः अ कंट्राडिक्शन, बूमरैंग, मस्तूलों के इर्दर्गिद, प्रेम पखेरू, बाबा एगो हइये हउएं, हाइवे पर कुत्ते नामक आठ कहानियां दर्ज हैं। ‘कहानी ‘पवित्र सिर्फ एक शब्द है’ में पहले प्रेम में ठुकराए जाने पर प्रतिक्रिया स्वरूप कहानी का मुख्य पात्र सुरेश शहर में सक्रिय एक ऐसे गिरोह का सदस्य बन जाता है जो प्रेमी जोड़ों की धर-पकड़ करके उन्हें अपमानित करते हैं और हिन्दू संस्कृति की रक्षा के नाम पर लड़कियों से अपने प्रेमियों को राखी बंधवा कर स्वर्णिम भारतीय परम्पराओं के वाहक होने का दंभ पालते हैं। शहर भर के बेरोज़गार, प्रेम के भूख,े घर-परिवार के तिरस्कार का शिकार युवक समाज से अपनी नाकामियों का बदला लेने का यह तरीका अपनाते हैं। युवावस्था में ऊर्जा से भरपूर युवकों का कुछ गैर सामाजिक तत्वों के बहकावे में आकर इस प्रकार स्व-घातक कार्यो में सम्मिलित होना जहां समाज के लिए हानिकारक है, वहीं युवा शक्ति का भटकाव उनके जीवन को भी अंधकारमय बनाने की राह पर ही अग्रसर करता है ।
‘महानिर्वाण’ कहानी समय के बहाव में बहते हुए एक सरकारी कर्मचारी जीवन लाल द्वारा कविता लेखन में प्रवृत्त होने, साहित्य-जगत में पहचान स्थापित करने के साथ-साथ अनेक सम्मान हासिल करने और प्रसिद्ध साहित्यकारों की पंक्ति में शुमार होने के कथा-बिन्दु से उपजती है। यह कथा बिन्दु विस्तार पाकर एक सार्थक परंतु बेहद चुनौतीपूर्ण प्रश्न में तब्दील हो जाता है कि क्या साहित्य जगत में मान और सम्मान पाने वाला साहित्यकार ही कालजयी होता है? कहानीकार के अनुसार सच्चा साहित्यकार वह है जो अपने समय का साक्षात्कार करते हुए यथार्थ को अभिव्यक्त करता है, अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज करता है और असहमति के भय से मुक्त होकर सच को बयान करता है। जीवन लाल ख्यात और जाना-माना रचनाकार होकर भी स्वयं की नज़रों में दोषी है क्योंकि वह जानता है कि उसने साहित्यकार के कर्तव्य का सही ढंग से पालन नहीं किया है।
कहानी ‘वंशावलियों के शिलालेखः अ कंट्राडिक्शन’ रंगमंच से फिल्मों की दुनिया में अपना भाग्य आज़माने पहुँचे तीन दोस्तों-ललित, निलय और आनंद के संघर्ष और उस संघर्ष की असफलता के पश्चात् अपने टूटे हुए सपनों की किरचों की चुभन के साथ तालमेल बिठाने की जद्दोजहद का आख्यान है।
‘बूमरैंग’ कहानी मनोविज्ञान के उस नियम पर आधारित है जिसके अनुसार मुनष्य बार-बार वही गल्तियां करता है और समय बीतने पर पश्चाताप करते हुए ऐसा न करने का संकल्प लेता है परंतु न तो मानव स्वभाव बदलता है और न ही उसका संकल्प कहीं टिकता है। मनुष्य चाहते, न चाहते हुए बार-बार उसी मनःस्थिति में ही लौटता है। कहानी में रवि का अपनी पत्नी से बार-बार झगड़ा करना, पत्नी के गुस्से को निरीह ड्राइवर रामलाल पर उतारना और रात में शराब के नशे में रामलाल पर गुस्सा उतारने के बोझ से मुक्त होने के लिए किसी भी ड्राइवर से माफी मांगना बूमरैंग ही कहा जा सकता है।
कहानी ‘मस्तूलों के इर्द-गिर्द’ रिश्तों से हारे और प्रेम से रूठे हुए सुप्रीमो के मन में नायिका अप्रितम माधुरी के द्वारा प्रेम के लिए आस्था पैदा करने और जीवन में शुभ एवं सुन्दर के अस्तित्व के प्रति आशा का संचार करने का कथानक बुनती है। कहानीकार मरने के कगार पर खड़ी नायिका के हाथों में प्रेम को ही सर्वस्व मानने का जीवन-मंत्र थमाकर संभवतः हमें यह सीख देना चाहता है कि आज के युग की आत्मघाती परिस्थितियों में जीवन की संभावना मात्र प्रेम के ही कारण संभव है।
‘प्रेम पखेरू’ कहानी यौवन की देहलीज पर खड़े दो किशोरों की कहानी है जो किशोरावस्था सुलभ सैक्स के प्रति आकर्षण को लेकर उलझन की स्थिति में हैं। शारीरिक सम्बंधों के कामुक चित्र देखना और मन ही मन आस-पास से गुज़रने वाली युवतियों के विषय में उसी दृष्टि से सोचना जहां उनकी अनगढ़ कच्ची समझ को दर्शाता है वहीं किशोरावस्था में उचित मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं के भटकने एवं गलत हाथों में पड़ जाने के खतरों के प्रति भी सचेत करता है।
‘बाबा एगो हइये हउएं’ कहानी मीडिया की भूमिका को कटघरे में खड़ा करते हुए लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली पत्रकारिता पर सवाल उठाती है। आधुनिक मीडिया भ्रामक अवसरों का मायाजाल बिछाकर बेरोज़गार लोगों के सपनों को छलता है और सस्ती विज्ञापन बाजी के लिए घटनाओं को ऐसे तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है कि वह खबर सनसनी तो पैदा कर देती है परंतु सत्य से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। कहानी में अनुज श्रीवास्तव उर्फ बाबा मीडिया के झूठे संसार में प्रवेश तो पा लेता है परन्तु उसकी ईमानदारी ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाती है और वह न चाहते हुए भी मीडिया की चालबाज दुनिया का एक मोहरा बन जाता है।
‘हाइवे पर कुत्ते’ कहानी बाजारीकरण के दौर में प्रेम की हिमायत करने वाले ऐसे युगल की कथा है जो इस मशीनी समय में भी अपनी जान की कीमत देकर प्रेम को बचाने का हौंसला रखता है। स्वार्थी रिश्तों की भरमार के बीच इक्का-दुक्का ऐसे विलक्षण प्रेमियों की उपस्थिति निराशा की घनघोर अंधेरी रात में टिमटिमाते जुगनुओं जैसी आश्वस्ति थमाती है। अंत में यही कहा जा सकता है कि ‘‘युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानियों में स्थानीयता अपनी पूरी रंगत में विराजमान रहती है। बनैले यथार्थ को वह कॉमिक प्रतिपक्ष में बदलते हैं और फिर परत-दर-परत उघाड़ते चलते हैं।’’20
हाशियाकृत समुदाय की पीड़ा को किसी विमर्श विशेष के चौखटे में फिट किए बगैर वर्तमान समय के हौलनाक यथार्थ का चित्रण करने में सिद्धहस्त हिन्दी के चर्चित युवा कथाकार श्री कैलाश वानखेड़े हिन्दी कहानी की एक नवीन परिभाषा गढ़ रहे हैं। उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ की सभी कहानियों में वंचित, शोषित और सर्वहारा वर्ग के दमन की मूक चीखे दर्ज हैं और भ्रष्ट सत्तातंत्र की सूक्ष्म साजिशों के प्रति उफनते आक्रोश का कोलाहल। डा. बजरंग बिहारी तिवारी के शब्दों में, ‘‘सत्तातंत्र के पाखंड का सलीके से पर्दाफाश करने वाली ये कहानियाँ हिन्दी कहानी को नवता प्रदान करती हैं और दलित कहानी को दिशा देने का काम करती हैं। रोजमर्रा के अनुभवों का जैसा दलित भाष्य कैलाश के यहां मिलता है वह दलित चिंतन के विकास का साक्षी है, साथ ही जाति की जकड़बंदी के समकालीन जटिल ताने-बाने की विश्वसनीय पड़ताल का दस्तावेज भी है।’’21
उक्त संग्रह में सत्यापित, तुम लोग, अन्तर्देशीय पत्र, घण्टी, महू, स्कॉलरशिप, उसका आना, कितने बुश कित्ते मनु और खापा नामक नौ कहानियां संकलित हैं।
‘सत्यापित’ कहानी आत्मकथात्मक शैली में लिखित है जिसका नायक एक दलित युवक है जो स्वयं को सत्यापित करवाने के लिए दर-दर की खाक छानता है परंतु उसकी पहचान पर मुहर लगाने वाली सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने में ही नहीं आती। कार्यालीय कार्यप्रणाली की खाहमखाह की पेचीदगियों पर प्रकाश डालते हुए यह कहानी एक गंभीर प्रश्न उठाती है कि किसी भी व्यक्ति की पहचान को सत्यापित करने का अधिकार किसी और व्यक्ति को कैसे दिया जा सकता है, जो हमें न तो जानता है, न पहचानता है लेकिन फिर भी उसकी कलम के पास यह ताकत है कि वह चाहे तो हमारी पहचान का सत्यापन करे अथवा हमें सिरे से ही खारिज कर दे।
‘तुम लोग’ कहानी मनुष्य के मान-सम्मान के पैमाने महंगे जूते, कपड़े, जेब के माल और रिहायशी इलाके के स्टैंडर्ड पर अवस्थित होने की मानसिकता को उघाड़ती है। अमीर होने या न होने से ज्यादा जरूरी है -अमीर दिखना, नहीं तो सब्जी वाला, कपड़े की दुकान वाला यहां तक कि राह चलता अजनबी भी तू-तड़ाक पर उतर आता है। साधारण दिखने वाले लोग दुनियां की नज़र में मात्र ‘तुम लोग’ ही बन कर रह जाते हैं, उनकी पहचान इन्हीं दो शब्दों के बोझ तले दब कर मर जाती है।
कहानी ‘अन्तर्देशीय पत्र’ मात्र पत्र लिखने की कवायद भर नहीं है अपितु कहानी का निहितार्थ तो लिखने से छूट गए शब्दों और अनकहे-अनसुने अल्फाज़ों में समाया है। स्वतंत्रता के वर्षो बाद भी शिक्षा के अधिकार से वंचित दलित अभवग्रस्त जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। इस अभावग्रस्तता की काली छाया न तो शब्दों की पकड़ में आती है और न बोल कर सुनाई जा सकती है। इस तकलीफ को समझने और गुनने के लिए भुक्तभोगी की आंख और हृदय की दरकार है।
‘घंटी’ कहानी मांगीलाल चौहान नामक ईमानदार और कर्मनिष्ठ चपरासी द्वारा अपने बड़े साहब के घर के काम करने से इनकार करने पर टूटे मुसीबतों के पहाड़ को बयान करती है। कार्यलय का सबसे मेहनती चपरासी मांगीलाल इतनी छोटी सी बात की इतनी बड़ी सजा पाता है कि बीमारी की हालत में उसे छुट्टी नहीं दी जाती और तिस पर विभागीय कार्रवाई की धमकी का डर भी दिखाया जाता है। वास्तव में कहानी भारतीय समाज की उस मानसिकता का उद्घाटन करती है जिसके चलते अपने मातहत काम करने वाले व्यक्ति को अधिकारी अपनी जागीर मान बैठते हैं। भारत से गुलाम प्रथा तो कब की समाप्त हो गई परंतु हमारी सोच में घर कर चुकी अफसरशाही खुद को स्वयंभू और अधीनस्थ व्यक्ति को अपने जरखरीद गुलाम से अधिक कुछ नहीं मानती।
‘महू’ कहानी शिक्षण संस्थानों के उस परिवेश को उजागर करती है जहां दलितों की प्रताड़ना ट्रेंड बन चुकी है और उस प्रताड़ना की टूटन आए दिन विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की घटनाओं में तब्दील हो जाती है। मुद्दे की बात यह है कि हमारी व्यवस्थागत खामियां और पेचीदगियां जो विद्यार्थियों को आत्मघात के लिए उकसाती हैं, उन्हें हत्या कहा जाए अथवा आत्महत्या माना जाए? विभिन्न स्तरों पर होने वाली यह प्रताड़ना विद्यार्थियों के सपनों पर भारी पड़ती है, जीवन से भरोसा उठने लगता है और संभावनाओं से उमगता-गमकता एक भरपूर जीवन मौत को गले लगा लेता है।
‘स्कॉलरशिप’ कहानी सरकारी जुमलेबाजी की प्रंवचना से परे यथार्थ की ठोस जमीन पर पिछड़ी जाति के लोगों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की पहल से जुड़ी जमीनी सच्चाइयों को प्रतिबिम्बित करती है। कथा के नैरेटर द्वारा पढ़ने के लिए स्कूल जाना और वहां पर अध्यापको द्वारा उसे पढ़ाई के अतिरिक्त और सभी कार्यों में लगाए रखना हमारी उस दकियानूसी परम्परापोषक सोच को उजागर करता है जिसके अन्तर्गत शिक्षा का अधिकार मात्र सवर्णों को है क्योंकि दलित यदि शिक्षित हो जाएगा तो अपने अधिकारों की पैरवी करेगा और सामाजिक विधि-विधानों पर प्रश्न उठा कर अपने शोषण की लड़ाई का कर्णधार स्वयं बन जाएगा।
‘उसका आना’ कहानी भारतीय समाज के स्त्री विरोधी परिवेश में पुरुष वर्चस्व की सामंती ताकतों के समक्ष घुटने टेकने पर मजबूर लोगों की व्यथा-कथा है। आज भी बिना जाँच पड़ताल किए किसी भी लड़की को सुनी सुनाई बात के आधार पर व्यभिचारिणी घोषित कर देना रोज़मर्रा घटने वाली घटना है। आज भी पढ़ने-लिखने वाली लड़की, लड़कों को फांसने में माहिर समझी जाती है और उसके कुल, वंश अथवा स्वयं उसके अस्तित्व को कांटों में घसीटने का विशेषाधिकार समाज के प्रत्येक ठेकेदार की बपौती है।
‘कितने बुश कित्ते मनु’ एक प्रतीकात्मक कहानी है जिसमें किसी की मेहनत का फल किसी और को मिलता है क्योंकि अफसरशाही में योग्यता अथवा परिश्रम का नहीं मात्र पद का सिक्का चलता है। जैसे बुश ने कल्याणकारी योजनाओं की आड़ में ईराक के लोगों से विश्वासघात किया था, वही विश्वासघात कहानी के नैरेटर के साथ उसका बॉस करता है। मनुवादी मानसिकता वाला हमारा समाज आज भी दलित और स्त्री को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की हिमायत करता है और मात्र सवर्णो, वह भी सवर्ण पुरुषों की शिक्षा-दीक्षा का ही पक्ष लेता है। अतः कहानीकार प्रश्न उठाता है कि अभी कितने बुश और जन्म लेंगे और कितने मनु अभी और सताएगें?
‘खापा’ कहानी में उन गरीब अभिभावकों की पीड़ा का उद्घाटन है जो शिक्षण संस्थानों में निर्धन वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित सीटों के प्रावधान के बावजूद अपने बच्चों को अच्छे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा दिलवाने से वंचित रह जाते हैं। स्वर्ग-नर्क और पाप-पुण्य की जकड़न गरीब लोगों के पैरों का फंदा बन जाती है और उन्हें आगे बढ़ने के सपने संजोने से बरज देती है। उक्त कहानी में समर की प्रतिबद्धता के द्वारा लेखक ने यह समझाना चाहा कि पिछड़े और वंचित वर्ग के लोगों को अपने पक्ष में स्वयं खड़ा होगा, अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने का बीड़ा उन्हें खुद आगे आकर उठाना होगा। कैलाश वानखेड़े की लेखन कला के विषय में समग्रतः यही कहा जा सकता है कि वह पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के मौन संघर्ष को आवाज देते हैं। उनकी कहानियां वस्तुतः युग समाज का दर्पण हैं।
कबीर संजय हिन्दी कहानी का प्रतिष्ठित नाम हैं। उनकी कहानियों में बाल मनोविज्ञान का अत्यंत सूक्ष्म चित्रण किया गया है। गहरे भावबोध से भरपूर इनकी कहानियां अपने समय से संवाद करती हुई जान पड़ती है। स्त्री अधिकारों की वकालत, महत्त्वाकांक्षा के मकड़जाल में फंस कर होने वाली आत्महत्याएं और पेट की आग को बुझाने के एवज में जिंदगी की लौ को बुझने देने की बेबसी इनकी कहानियों की मूल संवेदना है। इनके कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ में विभिन्न विषयों पर आधारित ग्यारह कहानियां संगृहीत हैं।
‘मकड़ी के जाले’ कहानी बाल सुलभ जिज्ञासा और प्रश्नों को केंद्र में रख कर बच्चों की नजर से लगातार निर्मम हो रही दुनिया को टटोलने की भोली कोशिश है। अंची और नंदू के द्वारा इस कहानी में इस सत्य का भी साक्षात्कार किया गया है कि अकसर अभिभावकों द्वारा बच्चों पर हाथ उठाए जाने की पीछे अपनी कमज़ोरियों का वह अहसास होता है जिसे खुद से भी छुपाने की गर्ज से वह बच्चों को अपना शिकार बनाते रहते हैं। ‘मरे हुए सांप की खाल’ कहानी में उन तथाकथित संभ्रात लोगों के वहशीपन को उजागर किया गया है जो अपनी कामुकता को अप्राकृतिक ढंग से शांत करने के आदी हैं। कहानी में कुत्तों के प्रति विशेष प्रेम रखने वाला बालक मनु अपने कुत्ते के बीमार होने पर उसे जानवरों के डॉक्टर के पास लेकर जाता है परंतु उस डॉक्टर को कुत्ते के साथ अपनी हवस की पूर्ति करते हुए देखना मनु के बाल मन पर एक ऐसी छाप छोड़ता है जिससे संभवतः वह सारी उम्र बाहर नहीं आ सकेगा।
‘सपना’ कहानी हमारे परिवारों में सूक्ष्म धरातल पर होने वाले बाल-उत्पीड़न का चित्रण करती है। माता-पिता द्वारा बच्चों पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को थोपने की कोशिश बच्चों के लिए असह्य बोझ बन जाती है। माता-पिता के बेलगाम दौड़ते सपनों से टकराकर बच्चों के कोमल सपने कैसे बेमौत मरते हैं, इसका प्रमाण ‘सपने’ कहानी का सात्विक है।
कहानी ‘पत्थर के फूल’ हमारे समाज के दोगलेपन पर करारी चोट कही जा सकती है। सिनेमा के कामुक दृश्यां और दोहरे अर्थों वाले अश्लील गानों पर वाहवाही करने वाले लोग दो प्रेमियों के प्रेम को अनैतिक ठहराते हैं और उन्हें सरेआम अपमानित करके एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं। सिनेमा की प्रेम कहानियां सुपरहिट होती है परंतु वास्तविक जीवन में प्रेम अनैतिक और अमान्य है। उक्त कहानी में पराग और नीलिमा इसी दोमुँही व्यवस्था का शिकार होते हैं और जीवन में कई अनावश्यक समझौते करने की विवशता उनकी नियति बन जाती है।
‘सुरखाब के पंख’ कहानी में कहानीकार ने मुनष्य की आत्मकेन्द्रियता के हवाले से पशु-पक्षियों के प्रति उसकी क्रूरता और संवेदनहीनता को रेखांकित किया है। सुरखाब अथवा किसी भी अन्य पक्षी को अपना शिकार बनाना मनुष्य के लिए आत्मतोष अथवा गर्व का कारण हो सकता है परंतु इस क्रूर आनंद की परिणति पक्षियों की विलुप्त होती प्रजातियों और दिन-ब-दिन बिगड़ रहे पारिस्थितिकी संतुलन में दिखाई देती है।
कहानी ‘प्रयागराज एक्सप्रेस’ इलाहाबाद से दिल्ली की रेलयात्रा के यात्रा-वृत्तांत जैसी है। रेलगाड़ी का नियत समय से लेट दिल्ली पहुँचना, उसमें सवार यात्रियों की समय-सारिणी गड़बड़ा जाने से यात्रियों का उत्तरोत्तर अधीर होते जाना और अनिरुद्ध तथा अभिलाषा का इस सबसे असम्पृक्त धीर और शांत बने रहने का विलोम कई प्रश्न खड़े करता है जिसमें सहयात्रियों का उनके रिश्ते पर संदेह करना और समय को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर रखने वाले लोगों के व्यक्तित्व के उथलेपन को उजागर करना प्रमुख है।
‘फिर एक दिन’ कहानी वर्तमान समय के एक बहुत बड़े सच का खुलासा करती है। समाज और परिवार की बंदिशों को तोड़कर प्रेम विवाह करने वाले युगल संघर्षपूर्ण जीवन को बड़ी हिम्मत से गले लगाते हैं परंतु इस विकल्पहीन समय में प्रेम का आधार जीवन जीने के संसाधनों के सामने छोटा पड़ जाता है। आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और परिवार में नन्हें मेहमान के आने से लगातार तनावपूर्ण होते रिश्तों की कारुणिक कथा है ‘फिर एक दिन।’‘ मोम के रंग’ कहानी बाहर से खुशहाल परंतु आंतरिक रूप से कर्ज़ के दीमक से खोखले हो चुके ऐसे परिवार की मार्मिक कहानी है जहां एक पिता अपनी पत्नी और बेटियों की हत्या करके स्वयं आत्महत्या कर लेता है। इस कहानी के द्वारा लेखक उन परिस्थितियों की पड़ताल करता है जिनके कारण मनुष्य हालात के आगे इतना बेबस हो जाता है कि उसे मरने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं सूझता।
कहानी ‘वो हां कहेगी’ स्त्री की निजता के अधिकार पर प्रश्नचिह्न लगाती है। हमारे समाज में स्त्री की सहमति-असहमति, किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं हैं। उसकी छोटी-मोटी चीजों की तलाशी, कपड़ों की अल्मारी में तांकाझांकी और किताबों के पन्नों से प्रेम पत्र खोज निकालने की गरज से अलटा-पलटी घर के पुरुषों का अधिकार है और स्त्री की निजता का अपमान। कहानी में नायिका अपने भाई की इन्हीं हरकतों के कारण निरन्तर तनाव में रहती है और अपनी निजता बचाने की मुहिम में उसे लगातार अपना आप झोंकना पड़ता है।
‘पापी पेट का सवाल है’ कहानी मीडिया के प्रपंच और गरीब आदमी की भूख का आख्यान है। बस स्टॉप पर गन्ने का जूस बेचने वाला मनोहर टी.आर.पी की होड़ में जुटे मीडिया के षड्यंत्र का शिकार होकर पापी पेट की दुहाई देता है वहीं सनसनीखेज खबर जुटाने के अभाव में नौकरी चले जाने की आशंका मीडिया कर्मियों के पापी पेट का सवाल खड़ा कर देती है। ‘दोगली कहीं की’ कहानी में अंधविश्वासों और धार्मिक मान्यताओं की जकड़न में जकड़े तथाकथित आधुनिक और शिक्षित लोगों की वैचारिक अंधता का खुलासा किया गया है। संतोषी माता के व्रत द्वारा मुँहमांगी मुराद मिल जाती है अथवा काले कुत्ते की सेवा से शनि का प्रकोप टल जाता है, ऐसे कितने ही अंधविश्वास आज भी प्रचलित हैं और उन्हें निभाने के चक्कर में लोग न जाने कैसे-कैसे पापड़ बेलते है, यह इस कहानी को पढ़कर सहज ही समझ में आ जाता है।
अंत में हम यही कह सकते हैं कि हमारे रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े छोटे-बड़े कितने ही प्रश्नों, समस्याओं और धार्मिक अंधविश्वासों की टोह लेते हुए कथाकार कबीर संजय समकालीन जीवन को बखूबी शब्दबद्ध करते हैं।
हिन्दी कथा साहित्य में अपनी साफगोई और विशेष कहन शैली के लिए प्रसिद्ध कथाकार राकेश मिश्र अपनी कहानियों की आंतरिक बुनावट में अकादमिक उद्धरणों और विश्वविद्यालयी परिवेश के आकलन के लिए विशेष रूप से चर्चित हैं। राकेश बिहारी के शब्दों में, ”राकेश मिश्र की कहानियों में पाठ और आलोचना के नए औजारों की माँग के समानान्तर बौद्धिकता के आतंक की धमक भी लगातार सुनाई देती है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संभावनाआें और सीमाओं के इन रसायनों से निर्मित कहानियों में आज के समय की त्रासदी भी सुनाई पड़ती है और विडंबनाओं से भरे समकालीन यथार्थ की टीस भी।“22 राकेश मिश्र के कहानी संग्रह ‘लाल बहादुर का इंजन’ का हिन्दी साहित्य में खुले मन से स्वागत हुआ और उनकी यह कृति पुरस्कृत भी हुई। उक्त कहानी संग्रह में शोक, परिवार (राज्य) और निजी सम्पत्ति, स्थगन के शिल्प में, लाल बहादुर का इंजन, अम्बेदकर हॉस्टल, ....बुरा है शैतान और लगभग हमउम्र शीर्षक वाली सात कहानियां सम्मिलित हैं।
‘शोक’ कहानी कथा नायक संदीप द्वारा अपने मित्र संजय की पुत्री के निधन पर शोक व्यक्त करने पैतृक गाँव भुसावल जाने पर आधारित है। छोटे कस्बों और गाँवों में रहने वाले लोगों द्वारा रोज़गार के लिए महानगरों में आकर बसने, खुशी या गमी के अवसरों पर अपनी जड़ों तक लौटने और स्मृतियों के झरोखे से झाँकती पुरानी यादों के बहाने जीवन के पन्ने पलटने के रोमांच को यह कहानी बखूबी बयान करती है।
कहानी ‘परिवार (राज्य) और निजी सम्पत्ति’ धीरज पांडे जैसे कद्दावर नेताओं द्वारा जुगाड़ बिठा कर पैंतरेबाजी के दम पर रातों-रात प्रतिष्ठा के झंडे गाड़ देने और सत्ता की धौंस दिखाकर अपने लिए और अपने चहेतों के लिए पुरस्कार, सम्मान, धन और पद हासिल करने को ही अपना धंधा बना लेने के कथा-बिन्दु पर केन्द्रित है। लेखक एक ओर सत्तासीन नेताओं के हाथों की कठपुतली बन चुकी व्यवस्था की टोह लेता है वहीं शार्टकट अपना कर शिखर छूने का सपना देखने वालों को चेताता भी है कि धरती पर बिना पैर जमाए आकाश छूने वाले एक दिन औंधे मुँह गिरते हैं।
‘स्थगन’ कहानी तीन ऐसे मित्रों की कथा है जो रोजगार पाने के लिए अपने पैतृक क्षेत्र को छोड़कर राजधानी दिल्ली में बस जाते हैं और महानगर की तेज गति से तालमेल बिठाने की आपाधापी में मानो स्वयं के हाथों छूटते चले जाते हैं। रोज़गार के अभाव में महानगरों की ओर कूच करने की बेबसी हमारे तंत्र और व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता है।
‘लाल बहादुर का इंजन’ उच्च शोध संस्थानों में बड़े पैमाने पर होने वाली शोध की उपादेयता पर प्रश्न लगाते हुए लाल बहादुर नामक एक सच्चे शोधार्थी के अनूठे अविष्कार की कथा है। लालबहादुर एक ऐसा इंजन बनाना चाहता है जो हवा से चलेगा और सर्वसुलभ होगा क्योंकि हवा अमूल्य है, वह बेची और खरीदी नहीं जाती अतः सब की पहुंच के भीतर है। परंतु लालबहादुर को उसके सहपाठी साजिश में उलझा कर मानसिक रूप से कमजोर घोषित करवा देते हैं और एक सच्चा प्रतिभावान विद्यार्थी व्यवस्था के कुचक्रों में फंस कर अपने सपने को पूरा करने से वंचित ही रह जाता है।
‘.......बुरा है शैतान’ कहानी प्रेम मनोभाव की मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म पड़ताल करती है। प्रेम में बार-बार धोखा मिलने पर व्यक्ति आत्म हीनता की दलदल में धंसता चला जाता है, ऐसे व्यक्ति कई बार अपराधी बन जाते हैं, कभी मनोरोगी और कभी शैतान।
कहानी ‘लगभग हमउम्र’ अरुण और रिम्पी नामक दो हम उम्र किशोरों की प्रेम कथा से आरंभ होकर रिम्पी के परिवार की डाँवाडोल आर्थिक स्थिति, रिम्पी के भाई के पागलपन के कारण एक बिजनेसमैन द्वारा खुलेआम आर्थिक मदद और पैसों के बल पर धीरे-धीरे सारे परिवार मुख्यतः रिम्पी पर काबिज होने की मंशा के खुलने पर आगे बढ़ती है। अशोक मंहगे उपहार देकर रिम्पी को अपने जाल में उलझा लेता है और रिम्पी के माता-पिता भी इस मुनाफे के सौदे को चुपचाप मंजूरी दे देते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि राकेश मिश्र अपनी कहानियों में आधुनिक युग के बेहद जरूरी सवालों को उठाते हैं और समाधान देने की आदर्शवादिता से परे समस्याओं का यथार्थपरक उद्घाटन करते हैं। सारांश यही है कि, ‘‘हमारे समाज में तीव्र बदलाव को समझने के लिए राकेश मिश्र एक जरूरी और अपरिहार्य कहानीकार हैं।’’23
कहानी के समकाल का युवा परिदृश्य संभावनाओं की उर्वर धरती में अँकुरित हो रहे उन प्रयोगधर्मी रचनाकारों का पर्याय है जिन्होंने विषय कथन और शैल्पिक बुनावट में कथा-जगत् की कई स्थापित परम्पराओं को नकारा है। युवा कहानीकारों पर समय-समय पर कई आक्षेप लगते रहे हैं, कई बार उनके साहित्य को रिपोर्ताज की श्रेणी में रखा गया और कभी उसे अखबारी कह कर खारिज करने की बहस भी सरगर्म रही। यह सही है कि युवा लेखन मात्र आदर्शों को ओढ़ने के लिए तैयार नहीं है, वह इस विघटनकारी वर्तमान के यथार्थ को ज्यों का त्यों अपने साहित्य में प्रतिबिम्बित करना चाहता है परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके लेखन में भावनाओं का स्पंदन अनुपस्थित है अथवा जीवन की सकारात्मकता से रूठ कर वह मात्र नकार की अभिव्यक्ति पर ही बजिद है।
युवा रचनाकार अपने समय के अंधेरों में रची-बसी रोशनियों के भी हिमायती हैं और प्राचीनता के साथ नवीनता के उद्घोषक भी क्योंकि उनका युग नया है, उनकी सोच नई हैं और सबसे बढ़कर वह स्वयं नए हैं। रोहिणी अग्रवाल के शब्दों में, ‘‘युवा लेखन के पास सिर्फ दलदल नहीं। स्वस्थ सकारात्मक मानवतावादी दृष्टि भी है। क्यों न उसे उकेरा जाए-उन मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए जिनके होने से व्यक्ति अपने भीतर की मनुष्यता को चीन्हता है, पास खड़े दूसरे व्यक्ति में उसका अक्स देखता है और प्रसार करता चलता है दूर तलक।’’24 निस्संदेह कथा का समकाल बहुमुखी प्रतिभाओं का समकाल हैं जिन्होंने कथा-जगत् के प्रचलित मुहावरों को तोड़ कर कहन की एक नई शैली विकसित की है। इस काल के साहित्य के केन्द्र में कहानी विधा है और कहानियों के केन्द्र में जीवन
सन्दर्भ सूची
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2. रोहिणी अग्रवाल, समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार, आधार प्रकाशन, पंचकूला, सं. 2012, पृ. 17
3. रोहिणी अग्रवाल, जनसत्ता, रविवारी, 22 जनवरी 2017
4. दैनिक भास्कर संवाद सीरिज़, कलम, 21 मार्च 2017, रायपुर
5. चंदन पाण्डेय, आनंद से बाहर के संसार में खुलती खिड़की, नवभारत टाइम्स, 15 फरवरी, 2017
6. नीलाक्षी सिंह, इब्तिदा के आगे खाली ही, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2016, पृ. 180
7. रोहिणी अग्रवाल, फेसबुक वाल, 10 मई 2017
8. राजीव कुमार, इंडिया टुडे, 4 अक्तूबर 2017, पुस्तक समीक्षा
9. रोहिणी अग्रवाल, आशुतोष की कहानी ‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी पढ़ने के बाद, फेसबुक वाल 28, दिसम्बर, 2015
10. गीता श्री, अपने समय से संवाद करती कहानियां, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
11. अर्पण कुमार, समालोचन, ब्लॉग स्पाट
12. ज्योति चावला, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, फ्लैप पृ.
13. ज्योति चावला, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, पृ. 76
14. धमेंद्र सुशांत, कथा-समय, स्पअम हिन्दुस्तानण्बवउ, 9 जुलाई 2016
15. वेब दुनिया, देहात की दुर्दशा ने बनाया कथाकार, माहीमीत को दिए गए साक्षात्कार में
16. रोहिणी अग्रवाल, काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, फ्लैप पृ.
17. शिवकुमार यादव, कहानी में समय का सच, समीक्षा संवाद, वागर्थ, अक्टूबर 2017, पृ. 106
18. उमा शंकर चौधरी, कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2013, फ्लैप पृ.
19. विमल चन्द्र पाण्डेय, मस्तूलों के इर्दगिर्द, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2013, फ्लैप पृष्ठ
20. समालोचन, कथा-गाथा, विमल चन्द्र पाण्डेय, समालोचन ब्लॉग स्पॉट
21. प्रमोद कोवप्रत, (सं), हिन्दी दलित साहित्य एक मूल्यांकन, डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख, सत्यापित सत्तातंत्र के पाखंड का पर्दाफाश, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृ. 39-40
22. राकेश बिहारी, गद्य कोश, आंदोलन रहित समाज में कहानी का भविष्य
23. हिन्दी पुष्प, वर्धा, 22 अप्रैल 2017, फेसबुक.कॉम
24. रोहिणी अग्रवाल, हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ. 174-175
डॉ ऋतु भनोट
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डॉ ऋतु भनोट
डॉ ऋतु भनोट |
हम जिस समय में से होकर गुज़र रहे है, यह हमारा समकालीन है या यूं भी कहा जा सकता है कि एक ही काल खंड में उपस्थित मनुष्य समकालीन होते हैं। समकाल की अवधारणा मात्र कालखंड पर अवस्थित न होकर उस काल विशेष की विभिन्न प्रवृत्तियों, सामाजिक-राजनीतिक क्रियाओं-प्रतिक्रियाआें, जन मानस के भीतर खदबदाती आकांक्षाओं और उन आकांक्षाओं के बरक्स खौलती सच्चाइयों का समपुंज भी होती है। ‘‘कथा कहना यानी चिंतन से अनुभव तक और अनुभव से सीधे जीवन तक आना होता है।’’1 कथाकार कथा के माध्यम से अपने युग बोध के आधार पर संचित अनुभवों को शब्दों में पिरोकर अपनी रचनाधर्मिता का परिचय देता है। साहित्यकार की रचना उसकी कल्पनाशीलता, सपनों की अभिव्यंजना में सिद्धहस्तता और शाब्दिक अभिव्यक्ति के पैनेपन से चालित-परिचालित होती है। साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में आधुनिक युग कथा काल है और इस कथाकाल की निर्मिति में स्थापित रचनाकारों के साथ-साथ अपनी जगह तलाशते युवा रचनाकारों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ‘‘समकालीन कहानीकारों ने क्राइसिस को आर-पार देख, भोग कर मानवीय संवेदनाओं से लबरेज़ नई भाव-भूमि पर नवीन कथा-सूत्रों से पगी हुई कहानियां रची हैं। बेशक समकालीन कहानीकार भावना या आदर्शीकरण की रौ में बहकर किन्ही आरोपित समाधानों की तलाश में स्थिति की भयावहता को कमतर करके नहीं देखता लेकिन अमानवीय स्थितियों के साथ मानवीय संवेदनाओं की टकराहट से उत्पन्न होने वाली अनुगूंजों को भी अनसुना नहीं करता। ‘‘ 2
विमल चंद्र पांडेय कृत मस्तूलों के ईद-र्गिद, उमाशंकर चौधरी कृत कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां, कैलाश वानखेड़े कृत सत्यापन, सत्यनारायण पटेल कृत काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस, ज्योति चावला कृत अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, राकेश मिश्र कृत लाल बहादुर का इंजन, वंदना राग कृत ख़यालनामा, प्रत्यक्षा कृत एक दिन मराकेश, तरुण भटनागर कृत जंगल में दर्पण, कबीर संजय कृत सुरखाब के पंख, शिवेन्द्र कृत चाकलेट फ्रेंड्स और अन्य कहानियां, नीलाक्षी सिंह कृत इब्तिदा के आगे खाली ही, किरण सिंह कृत यीशू की कीलें, मनोज पाण्डेय कृत खजाना और आशुतोष कृत उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी इत्यादि कुछ ऐसे कहानी संग्रह हैं जो मात्र कहानी के समकाल के प्रति रचनात्मक समझ पैदा करने में सक्षम ही नहीं अपितु इनमें शिल्प की नई गढ़न, भावों की अभूतपूर्व उड़ान और अपने युग-समाज की सच्चाइयों का बेबाक साक्षात्कार दर्ज है। इन कथाकारों की कहानियां अपने समय की बर्बर अमानुषिकताओं में दबे-घुटे अंतिम व्यक्ति की चीख भी हैं और अंसभव परिस्थितियों से टकरा कर संभावनाआें की उर्वर भूमि तैयार करने का अदम्य संकल्प भी।
शिवेन्द्र का कहानी संग्रह ‘चॉकलेट फ्रेंड्स एवं अन्य कहानियां’ में राजकुमार घुटरू, नटई तक माड़-भात खाने वाली लड़की और बूढ़ा लेखक, चॉकलेट फें्रड़्स, लव जिहाद तथा कहनी नामक पाँच कहानियां संकलित हैं। पारम्परिक शैली के विपरीत शिवेन्द्र की कहानियां मिथकीय शैली में कथा का ऐसा समकाल रचती हैं जहां कहानी प्राचीन काल से प्रकट होकर समय के झरोखे से चुपचाप झांकती हुई वर्तमान में उपस्थित रहती है और लोक-कथाओं के ताने-बने में सिमटे-लिपटे कितने ही कथा सूत्र लुका-छिपी के खेल की मानिंद कभी उजागर हो उठते है और कभी रहस्यात्मकता के आवरण में छिप जाते हैं। स्वप्नलोक के बाशिंदे राजकुमार घुटरू का मृत्युलोक के लुटेरों द्वारा सर्वस्व लूट लेना जहां उसे नामविहीन, पहचान-शून्य एक आम व्यक्ति में तब्दील कर देता है वहीं उसके सामने यह कड़वा सत्य भी उजागर करता है कि मनुष्य का महत्त्व उसके गाँठ के पैसों और वैभव के प्रदर्शन मात्र से ही आंका जाता है।
‘नटई तक माड़ भात खाने वाली लड़की’ सपने देखने की हिमाकत करने वाली और उन सपनों को पूरा करने पर बजिद एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो प्रेम चाहती है, सम्मान चाहती है, संभावनाओं के आकाश में पंख पसार कर उड़ जाने की आजादी चाहती है। वह अपने भीतर क्रांति के बीज वैसे ही समाए है जैसे उसकी अँकुआती कोख में जीवन पाती संभावनाएं। सागर की लहरों से बतियाते चारों युगों की परिक्रमा करके उक्त कहानी के लेखक की तलाश जिस लड़की पर पूरी होती है, वह उस देश की निवासी है जहां ‘इतिहास एक कविता है और लड़की मिथक‘। (पृ 36) एक अंसभव की तलाश करती यह कहानी प्रत्येक संभावना को अपनी शक्ति बनाने की जिद का ही परिणाम है।
‘चॉकलेट फ्रेंड्स’ कहानी हमारे आस-पास बसने वाले लोगों के साधारण जीवन और उस जीवन से जुड़ी अनेकानेक समस्याओं को जादुई स्ांस्पर्श से सहलाते हुए कभी परियों की बात छेड़ती है, कभी वंडरलैंड वाली एलिस के साथ हंसती-बतियाती है, कभी आँसुओं के तालाब में ऊब-चूब करते हुए भविष्योंन्मुखी सपने बुनती है और कभी जादूगर के भीतर जलते -बुझते जादू के द्वारा एक-एक कर घर छोड़ जाने वालों को अपनी जड़ों तक लौटा लाने की असंभव सी कोशिश को अंजाम देना चाहती है। कंक्रीट के जंगल में विलुप्त हो रही गोरैया के प्रति अपने सरोकार की बौद्विक जुगाली करने वाले उत्तरआधुनिक युग के मानव और प्रकृति में उत्तरोत्तर बढ़ते अंतराल की कहानी है-‘लव जिहाद’। हम ऐसे खतरनाक समय में जिंदा हैं जब सपने मर रहे हैं, प्रेम मुरझा चुका है, स्वार्थ फल-फूल रहा है और अस्तित्व के संकट से जूझता हुआ मनुष्य जीवन की सभी खूबसूरत अभिव्यक्तियों से खाली होता जा रहा है।
‘कहनी’ कहानी राजकुमारी भागवंती और राजकुमार के माध्यम से पितृसत्ता के हाथों शोषित स्त्री की सार्वकालिक कथा है। सौतिया डाह की नई परिभाषा गढ़ती यह कहानी पुरुष सत्ता के अभेद्य दुर्ग में सेंध लगाने वाली स्त्री को स्त्री के ही विरू़द्ध खड़ा करने के सनातन षड्यंत्र का पर्दाफाश करती है। जादूगर, राजकुमार, रानियों और पारियों वाले कथा- वितान को रचते हुए शिवेन्द्र आधुनिक युग की समस्याओं का इतना सूक्ष्म ब्योरा प्रस्तुत करते हैं कि जहां उनकी कहानी कहने की कला चमत्कृत करती है वहीं अपने परिवेश और समय के प्रति उनकी वचनबद्धता स्वतः ही ध्यान आकृष्ट करती है।
कहानी के समकाल का समर्थतम हस्ताक्षर ‘किरण सिंह’ का कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें, निषेधों और वर्जनाओं का अतिक्रमण करते हुए मनुष्य की जिजीविषा की पक्षधरता करता है। ‘‘यीशू की कीलें’ परंपरा, इतिहास, विचार-तीनों के अंत की घोषणा के बीच तीनों को पुनर्जीवित करने का हठीला आख्यान है। समय किसी एक पल या खंड की नोक पर सवार होकर इन कहानियों में झिलमिला कर गायब नहीं होता, अपने पूरे कालचक्र के साथ उपस्थित होकर व्यवस्था की गुंजलकों से टकराता है।’’3
द्रोपदी पीक, कथा सावित्री सत्यवान की, ब्रह्म बाघ का नाच, जो इसे जब पढ़े, यीशू की कीलें, हत्या, देश-देश की चुडैलें तथा संझा नामक आठ कहानियां इस सग्रह में संगृहीत हैं। उक्त संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कहानी ‘द्रोपदी पीक’ दो समानान्तर कथा बिन्दुओं पर एक साथ आगे बढ़ती है-घुंघरू की कथा और पुरुषोत्तम की कहानी। द्रौपदी पीक की आरोहण यात्रा में घुंघरू और पुरुषोत्तम संन्यासी के मन जैसे निर्विकार प्रदेश में प्रकृति के विराटत्व का साक्षात्कार करते हुए अपनी-अपनी मनोग्रन्थियों के उलझे धागों को सिरे से खोलने की चेष्टा करते हैं। पंथहीन, पदचिह्नहीन और सम्बंधविहीन ऊर्ध्वता की यह यात्रा सांसारिकता के आवरण को भेदती हुई द्रोपदी और घुंघरू के भीतर साक्षीभाव का आह्वान करती है और इस आह्वान से मंत्रबिद्ध, आवेष्टित पाठक भी अपने अन्तर्मन को खंगालते हुए जीवन की नंगी सच्चाइयों से परिचय पाता है।
‘संझा’ कहानी थर्ड जेंडर के माध्यम से व्यक्ति के भीतर उमड़ती-घुमड़ती जिज्ञासाओं, जीवन एवं अस्मिता से जुडे़ प्रश्नों और उन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने की प्रक्रिया में लहूलुहान होती संवेदनाओं को उकेरते हुए ‘संझा’ के माध्यम से जन्मजात शारीरिक व मानसिक कमियों की पड़ताल के पश्चात् इस निष्कर्ष पर जाकर परिणति को प्राप्त होती है कि परफेक्शन अथवा सम्पूर्णता नाम की कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। मनुष्य को अपने इस अधूरेपन के साथ ही जीना और निबाहना होता है।
‘कथा सावित्री सत्यवान की’ स्थूल रूप से स्त्री की उस छवि को परोसती है जो देह को हथियार बना कर पुरुष का शिकार करने और उसका मनमाना लाभ उठाने में सिद्धहस्त है परंतु सूक्ष्म रूप से यह कहानी स्त्री विमर्श की एक नवीन परिभाषा गढ़ते हुए स्त्री के भीतर विराजमान उस अदृश्य शक्ति का बयान है जो यदि अपने पक्ष में खड़ी हो जाए तो पितृसत्ता की चूलें हिला सकती है।
‘बह्मबाघ का नाच’ कहानी वर्चस्व की महत्त्वाकांक्षा के भीतर अदृश्य रूप से पनपने वाले उस भय का वृत्तांत है जिसमें अकर्मण्य, रीढ़विहीन और अपने पैरों पर खड़ा हो पाने में अक्षम हमारी भावी पीढ़ियों द्वारा किसी आदर्श की अनुपस्थिति में अपनी अस्मिता के संघर्ष को भूल कर भटकाव का शिकार हो जाने की परिकल्पना है।
‘यीशू की कीलें’ राजनीतिक परिदृश्य में स्त्री के संघर्ष और युग समाज में उसकी कठपुतली समान उपस्थिति की भयावह सच्चाई का उद्घाटन करने के साथ-साथ प्रत्येक दर्द के पीछे ताकत बन कर खड़ी होने वाली उसकी स्त्री सुलभ संवेदनशीलता, दुर्दम्य जिजीविषा और सवप्नशीलता की बानगी भी प्रस्तुत करती है। किरण सिंह का कहानी संग्रह ‘यीशू की कीलें’ कथा के समकाल में कालचक्र की विविध गतियों को मापता, भांपता एक ऐसा आख्यान गढ़ता है जिसकी मिसाल अन्यत्र दुर्लभ है।
प्रत्यक्षा का कहानी संग्रह ‘एक दिन मराकेश’ समकालीन समय में कई युगों को कलमबद्ध करते हुए स्वप्न और यथार्थ दोनों धरातलों पर एक साथ यात्रा तय करता है। फैंटेसी रचती यह कहानियां एब्सट्रेक्ट के झीने पर्दे से निकल कर कभी छम से हमारे सामने आ उपस्थित होती हैं और कभी रहस्यलोक के सुरमई अंधेरे-उजाले में विलीन हो जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक प्यास है, एक अतृप्ति है, एक खोज है जो उसके आत्मबोध से उपजती है और आत्म साक्षात्कार पर जाकर पूर्ण होती है। यही उसका मराकेश है। मनुष्य की अरूप भावनाओं को शब्दबद्ध करती प्रत्यक्षा कहती हैं, ‘‘मराकेश का मतलब सपनों के संसार से है। एक ऐसी दुनिया जहां हम होना चाहते हैं। मराकेश वो सब लोग हैं जो हम होना चाहते हैं। हमारे जीवन का सबसे चमकता सितारा, सपनों का ध्रुवतारा, बचपन का टिनटिन, हमारी जवानी के देव आनंद, सबसे सुहाना गाना, हमारा पहला और दूसरा प्यार और इसके बाद की अनगिनत मोहब्बतें। ये सब कुछ ही है मराकेश।’’4
प्रस्तुत संग्रह में छोटी-बड़ी 12 कहानियां संगृहीत हैं। ‘मीठी ठुमरी’ स्त्री-पुरुष सम्बंधों में आने वाले अंतराल की कहानी है, ऐसा अंतराल जो दिखाई नहीं देता परन्तु धीरे-धीरे सब कुछ लील जाता है। प्रेम, अपनत्व, सम्बंधों की ऊष्मा, और तो और अपनी पहचान भी वक्त के चाक पर घूमते हुए कहीं खो जाती है। इस गुमशुदा की पहचान को कोई वक्त के झरोखे से झाँक कर टटोले या फिर समय में व्याप्त अंतराल की झिर्रियों में, यह एक बेबूझ पहेली है।
‘दिल दो लड़कियाँ और एक इतना सा नश्तर’ दो विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों से सम्बंधित लड़कियों शर्मिला व नदीन की ऐसी कथा है जो स्त्री के अन्तर्मन की टकराहटों, पुरुष से परे अपने अस्तित्व को तलाशने की जिद, अपनी पहचान टटोलने के क्रम में बार-बार टूटने और टूट कर फिर साबुत जुड़ पाने की शक्ति की ईमानदार अभिव्यक्ति है।
‘भीतरी जंगल’, ‘ईनारदारा’, ‘हाय गजब कहीं तारा टूटा’, ‘सपने का कमरा उर्फ रात में कभी-कभी दिन भी होता है’ स्त्री-मन के उस एकांत की कहानियां हैं जहां सपने पलते हैं, कल्पना के रंग सजते हैं और तमाम बाधाओं से परे मन प्रेम के हिंडोले पर झूलते हुए सतरंगी फुहारों से भीग-भीग जाता है। प्रत्यक्षा की कहानियां कविता जैसे कलेवर में सपनों की महीन बुनावट से बुनी हुई मनुष्य के अंतर्जगत की अभिव्यक्ति हैं, तभी तो उनमें एक साथ फैंटेसी, कविता, भावनाओं का आरोह-अवरोह और एक गहरी छटपटाहट दर्ज है जो अपने मराकेश की प्राप्ति पर ही शांत होती है।
‘‘जीवन की तीन प्रमुख गुत्थियों स्मृति, इंतज़ार और मृत्यु को हर गंभीर रचनाकार अपनी रचना का विषय बनाता है और आजीवन अपनी रचनाशीलता के जरिए अनवरत उनसे जूझता है। नीलाक्षी सिंह ऐसे ही रचनाकारों में से एक हैं कहानी की जमीन पर वह तकनीक, समाज और राजनीति की नई अवधारणाओं, विकसित भाषा कें औजारों का बखूबी इस्तेमाल करती हैं।’’5
‘इब्तिदा के आगे खाली ही’ नीलाक्षी सिंह द्वारा रचित ऐसा कहानी संग्रह है जिसमें कुल जमा तीन लम्बी कहानियां हैं- ‘इब्तिदा के आगे खाली ही’, ‘लम्स बाकी’ और ‘बाद उनके।’ नीलाक्षी सिंह की कहानियां बाजारवाद के दौर में चकाचौंध से ऊबे हुए महानगरीय जीवन की भीड़ में अकेले छूट गए युवाओं की पीड़ा भी दर्ज करती हैं और संवेदनाशून्य सम्बंधों को ढोने की विवशता को बयान करने के साथ-साथ शिक्षा के व्यावसायीकरण और चिंदी-चिंदी हो रही मानवीय आस्था को सहेजने की सार्थक पहल की पक्षधरता भी।
‘इब्तिदा के आगे खाली ही’ में कुकुरमुत्ते की मानिंद देश में जगह-जगह खुले हुए तकनीकी शिक्षण संस्थानों, उनके लुभावने विज्ञापनों और बढ़िया नौकरी के सपने बुनते युवाओं के साथ प्लेसमेंट के नाम पर होने वाली धोखाधड़ी का पर्दाफाश किया गया है। बैंकों से कर्जा लेकर इन शिक्षण संस्थानों की मोटी फीस चुकाने वाली युवा पीढ़ी डिग्रीधारक तो बन जाती है परंतु हाथ खाली ही रह जाते हैं। कर्जे का दुष्चक्र, सपनों का व्यापार और अंततः खाली छूट जाने की पीड़ा की कसक ही इस कहानी का मूल कथानक है।
कहानी ‘लम्स बाकी’ दो ऐसे अजनबियों की कहानी है जो सामना होने पर हमेशा एक-दूजे की खिलाफ़त करते हैं मगर भाग्य उन्हें अनजान राहों पर बार-बार मिलवाता रहता है। नियति अपना पांसा फैंकती है और दोनों को शनैः-शनैः परस्पर प्रेम हो जाता है। ऐसा प्रेम जो प्रतिदान नहीं चाहता, सीमारेखा नहीं खींचता, जो देना जानता है, उलीचना चाहता है और जो ना कुछ होने में ही पूर्णता अनुभव करता है।
‘बाद उनके’ कहानी की पात्र कौशिकी सक्सेना बाहर की दुनिया के लिए एक ब्रोकर है लेकिन अपने निजी एकांतिक संसार में वह मूर्तिकार है। बाहर की दुनिया की सारी कड़वाहट को बटोर कर वह मूर्तियों के रूपाकार गढ़ती है, मन की अतृप्ति से मूर्तियों को जीवंतता प्रदान करती है। उसकी भीतरी दुनिया में एक ऐसा व्यक्ति घुसपैठ करता है जो सजायाफ़्ता है और पैसों के तराजू में ही सारी भावनाओं को तौलता है। एक तीसरा पात्र भी है जो शेष दोनों पात्रों के जीवन की संभावनाओं को पलट कर रख देता है। स्व को पाने की छटपटाहट और अपने अस्तित्व के मायने तलाश कर उनसे जीवन की सूनी कैनवास में रंग भरने की कवायद इस कहानी का मूल स्वर है। अर्धनारीश्वर अर्थात् नारी में नर और नर में नारी का समभाग है, इस समभागिता की स्वीकारोक्ति लेखिका कहानी के अंत में यो दर्ज करती है, ‘‘वह प्रतिभा एक साथ आदमी और औरत दोनों के होने का भ्रम दिला रही थी। एक उम्र के बाद आदमी और औरत अपना शारीरिक अंतर खो देते हैं।’’6
मनोज कुमार पाण्डेय एक सजग और गहरे भाव बोध से परिपूर्ण कहानीकार हैं। धर्मगत षड्यंत्र, राजनीतिक दाँव पेंच और परिवेशगत चुनौतियों के प्रति उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता उन्हें कथा के समकाल में विशिष्ट बनाती है। मनोज कुमार का कहानी संग्रह ‘खजाना’ सामाजिक और राजनीतिक जकड़बंदी के विरुद्ध असहमति दर्ज करता हुआ कहानी-दर-कहानी अपनी सर्जनात्मक सामर्थ्य के द्वारा न सिर्फ चमत्कृत करता है अपितु शैल्पिक सधाव के नवीन मानक गढ़ कर एक नई संभावना का संवाहक भी जान पड़ता है। ‘‘बेहद सूक्ष्म अभिव्यंजना की कहानियां है ‘खजाना’ कहानी संग्रह की सभी कहानियां। मानो समय, समाज व्यवस्थाओं और मान्यताओं की सारी विडंबनाओं को अपने नैरेटर में गूंथ दिया हो लेखक मनोज कुमार पाण्डेय ने। दरअसल नैरेटर के रूप में मनोज कुमार पाण्डेय जिस चरित्र को कथा के केंद्र में रखते हैं, वह उनके लेखकीय मंतव्य का संवाहक और भविष्य का विमर्शकार भी है। इसलिए अपनी तमाम सजगता और संवेदना को उसके चरित्र में गूंथ कर वे उसे अपने से पार देखने की गहरी अंतर्दृष्टि भी देते हैं।’’7 उक्त संग्रह में कुल आठ कहानियां हैं-चोरी, टीस, मदीना, खजाना, कष्ट, अशुभ, घंटा, मोह। अधिकतर कहानियों में नेरेशन का प्रयोग किया गया है।
‘टीस’ कहानी अध्यापकीय आदर्शों से रहित एक ऐसे अध्यापक और परिस्थितियों का शिकार विद्यार्थी पर केन्द्रित है जिनके बीच सम्मान अथवा श्रद्धा का सम्बंध न होकर भय का ही नाता है। विद्यार्थी की शारीरिक एवं मानसिक परेशानियों से असम्पृक्त यह अध्यापक उस नासूर जैसा है जो न तो पक कर फूटता है और न ही दब कर बैठता है, बस लगातार टीसता रहता है।
इस संग्रह की एक अन्य महत्त्वपूर्ण कहानी ‘खजाना’ समय में परिवर्तन के साथ लोगों की बदली हुई मानसिकता को उकेरती है जिसके तहत लोग मेहनत के बल पर सफलता प्राप्त करने के स्थान पर किसी गुप्त धन को पाने अथवा किसी चोर खजाने को हासिल करने के सपने पालते हैं। ऐसे सपने जीवन में निराशा और हताशा का संचार करते हैं और यह हताशा आत्महंता परिस्थितियों को रचते हुए जीवन को नर्कतुल्य बना देती है। ‘कष्ट’ कहानी अवसरों के अभाव में रचनात्मक प्रतिभाओं द्वारा भोगे जाने वाले कष्ट को शब्दबद्ध करते हुए अपने मनमाफिक फैसले ना ले पाने की स्थिति में हीन भावना का शिकार होकर मन ही मन घुटने वाले नैरेटर की पीड़ा का आख्यान भी रचती है।
‘मदीना’ कहानी पर्यावरण चेतना पर आधारित ऐसी कहानी है जो आधुनिक युग में मनुष्य की धर्मांधता और अंधविश्वासों की कलई खोलते हुए हमारी तथाकथित आधुनिकता पर करारी चोट करती है। शुभ-अशुभ की अदृश्य तलवार हम सबके सिर पर लटकती रहती है और जब-तब जीवन की छोटी-बड़ी खुशियों को काट कर हमसे अलग करती रहती है। ‘अशुभ’ कहानी भी हमारे समाज में प्रचलित धार्मिक मान्यताओं पर व्यंग्यात्मक प्रहार करती है और हमारे विभिन्न अंधविश्वासों पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए उनकी गिरफ्त से बाहर होकर जीवन जीने की हिमायत करती है।
‘घंटा’ कहानी सत्ता पर काबिज होने के षड्यंत्रों का ईमानदार बयान है। आधुनिक युग में सत्ता हथियाने के नाम पर जो दुष्चक्र चलाए जाते हैं और जो दुरभिसंधियां की जाती हैं, शिवराज सिंह के रूप में मनोज कुमार ने उनकी तह तक जाकर राजनीतिज्ञों की अवसरवादिता और पैंतरेबाजी की पर्तें उधेड़ कर रख दी हैं। ‘चोरी’ कहानी मनोविज्ञान पर आधारित है। मनोविज्ञान का नियम है कि मनुष्य स्वयं को जो समझता है वह समझ उसकी निजी मनःस्थिति न होकर उसके आस-पास रहने वाले लोगों के अभिमत पर अधिक निर्भर करती है। कहानी का नैरेटर परिस्थिति विशेष का शिकार होकर चोरी करता है और अपने अध्यापक, परिवार और अपने आस-पास के लोगों द्वारा चोर समझे जाने पर अपने अन्तर्मन में स्वयं को चोर ही समझने लगता है। ‘‘इस संग्रह की कहानियां बेचैन करने वाली कहानियां हैं। ये कहानियां न तो हमें अतीत से मोहग्रस्त होने देती हैं और न ही वर्तमान से गाफिल। मनोज हमें हमारी उन पहचानों की ओर खींचते हैं हम जिनसे बचकर निकलना चाहते हैं।’’8
आशुतोष का कहानी संग्रह ‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ मनुवादी सामाजिक संरचना में बदलाव की पैरवी करते हुए उस समाज की छवि चित्रित करता है जहां अभी भी सवर्णो का वर्चस्व है, परम्परा की बेड़ियों में जकड़ कर स्त्री का बदस्तूर शोषण जारी है, जहां अभी भी अंधविश्वासों का बोलबाला है और प्रेम तथा विवाह पर जाति, वर्ग और वर्ण के पहरे हैं। संग्रह में ‘उनके पर जानें और यह आसमाँ जानें’, ‘यही ठइयाँ नथिया हेरानी....’, ‘अगिन असनान, ‘आखिरी कसम‘, ‘घड़े का दुःख’, ‘ उम्र्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ नामक छः कहानियां दर्ज हैं।
‘उनके पर जाने और यह आसमाँ जाने’ ब्राह्मणों और राजपूतों के परस्पर जातिगत वैमनस्य के परिदृश्य में वैशाली और अभिजीत के प्रेम सम्बंधों को वोट बैंक का मोहरा भर बना दिए जाने के कूटनीतिक षड्यंत्र के माध्यम से छात्र राजनीति के कुत्सित चेहरे को सामने लाती है। ‘अगिन असनान’ कहानी उत्तरआधुनिक युग में मीडिया द्वारा दिन-रात परोसे जा रहे उस झूठ को उजागर करती है जो सच-झूठ को ऐसे गड्ड-मड्ड करके लोगों के समक्ष परोसता है कि सत्य की प्रमाणिकता पर ही संदेह होने लगता है। मीडिया के इस खेल में सत्तासीन वर्ग, व्यापारी समुदाय और प्रशासन तंत्र की भी सक्रिय भागीदारी होती है और सब इसे अपनी-अपनी तरह से भुनाने की कोशिश करते हैं। परम्परागत भारतीय समाज में जहां मर्द होना औरत को दबा-कुचल कर जब-तब उस पर धौल-धप्पा जमा कर अपना प्रभुत्व बनाए रखना ही माना जाता है वहां मगरु और सुनैना का प्रेम आधारित दाम्पत्य समाज की आंखों की किरकिरा बन व्यवस्था के हत्थे चढ़ जाता है। बंधे-बंधाए सामाजिक विधि-विधानों में रत्ती भर भी बदलाव व हस्तक्षेप की कीमत आज भी जान देकर ही चुकानी पड़ती है।
‘घड़े का दुख’ कहानी भारत में सरकारी कार्यालयों की सुस्त कार्यप्रणाली और बेकार की कागजी कार्रवाई पर व्यंग्य कसते हुए स्वतंत्र भारत के कार्यालयों का यथार्थ चित्र प्रस्तुत करती है। घड़ा खरीदने का छोटा सा कार्य कार्यालीय कार्यप्रणाली की पेचीदगियों का शिकार होकर एक से दूसरे कार्यालय तक महीनों फाइलों में ही बंद होकर घूमता रहता है और अन्ततः तीन हजार सात सौ बयासी पृष्ठ की एक लम्बी चौड़ी फाइल में तब्दील हो जाता है। इस फाइल की टिप्पणियों पर टिप्पणियां जुड़ती रहीं, कागजों का पुलिंदा बड़ा होता गया परंतु घड़ा सिरे से ही नदारद रहा।
‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी’ में सवर्ण प्रभुता वाले समाज में अस्पृश्य समझी जाने वाली डोम जाति के दलित युवक के प्रेम और समानता के स्वप्न का हश्र दिखाया गया है। दलित लोगों को लुभावने नारों के प्रपंच में उलझाकर सवर्ण मात्र उन्हें बहलाए रखना चाहते हैं। किसी दलित द्वारा शिक्षा प्राप्त कर ऊँचे पद पर आसीन होने और सवर्ण वर्ग में ब्याहे जाने की संभावना को भी वह अंकुरित होते ही मसल देते हैं। समाज के पास कई मुखौटे हैं जो वक्त, परिस्थिति और परिवेश की मांग के अनुरूप बदलते रहते हैं। इन मुखौटों के पीछे छिपा वास्तविक चेहरा बहुत घिनौना और घृणास्पद है। ‘‘सत्ता का चूंकि वर्चस्व धन की ताकत और धर्म की महिमा के बिना नहीं चल सकता इसलिए चक्की में पिसने के लिए बस वही एक वर्ण! आशुतोष की यह कहानी पढ़ने के लिए नहीं गुनने के लिये हैं।’’9
वंदना राग समकालीन कहानीकारों में प्रतिष्ठित नाम हैं। उनके कथानक और पात्र यथार्थ जीवन को प्रतिबिम्बित करते हैं और इनकी कहानियों में किस्सागोई की विशेषता उसमें रोचकता का पुट भर देती है। ‘‘सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और गहरे भावनात्मक प्रवाह और परिपक्व भाषा वाली वंदना जिस तरह जीवन की विडम्बनाओं और छवियों को रचती हैं, वह अनूठा है। ‘ख़यालनामा’ में ख्यालों चुप्पियों, शोर, शरारतों और जीवन के व्यापक यथार्थ को समेटती हुई कहानियां हैं।’’10 आज रंग है, आँखें, सिनेमा के बहाने, दो ढाई किस्से, ख़यालनामा, क्या देखो दर्पण म,ें उस साल, सब हार गए नामक सात कहानियों के इन्द्रधनुषी रंगों से सजा कहानी संग्रह ‘ख़यालनामा’ वंदना राग की लेखकीय प्रतिबद्धता का जीवंत उदाहरण है।
‘आज रंग है’ और ‘सिनेमा के बहाने’ हमारे समाज की राजनैतिक उठा-पटक और प्रपंचों पर केन्द्रित कहानियां है। हमारे समाज में प्रेम जैसे व्यक्तिगत सरोकार भी राजनैतिक हस्तक्षेप से अछूते नहीं हैं। राजनैतिक पद की ठसक के बहाने मनमानी करने की छूट राजनेताओं का जन्म सिद्ध अधिकार है, इसी अधिकार का गैर वाजिब प्रदर्शन ‘आज रंग है’ में खुल कर हुआ है। ‘सिनेमा के बहाने’ कहानी दो स्तरों पर खुलती है, जिसमें एक मुद्दा प्रवासी बिहारियों के महाराष्ट्र विस्थापन से जुड़ा हुआ है और दूसरे स्तर पर शलभ, राजीव व माधव नामक तीन पात्रों द्वारा सिने जगत में अपना स्थान बनाने की जद्दोजहद और उस जद्दोजहद को असंभव बनाने वाले राजनैतिक दबावों का किस्सा दर्ज है। ‘और उस साल सब हार गए’ 1942 में महात्मा गांधी द्वारा छपरा जिले में किए गए राजनीतिक आन्दोलन को केन्द्र में रख कर तत्कालीन सामंतों के दोगलेपन और अंग्रेजों के अत्याचार से संत्रस्त भारतीय जनता की दुःखद स्थिति का कारुणिक चित्र प्रस्तुत करती है।
‘आँखें’ और ‘दो ढाई किस्से’ स्त्री प्रश्न के इर्द-गिर्द घूमने वाली कहानियां हैं। पहली कहानी लड़कियों की परम्परागत छवि से परे मुँह जोर और बेपरवाह किस्म की लड़कियों डेजी, रीना, नेहा, संजना और लफ्फाज के माध्यम से स्मृतियों के वातायन में चोर आंखों से ताँक-झाँक करते हुए लड़के और लड़कियों के होने और बड़े होने के फर्क को बाँचती है। ‘दो ढाई किस्से’ एक ऐसी युवती की कहानी है जिसका पति काम की तलाश में घर से गया और फिर कभी नहीं लौटा। वह स्त्री न तो ब्याहता है, न विधवा, न परित्यक्ता और न ही समाज में समादृत पतिव्रता। ऐसी स्त्री समाज में हेय समझी जाती है और पति रूपी चरित्र प्रमाण पत्र की अनुपस्थिति में समाज उसे चरित्रहीन, कुलटा एवं छिनाल तक कहने से भी गुरेज नहीं करता।
‘क्या देखा दर्पण में’ कहानी धोखे की नींव पर निर्मित रिश्तों के घातक परिणामों से अवगत कराते हुए संबंधों के जटिल समीकरणों से हमारा परिचय करवाती है। ‘‘कहा जा सकता है कि वंदना के पास कहानियों का अपना खजाना है और कहन का खास अंदाज़। वन्दना राग का कहानीकार अपनी ओर से बहुत जजमेंटल नहीं होता। वह अपने पात्रों में से किसी एक के साथ खड़ा होने में यकीन नहीं रखता। ....अतः पाठकों को वहां गलदश्रु भावुकता कम ही मिलती है।’’11
अपने पहले कहानी संग्रह से हिन्दी कथा जगत् में विशेष स्थान बनाने वाली ज्योति चावला से हिन्दी साहित्य का परिचय एक कवियत्री के रूप में हुआ था। उनका काव्य लेखन जितना प्रौढ़ और परिपक्व है, उनकी कहानियों में भी जीवन की नब्ज टटोलने की वही क्षमता दिखाई देती है। ‘‘ज्योति के पास अपने समय को लेकर बहुत कन्सर्न हैं और चिंताएं भी इसलिए ये कहानियां अपने समय की धड़कन सी बन गई हैं।’’12 ज्योति चावला की कहानियां स्त्री मन का प्रतिबिम्ब हैं। इन कहानियों में स्त्री पीड़ा, स्त्री का शोषण और समाज की विभिन्न पितृसत्ताक संस्थाओं से स्त्री के संघर्ष के बयान ही नहीं अपितु इन सब टकराहटों के बीच निरन्तर सशक्त होती स्त्री की विभिन्न छवियां भी अंकित हैं। बंजर जमीन, खटका, तीस साल की लड़की, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, बड़ी हो रही है मीताली, सुधा बस सुन रही थी, वह उड़ती थी तो तितली लगती थी, वह रोज़ सन्नाटा बुनती है नामक आठ कहानियां संगृहीत हैं।
‘बंजर ज़मीन’ की पम्मी अपने पति मलकीत की अयोग्यता के कारण मातृत्व सुख से वंचित है परंतु पुरुष वर्चस्व चालित हमारा समाज प्रत्येक परिस्थिति में दोष का ठीकरा स्त्री के सिर पर ही फोड़ता है। शारीरिक सुख से वंचित, पति का स्नेह स्पर्श पाने को आकुल पम्मी घर के भीतर ज्यों मछली बिन पानी तड़पती है और घर के बाहर ‘बंज़र ज़मीन’ कहलाती है। पत्नी की दिन-रात की छटपटाहट से अनभिज्ञ मलकीत समाज की नज़रों में उसे दोषी ठहराकर अपने झूठे दंभ को सहलाने में तुष्ट है ।
‘खटका’ कहानी राजीव और अनुष्का के सपनों की बुनावट में आधुनिक जीवन के तनावों, प्रश्नों और सरोकारों का जीवंत दस्तावेज़ कही जा सकती है। संघर्ष और परिश्रम के बल पर खुशहाल जीवन जीने की नन्हीं सी आशा उन्हें कैसे पल-पल तोड़ती चली जाती है और किस प्रकार जीवट साधे यह युगल प्रत्येक बाधा के पार निकल जाने की हर संभव कोशिश करता है, कहानी का यह ताना-बाना हमारे आस-पास घटित होने वाले रोज़मर्रा जीवन का ही अंश प्रतीत होता है। संतान सुख को टालने की विवशता अनुष्का के मन में दिन-रात खटकने वाली फांस बन जाती हैं, जहां बच्चे के जन्म से सम्बंधित उम्र की धारणाएं उसे चैन नहीं लेने देती और हजार-हजार आशंकाओं के बीच ऊब-चूब करते हुए वह अपने संघर्ष की सार्थकता टटोलती है।
‘तीस साल की लड़की’ कहानी में शुभांगी के माध्यम से समाज की उन जड़ परम्पराओं पर चोट की गई हैं जहां लड़की के शिक्षित और आत्मनिर्भर होने की अपेक्षा उसके शादीशुदा होने को अधिक तरजीह दी जाती है। एक विशेष उम्र पार कर जाने पर लड़की का अविवाहित होना उसके माता-पिता के लिए शर्म का बायस बनता है और लड़की के साथ कई प्रवाद जोड़ कर उसकी खामियां ढूँढने का सामाजिक कर्तव्य। इस कहानी में शुभांगी तमाम प्रतिरोध पार कर अपने पैरों के नीचे की जमीन खुद बनाती है और अपने पक्ष में खड़ी होती है।
‘वह उड़ती थी तो तितली लगती थी’ कहानी में उषा माँ न बन पाने की स्थिति में पारिवारिक दबाव में विभिन्न प्रकार के प्रयोगों को आज़माने की प्रयोगशाला बना दी जाती है। वह अपने पति से बहुत प्रेम करती है इसलिए सब चुपचाप सहर्ष सहने के लिए स्वयं को मनाती है लेकिन एक दिन उसका धैर्य चुक जाता है और वह प्रयोगशाला का चूहा बनने से साफ इनकार कर देती है।
‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ 1984 के दंगों की पृष्ठभूमि पर लिखी एक ऐसी कहानी है जो धार्मिक उन्माद में उजड़ते घर-परिवारों के साथ-साथ बलात्कार के रूप में बार-बार उजड़ती लड़कियों की पीड़ा को शब्दबद्ध करती है। प्रत्येक युद्ध स्त्री की देह पर अवश्य लड़ा जाता है, इसकी बानगी देश-विदेश में समय-समय पर होने वाले युद्ध, गृह-युद्ध और साम्प्रदायिक दंगों में देखने को मिलती है। उक्त कहानी में हरप्रीत 1984 के दंगों में अपने माता-पिता को खो देती है, बलात्कार का शिकार होती है, नाना-नानी के परिवार में आश्रय पाती है परंतु वहां पर भी मामा द्वारा उसके साथ वही अनहोनी दोहराई जाती है। ज्योति चावला के शब्दों में, ‘‘सच पूछा जाए तो स्त्री की देह की इस आहुति के लिए किसी दंगे की जरूरत नहीं। उसके लिए तो चौरासी कभी खत्म नहीं हुई।’’13
‘बड़ी हो रही है मीताली’ कहानी संवादहीनता के दौर से गुजर रहे रिश्तों में आपसी प्रेम और स्नेह की ऊष्मा टटोलने की सार्थक पहल है और ‘सुधा सब सुन रही थी’ एक ऐसी लड़की के जीवन को शब्दबद्ध करती है जो अपने जीवन के तीन महत्त्वपूर्ण पुरुषों-पिता, पति और प्रेमी द्वारा मंझधार में छोड़ दिए जाने पर अपनी नैया को तूफान के हवाले न करके खुद उसकी खेवनहार बनती है और जीवन को एक दिशा प्रदान करती है।
‘वह रोज़ सन्नाटा बुनती थी’ महानगरीय जीवन में सूखते परिचय स्रोतों के बीच आत्मालाप और एकालाप की दुर्वह स्थिति से जूझ रही राधा के माध्यम से चमक-दमक से लैस आधुनिक जीवन शैली की नींव में दबे अंधेरों का आख्यान है। अन्ततः यही कहा जा सकता है कि ज्योति चावला की कहानियां निराशा के अंधेरे टुकड़ों को जोड़कर यथार्थ का मुकम्मल चेहरा गढ़ने की सार्थक कोशिश हैं।
समकालीन कहानीकारों में चर्चित और समर्थ कहानीकार हैं तरुण भटनागर। विषय की विविधता और कहन का एक विशिष्ट अंदाज़ उन्हें विशिष्ट साहित्यकारों की जमात से जोड़ता है। ‘‘नगरीय जीवन की जटिलताएं हों या उससे अलग आदिवासी-जनजातीय जीवन के अदेखे-अजाने पहलू, तरुण उन सब पर पकड़ बनाए रखते हैं। वास्तव में वह मानवीय जीवन में आ रहे उन बदलावों को पूरी शिद्दत से रेखांकित करते है, जिन्होंने ‘आदमी को इनसान’ नहीं रहने दिया है।’’14 ‘जंगल में दर्पण’ तरुण भटनागर का लोकप्रिय कहानी संग्रह है जिसमें रोना, ज़हर बुझे तीर के बाद, जंगल में दर्पण, प्रथम पुरुष, दवा, साझेदारी और एक आदमी, टेबिल और गुम नामक सात कहानियां संकलित हैं जो जनजातीय जीवन, जंगल, पूंजीवादी वर्ग के ब्योरे पर ही समाप्त नहीं होती अपितु इतिहास और मिथकों के जादुई संसार को भी अपने कलेवर में समेट लेती हैं।
‘रोना’ कहानी मशीनीकरण के युग में कुंद संवेदनशीलता की भावभूमि पर मशीनी जीवन जी रहे मनुष्य की भयावह तस्वीर उकेरती है। किसी प्रियजन की मृत्यु पर किराए के रोने वालों का बंदोबस्त जहां हमारे भीतर सूख रही भावनाओं को दर्शाता है वहीं भविष्य के उसे सवेदनाशून्य समाज की ओर इंगित भी करता है जब मानवोचित संवेदनाओं के अभाव में मनुष्य चलती-फिरती मशीन मात्र बनकर रह जाएगा।
‘ज़हर बुझे तीर के बाद ’ बस्तर के जंगलों से जुड़ी वह अकथ कहानी है जिसमें आधुनिक सभ्यता के घटकों की घुसपैठ और सियासती चालाकियों की सेंधमारी के बावजूद जंगल के तनावरहित जीवन का खाका तैयार किया गया है। जंगल को मिटाकर विकास के नाम पर सम्पदा को हड़प लेने की लगातार रची जा रही साजिशों का पर्दाफाश करते हुए यह कहानी जंगल में जीवन की संभावनाओं को नई दृष्टि से टटोलती है। ‘जगल में दर्पण’ कहानी इतिहास के पन्नों में महानता के नाम पर दर्ज होने से महरूम बस्तर के जंगल के अदेखे-अजाने सच को उजागर करती है। स्वार्थ के नाम पर युद्ध और मार-काट से अनजान यह सभ्यता अभी भी जंगल के कायदे-कानून से ही चलती है। क्षुद्र लालसाओं से चालित बाहर की दुनिया के षड्यंत्र उन पर काबिज होने की ताक में है लेकिन जंगल इस पैंतरेबाजी से अछूता रहकर अपने नैसर्गिक स्वरूप में ही उपस्थित है इसीलिए महान सभ्यताओं में उसका नामोनिशान भी देखने को नहीं मिलता।
‘प्रथम पुरुष’ कहानी लिंगों पेन नामक एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो संगीत का अन्वेषक, स्वप्नद्रष्टा, नवीनता का पक्षधर और सपनों की उड़ान भरने वाला आदिम सभ्यता का प्रथम पुरुष है। परिवर्तन की हिमायत करने वाला प्रत्येक व्यक्ति समाज की नजर में दोषी होता है, लिंगो पेन भी इसका अपवाद नहीं। पेट और शरीर की आदिम भूख मात्र को जीने वाली आदिम सभ्यता में लिंगो पेन को खतरा समझा जाता है, क्योंकि आदिम युग में और आज भी दुनिया परम्पराभंजक और नवीनता के प्रति आग्रह रखने वाले व्यक्ति को स्वीकार नहीं करती, उसे अपने युग-समाज का बहिष्कार झेलना ही पड़ता है।
‘दवा, साझेदारी और एक आदमी’ भूख की बेबसी के बीच जीवन की संभावनाओं को तलाशने का ईमानदार प्रयास है। गरीब व्यक्ति परिस्थितियों के चक्रव्यूह में इस प्रकार से घिरता है कि एक ओर उसे दायित्वबोध खींचता है और दूसरी ओर रोटी की अनिवार्यता। जीवन की पक्षधरता का हिमायती होकर भी वह भूख के सामने लाचार है। इस कहानी का प्रमुख पात्र कैमिस्ट भूख, जीवन और सिद्धान्तों की आर-पार की लड़ाई लड़ने वाला ऐसा बेबस व्यक्ति है जिसकी पीड़ा दुनिया के सभी गरीबों की साझी तकलीफ है।
‘टेबिल’ कहानी डॉक्टर राजन के माध्यम से केन्द्रीकृत शक्तियों की मनमानियों के चलते साधारण व्यक्ति की विवशता को रेंखांकित करती है और भारतीय परिप्रेक्ष्य में कार्यालीय जीवन की औपनिवेशिक शक्तियों का असली चेहरा उद्घाटित करती है। बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से तरुण भटनागर की ‘गुम’ कहानी विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। कहानी में श्रवण, कांता और सनेही का पड़ोस के घर में ही गुम हो जाना बाल मनोविज्ञान के संदर्भ में आधुनिक जीवन की कई समस्याओं की पर्ते उधेड़ता है। अतः समग्र रूप से हम यही कह सकते हैं कि तरुण भटनागर अपनी कहानियों में समसामयिक समस्याओं की शिनाख्त करते हुए जंगल, जमीन, शहर और महानगरीय जीवन के सूक्ष्म संवेदनों की बड़ी बारीकी से पहचान करते हैं।
सत्यनारायण पटेल समकालीन हिन्दी कथा साहित्य में किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका तीसरा कहानी संग्रह ‘काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ उनकी विलक्षण लेखन प्रतिभा का परिचायक है। सत्यनारायण पटेल की कहानियां ग्रामीण परिवेश में रची-बसी अपने समय से संवाद रचाती ऐसी कहानियां हैं जिनकी किस्सागोई बेमिसाल है और कहन का ढंग लाजवाब। बकौल लेखक, ‘‘मैं अपनी कहानियों के पात्रों को वास्तविक जीवन से ही चुनता हूं। वास्तव में देखा जाए तो यथार्थ और कल्पना के मिश्रण से ही कहानी बनती है लेकिन कल्पना उतनी ही होती है जितनी आटा गूंथनें के लिए पानी की जरूरत होती है अथवा स्वाद के लिए नमक की।’’15
पर पाजेब न भीगे, घटृ वाली माई की पुलिया, एक था चिका एक थी चिकी, ठग, न्याय, काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस नामक छह यथार्थपरक कहानियां उक्त कहानी संग्रह में संकलित हैं। ‘‘ स्याह अंधेरों को अपने हौसलों के बूते चीर देने का विश्वास इस संग्रह की कहानियों की ताकत है जो सबसे पहले अपने भीतर पसरे अंधेरों को चीन्हने की तमीज देता है। शायद इसीलिए बिजूका की तरह अपने मानवीय वजूद का उपहास सहता आम आदमी उनकी कहानियों में क्रमशः निखरता हुआ व्यवस्था की कठमुल्ला ताकतों के लिए पहले काफिर बन जाता है और फिर इब्लीस।’’16
‘पर पाजेब न भीगे’ तथाकथित विकास की आड़ में अपनी ज़मीन से बेदखल किए जा रहे लोगों की व्यथा-कथा बंजारा बांध के ज़रिये उद्घाटित करती है। विकास योजनाओं से लाभान्वित होने वालों में पूँजीपतियों की जमात शामिल है लेकिन जिन लोगों को स्वत्वहीन बनाकर इन योजनाओं का खाका तैयार किया जाता है, उन्हें मात्र विकास के झूठे नारों के शोर में ठगा जाता है। ऐसी तथाकथित विकास परियोजनाओं पर सवालिया निशान लगाती हुई कहानी वास्तविक विकास और कागजी विकास के अंतर की सूक्ष्म पड़ताल करती है।
घटृ वाली माई की पुलिया कहानी लोक जीवन के उन अनाम नायक-नायिकाओं की कहानी है जो इतिहास में अपनी जगह नहीं बना पाते परंतु अपने दृढ़ संकल्प और परहितकारिता के सदके वह एक ऐसा आदर्श कायम कर देते हैं जो सदियों तक निराशा के स्याह अंधेरों में आशावादिता का उजास फैलाता रहता है।
‘एक था चिका एक थी चिकी’ कहानी चिड़े और चिड़िया की प्रतीकात्मक कथा के माध्यम से पारिवारिक स्तर पर स्त्री की अधीनस्थ स्थिति और पुरुष की प्रभुतासम्पन्नता का कथा सूत्र बुनती है, जहां समय की धूल से मटमैले पड़े रिश्ते प्रेम के स्थान पर अधीनता और वर्चस्व के समीकरणों में तब्दील हो जाते हैं और तब स्त्री के हिस्से में न दो गज जमीन बचती है और न मुट्ठी भर आसमान ।
‘ठग’ कहानी दो ठगों की ठगी से आंरभ होकर होशियार की होशियारी से चमत्कृत करती हुई किस्सा-दर-किस्सा तिलस्मी कहानियों के समान आगे बढ़ती है। उक्त कहानी का कथानक बहुत सीधा परंतु इसका निहित अर्थ बहुत गहरा और विलक्षण है। मनुष्य की लिप्सा का कोई ओर-छोर नहीं और अपनी अनंत लालसाओं की पूर्ति हेतु वह जंगल, जमीन, हवा, पानी तक को भी बेचने से गुरेज़ नहीं करता। लालसा और लालच की यह अंधी दौड़ न जाने कहां जाकर थमेगी और न जाने किस-किस को लीलकर तुष्ट होगी ?
‘न्याय’ कहानी कथा-नायक आमिर के माध्यम से जन-विरोधी समय में न्यायतंत्र, राजनीतिक षड्यंत्रों, झूठ के प्रपंच और कार्यप्रणाली की असफलता पर प्रहार करते हुए आमिर जैसे साधारण जन के आक्रोश और अंसतोष को उद्घाटित करती है।
‘काफ़िर बिजूका उर्फ़ इब्लीस’ धर्म की आड़ में होने वाले शोषण का आख्यान है। इस शोषण का पग-पग पर शिकार होते हुए व्यक्ति का अस्तित्व कभी बिजूका की तरह उपहासास्पद जान पड़ता है और कभी भ्रष्ट व्यवस्था के हाथों ठगे जाकर वह काफ़िर बनने की ओर उद्यत होता है और अन्ततः इब्लीस अर्थात् शैतान बन जाता है। ‘‘सत्यनारायण पटेल की कहानियाँ मात्र पढ़ने के लिए नहीं, नागरिक दायित्वों के आलोक में अपनी भूमिका को जाँचने-परखने के लिए भी हैं कि हम इब्लीसों की जमात से कितने अलग हैं।’’17
कहानी के समकाल में अपनी सशक्त उपस्थिति से आश्वस्ति का भाव थमाने वाले बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कहानीकार उमा शंकर चौधरी अपना परिचय स्वयं है। उनकी कहानियों का भावबोध बहुत गहरा है और कथा-वितान अत्यंत विस्तृत। ‘कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां’ इनका दूसरा कहानी संग्रह है, इस संग्रह की कहानियों में भूमंडलीकरण के दौर में मनुष्य का शनैः-शनैः बाजारवाद का शिकार होना, उपभोक्तावादी संस्कृति में दरकते रिश्तों, भूख से उपजने वाले जुर्म की अनकही सच्चाइयां और अपने समय के चौंधियाते उजालों में पसरे हुए अंधेरों को पहचानने का उपक्रम है। इस संग्रह में ‘ललमुनिया मक्खी की छोटी सी कहानी,’ कन्हैयालाल वल्द रामरतन सिंह,’ मिसेज वाटसन की भुतहा कोठी,’ पोटृम, हरे पत्ते और दिल्ली की उमस भरी वह शाम,’ ’कट टु दिल्ली : कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश’ नामक पाँच कहानियां संगृहीत हैं। उनकी प्रयोगधर्मिता की बानगी संग्रह की पहली कहानी की प्रमुख पात्र मक्खी और अंतिम कहानी में प्रधानमंत्री को केन्द्रीय पात्र के रूप में चित्रित करना है।‘‘उमा शंकर चौधरी जिस पीढ़ी के लेखक है, उसमें भाषा और शिल्प के स्तर पर खूब प्रयोग हुए लेकिन शायद वे अकेले ऐसे लेखक हैं जिन्होनें अपने यहाँ भाषा और शिल्प के साथ-साथ विषय के स्तर पर भी खूब प्रयोग किए।’’18
‘ललमुनिया मक्खी की छोटी सी कहानी’ देवाशीष नामक एक ऐसे युवक की कहानी है जो महानगरीय चमक-दमक से चमत्कृत होकर ऐश्वर्यपूर्ण जीवन के सपने संजोता है परंतु पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में बिना पूँजी के सपनों का भुरभुरा कर ढहना उसकी नियति का ही हिस्सा है। यदि किसी दिन जीवन अलादीन के चिराग जैसे जादू के बल पर मनचाही दिशा में चलता भी है तो अर्थंव्यवस्था की मंदी ऐसे अनेक प्रतिभासम्पन्न नवयुवकों पर गाज सी गिरती है और एक ही झटके में देवाशीष स्वयं को उसी चौराहे पर खड़ा पाता है जहाँ से जीवन शुरू किया था। कहानी में एक सुखद संयोग के रूप में देवाशीष की कोल्ड ड्रिंक की बोतल में मरी हई मक्खी का मिलना और उसकी भरपाई के तौर पर कम्पनी द्वारा हरजाना देना किसी चमत्कार से कम नहीं परंतु प्रश्न यह उठता है कि ऐसे चमत्कारों का संयोग भला कितने लोगों के जीवन में बनता है?
कहानी ‘कन्हैयालाल वल्द रामरतन सिंह’ गुरबत की मार झेल रहे लोगों के बच्चों का जुर्म की दुनिया में व्यवस्थागत खामियों के कारण पदार्पण और भ्रष्ट पुलिस तंत्र के हत्थे चढ़ कर हज़ारों निर्दोष लोगों का साल-दर-साल जेल की कोठरियों में घुट कर मर जाने की कष्टदायी परिणति पर एक नए कोण से प्रकाश डालती है। प्रश्न यह उठता है कि परिस्थितिजन्य दबावों ओर परिवेशगत घटकों के प्रभाव से अपराध जगत् में प्रवेश करने वाले लोग क्या सचमुच दोषी हैं? अथवा यह हमारी भ्रष्ट व्यवस्था का दोष है कि एक बार अपराध की सीढ़ी पर कदम रखने के बाद मुख्यधारा में लौटने के सारे रास्ते व्यक्ति पर बंद कर दिए जाते हैं।
‘मिसेज वाटसन की भुतहा कोठी’ कहानी में एक भुतहा कोठी जिसके वंशजों के निःसंतान रह जाने की किंविंदति प्रचलित है, में रहने वाले त्रिलोचन के बड़े बेटे निरंजन और बहू अनुराधा के बेऔलाद रहने पर कोठी के प्रकोप का प्रवाद और भी गहरा जाता है। अनुराधा के रूप में कहानीकार ने हमारी पितृसत्ताक व्यवस्था की उस सोच को भी उजागर किया है जिसमें स्त्री के अस्तित्व की सार्थकता मात्र मातृत्व में ही निहित समझी जाती है। बांझ होने के कलंक को ढोती अनुराधा घर के नौकर के संसर्ग से संतान सुख पाती है और अपने खोए हुए सम्मान को फिर से पा लेती है परंतु सोचना यह है कि बच्चा पैदा करने में अक्षम स्त्री क्या घर परिवार और समाज में मान-सम्मान की अधिकारिणी नहीं है? क्या स्त्री जीवन मात्र मातृत्व का ही पर्याय है?
‘पोट्टम, हरे पत्ते और दिल्ली की उमस भरी वह शाम‘ कहानी केरल के हरे भरे प्राकृतिक परिवेश में पले-बढ़े पोट्टम द्वारा रोज़गार की तलाश में दिल्ली आने और महानगरीय जीवन से तालमेल न बिठा पाने की स्थिति में अवसाद का शिकार हो जाने की त्रासदी पर केन्द्रित है। एक बेहतर जीवन जीने की आशा में छोटे शहरों से महानगरों में आकर बसने वाले लोग महानगरीय आपाधापी से सामंजस्य न बिठा पाने पर निरंतर तनाव में रहते हैं, परिवार को समय न देने पाने की स्थिति में पारिवारिक विघटन की पीड़ा झेलते हैं और जीवन में प्रत्येक फ्रंट पर स्वयं को असफल पाकर मानसिक व्याधियों की चपेट में आ जाते हैं।
संग्रह की अंतिम कहानी ‘कट टु दिल्ली : कहानी में प्रधानमंत्री का प्रवेश’ में प्रधानमंत्री के कमर दर्द और उसके ईलाज के लिए अमेरिका से बुलाए गए डॉक्टर, मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा चलाए जाने वाले अस्पताल और वैद्य के रूप में बच्चा बाबू द्वारा किए गए उपचार के रूप में सत्तासीन वर्ग की घटिया सियासत, भारत जैसे विकासशील देशों द्वारा अमरीका के तलुवे चाटने की प्रवृत्ति और देश के प्रतिभासम्पन्न नागरिकों को राजनैतिक षड्यंत्रों के चक्रव्यूह में उलझा कर नेस्तनाबूद करने की साजिशों का पर्दाफाश किया गया है। निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि उमा शंकर चौधरी की कहानियां समकालीन जीवन की दरारों में से झाँक कर उपभोक्तावादी संस्कृति के हत्थे चढ़ी प्रतिभाओं की पीड़ा को दर्ज करते हुए महानगरीय जीवन शैली के श्वेत-श्याम चित्रों को जोड़ कर बनाई गई जीवन की विविधता से सुसज्जित कैनवास जैसी हैं।
विमल चन्द्र पाण्डेय समकालीन कथा परिदृश्य में बेहद चर्चित नाम हैं। इनकी कविताएं और कहानियां अपने समय की खतरनाक सच्चाइयों को अभिव्यक्त करते हुए जीवन की अँकुराती संभावनाओं को खोज लाने की आश्वस्ति से परिपूर्ण हैं। ‘मस्तूलों के इर्दर्गिद’ कहानी संग्रह में युवा मन की जिज्ञासाएं, सेक्स सम्बंधी उत्सुकता और आत्महंता समय में से गुज़रते हुए बेरोज़गारी और असफलता के थपेड़ों से आहत होकर आक्रामकता पर उतारू हो जाना जैसे कई महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित है। ‘‘विमल की इन कहानियों में आज का हमारा पूरा समय अपने सही रूप में रचा गया है --आज के युवाओं की इतनी समृद्ध, रंगारंग और सच्ची दुनिया नए कथाकारों में से शायद ही किसी के पास हो।’’19
उक्त कहानी संग्रह में ‘पवित्र’ सिर्फ एक शब्द है, महानिर्वाण, वंशावलियों के शिलालेखः अ कंट्राडिक्शन, बूमरैंग, मस्तूलों के इर्दर्गिद, प्रेम पखेरू, बाबा एगो हइये हउएं, हाइवे पर कुत्ते नामक आठ कहानियां दर्ज हैं। ‘कहानी ‘पवित्र सिर्फ एक शब्द है’ में पहले प्रेम में ठुकराए जाने पर प्रतिक्रिया स्वरूप कहानी का मुख्य पात्र सुरेश शहर में सक्रिय एक ऐसे गिरोह का सदस्य बन जाता है जो प्रेमी जोड़ों की धर-पकड़ करके उन्हें अपमानित करते हैं और हिन्दू संस्कृति की रक्षा के नाम पर लड़कियों से अपने प्रेमियों को राखी बंधवा कर स्वर्णिम भारतीय परम्पराओं के वाहक होने का दंभ पालते हैं। शहर भर के बेरोज़गार, प्रेम के भूख,े घर-परिवार के तिरस्कार का शिकार युवक समाज से अपनी नाकामियों का बदला लेने का यह तरीका अपनाते हैं। युवावस्था में ऊर्जा से भरपूर युवकों का कुछ गैर सामाजिक तत्वों के बहकावे में आकर इस प्रकार स्व-घातक कार्यो में सम्मिलित होना जहां समाज के लिए हानिकारक है, वहीं युवा शक्ति का भटकाव उनके जीवन को भी अंधकारमय बनाने की राह पर ही अग्रसर करता है ।
‘महानिर्वाण’ कहानी समय के बहाव में बहते हुए एक सरकारी कर्मचारी जीवन लाल द्वारा कविता लेखन में प्रवृत्त होने, साहित्य-जगत में पहचान स्थापित करने के साथ-साथ अनेक सम्मान हासिल करने और प्रसिद्ध साहित्यकारों की पंक्ति में शुमार होने के कथा-बिन्दु से उपजती है। यह कथा बिन्दु विस्तार पाकर एक सार्थक परंतु बेहद चुनौतीपूर्ण प्रश्न में तब्दील हो जाता है कि क्या साहित्य जगत में मान और सम्मान पाने वाला साहित्यकार ही कालजयी होता है? कहानीकार के अनुसार सच्चा साहित्यकार वह है जो अपने समय का साक्षात्कार करते हुए यथार्थ को अभिव्यक्त करता है, अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज करता है और असहमति के भय से मुक्त होकर सच को बयान करता है। जीवन लाल ख्यात और जाना-माना रचनाकार होकर भी स्वयं की नज़रों में दोषी है क्योंकि वह जानता है कि उसने साहित्यकार के कर्तव्य का सही ढंग से पालन नहीं किया है।
कहानी ‘वंशावलियों के शिलालेखः अ कंट्राडिक्शन’ रंगमंच से फिल्मों की दुनिया में अपना भाग्य आज़माने पहुँचे तीन दोस्तों-ललित, निलय और आनंद के संघर्ष और उस संघर्ष की असफलता के पश्चात् अपने टूटे हुए सपनों की किरचों की चुभन के साथ तालमेल बिठाने की जद्दोजहद का आख्यान है।
‘बूमरैंग’ कहानी मनोविज्ञान के उस नियम पर आधारित है जिसके अनुसार मुनष्य बार-बार वही गल्तियां करता है और समय बीतने पर पश्चाताप करते हुए ऐसा न करने का संकल्प लेता है परंतु न तो मानव स्वभाव बदलता है और न ही उसका संकल्प कहीं टिकता है। मनुष्य चाहते, न चाहते हुए बार-बार उसी मनःस्थिति में ही लौटता है। कहानी में रवि का अपनी पत्नी से बार-बार झगड़ा करना, पत्नी के गुस्से को निरीह ड्राइवर रामलाल पर उतारना और रात में शराब के नशे में रामलाल पर गुस्सा उतारने के बोझ से मुक्त होने के लिए किसी भी ड्राइवर से माफी मांगना बूमरैंग ही कहा जा सकता है।
कहानी ‘मस्तूलों के इर्द-गिर्द’ रिश्तों से हारे और प्रेम से रूठे हुए सुप्रीमो के मन में नायिका अप्रितम माधुरी के द्वारा प्रेम के लिए आस्था पैदा करने और जीवन में शुभ एवं सुन्दर के अस्तित्व के प्रति आशा का संचार करने का कथानक बुनती है। कहानीकार मरने के कगार पर खड़ी नायिका के हाथों में प्रेम को ही सर्वस्व मानने का जीवन-मंत्र थमाकर संभवतः हमें यह सीख देना चाहता है कि आज के युग की आत्मघाती परिस्थितियों में जीवन की संभावना मात्र प्रेम के ही कारण संभव है।
‘प्रेम पखेरू’ कहानी यौवन की देहलीज पर खड़े दो किशोरों की कहानी है जो किशोरावस्था सुलभ सैक्स के प्रति आकर्षण को लेकर उलझन की स्थिति में हैं। शारीरिक सम्बंधों के कामुक चित्र देखना और मन ही मन आस-पास से गुज़रने वाली युवतियों के विषय में उसी दृष्टि से सोचना जहां उनकी अनगढ़ कच्ची समझ को दर्शाता है वहीं किशोरावस्था में उचित मार्गदर्शन के अभाव में युवाओं के भटकने एवं गलत हाथों में पड़ जाने के खतरों के प्रति भी सचेत करता है।
‘बाबा एगो हइये हउएं’ कहानी मीडिया की भूमिका को कटघरे में खड़ा करते हुए लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाली पत्रकारिता पर सवाल उठाती है। आधुनिक मीडिया भ्रामक अवसरों का मायाजाल बिछाकर बेरोज़गार लोगों के सपनों को छलता है और सस्ती विज्ञापन बाजी के लिए घटनाओं को ऐसे तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करता है कि वह खबर सनसनी तो पैदा कर देती है परंतु सत्य से उसका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। कहानी में अनुज श्रीवास्तव उर्फ बाबा मीडिया के झूठे संसार में प्रवेश तो पा लेता है परन्तु उसकी ईमानदारी ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाती है और वह न चाहते हुए भी मीडिया की चालबाज दुनिया का एक मोहरा बन जाता है।
‘हाइवे पर कुत्ते’ कहानी बाजारीकरण के दौर में प्रेम की हिमायत करने वाले ऐसे युगल की कथा है जो इस मशीनी समय में भी अपनी जान की कीमत देकर प्रेम को बचाने का हौंसला रखता है। स्वार्थी रिश्तों की भरमार के बीच इक्का-दुक्का ऐसे विलक्षण प्रेमियों की उपस्थिति निराशा की घनघोर अंधेरी रात में टिमटिमाते जुगनुओं जैसी आश्वस्ति थमाती है। अंत में यही कहा जा सकता है कि ‘‘युवा कथाकार विमल चन्द्र पाण्डेय की कहानियों में स्थानीयता अपनी पूरी रंगत में विराजमान रहती है। बनैले यथार्थ को वह कॉमिक प्रतिपक्ष में बदलते हैं और फिर परत-दर-परत उघाड़ते चलते हैं।’’20
हाशियाकृत समुदाय की पीड़ा को किसी विमर्श विशेष के चौखटे में फिट किए बगैर वर्तमान समय के हौलनाक यथार्थ का चित्रण करने में सिद्धहस्त हिन्दी के चर्चित युवा कथाकार श्री कैलाश वानखेड़े हिन्दी कहानी की एक नवीन परिभाषा गढ़ रहे हैं। उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह ‘सत्यापन’ की सभी कहानियों में वंचित, शोषित और सर्वहारा वर्ग के दमन की मूक चीखे दर्ज हैं और भ्रष्ट सत्तातंत्र की सूक्ष्म साजिशों के प्रति उफनते आक्रोश का कोलाहल। डा. बजरंग बिहारी तिवारी के शब्दों में, ‘‘सत्तातंत्र के पाखंड का सलीके से पर्दाफाश करने वाली ये कहानियाँ हिन्दी कहानी को नवता प्रदान करती हैं और दलित कहानी को दिशा देने का काम करती हैं। रोजमर्रा के अनुभवों का जैसा दलित भाष्य कैलाश के यहां मिलता है वह दलित चिंतन के विकास का साक्षी है, साथ ही जाति की जकड़बंदी के समकालीन जटिल ताने-बाने की विश्वसनीय पड़ताल का दस्तावेज भी है।’’21
उक्त संग्रह में सत्यापित, तुम लोग, अन्तर्देशीय पत्र, घण्टी, महू, स्कॉलरशिप, उसका आना, कितने बुश कित्ते मनु और खापा नामक नौ कहानियां संकलित हैं।
‘सत्यापित’ कहानी आत्मकथात्मक शैली में लिखित है जिसका नायक एक दलित युवक है जो स्वयं को सत्यापित करवाने के लिए दर-दर की खाक छानता है परंतु उसकी पहचान पर मुहर लगाने वाली सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने में ही नहीं आती। कार्यालीय कार्यप्रणाली की खाहमखाह की पेचीदगियों पर प्रकाश डालते हुए यह कहानी एक गंभीर प्रश्न उठाती है कि किसी भी व्यक्ति की पहचान को सत्यापित करने का अधिकार किसी और व्यक्ति को कैसे दिया जा सकता है, जो हमें न तो जानता है, न पहचानता है लेकिन फिर भी उसकी कलम के पास यह ताकत है कि वह चाहे तो हमारी पहचान का सत्यापन करे अथवा हमें सिरे से ही खारिज कर दे।
‘तुम लोग’ कहानी मनुष्य के मान-सम्मान के पैमाने महंगे जूते, कपड़े, जेब के माल और रिहायशी इलाके के स्टैंडर्ड पर अवस्थित होने की मानसिकता को उघाड़ती है। अमीर होने या न होने से ज्यादा जरूरी है -अमीर दिखना, नहीं तो सब्जी वाला, कपड़े की दुकान वाला यहां तक कि राह चलता अजनबी भी तू-तड़ाक पर उतर आता है। साधारण दिखने वाले लोग दुनियां की नज़र में मात्र ‘तुम लोग’ ही बन कर रह जाते हैं, उनकी पहचान इन्हीं दो शब्दों के बोझ तले दब कर मर जाती है।
कहानी ‘अन्तर्देशीय पत्र’ मात्र पत्र लिखने की कवायद भर नहीं है अपितु कहानी का निहितार्थ तो लिखने से छूट गए शब्दों और अनकहे-अनसुने अल्फाज़ों में समाया है। स्वतंत्रता के वर्षो बाद भी शिक्षा के अधिकार से वंचित दलित अभवग्रस्त जीवन जीने के लिए बाध्य हैं। इस अभावग्रस्तता की काली छाया न तो शब्दों की पकड़ में आती है और न बोल कर सुनाई जा सकती है। इस तकलीफ को समझने और गुनने के लिए भुक्तभोगी की आंख और हृदय की दरकार है।
‘घंटी’ कहानी मांगीलाल चौहान नामक ईमानदार और कर्मनिष्ठ चपरासी द्वारा अपने बड़े साहब के घर के काम करने से इनकार करने पर टूटे मुसीबतों के पहाड़ को बयान करती है। कार्यलय का सबसे मेहनती चपरासी मांगीलाल इतनी छोटी सी बात की इतनी बड़ी सजा पाता है कि बीमारी की हालत में उसे छुट्टी नहीं दी जाती और तिस पर विभागीय कार्रवाई की धमकी का डर भी दिखाया जाता है। वास्तव में कहानी भारतीय समाज की उस मानसिकता का उद्घाटन करती है जिसके चलते अपने मातहत काम करने वाले व्यक्ति को अधिकारी अपनी जागीर मान बैठते हैं। भारत से गुलाम प्रथा तो कब की समाप्त हो गई परंतु हमारी सोच में घर कर चुकी अफसरशाही खुद को स्वयंभू और अधीनस्थ व्यक्ति को अपने जरखरीद गुलाम से अधिक कुछ नहीं मानती।
‘महू’ कहानी शिक्षण संस्थानों के उस परिवेश को उजागर करती है जहां दलितों की प्रताड़ना ट्रेंड बन चुकी है और उस प्रताड़ना की टूटन आए दिन विद्यार्थियों की आत्महत्याओं की घटनाओं में तब्दील हो जाती है। मुद्दे की बात यह है कि हमारी व्यवस्थागत खामियां और पेचीदगियां जो विद्यार्थियों को आत्मघात के लिए उकसाती हैं, उन्हें हत्या कहा जाए अथवा आत्महत्या माना जाए? विभिन्न स्तरों पर होने वाली यह प्रताड़ना विद्यार्थियों के सपनों पर भारी पड़ती है, जीवन से भरोसा उठने लगता है और संभावनाओं से उमगता-गमकता एक भरपूर जीवन मौत को गले लगा लेता है।
‘स्कॉलरशिप’ कहानी सरकारी जुमलेबाजी की प्रंवचना से परे यथार्थ की ठोस जमीन पर पिछड़ी जाति के लोगों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने की पहल से जुड़ी जमीनी सच्चाइयों को प्रतिबिम्बित करती है। कथा के नैरेटर द्वारा पढ़ने के लिए स्कूल जाना और वहां पर अध्यापको द्वारा उसे पढ़ाई के अतिरिक्त और सभी कार्यों में लगाए रखना हमारी उस दकियानूसी परम्परापोषक सोच को उजागर करता है जिसके अन्तर्गत शिक्षा का अधिकार मात्र सवर्णों को है क्योंकि दलित यदि शिक्षित हो जाएगा तो अपने अधिकारों की पैरवी करेगा और सामाजिक विधि-विधानों पर प्रश्न उठा कर अपने शोषण की लड़ाई का कर्णधार स्वयं बन जाएगा।
‘उसका आना’ कहानी भारतीय समाज के स्त्री विरोधी परिवेश में पुरुष वर्चस्व की सामंती ताकतों के समक्ष घुटने टेकने पर मजबूर लोगों की व्यथा-कथा है। आज भी बिना जाँच पड़ताल किए किसी भी लड़की को सुनी सुनाई बात के आधार पर व्यभिचारिणी घोषित कर देना रोज़मर्रा घटने वाली घटना है। आज भी पढ़ने-लिखने वाली लड़की, लड़कों को फांसने में माहिर समझी जाती है और उसके कुल, वंश अथवा स्वयं उसके अस्तित्व को कांटों में घसीटने का विशेषाधिकार समाज के प्रत्येक ठेकेदार की बपौती है।
‘कितने बुश कित्ते मनु’ एक प्रतीकात्मक कहानी है जिसमें किसी की मेहनत का फल किसी और को मिलता है क्योंकि अफसरशाही में योग्यता अथवा परिश्रम का नहीं मात्र पद का सिक्का चलता है। जैसे बुश ने कल्याणकारी योजनाओं की आड़ में ईराक के लोगों से विश्वासघात किया था, वही विश्वासघात कहानी के नैरेटर के साथ उसका बॉस करता है। मनुवादी मानसिकता वाला हमारा समाज आज भी दलित और स्त्री को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखने की हिमायत करता है और मात्र सवर्णो, वह भी सवर्ण पुरुषों की शिक्षा-दीक्षा का ही पक्ष लेता है। अतः कहानीकार प्रश्न उठाता है कि अभी कितने बुश और जन्म लेंगे और कितने मनु अभी और सताएगें?
‘खापा’ कहानी में उन गरीब अभिभावकों की पीड़ा का उद्घाटन है जो शिक्षण संस्थानों में निर्धन वर्ग के बच्चों के लिए आरक्षित सीटों के प्रावधान के बावजूद अपने बच्चों को अच्छे शिक्षण संस्थानों में शिक्षा दिलवाने से वंचित रह जाते हैं। स्वर्ग-नर्क और पाप-पुण्य की जकड़न गरीब लोगों के पैरों का फंदा बन जाती है और उन्हें आगे बढ़ने के सपने संजोने से बरज देती है। उक्त कहानी में समर की प्रतिबद्धता के द्वारा लेखक ने यह समझाना चाहा कि पिछड़े और वंचित वर्ग के लोगों को अपने पक्ष में स्वयं खड़ा होगा, अपनी वर्तमान स्थिति को बदलने का बीड़ा उन्हें खुद आगे आकर उठाना होगा। कैलाश वानखेड़े की लेखन कला के विषय में समग्रतः यही कहा जा सकता है कि वह पंक्ति में खड़े अंतिम व्यक्ति के मौन संघर्ष को आवाज देते हैं। उनकी कहानियां वस्तुतः युग समाज का दर्पण हैं।
कबीर संजय हिन्दी कहानी का प्रतिष्ठित नाम हैं। उनकी कहानियों में बाल मनोविज्ञान का अत्यंत सूक्ष्म चित्रण किया गया है। गहरे भावबोध से भरपूर इनकी कहानियां अपने समय से संवाद करती हुई जान पड़ती है। स्त्री अधिकारों की वकालत, महत्त्वाकांक्षा के मकड़जाल में फंस कर होने वाली आत्महत्याएं और पेट की आग को बुझाने के एवज में जिंदगी की लौ को बुझने देने की बेबसी इनकी कहानियों की मूल संवेदना है। इनके कहानी संग्रह ‘सुरखाब के पंख’ में विभिन्न विषयों पर आधारित ग्यारह कहानियां संगृहीत हैं।
‘मकड़ी के जाले’ कहानी बाल सुलभ जिज्ञासा और प्रश्नों को केंद्र में रख कर बच्चों की नजर से लगातार निर्मम हो रही दुनिया को टटोलने की भोली कोशिश है। अंची और नंदू के द्वारा इस कहानी में इस सत्य का भी साक्षात्कार किया गया है कि अकसर अभिभावकों द्वारा बच्चों पर हाथ उठाए जाने की पीछे अपनी कमज़ोरियों का वह अहसास होता है जिसे खुद से भी छुपाने की गर्ज से वह बच्चों को अपना शिकार बनाते रहते हैं। ‘मरे हुए सांप की खाल’ कहानी में उन तथाकथित संभ्रात लोगों के वहशीपन को उजागर किया गया है जो अपनी कामुकता को अप्राकृतिक ढंग से शांत करने के आदी हैं। कहानी में कुत्तों के प्रति विशेष प्रेम रखने वाला बालक मनु अपने कुत्ते के बीमार होने पर उसे जानवरों के डॉक्टर के पास लेकर जाता है परंतु उस डॉक्टर को कुत्ते के साथ अपनी हवस की पूर्ति करते हुए देखना मनु के बाल मन पर एक ऐसी छाप छोड़ता है जिससे संभवतः वह सारी उम्र बाहर नहीं आ सकेगा।
‘सपना’ कहानी हमारे परिवारों में सूक्ष्म धरातल पर होने वाले बाल-उत्पीड़न का चित्रण करती है। माता-पिता द्वारा बच्चों पर अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को थोपने की कोशिश बच्चों के लिए असह्य बोझ बन जाती है। माता-पिता के बेलगाम दौड़ते सपनों से टकराकर बच्चों के कोमल सपने कैसे बेमौत मरते हैं, इसका प्रमाण ‘सपने’ कहानी का सात्विक है।
कहानी ‘पत्थर के फूल’ हमारे समाज के दोगलेपन पर करारी चोट कही जा सकती है। सिनेमा के कामुक दृश्यां और दोहरे अर्थों वाले अश्लील गानों पर वाहवाही करने वाले लोग दो प्रेमियों के प्रेम को अनैतिक ठहराते हैं और उन्हें सरेआम अपमानित करके एक-दूसरे की पीठ ठोंकते हैं। सिनेमा की प्रेम कहानियां सुपरहिट होती है परंतु वास्तविक जीवन में प्रेम अनैतिक और अमान्य है। उक्त कहानी में पराग और नीलिमा इसी दोमुँही व्यवस्था का शिकार होते हैं और जीवन में कई अनावश्यक समझौते करने की विवशता उनकी नियति बन जाती है।
‘सुरखाब के पंख’ कहानी में कहानीकार ने मुनष्य की आत्मकेन्द्रियता के हवाले से पशु-पक्षियों के प्रति उसकी क्रूरता और संवेदनहीनता को रेखांकित किया है। सुरखाब अथवा किसी भी अन्य पक्षी को अपना शिकार बनाना मनुष्य के लिए आत्मतोष अथवा गर्व का कारण हो सकता है परंतु इस क्रूर आनंद की परिणति पक्षियों की विलुप्त होती प्रजातियों और दिन-ब-दिन बिगड़ रहे पारिस्थितिकी संतुलन में दिखाई देती है।
कहानी ‘प्रयागराज एक्सप्रेस’ इलाहाबाद से दिल्ली की रेलयात्रा के यात्रा-वृत्तांत जैसी है। रेलगाड़ी का नियत समय से लेट दिल्ली पहुँचना, उसमें सवार यात्रियों की समय-सारिणी गड़बड़ा जाने से यात्रियों का उत्तरोत्तर अधीर होते जाना और अनिरुद्ध तथा अभिलाषा का इस सबसे असम्पृक्त धीर और शांत बने रहने का विलोम कई प्रश्न खड़े करता है जिसमें सहयात्रियों का उनके रिश्ते पर संदेह करना और समय को अपनी मुट्ठी में जकड़ कर रखने वाले लोगों के व्यक्तित्व के उथलेपन को उजागर करना प्रमुख है।
‘फिर एक दिन’ कहानी वर्तमान समय के एक बहुत बड़े सच का खुलासा करती है। समाज और परिवार की बंदिशों को तोड़कर प्रेम विवाह करने वाले युगल संघर्षपूर्ण जीवन को बड़ी हिम्मत से गले लगाते हैं परंतु इस विकल्पहीन समय में प्रेम का आधार जीवन जीने के संसाधनों के सामने छोटा पड़ जाता है। आर्थिक मंदी, बेरोज़गारी और परिवार में नन्हें मेहमान के आने से लगातार तनावपूर्ण होते रिश्तों की कारुणिक कथा है ‘फिर एक दिन।’‘ मोम के रंग’ कहानी बाहर से खुशहाल परंतु आंतरिक रूप से कर्ज़ के दीमक से खोखले हो चुके ऐसे परिवार की मार्मिक कहानी है जहां एक पिता अपनी पत्नी और बेटियों की हत्या करके स्वयं आत्महत्या कर लेता है। इस कहानी के द्वारा लेखक उन परिस्थितियों की पड़ताल करता है जिनके कारण मनुष्य हालात के आगे इतना बेबस हो जाता है कि उसे मरने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं सूझता।
कहानी ‘वो हां कहेगी’ स्त्री की निजता के अधिकार पर प्रश्नचिह्न लगाती है। हमारे समाज में स्त्री की सहमति-असहमति, किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर निर्णय लेने की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं हैं। उसकी छोटी-मोटी चीजों की तलाशी, कपड़ों की अल्मारी में तांकाझांकी और किताबों के पन्नों से प्रेम पत्र खोज निकालने की गरज से अलटा-पलटी घर के पुरुषों का अधिकार है और स्त्री की निजता का अपमान। कहानी में नायिका अपने भाई की इन्हीं हरकतों के कारण निरन्तर तनाव में रहती है और अपनी निजता बचाने की मुहिम में उसे लगातार अपना आप झोंकना पड़ता है।
‘पापी पेट का सवाल है’ कहानी मीडिया के प्रपंच और गरीब आदमी की भूख का आख्यान है। बस स्टॉप पर गन्ने का जूस बेचने वाला मनोहर टी.आर.पी की होड़ में जुटे मीडिया के षड्यंत्र का शिकार होकर पापी पेट की दुहाई देता है वहीं सनसनीखेज खबर जुटाने के अभाव में नौकरी चले जाने की आशंका मीडिया कर्मियों के पापी पेट का सवाल खड़ा कर देती है। ‘दोगली कहीं की’ कहानी में अंधविश्वासों और धार्मिक मान्यताओं की जकड़न में जकड़े तथाकथित आधुनिक और शिक्षित लोगों की वैचारिक अंधता का खुलासा किया गया है। संतोषी माता के व्रत द्वारा मुँहमांगी मुराद मिल जाती है अथवा काले कुत्ते की सेवा से शनि का प्रकोप टल जाता है, ऐसे कितने ही अंधविश्वास आज भी प्रचलित हैं और उन्हें निभाने के चक्कर में लोग न जाने कैसे-कैसे पापड़ बेलते है, यह इस कहानी को पढ़कर सहज ही समझ में आ जाता है।
अंत में हम यही कह सकते हैं कि हमारे रोज़मर्रा के जीवन से जुड़े छोटे-बड़े कितने ही प्रश्नों, समस्याओं और धार्मिक अंधविश्वासों की टोह लेते हुए कथाकार कबीर संजय समकालीन जीवन को बखूबी शब्दबद्ध करते हैं।
हिन्दी कथा साहित्य में अपनी साफगोई और विशेष कहन शैली के लिए प्रसिद्ध कथाकार राकेश मिश्र अपनी कहानियों की आंतरिक बुनावट में अकादमिक उद्धरणों और विश्वविद्यालयी परिवेश के आकलन के लिए विशेष रूप से चर्चित हैं। राकेश बिहारी के शब्दों में, ”राकेश मिश्र की कहानियों में पाठ और आलोचना के नए औजारों की माँग के समानान्तर बौद्धिकता के आतंक की धमक भी लगातार सुनाई देती है। लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि संभावनाआें और सीमाओं के इन रसायनों से निर्मित कहानियों में आज के समय की त्रासदी भी सुनाई पड़ती है और विडंबनाओं से भरे समकालीन यथार्थ की टीस भी।“22 राकेश मिश्र के कहानी संग्रह ‘लाल बहादुर का इंजन’ का हिन्दी साहित्य में खुले मन से स्वागत हुआ और उनकी यह कृति पुरस्कृत भी हुई। उक्त कहानी संग्रह में शोक, परिवार (राज्य) और निजी सम्पत्ति, स्थगन के शिल्प में, लाल बहादुर का इंजन, अम्बेदकर हॉस्टल, ....बुरा है शैतान और लगभग हमउम्र शीर्षक वाली सात कहानियां सम्मिलित हैं।
‘शोक’ कहानी कथा नायक संदीप द्वारा अपने मित्र संजय की पुत्री के निधन पर शोक व्यक्त करने पैतृक गाँव भुसावल जाने पर आधारित है। छोटे कस्बों और गाँवों में रहने वाले लोगों द्वारा रोज़गार के लिए महानगरों में आकर बसने, खुशी या गमी के अवसरों पर अपनी जड़ों तक लौटने और स्मृतियों के झरोखे से झाँकती पुरानी यादों के बहाने जीवन के पन्ने पलटने के रोमांच को यह कहानी बखूबी बयान करती है।
कहानी ‘परिवार (राज्य) और निजी सम्पत्ति’ धीरज पांडे जैसे कद्दावर नेताओं द्वारा जुगाड़ बिठा कर पैंतरेबाजी के दम पर रातों-रात प्रतिष्ठा के झंडे गाड़ देने और सत्ता की धौंस दिखाकर अपने लिए और अपने चहेतों के लिए पुरस्कार, सम्मान, धन और पद हासिल करने को ही अपना धंधा बना लेने के कथा-बिन्दु पर केन्द्रित है। लेखक एक ओर सत्तासीन नेताओं के हाथों की कठपुतली बन चुकी व्यवस्था की टोह लेता है वहीं शार्टकट अपना कर शिखर छूने का सपना देखने वालों को चेताता भी है कि धरती पर बिना पैर जमाए आकाश छूने वाले एक दिन औंधे मुँह गिरते हैं।
‘स्थगन’ कहानी तीन ऐसे मित्रों की कथा है जो रोजगार पाने के लिए अपने पैतृक क्षेत्र को छोड़कर राजधानी दिल्ली में बस जाते हैं और महानगर की तेज गति से तालमेल बिठाने की आपाधापी में मानो स्वयं के हाथों छूटते चले जाते हैं। रोज़गार के अभाव में महानगरों की ओर कूच करने की बेबसी हमारे तंत्र और व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता है।
‘लाल बहादुर का इंजन’ उच्च शोध संस्थानों में बड़े पैमाने पर होने वाली शोध की उपादेयता पर प्रश्न लगाते हुए लाल बहादुर नामक एक सच्चे शोधार्थी के अनूठे अविष्कार की कथा है। लालबहादुर एक ऐसा इंजन बनाना चाहता है जो हवा से चलेगा और सर्वसुलभ होगा क्योंकि हवा अमूल्य है, वह बेची और खरीदी नहीं जाती अतः सब की पहुंच के भीतर है। परंतु लालबहादुर को उसके सहपाठी साजिश में उलझा कर मानसिक रूप से कमजोर घोषित करवा देते हैं और एक सच्चा प्रतिभावान विद्यार्थी व्यवस्था के कुचक्रों में फंस कर अपने सपने को पूरा करने से वंचित ही रह जाता है।
‘.......बुरा है शैतान’ कहानी प्रेम मनोभाव की मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सूक्ष्म पड़ताल करती है। प्रेम में बार-बार धोखा मिलने पर व्यक्ति आत्म हीनता की दलदल में धंसता चला जाता है, ऐसे व्यक्ति कई बार अपराधी बन जाते हैं, कभी मनोरोगी और कभी शैतान।
कहानी ‘लगभग हमउम्र’ अरुण और रिम्पी नामक दो हम उम्र किशोरों की प्रेम कथा से आरंभ होकर रिम्पी के परिवार की डाँवाडोल आर्थिक स्थिति, रिम्पी के भाई के पागलपन के कारण एक बिजनेसमैन द्वारा खुलेआम आर्थिक मदद और पैसों के बल पर धीरे-धीरे सारे परिवार मुख्यतः रिम्पी पर काबिज होने की मंशा के खुलने पर आगे बढ़ती है। अशोक मंहगे उपहार देकर रिम्पी को अपने जाल में उलझा लेता है और रिम्पी के माता-पिता भी इस मुनाफे के सौदे को चुपचाप मंजूरी दे देते हैं।
अतः कहा जा सकता है कि राकेश मिश्र अपनी कहानियों में आधुनिक युग के बेहद जरूरी सवालों को उठाते हैं और समाधान देने की आदर्शवादिता से परे समस्याओं का यथार्थपरक उद्घाटन करते हैं। सारांश यही है कि, ‘‘हमारे समाज में तीव्र बदलाव को समझने के लिए राकेश मिश्र एक जरूरी और अपरिहार्य कहानीकार हैं।’’23
कहानी के समकाल का युवा परिदृश्य संभावनाओं की उर्वर धरती में अँकुरित हो रहे उन प्रयोगधर्मी रचनाकारों का पर्याय है जिन्होंने विषय कथन और शैल्पिक बुनावट में कथा-जगत् की कई स्थापित परम्पराओं को नकारा है। युवा कहानीकारों पर समय-समय पर कई आक्षेप लगते रहे हैं, कई बार उनके साहित्य को रिपोर्ताज की श्रेणी में रखा गया और कभी उसे अखबारी कह कर खारिज करने की बहस भी सरगर्म रही। यह सही है कि युवा लेखन मात्र आदर्शों को ओढ़ने के लिए तैयार नहीं है, वह इस विघटनकारी वर्तमान के यथार्थ को ज्यों का त्यों अपने साहित्य में प्रतिबिम्बित करना चाहता है परंतु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके लेखन में भावनाओं का स्पंदन अनुपस्थित है अथवा जीवन की सकारात्मकता से रूठ कर वह मात्र नकार की अभिव्यक्ति पर ही बजिद है।
युवा रचनाकार अपने समय के अंधेरों में रची-बसी रोशनियों के भी हिमायती हैं और प्राचीनता के साथ नवीनता के उद्घोषक भी क्योंकि उनका युग नया है, उनकी सोच नई हैं और सबसे बढ़कर वह स्वयं नए हैं। रोहिणी अग्रवाल के शब्दों में, ‘‘युवा लेखन के पास सिर्फ दलदल नहीं। स्वस्थ सकारात्मक मानवतावादी दृष्टि भी है। क्यों न उसे उकेरा जाए-उन मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए जिनके होने से व्यक्ति अपने भीतर की मनुष्यता को चीन्हता है, पास खड़े दूसरे व्यक्ति में उसका अक्स देखता है और प्रसार करता चलता है दूर तलक।’’24 निस्संदेह कथा का समकाल बहुमुखी प्रतिभाओं का समकाल हैं जिन्होंने कथा-जगत् के प्रचलित मुहावरों को तोड़ कर कहन की एक नई शैली विकसित की है। इस काल के साहित्य के केन्द्र में कहानी विधा है और कहानियों के केन्द्र में जीवन
सन्दर्भ सूची
1. देश निर्मोही (संपादक), पल-प्रतिपल-79, विनोद शाही का आलेख, कथा का समय, आधार प्रकाशन, पंचकूला, पृ. 99
2. रोहिणी अग्रवाल, समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार, आधार प्रकाशन, पंचकूला, सं. 2012, पृ. 17
3. रोहिणी अग्रवाल, जनसत्ता, रविवारी, 22 जनवरी 2017
4. दैनिक भास्कर संवाद सीरिज़, कलम, 21 मार्च 2017, रायपुर
5. चंदन पाण्डेय, आनंद से बाहर के संसार में खुलती खिड़की, नवभारत टाइम्स, 15 फरवरी, 2017
6. नीलाक्षी सिंह, इब्तिदा के आगे खाली ही, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2016, पृ. 180
7. रोहिणी अग्रवाल, फेसबुक वाल, 10 मई 2017
8. राजीव कुमार, इंडिया टुडे, 4 अक्तूबर 2017, पुस्तक समीक्षा
9. रोहिणी अग्रवाल, आशुतोष की कहानी ‘उम्र पैंतालीस बतलाई गई थी पढ़ने के बाद, फेसबुक वाल 28, दिसम्बर, 2015
10. गीता श्री, अपने समय से संवाद करती कहानियां, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
11. अर्पण कुमार, समालोचन, ब्लॉग स्पाट
12. ज्योति चावला, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, फ्लैप पृ.
13. ज्योति चावला, अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, पृ. 76
14. धमेंद्र सुशांत, कथा-समय, स्पअम हिन्दुस्तानण्बवउ, 9 जुलाई 2016
15. वेब दुनिया, देहात की दुर्दशा ने बनाया कथाकार, माहीमीत को दिए गए साक्षात्कार में
16. रोहिणी अग्रवाल, काफिर बिजूका उर्फ़ इब्लीस, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2014, फ्लैप पृ.
17. शिवकुमार यादव, कहानी में समय का सच, समीक्षा संवाद, वागर्थ, अक्टूबर 2017, पृ. 106
18. उमा शंकर चौधरी, कट टु दिल्ली और अन्य कहानियां, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2013, फ्लैप पृ.
19. विमल चन्द्र पाण्डेय, मस्तूलों के इर्दगिर्द, आधार प्रकाशन, पंचकूला, 2013, फ्लैप पृष्ठ
20. समालोचन, कथा-गाथा, विमल चन्द्र पाण्डेय, समालोचन ब्लॉग स्पॉट
21. प्रमोद कोवप्रत, (सं), हिन्दी दलित साहित्य एक मूल्यांकन, डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख, सत्यापित सत्तातंत्र के पाखंड का पर्दाफाश, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2016, पृ. 39-40
22. राकेश बिहारी, गद्य कोश, आंदोलन रहित समाज में कहानी का भविष्य
23. हिन्दी पुष्प, वर्धा, 22 अप्रैल 2017, फेसबुक.कॉम
24. रोहिणी अग्रवाल, हिन्दी कहानी : वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2015, पृ. 174-175
डॉ ऋतु भनोट
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विश्व पुस्तक दिवस पर युवा लेखकों को एक समीक्षक की नजर से पढ़ना रुचिकर और फायेदमंद रहा।
जवाब देंहटाएंदरअसल हम अपने आसपास समकालीन जो रचा जा रहा है उससे या तो बेपरवाह होते है या फिर दुराग्रही
सबसे अच्छी बात इसमें किताब का नाम और सन्दर्भ साथ मे दे रखे है।
हार्दिक शुक्रिया भाई
जवाब देंहटाएंमहत्वपूर्ण रचनाओं और रचनाकारों के बारे में समीक्षात्मक जानकारी देने के लिए साधुवाद
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