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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 जनवरी, 2010

आपकी ‘थाली में ज़हर’ यक़ीन नहीं होता… है न… ?

बिजूका लोक मंच के बिजूका फ़िल्म क्लब में 10 जनवरी 2010 को अजय कनचन द्वारा लिखित और निर्देशित फ़िल्म-थाली में ज़हर का प्रदर्शन किया गया। इस फ़िल्म में मशहूर फ़िल्म निर्देशक श्री महेश भट्ट ने सूत्रधार की ज़िम्मेदारी निभायी है। यह फ़िल्म ऎसे प्रमाणिक तथ्यों पर आधारित है, जो समय-समय पर महत्तवपूर्ण वैग्यानिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस फ़िल्म में जो भी बातें कही गई हैं और जो भी दावे किये गये हैं, उन्हें गहन शोध और विश्लेषण के बाद ही शामिल किया गया है। कभी अमरीकी नोबेल पुरस्कार विजेता पर्ल बक (1892-1973) ने कहा था- ज़िन्दा रहने के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत होती है- हवा, पानी और खाना।

अगर जनाब पर्ल बक साहब आज मोजूद होते तो शायद वे यह बात नहीं कहते, क्योंकि आज तीनों ही चीज़े हमारे जीवन में दुर्लभ होती जा रही है। आज हम जिस हवा में साँस लेते वह भी कम ज़हरीली नहीं है ख़ैर.. इस फ़िल्म की शुरुआत हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमले के दृ्श्यों से होती है, जिसमें 220,000 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी थीं और 400,000 से ज़्यादा हमेशा के लिए तबाह हो गये थे। हमारे यहाँ 1984 के दिसम्बर 2-3 की आधी रात को यूनियन कार्बाइड के एम आई सी टैंक से ज़हरीली गैस का रिसाव भारी मात्रा में होने की वजह से क़रीब 20 हज़ार की मौत और 5 लाख से ज़्यादा तबाह हो गये थे, जो आज 25 बरस बाद भी उचित मुआवाजे के लिए अपनी आवाज़ बुलंद किये रहते हैं। आपको यह भी याद ही होगा कि 9/11 को अमरीका के पेन्टागन पर आतंकी हमला हुआ था। उसमें क़रीब 3000 हज़ार लोग मारे गये थे और 6000 हज़ार घायल हो गये थे। उसके बाद अमरीका ने किस तरह क़त्लो गारद की और अब तक चल रही है। कई लाख बच्चे, औरत, बूढ़े और जवान बेकसूर लोग 9/11 के हमले के बदले मौत की सज़ा पा चुके हैं। ऎसा हमला जो इन बेकसूरों नहीं किया था। लेकिन हमारे यहाँ के भोपाल गैस काँड का आरोपी आज तक अमेरीका में चैन की बंसी बजा रहा है। आज हमारे देश में अलग-अलग हलकों में अमेरीका की कई ऎसी कंपनियाँ स्थापित की जा चुकी है, जिन्हें अमेरीका ख़ुद अपनी धरती पर लगाना वहाँ के पर्यावरण और लोगों के स्वास्थय की दृष्टि से वाजिब नहीं समझता है। यह फ़िल्म हमारा ध्यान उस ख़तरे की और आकर्षित कर रही जिसकी और हमारे देश के स्वतंत्र कृषि वैग्यानिक हमें बहुत पहले से चेताने की कोशिश करते आ रहे हैं। अब ‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ खाद्य पदार्थों की वजह से सीधा हमारे देश के हर उस इंसान पर हमला किया जा रहा है, जो खाने के दम पर ज़िन्दा है। वह कुछ भी खाये उसके भोजन में बहुत टेस्टी ज़हर मिला है, जिसे वह चटकारे लेकर खा सकता है और जो कोई उसे यह कहेगा कि इस भोजन में ज़हर है उसे वह तत्तकाल तो बेवकूफ़ कहने से भी नहीं चूकेगा। लेकिन सच यही है, हमारे भोजन में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ धड़ले से ज़हर मिला रही है। बात केवल खाने की ही नहीं है,‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ चीज़ों, बीजों के इस्तेमाल से हमारे पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव पडेंगे। कुछ प्रभाव तो हम अभी से ही भोग रहे हैं। कोपनहेगन में पर्यावरण के मुद्दे पर विचार-विमर्श के नाम पर हुई नोटंकी भी हम देख चुके हैं। थाली में ज़हर अपने विषय को बेहतीरन ढंग से प्रस्तुत करती है और इसके लिए ‘थाली में ज़हर’ की पूरी टीम बधाई की पात्र है। ‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ खाद्य पदार्थों पर 12 जनवरी 2010 के जनसत्ता में कृष्ण कुमार का एक संक्षिप्त लेख छपा था। हम बिजूका के पाठकों और दर्शकों के लिए वह लेख भी दे नीचे दे रहे हैं।
सत्यनारायण पटेल

ज़हर की खेती


कृष्ण कुमार
इस ज़हर से हर शख्स अनजान बन कर क्यों बैठा है ! हम बात कर रहे हैं उस खतरे की जो धीरे-धीरे दबे पाँव भारत की एक अरब से भी ज़्यादा आबादी के बीच अपने पैर पसारने के लिए छटपटा रहा है। हम बात कर रहे हैं उन जीन प्रसंस्कृत उत्पादों की जो न सिर्फ़ भारतीय अर्थव्यवस्था लिए एक बड़ा ख़तरा हैं,बल्कि मानव शरीर के लिए भी किसी मीठे ज़हर से कम नहीं हैं।

लेकिन हमारी सरकार इस ज़हर को भारतीय जनता के लिए एक पकवान की तरह परोसने के लिए बड़ी आतुर दिख रही है। गत माह दिल्ली में बायोटेक्नोलाजी नियामक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी की बैठक में जीन प्रसंस्कृत बैंगन के व्यावसायिक इस्तेमाल को मंजूरी दे दी गई। इस मंजूरी के बाद जीन प्रसंस्कृत उत्पादों का बीज विदेशों से हमारे खेतों में, हमारे खेतों से भारतीय बाज़ार में और फिर एक धीमे ज़हर की तरह हमारे शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश कर लेगा।

आप सोच रहे होंगे कि आख़िर क्या है यह जीन प्रसंस्कृत उत्पाद ? जीन प्रसंस्कृत उत्पाद जिन्हें ‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ खाद्य भी कहा जाता है, में जेनेटिक इंजीनियरिंग की सहायता से कुछ ऎसे रासायनिक तत्त्वों का उपयोग किया जाता है जिनसे न तो यह उत्पाद जल्दी ख़राब होता है और न ही इसमेम उत्पाद के दौरान कीड़े लगने की संभावना होती है। लेकिन क्या कभी किसी ने यह सोचा है कि इन उत्पादों में प्रयोग होने वाले रासायनिक तत्व मानव शरीर के लिए कितने घातक होंगे !

बीटी कपास एक ऎसा ही जैव संवर्धित उत्पाद है जो भारत में पहले ही आ चुका है। इसके बुरे असर से न केवल पशु, बल्कि भारतीय किसानों का भी स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है। बीटी कपास के बाद बीटी बैंगन ऎसा दूसरा उत्पाद है, जिसके बारे में शोधकर्ताओं की राय है कि यह महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव डालता है और इससे हमारे खेतों की उत्पादन क्षमता भी प्रभावित होती है।

इन उत्पादों को बनाने वाली प्रमुख कंपनी मोनसेंटो का कहना है कि इनकी उत्पाद प्रक्रिया में खेतों में कीटनाशक डालने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जरा सोचिए, इन बीजों में किस तरह के कीटनाशकों का प्रयोग किया गया होगा जो न सिर्फ़ बाहरी कीड़ों का, बल्कि हामारे पेट के कीड़ों का भी सफाया कर देंगे और फिर धीरे-धीरे हमारे शरीर की कोशिकाओं का। ये तो वही बात हुई कि ‘ न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।’

बी टी बैंगन बनाने के लिए बैंगन के जीनों में बैक्टैरिया के जीन प्रत्यारोपित कर पौधों के अंदर ही ऎसा ज़हर पैदा किया जाता है जो फ़सल नष्ट करने वाले कीड़ों को मार देता है। ऎसे विषैले बीजों के निर्माता ये दावा करते हैं कि किसान इन बीजों के उपयोग से रासायनिक कीटनाशक का इस्तेमाल कम कर सकेंगे। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इन उत्पादों के ख़तरनाक प्रभाव के कारण इन्हें नकार दिया है। आज दुनिया के अधिकतर देश इसे नकार रहे हैं। इस सबके बावजूद कुछ महाशक्तियाँ क्यों इसे इसी देश पर थोपने का प्रयास कर रही हैं ? शायद वे हमारी व्यवस्थागत कमज़ोरियों से परिचित हैं। मोनसेंटो जैसी कुछ ही कंपनियों के हाथ में इस प्रोद्योगिकी का एकाधिकार है। प्रतीत होता है कि सरकार पर विकसित देशों का दबाव है कि भारत की खाद्य सुरक्षा नष्ट करके हमारे देश को परावलंबी बना दिया जाए। सरकार को इस विषय पर गंभीरता से सोच-विचार कर निर्णय लेन चाहिए क्योंकि हमारे देश की साठ प्रतिशत जनता कृषि से जीविकोपार्जन करती है। इन उत्पादों का प्रभाव न सिर्फ़ हमारी कृषि व्यवस्था पर पड़ेगा, बल्कि मानव स्वास्थ्य भी इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। अगर जैव संशोधित फ़सल को इस देश में अनुमति मिल गई तो वे आपके और हमारे लिए विकल्पों का अंत होगा।
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लेकिन हमारे यहाँ के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई ए आर आई) के निदेशक महोदय बीटी बैंगन की ज़बर्दस्त वकालात करते हुए कहते हैं- खाद्य सुरक्षा की स्थिति को बेहतर करने के लिए देश को जी एम फ़सलों की ज़रूरत है। लिहाज़ा उन की बातों को दरकिनार किया जाना चाहिए जो निहायत स्वार्थ या अग्यानता के कारण जीएम फ़सलों पर भ्रांतियाँ फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। आई ए आर आई ने यह अनगढ़ टिप्पणी उस समय की है, जब देश में बी.टी बैंगन का विरोध होने के बाद पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश देश में जीन संवर्धित फ़सल पर अलग-अलग समूहों से सार्वजनिक चर्चाएँ कर रहे हैं। आई ए आर आई के निदेशक डाक्टर श्री हरिशंकर गुप्त फरमाते हैं- जीएम फ़सलों पर हमें भ्रांतियों का शिकार नहीं होना चाहिए। वैग्यानिक सच को स्वीकार करना चाहिए। आधुनिक तकनीक की बदौलत विग्यान अब जाकर जी एम फ़सलें ईजाद कर पा रहा है। क़ुदरत यह काम पिछले हज़ारों बरसों से करती आ रही है। (जीएम बीज आप हमें फटाफट क्यों परोस रहे हैं जनाब, हज़ारों वर्ष न सही एक हज़ार वर्ष ही परख लो कि जी एम से क़ुदरत और प्राणी मात्र को भी कोई ख़तरा है या नहीं, अभी तो आपने जीन बेजुबानों पर इसका प्रयोग किया, उनकी वॉट लगी हुई है, ऎसा मैं अकेला नहीं हज़ारों लोग कह रहे हैं और फ़िल्म में यह सब दिखाया गया है) जो गेहूँ चावल आज हम खा रहे हैं, वे क़ुदरत के हज़ारों बरसों के जीन संवर्धन की ही उपज है। आई ए आर आई निदेशक महोदय के मुताबिक जी एम फ़सलों में कुछ भी ‘अप्राकृतिक’ नहीं है। निदेशक महोदय से सवाल है कि क्या ज़हर प्राकृतिक नहीं हो सकता ? और जी एम बीजों में जो तरीक़े अपनाये गये वे सब प्राकृतिक है ? बी.टी कॉटन देश के जीन इलाक़ो में बोया गया। वहाँ किसानों को क्या-क्या भोगना पड़ा सजग लोगों से छुपा नहीं है। कई किसानों बी.टी कॉटन बोने के कारण हुए घाटे के कारण आत्महत्या की है। कई ने बी.टी कॉटन के संपर्क में आने के कारण असाध्य रोंगों से तंग आकर की है।
इस सबके कई प्रमाण मौजूद है, उन सबको, ‘ज़हर की थाली’ में दिखाए गये परिणामों और शोध को सब को नकारना अक्लमंदी नहीं है। निदेशक महोदय आप लोगों को गेलचौदे समझते होंगे, पर लोग हैं नहीं। उनके पास सोचने-विचाराने को प्राकृतिक रूप से उनके भीतर विकसित हुआ दिमाग़ हैं और दर्शक फ़िल्म देखकर कहते हैं-

चन्द्रशेखर बिरथरेः यह मुद्दा बहुत ही संवेदनशील है। देश की जनता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। अब कैंसर जैसी बीमारियाँ आम हो गयी हैं। आम लोगों को मालूम ही नहीं है कि वे कितनी ज़हरली वस्तु खा रहे हैं। ऎसी वस्तुओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाने की ज़रूरत है।
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रेहाना हुसैनः फ़िल्म आँख खोलने वाली है। जी एम फुड कितना भयानक नुकसादेह हो सकता है, यह फ़िल्म देखकर पता चलता है। सुअर का जीन चावल में डालना। मच्छली का जीन गेंहूँ में डालना और पैदावार को कई गुना बढ़ाना, मानवीय और नैतिक मूल्यों पर बड़ा कुठाराघात है। हमारे भारतीय बाज़ार में मेक्डानल, केंट की चिकन एवं कार्न चिप्स आदि धड़ल्ले से बेचे और खाये जा रहे हैं। सोया प्रोडक्स की भरमार है, जिसका 1989-94 में अमेरीका उपभोग वाले कई लोग अचानक दम घुटने से मौत की नींद सो गये। हमारे यहाँ एसी वस्तुओं पर कोई रोकथाम का न होना हमारी सरकार की मूर्खता को उजागर करता है।
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प्रवीण गोखलेः हम जानते भी नहीं है और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना काम कर रही है। लेकिन कई ऎसे भी क्षेत्र की हम जानकर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को उनकी मनमानी करने से नहीं रोक सकते, क्योंकि भारतीय सरकार भी उनके साथ है।
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सीमाः फ़िल्म देखकर यह पता चला कि बड़े-बड़े मॉल में महँगी और बाहर सस्ती दुकानों में भी जो फटाफट खाना परोसा जाता है, और जो डिब्बा बंद होकर बड़ी कम्पनियों से आता है। वह हमारे घर-परिवार और वातावरण के लिए बहुत घातक होता है। इसे खाने से बचने की ही नहीं, इसके ख़िलाफ़ सामूहिक रूप से आवाज़ उठाने की भी ज़रूरत है। लेकिन किससे कहें लोग समझते ही नहीं।
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शब्बर हुसैन रंगवालाः फ़िल्म देखकर लगता है कि हमें प्रवचनों के बजाय इन सामाजिक मुद्दों पर सक्रियता से बहस और काम काम करने की ज़रूरत है। देश में एक विशाल जन आँदोलन की सख़्त आवश्यकता है।
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रोहितः फ़िल्म बहुत अच्छी है। छोटी बच्ची जिसका नाम सुनिता है बड़ी मेहनत से पैसा कमाती है, लेकिन इतनी मेहनत से कमाये पैसों से वह खाने के नाम पर ज़हर ख़रीदकर खाती है। यह सरकार की जवाबदारी है कि ज़हर को बेचने से रोके।
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बिजूका फ़िल्म क्लब
बिजूका लोक मंच
संपर्कः bizooka2009.@gmail.com, ssattu2007@ gmail.com, 09826091605, 0939852064, 09300387966, 09302031562, 09893200976, 64, शहीद भवन , न्यू देवास रोड, ( राजकुमार ओवर ब्रीज के पास) इन्दौर (म.प्र.)

23 जनवरी, 2010

Dear Friends,

The Indian government is considering approving genetic modification of our fruits and vegetables starting with Brinjal. While a rigged up "Expert" Committee has recommended clearance to genetically modified Bt Brinjal, due to concerns raised by independent scientists and farmer groups, Minister Jairam Ramesh has requested public feedback before making a decision in February. Let us make our voices heard and democracy work! We can still save our Brinjal!

On January 30, the day that took Mahatma Gandhi from us, a day that also happens to be the last day of the offical national consultation hearing on BT Brinjal, we are planning to gather in different locations across India in prayer and fasting to stop Bt Brinjal. The call for a National Day of Fast is being given by several individuals, groups and people's movements including members of the Coalition for GM-Free India and National Alliance for People's Movements.

We request everyone both individually and from various groups and coalitions to sign up to participate on the day by either fasting or lighting a candle... either at your homes, or in groups at locations across India. The information from all sources will be constantly updated at the easy to remember URL
brinjal.org

Here is what you can do:

-- Sign up for fasting or lighting a candle on Jan 30: please click here.

-- Organize a fast gathering on Jan 30: Please send an email to aidsite@gmail.com to get your location listed. See venues.

-- For action leading up to Jan 30, please attend the national consultations and also write to the Minister your views even if you are not able to attend personally.

Sign up for fast or to light a candle Why Save Brinjal Why the National Day of Fast?

Sign up note --

To:

Shri Jairam Ramesh,
Minister of State (I/C) for Environment & Forests,
Government of India.


I would like to convey to you that on Martyrs’ Day January 30 2010, I intend to fast or light a candle to ensure that Indian farming and food systems are free of Genetically Modified food items and to stop the Indian Government from giving any approval to Bt Brinjal. I believe Bt Brinjal would damage our health and adversely impact the environment owing to combining the poisonous Bt genetic material with vegetables. More so, it will open the floodgates to such technologies which will enslave Indian farming and threaten our food sovereignty.

Genetic engineering technology is not going to solve the issue of hunger. The answer lies in education, livelihoods, human rights and sustainable agriculture, development and appropriate technology. Bt Brinjal is a costly experiment to try on the Indian soil and the burden of its failure will have to be borne by common people, if approved. A few corporates and seed companies profit by this and the government should not succumb to the vested interests that are threatening the independence of the farmer and our rich traditional seed and and crop varieties that have sustained us for generations.

On January 30th, while remembering the Mahatma and his hard-fought battle of Swarajya through Satyagraha, I choose to uphold the national food sovereignty from needless, hazardous and enslaving technologies like GM seeds and in particular, Bt Brinjal. I have decided to join the hands of millions across the country to remember the Mahatma, who taught us the most equitable, just and sustainable way towards self-reliance.

Click to Sign

17 जनवरी, 2010

दिसम्बर की सर्दी में तेरा जाना, यार..उपेन… कुछ जँचा नहीं

दिसम्बर की सर्दी में तेरा जाना, यार..उपेन… कुछ जँचा

ये भिन्न-भिन्न बोलियाँ / ये लाठियाँ, ये गोलियाँ

यह उपेन्द्र मिश्र की कविता की पंक्तियाँ हैं। उपेन्द्र मिश्र मुझसे तक़रीबन चौदह-पन्द्रह बरस बड़ा था। लेकिन हमारी मित्रता में उम्र कभी आड़े नहीं आयी। हम जब भी मिलते थे, समान उम्र दोस्तों की ही मानिंद मिलते थे। संदीप नाईक, राजेन्द्र बन्धु, और उपेन्द्र मिश्र देवास में ही रहते थे। मैं और बहादुर पटेल अपने गाँव लोहार पिपल्या में रहते थे। लोहार पिपल्या देवास से नौ किलो.मी. दूर आगरा-बाम्बे मार्ग के किनारे क्षिप्रा से एक किलो.मी पहले है।

जब शुरुआत में उपेन्द्र मिला था। वह देवास में वहाँ से आया था, जहाँ जमाने भर से लोग जाते हैं, यानी कि वह बम्बई से नया-नया देवास में आया था। लेकिन असल में उत्तर प्रदेश का था, उसके भइय्यन और बम्बइया दोनों ही लटके-झटके शामिल थे। वह पत्रकार और भाभी सरकारी कॉलेज में प्रोफेसर थी। शायद वही मुख्य वजह थी कि वह देवास आ गया था।
दोस्ती की शुरुआत के बाद हमें आपस में घुलने-मिलने में ख़ासा वक़्त नहीं लगा। लगभग रोज़ का मिलना। शाम ढ़लने तक एकलव्य की लायब्रेरी में और रात को बस स्टैण्ड के आसपास किसी जगह पर। कभी संदीप के कमरे पर । कभी बी.बी. श्रीवास्तव के आफिस पर, जो अब साधु बन गया है और काला कुन्ड के जंगल में अपना आश्रम खोलकर बैठा है। कभी-कभी जब हम देवास नहीं जाते। इनमें से कोई न कोई हमारे गाँव आ जाते। जब मैं क्षिप्रा में फोटो स्टूडियो पर बैठने लगा, तो उस पर भी चले आते। बी.बी तो देवास साइकिल ही से क्षिप्रा आता। वहाँ भी अपनी कहानी या कविता सुनते-सुनाते।

एकलव्य राधागंज, देवास में महीने की हर पाँच तारीख को गोष्ठी किया करते। जिसमें सब अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ करते। प्रकाश कांतजी के बाल तब एक दम काले और घने थे और वे अरलावदा से आते थे। जीवन सिंहजी के सिर पर तब बालों का इतना ज़्यादा टोटा नहीं था। प्रकाश कांतजी, जीवन सिंहजी, हमसे उम्र में काफी बड़े थे, और हमारे लिए तो बड़े अचम्बे भी थे, क्योंकि देवास में सबसे ज़्यादा बाहर के पत्र-पत्रिकाओं में यही दोनों छपते थे। इनसे दोस्ती वाला मामला नहीं था। एक आदर और लिहाज वाला तआरूफ़ था। अब जैसा घर आना-जाना पहले न था, गोष्ठियों में ही मिलते थे। लेकिन हम जो बारह-पन्द्रह बरस आपस में छोटे-बड़े थे, हमारा एक टुल्लर था, जिसमें बाद में मनीष वैद्य भी शामिल हुआ। इसके अलावा लिखने-पढ़ने वालों में मालवी बोली के महत्त्वपूर्ण कवियों मदन मोहनजी, नगजीराम साथी से भी मिलना-जुलना गोष्ठियों में हीहुआ करता था। अच्छा.... हाँ.. एक बात और…. दुर्गा उत्सव, गणपति उत्सव के मौक़ों पर और कई बार केवल कविता के ही मौक़े पर हम गाँवों में साइकिल से कविता पाठ के लिये जाते थे। और बड़े लटके-झटकों के साथ मंच से कविता पढ़ते थे।

फिर कब उपेन्द्र से वह उपेन हो गया याद नहीं। काली-उजली रात, सूर्या होटल, रूपाली ढाबा, प्रेस्टीज होटल और फिर चामुन्डा की टेकड़ी पर की बैठकों ने हमें शहर के प्रेस्टीज वालों से अलग एक ही थैली के चट्टे-बट्टे बना दिये । हँस में राजेन्द्र यादव ने न लिखने के कारण लिखा तो उपेन ने हँस के भीच बहस में न लिखने के कारण का कारण लिखा। निडरजी के घर के ओटले पर, घन्टाघर, नगर निवास सिनेमा के सामने या कहीं भी कभी भी महफिल जमती तो सारे चट्टे-बट्टे हाज़िर हो जाते।
6 दिसम्बर 1992 के बाद इन्हीं सब चट्टों-बट्टों से दूर होकर 35 कि.मी. दूर मैं इन्दौर में नौकरी करने आ गया था। फिर इन्दौर से ठेट बम्बई जितनी दूर ग्वालियर के तिघरा पी.टी.एस. में प्रशिक्षण के लिए जा फँसा था। लेकिन दिल के तार सबसे जुड़े थे, ख़त लिखना-भेजना भी चलता था। ग्वालियर लौटने के बाद मैं इन्दौर प्रलेसं से जुड़ा था। फिर विवेक भाई को पटा-पुटुकर देवास में भी प्रलेसं की इकाई बनवायी थी। ‘एक दिन कहानी पर’ आयोजन किया था। बहादुर पटेल, उपेन, सबने दौड़-दौड़कर काम किया था। आयोजन में भालचन्द्र जोशी, दिलीप सिंह पवांर, संदीप नाईक, मनीष वैद्य ने अपनी-अपनी कहानी पढ़ी थी। तब तक ऎसे महत्त्वपूर्ण और चन्द्रकांत देवताले, कमला प्रसाद जैसे नरे बड़े-बड़े लोगों के बीच पढ़ने लायक मेरे पास तो कहानी ही नहीं थी, तब मैं ज़्यादातर कविताएँ और लघुकथाएँ ही लिखता था, हालाँकि एक-दो कहानी इन्दौर से निकलने वाले अख़बार में आ चुकी थी। उस आयोजन में ही प्रलेसं देवास इकाई गठन हुआ। उस दिन बहादुर को प्रलेसं देवास इकाई का सचिव बनाया गया, दूसरे टर्न में उपेन देवास इकाई का सचिव बना। उपेन के समय में चाल थोड़ी धीमी थी, लेकिन कभी काम रुका नहीं।

उपेन के जाने से पहले प्रलेसं, देवास इकाई का मनीष वैद्य सचिव और बहादुर अध्यक्ष था। ये दोनों भी पट्ठे भिड़े रहते थे, जैसा तै हो जाता करने लगते। कभी नहीं नटते। क्योंकि एक भरोसा था, एक उत्साह था और प्रतिबद्धाता थी एक ख़ास विचारधारा के प्रति। लेकिन फिर जब इनके सामने विचारधारा की दलाली करने वालों की पोल खुली, प्रलेसं देवास और इन्दौर इकाई औंधे मुँह जा गिरी।

उपेन ने अपने देवास के शुरुआती दिनों में स्थानीय अख़बारों में काम किया। सुदामाप्रसादजी की रचनाओं का समग्र- शेषःनिशेष संपादन किया था। उपेन पी. यू. सी. एल. से भी जुड़ा हुआ था। मेधा पाटकर को बुला देवास में नर्बदा के मुद्दे पर व्याख्यान करवाना हो। हरसूद के मुद्दे पर सिल्वी और आलोक को बुलाकर बैठक करवाना हो। मेंहदीखेड़ा गोली कांड को लेकर जो भी भाग दौड़ करनी हो। साम्प्रदायिकता का मसला हो, कुछ और उपेन कभी पिछे नहीं हटता। फिर उपेन काफी समय से स्वतंत्र पत्रकारिता ही कर रहा था। पिछले दो-तीन सालों से उस पर एक ही धुन सवार थी, वह थी देवास नगर निगम द्वारा किये गये कुछ महत्त्वपूर्ण घपलों को उजागर करने की। उसने कुछ महत्त्वपूर्ण दस्तावेज भी जुटाये थे। नगर निगम देवास के भू माफिया और नगर निगम में बैठने वाले सफ़ेद पोश उसे अपना दुश्मन ही समझने लगे थे। धमकी, गाली-गलोच और धक्का-मुक्की से भी जब उपेन नहीं माना और भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले रखा, तो भ्रष्टाचारियों ने उस पर प्राण घातक हमला करवाया। वह गंभीर घायल हुआ। कुछ महीने प्लास्टर और पट्टियाँ बंधी रही। एक हाथ टूटने की वजह से स्कूटर नहीं चला पा रहा था, लेकिन पाँव साबुत थे। पैदल, बस और आॉटो से भाग-दौड़ करता था। भ्रष्टाचारियों के ख़िलाफ़ पूरा मामला देवास कोर्ट में ले गया था, लेकिन जैसा कि हमारे यहाँ न्याय नाम की चिड़िया आसानी से दिखाई नहीं पड़ती है। वह अभी उपेन को भी नज़र नहीं आयी थी। वह उन दिनों दो-तीन बार मेरे पास इन्दौर आया था। जब वह बस उतर मुझे फ़ोन कर बुलाता और मैं उसके पास जाता। वह सड़क किनारे खड़ा प्लास्टर चढ़े एक हाथ को गले में झूलती धोली डोरी में रखे और दूसरे हाथ में तमाम दस्तावेज से भरी प्लास्टिक की थैली लिये मिलता।

उन दिनों उसे दोस्तो से ही नहीं, उन संगठनों से भी उम्मीद थी, जिनके लिये वह सर्दी-गर्मी में दौड़-भाग करने से कभी नहीं नटता था। उसने जिन लोगों से मुझे उसकी मदद करने के बाबद बात करने को कहा, मैंने उनसे की भी। वे मेरी तुलना में उसकी मदद मुझसे बेहतर करने की स्थिति में भी थे। लेकिन उन्होंने उसकी मदद करने में कोई रुचि नहीं दिखायी। उनका अपनी अभिजात्य क़िसिम की व्यस्तताएँ थी, या केवल बताने भर को थी। मैं वस्तुस्थिति से अवगत था।
मैं उसे अपनी बाइक पर बैठाल कर अपने स्तर पर इस अख़बार के दफ़्तर गया, उस अख़बार के दफ़्तर गया। लेकिन भ्रष्ट देव देश के हर कोने में पाया जाता है जनाब। भ्रष्ट देव के कई बार दर्शन हुए। कुछ ने आसवासन दिया, किसी ने कुछ थोड़ा-बहुत छापा भी। लेकिन अख़बारों के लिए विग्यापन बड़ा चढ़ावा होता है। अतः जितनी मदद उसे चाहिए थी उतनी नहीं मिल सकी। उपेन के पास आने वाली धमकियों का ताँता कभी नहीं टूटा। लेकिन वह लड़ता रहा। लम्बी लड़ाई में अकेला पड़ता गया। शायद यही वजह थी कि कभी कम-ज़्यादा पी भी लेता। इन सब बातों के बावजूद वह किसी भी सूरत में शारीरीक रूप से ऎसा कमज़ोर नहीं था कि अचानक बाट पकड़ लेगा। मैं तो बाट देख रहा था, कि उपेन ज़ल्द इन टंटों से निज़ात पाकर उपन्यास पूरा करेगा।

हाँजी… दोस्तो में भी बहुत कम लोग जानते होंगे कि उपेन ने एक उपन्यास लिखना शुरू किया था। उसने मेरे साथ उपन्यास का कथानक जितना बाँटा था, मुझे अच्छा लगा था। दो-तीन बरस तक तो मैं छेदा धरता रहा। जब भी अकेला मिलता, कहता उसे लिख डालो। उसे पढ़ने की भूख बढ़ती जा रही है। लेकिन वह दूसरे-दूसरे मामलों में उलझता रहा। मेरी भी व्यस्तताएँ कम नहीं थीं, उपन्यास लिखवाने का तगादा कम पड़ता गया। उपेन कई कामों के साथ एक अधूरा उपन्यास भी छोड़ गया। आधा-अधूरा लिखा तो था, पर अब क्या मालूम कि पाँडुलिपी को कहीं अवेर के रख छोड़ गया है कि बोतल में भर देवास के मीठे तालाब में बहा गया है।

एक दिन बहादुर ने बताया कि उपेन को पिलिया हो गया है। बाम्बे हॉस्पीटल में भर्ती है। मुझे हँसी आयी थी। ख़ुद से कहा था- बहादुर को पता नहीं, पिलिया को उपेन हो गया होगा। और फिर पिलिया भी कोई ऎसी बीमारी है, जिसके लिए बाम्बे हॉस्पीटल में भर्ती होना पड़े। मेरे दायजी को पिलिया हुआ, बई को हुआ, दोनों बच्चों को हुआ, उनके लिए या और भी किसी के लिए दवा लानी पड़ती, तो मैं अलका-ज्योति सिनेमा की बग़ल वाली मिठाई की दुकान से पाव भर पेड़े लेकर इन्दौर सेन्ट्रल जेल रोड पर स्थित उस दुकान पर पहुँच जाता, जिसमें काला चश्मा लगाये और हाथ में बग़ैर मूठ का डन्डा लिये एक डोकरा बैठे होते। डोकरा बा पेड़ा में दवा मिलाकर सात ख़ुराक बना देते। वही सबको खिलाई और सभी ठीक हुए। लेकिन उपेन का पिलिया इतना नामी अस्पताल ठीक नहीं कर सका। उपेन को बम्बई रेफर किया गया।

और फिर बम्बई से तो वह आया ही था। वहाँ उसने अपने छात्र जीवन में स्टूडेन्ट फेडरेशन के साथ काफी काम किया था। अख़बारों से भी जुड़ा था। उसकी पूरी एक मण्डली थी वहाँ भी। देवास और बम्बई दोनों जगह की मण्डलियों को उससे काफी उम्मीद थी। पचास बरस भी कोई जाने की उम्र थी, और वह भी पिलिया जैसी ओछी बीमारी के बहाने से…! यार…..उपेन कुछ जँचा नहीं। पता नहीं तुझे मालूम होगा कि नहीं.. तुझे बताऊँ भी कैसे ! तेरे होते जिनकी निंद नागझीरी के केदार खो तरफ़ भाग गयी थी, उन्होंने तेरे जाने की ख़बर सुन, दाँत पिल्का..पिल्काकर देवास में मीठाई बाँटी यार…। अच्छा हुआ स्साला…. रास्ते का काँटा हट गया, उन्होंने कहकर एक दूसरे के हथेली पर हथेली मार ताली बजायी।

और मैं कितना बेबस..कितना पंगु और लाचार….. चाहकर भी उन एडीडॉस के जूते पहनने वालों, पान,पाउच और ज़र्दे से हुए उन काले-पीले दाँतों वालों का एक दाँत भी अपनी पनही से नहीं तोड़ सकता। काश मेरे पास टेप रेकार्डर की तरह की कोई मशीन होती, जिसे रिमाइन्ड कर सकता, तो मैं उसे अपनी पहली मुलाक़ात यानी एकलव्य की पाँच तारीख वाली गोष्ठी तक रिमाइन्ड करता। और फिर.. फिर.. करता। और वही.. वही सुनता- ये भिन्न-भिन्न बोलियाँ / ये लाठियाँ, ये गोलियाँ।
मैं जानता हूँ। उपेन तुम्हारी कविता अलाने-फलाने की तुलना में पासंग भी नहीं। लेकिन जिस रात मैंने तुम्हारी यह कविता सुनी थी, उस रात मुझे वह एक ख़ूबसूरत कविता लगी थी और तब मैं ज़्यादा कवियों को जानता भी नहीं था।
सत्यनारायण पटेल
14. 01. 2010

13 जनवरी, 2010

संवेदना और विषय वस्तु को ख़ूबसूरती से परदे पर उतारने वाले फ़िल्मकार

माजिद मजीदी हमारे समय के एक बेहतरीन फ़िल्म निर्देशक है। उनकी फ़िल्मों ने दुनिया में अपनी एक ख़ास पहचान बनायी है। बिजूका लोक मंच के बिजूका फ़िल्म क्लब की 25 वीं प्रस्तुति पर रविवार (04.-01. 2010 ) को फ़िल्म फादर का प्रदर्शन किया गया। इस मौक़े पर दर्शकों ने फ़िल्म के संबंध में जो अपनी राय ज़ाहिर की, वही नीचे प्रकाशित की जा रही है। अगर इस ब्लाग (bizooka2009.blogspot.com) पर छपी सामग्री पर या माजिद मजीदी की किसी और फ़िल्म पर, या देश-विदेश की किसी भी बेहतरीन फ़िल्म पर पाठक, दर्शक अपनी राय लिखना चाहते हैं, तो उनका स्वागत है।

सत्यनारायण पटेल

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चन्द्रशेखर बिरथरेः माजिद मजीदी की फ़िल्म फादर (PEDAR) एक बेहतरीन फ़िल्म है, जो मानवीय रिश्तों के टूटने-जुड़ने की एक अनूठी दास्तान है। औरत की विवशता, पति के खो जाने (मर जाने) के बाद, औरत का अकेलापन समाज क्यों नहीं बर्दाश्त कर पाता है ? किशोरवय का बच्चा मेहरोला ख़ुद की ग़लती के कारण अपने पिता को एक सड़क हादसे में खो देता है। इस दुर्घटना के अपराधबोध से ग्रसित वह बालक परिवार को पालने का बीड़ा उठाता है और गाँव से दूर बन्दरगाह पर रुपया कमाने निकल जाता है। लौटने पर पाता है कि उसकी माँ और बहनों को एक स्थानीय पुलिस अफ़सर ने अपना लिया है। पुलिस अफ़सर भी ज़िन्दगी से चोट खाया इन्सान है, जो मेहरोला की माँ से शादी करके अपनी ज़िन्दगी को मुकमल मानने की ग़लतफहमी पाल लेता है। मेहरोला की निगाह में वह पुलिस अफ़सर एक खलनायक बन जाता है। मेहरोला पुलिस अफ़सर को मारकर अपना इन्तकाम लेना चाहता है। एक दिन बीमार पड़ने पर उसकी माँ पुलिस अफ़सर के साथ उसे घर ले आती है। वहाँ ठीक होने पर मेहरोला पुलिस अफ़सर की सरकारी रिवाल्वर चुराकर भाग जाता है। पुलिस अफ़सर उसे ढूँढ निकालता है और गिरफ़्तार करके वापस लाता है। पुलिस अफ़सर की मोटर साइकिल ख़राब हो जाती है। रास्ते में रेतीले तूफान के कारण मेहरोला और अफ़सर रेगीस्तान में रास्ता भटक जाते हैं। गर्मी और प्यास के कारण अफ़सर बेहोश हो जाता है। मेहरोला को रेगीस्तान में ऊँट और भेड़ों के झून्ड नज़र आते हैं। वह उनके पीछे भागता हुआ जाता है और उसे एक पानी का झरना नज़र आता है। अपनी प्यास तो बुझाता ही है, पुलिस अफ़सर के लिए अपनी बनियान भीगाकर ले आता है और उसके मुँह पर बनियान से निचोडकर पानी डालता है, लेकिन पुलिस अफ़सर की चेतना वापस नहीं लौटती है, तब वह भारी-भरकम पुलिस वाले को बड़ी मेहनत से घीसकर बहते पानी के पास ले जाता है। पुलिस अफ़सर को तो पानी में डालता ही है ख़ुद भी पस्त होकर वहीं पसर जाता है। इस बीच वह जाने-अनजाने उसी पुलिस अफ़सर को अपना पिता मान लेता है। फ़िल्म में निर्देशक की गहरी पकड़ है। कई दृश्य मन मोहक बन पड़े हैं। रेगीस्तान में पानी के चश्मे, मिट्टी के घरों में लालटेन का जलना वहाँ की व्यवस्था के पिछड़ेपन को दर्शाता है। लेकिन वहाँ के लोगों का प्रकृति के प्रति प्रेम देखते ही बनता है। लाँग शॉट अमूमन पृष्टभूमि का छायाँकन करने को ही लिये जाते हैं, जो बेहतरीन बन पड़े हैं। फ़िल्म में निर्देशक ने लाँग शॉट का प्रयोग क्लोज अप शॉट की तरह शॉट दर शॉट बड़ी मेहनत के साथ किया है। फ़िल्म का प्रवाह धीमा होने के बावजूद, फ़िल्म दर्शकों को बान्धे रखती है। रेगीस्तान के रेतीले-पथरीले इलाक़ो में डामर की पगडन्डीनुमा सड़क इन्सानी साहस और प्रकृति पर इन्सान की विजय की गाथा कहती चलती है। यह भी लगता है कि इंसानी फितरत का विस्तार कुछ ज़्यादा है। व्यक्तिगत स्वार्थ की धूरी पर सामाजिक मान्यताओं का सच कैसे हावी हो सकता है, यह भी फ़िल्म में बख़ूबी दर्शाया गया है। लतीफ का चरित्र मुख्य पात्रों की बेशाखी बन कहानी को आगे बढ़ाते रहने का काम करता है।

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रेहाना हुसैनः फ़िल्म फादर सन 1996 में ईरान के माजिद मजीदी द्वारा निर्देशित की गयी है। फ़िल्म मुख्य रूप से पारिवारिक रिश्तों में परिस्थितियों का कारण आये बदलाओं पर आधारित है। फ़िल्म में एक सौतेले पिता पुलिस अफ़सर की भूमिका में मोहम्मद कासेबी और किशोरवय पुत्र मेहरोला की भूमिका हसन सोदकी के अंतरद्वन्दों का सटीक और ख़ूबसूरत फिल्माँकन किया गया है। दोनों ही अभिनेताओं ने अपने-अपने किरदार के साथ न्याय किया है। विधवा माँ और पुलिस अफ़सर की बवी की भूमिका पारिवश नाजारेह ने सशक्त ढंग से निभायी है। अपनी विधवा माँ और बहनों की परवरिश के लिए मेहरोला ईरान के दक्षिणी शहर में जाता है। लेकिन जब वह कुछ रुपये कमाकर, अपनी माँ और बहनों के लिए उपहार लेकर वापस लौटता है, तो उसके दोस्त लतीफ से मालूम होता है कि उसकी माँ ने पुलिस अफ़सर से शादी कर ली है, यह सुन मेहरोला का तो ख़ून ही खौल उठता है। वह ग़ुस्से भरा पुलिस अफ़सर के घर जाता है, पुलिस वाले से अपनी माँ और बहन को छोड़ने का कहता है। वह इसके ऎवज में पुलिस अफ़सर रुपयों की गड्डी देना चाहता है। लेकिन जब पुलिस वाला मना कर देता है, तो वह नोट पुलिस वाले के मुँह पर मार देता है। माँ और बहन के लिए लाये उपहार उसके दरवाज़े पर फेंक आता है। फिर एक बार और जाता है। उसके घर का शीशा पत्थर मारकर तोड़ देता है। उसके घर सामने के बग़ीचे के पोधे उखाड़कर तहस-नहस कर देता है। मेहरोला की ऎसी हरक़तों से उसकी माँ बहुत व्यथित होती है। यह सब होने की उसे पूर्व से शंका भी होती ही है, लेकिन पति कहता है कि जब मेहरोला आयेगा तो वह सब निभा लेगा। इसी दिलासा से वह थोड़ी निशिचन्त रहती है। वह मेहरोला को समझाने की कोशिश करती है कि यह दूसरा पिता भी अच्छा व्यक्ति है। वह बेटियों बड़ी इज़्ज़त और सुरक्षा देता है। लेकिन मेहरोला के मन में बनी ग़लत छवि आसानी से बदलती नहीं है। मेहरोला अपने असल पिता को चाहकर भी नहीं भूल पाता है, बाइक एक्सीडेंट में ख़ुद को दोषी मानता है। मेहरोला का दोस्त लतीफ अनाथ होता है। मेहरोला उसको साथ लेकर अपने पुराने घर को ही रहने लायक बनाता है। एक बार अपनी बहनों को चुपके से अपने घर ले आता है, तो पुलिस अफ़सर उसकी बीवी यानी मेहरोला की माँ परेशान हो जाते हैं, लेकिन फिर ढूँढ कर लड़कियों को वापस ले जाते हैं। लेकिन जब मेहरोला बीमार पड़ता है, तो उसका भी उपचार कराते हैं। लेकिन मेहरोला ठीक होते ही पुलिस अफ़सर की रिवाल्वर लेकर अपने दोस्त लतीफ के साथ लेकर वापस उसी शहर की ओर नो दो ग्यारह हो जाता है, लतीफ भी शहर जाकर पैसा कमाने का इच्छुक होता है, और फिर गाँव में उसका अपना सगा भी कोई नहीं होता है, इसलिए वह मेहरोला के साथ कुछ भी करने हिचकता नहीं है। जब पुलिस अफ़सर मेहरोला को ढूँढकर वापस लौटता है, तो रास्ते में आने वाली कठिनायों से, और पुलिस अफ़सर द्वारा हथकड़ी खोल देने और उसे भाग जाने का कहने पर उसका ह्रदय परिवर्तित हो जाता है और आख़िर में वह अपने सौतेले पिता की जान बचाने के लिए संघर्ष करता है। फ़िल्म का कथानक, फ़िल्माँकन, सिनेमेटोग्राफी और कलाकारों से उम्दा दर्जे का अभिनय करा लेना मजीदी साहब की खासियत उनकी हर फ़िल्म में नज़र आती है। पुलिस अफ़सर का अपने परिवार को घुमाने और उसके साथ घूल मिलकर रहने के दृ्श्य बहुत उम्दा बन पड़े हैं। कोई दृश्य विषवस्तु से अलग नज़र नहीं आता है। फ़िल्म अपनी 1.45 मिनट की अवधी में कथानक बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करती है। कुल मिलाकर फ़िल्म सार्थक संदेश देती है। अंत में पुलिस अफ़सर की जेब से तस्वीर का पानी में बहना और मेहरोला की ओर जाना अपने अधूरे परिवार को पूरा होने का संदेश देती है।

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यामिनिः फ़िल्म मुख्यतः बच्चे की मानसिकता पर है। इसमें बताया गया है कि कुछ मामलों में बच्चों की सहमति न ली जाती है तो आगे चलकर वह एक विकृति का रूप ले लेती है। फ़िल्म में पुर्न विवाह भी बताया है, जो अच्छा संदेश है। हमारे देश में आज भी कई ऎसी जातियाँ हैं, जहाँ पुर्न विवाह को सही नहीं मानते हैं। फ़िल्म में जो पिता है, वह केवल जैविक पिता नहीं है, एक पिता की कई ज़िम्मेदारियाँ होती है और वह निभाता भी है।

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पूजा पटेलः फ़िल्म में पहले तो लड़का अपने पापा के साथ नहीं रहता है, लड़ता है। लेकिन फिर अच्छे से रहने लगता है। लड़के का अपने परिवार के साथ अच्छे-से रहने लगना, मुझे इस फ़िल्म में यह अच्छा लगा।

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सत्यनारायण पटेलः माजिद मजीदी ईरान के ऎसे होनहार फ़िल्मकार हैं, जिनकी फ़िल्मों को देखकर लोग अच्छी फ़िल्म बनाने की तमीज़ हासिल कर सकते हैं। उनकी फ़िल्म पटकथा, सिनेमेटोग्राफी और संपूर्ण दृष्टि से परदे पर ग़ज़ब कर दिखाती है। जबकि हमारे यहाँ वॉलीवुड में करोड़ों रुपये के बजट वाली फ़िल्में बनती हैं, और करोड़ो रुपये बटोरती भी हैं। लेकिन समाज में संदेश के मामले में सिफर होती है। ऎसी फ़िल्में समझदार दर्शकों की नज़र में दो कौड़ी की साबित होती है। माजिद मजीदी संवेदना और विषय वस्तु को ख़ूबसूरती से परदे पर उतारने वाले फ़िल्मकार है।

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प्रदीप मिश्रः दूसरी फ़िल्मों से फादर जैसी फ़िल्मों की तुलना नहीं की जा सकती है। हाल ही में रिलिज 3 इडियट के बारे में ही बात करें तो वह भी आम फ़िल्मों से कुछ अलग है। जब कोई अपने समय में कोई रचनात्मक काम करता है, तो ज़रूरी नहीं कि वह उसी समय में लोकप्रिय भी हो। ऎसा कहीं कभी हुआ भी है अगर, तो ऎसे उदाहरण कम ही है।

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संपर्कः Bizooka2009.@gmail.com, ssattu2007@ gmail.com, 09826091605, 0939852064, 09300387966, 09302031562, 09893200976, 64, शहीद भवन , न्यू देवास रोड, ( राजकुमार ओवर ब्रीज के पास) इन्दौर (म.प्र.)

09 जनवरी, 2010

साम्राज्यवादी राजनीति के परीणाम तो भोगना पड़ेंगे

बिजूका फ़िल्म क्लब में फ़िल्म ‘ओसामा’ का प्रदर्शन दिनांक 3 जनवरी 010

फ़िल्म- ओसामा के निर्देशक-सिद्दिक बरमक है। भाषा वहाँ जो बोली जाती है, वही है, लेकिन अंग्रेजी सब टाइटल होने की वजह से फ़िल्म ठीक से संप्रेषित होती है। यह फ़िल्म सन 2003 में बनायी गयी है। फ़िल्म का फ़िल्मांकन काबुल या कहलो अफगानिस्तान में हुआ है। फ़िल्म के निर्देशक जनाब सिद्दिक बरमक ने फ़िल्म को बहुत ही ख़ूबसूरत और कलात्मकढंग से प्रस्तुत किया है। फ़िल्म देखकर यह समझ में आता है कि दुनिया में साम्राज्यवादी राजनीति और अमेरीकी दादागीरी के चलते अफगनिस्तान के समाज पर किस तरह का असर पड़ा है। वहाँ बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं की तादात में बढ़ोत्री हुई है। अधिकांस घर ऎसे हैं, जहाँ रोज़ी कमाने वाला कोई पुरुष नहीं बचा है। पुरुष या तो तालिबानियों के शिकार हो जाते हैं या अमेरीकी गोलियों का निशाना बन जाते हैं। बचे हुओं के सामने रोज़ी कमाना एक बड़ी समस्या पैदा हो गयी है। जीवन की गाड़ी बहुत भेरु घाट की तरह अंधे मोड़ और घुमावदार घाटी पर बड़ी कठिन से गुज़र रही है। फ़िल्म की मुख्य पात्र एक किशोर उम्र की लड़की है। लड़की के घर में माँ ओर दादी के सिवा कोई नहीं है। दादी बहुत बुजुर्ग और कमज़ोर है। माँ जवान है और काम करके कमा सकती है। लेकिन वहाँ साम्राज्यवादी राजनीति ने जो हालात पैदा कर दिये हैं, उसमें उसके रोज़ी कमाना तो दूर घर से निकलना भी ख़तरे से ख़ाली नहीं है। लेकिन पेट को तो रोटी चाहिए। यह मज़बूरी उस लड़की लड़का बनने पर विवश कर देती है। लड़की बाल कटाकर लड़का तो बन जाती है। एक छोटी दूकान पर काम भी करती है और किसी तरह ज़िन्दगी के कुछ दिन आगे सरकते हैं। लेकिन लड़की पर एक दिन तालिबानी की नज़र पड़ जाती है। वे उसे वहाँ ले जाते हैं जहाँ लड़कों को एक ख़ास तरह का प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान लड़की कई तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। जब उसे एक अंधी सूरंग में रस्सी से लटकाया जाता है। लड़की बहुत डर जाती है। ख़ौफ़ के कारण असमय मासिक धर्म आ जाता है और सबको पता चल जाता है कि ओसामा लड़का नहीं लड़की है। फ़िल्म में विधवा महिलाओं जिस कैद में रखना बताया है, वहीं लड़की को भी बुर्का पहना कर डाल दिया जाता है। एक दिन वहाँ तालिबानियों का एक मुखिया एक विदेशी पत्रकार और उसकी साथी को मौत की सज़ा भी सुनाता है, क्योंकि वह वहाँ के हालात को विडियों में रिकार्ड करते पकड़ा गया था। एक बूढ़ा प्रशिक्षक को वह लड़की जिसका नाम ओसामा है, पसंद आ जाती है। वह उसे मुखिया से माँग लेता है। उसे अपनी बीवी बना लेता है। प्रशिक्षक की पहले से कई बीवियाँ और बच्चे हैम, सभी को वह अलग-अलग कोठरी में ताले में बंद रखता है। ओसामा को भी सुहाग रात के बाद एक कोठरी में बंद कर देता है। पूरी फ़िल्म में एक दहशत का महौल बना रहता है। फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी, स्क्रीप्ट, संवाद और बुर्के के भीतर और बाहर जो डर उभरता है, वह सब इस तथाकथित साम्राज्यवादी राजनीति और व्यवस्था के बारे में धैर्य से सोचने को विवश करता है। आख़िर किस शान्ति के लिए या विकास के लिए धरती के कई हिस्सों में यह सब हो रहा है ? कुछ दृश्य जैसे हज़ारों महिलाओं पर पानी की बोछार कर उन्हें तितर-बितर करना। ओसामा का अपने बालों को गमले रोपना और उन्हें इस उम्मीद में स्लाइन से पानी देना कि वैसे ही बढ़ेंगे जैसे सिर पर रहकर बढ़ते। दर्शक की संवेदनाओं को झकझोर देते हैं।
सत्यनारायण पटेल

फ़िल्म देखने वालों का कहना है-

रेहाना- फ़िल्म सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों को बहुत ही सुंदर ढंग से प्रकट करती है। इस्लाम के उसूलों की आढ़ लेकर किस तरह औरतों का शोषण किया जाता है, इसका बख़ूबी चित्रण किया गया है। सिनेमेटोग्राफी एवं फ़िल्मांकन, संकलन अद्भूत है कुछ दृश्य बहुत उम्दा बन पड़े हैं, जैसे- एक पात्र जो परिस्थितिवश लड़की से लड़का बनना, और फिर क़दम-क़दम पर ख़ुद को लड़का साबित करते रहने के प्रयास के तहत पेड़ पर चड़कर दिखलाना, रस्सी से बाँधकर कुएँ में लटकाना, बूढ़े मौलवी से अपनी मर्ज़ी के बग़ैर शादी कर गधा गाड़ी में बैठकर ढलान की ओर धीरे-धीरे लुढ़कते हुए जाना। यह एक बिम्ब एक तरह से उसकी ज़िन्दगी की ढ़लान को दर्शाने वाला होता है। अंत में बूढ़े मौलवी का लड़की को एक कमरे में क़ैद करता है। लेकिन उसके कमरे पर ताला कौन-सा लगेगा यह लड़की को ही चुनने प्रस्ताव रखता है। बूढ़े के पास एक से एक ख़ूबसूरत ढ़ग से बनाये ताले होते हैं। यह सब दृश्य और घटनायें फ़िल्म में पात्रों पर जो असर करते हैं, वह करते ही हैं। लेकिन दर्शक को भी परेशाँ करते हैं। इस फ़िल्म का की पृष्ठभूमि ग्रामीण है। लेकिन ऎसी और इससे मिलते जुलती हमारे अपने इस तथाकथित सभ्य शहरी विकसित समाज में भी देखने को मिल जाती है। हमारे अपने इन्दौर में भूमि हत्या कांड हुआ था। यहाँ मेरा कहन कि शोषित होने वाला और शोषण करने वाले बराबर ज़िम्मेदार हैं। इस फ़िल्म में भी सभी विधवाएँ मिलकर अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का विरोध कर सकती थी, सफल होती, नहीं होती बात दूसरी है, लेकिन कोशिश तो कर ही सकती थी। उनका ऎसा न करना और सहना बर्दाश्त के लायक नहीं है। वे सब कुछ नहीं कर सकी उसके पीछे उनमें कहीं न कहीं शिक्षा का अभाव तो बताता ही है, यह भी बताता है कि पुरुष का दबदबा और आतंक किस हद तक है।
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चन्द्रशेखर बिरथरे- एक इंसान या कह लो एक जैसा सोचने वालों के हाथों में जब किसी भी तरह की ताक़त, राजनीतिक, धार्मिक या आर्थिक होती है, तो वे उसका मन माने ढंग से इस्तेमाल करते हैं। कह सकते हैं वे निरंकुश होने में भी संकोच नहीं करते। जो करते हैं उसे ही सही ठहराने के तर्क भी गढ़ लेते हैं। यह फ़िल्म निशित ही बहुत बेहतरीन ढंग से बनायी गयी है और एक बढ़े मुद्दे पर से नकाब हटाती है। जब हम साम्राज्यवादी राजनीति का तख्ता पलट नहीं सकते तो उसका फल तो भोगना पड़ेगा।
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इदरीस अंसारी- फ़िल्म में जो हालात पेश किये हैं, यह सिर्फ़ अफ़गानिस्तान तक ही सीमित है, लेकिन हालात बेहद ग़लत है। फ़िल्म में वहाँ ढोरों विधवाओं का होना बताया गया, उस मौलाना को निकाह के लिए किसी विधवा को ही चुनना था, एक कम उम्र की लड़की को नहीं। हक़ और बातील सिर्फ़ हमारे भारतीय महाव्दीप पर ही है।
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शकील अंसारी- फ़िल्म में जो हालात दिखायें हैं, ऎसे हालात फ़िल्म में ही है, ज़िन्दगी में नहीं, फ़िल्म बनाने वाले ने अपने दिमाग़ के ख़्याल पेश किये हैं, इनका इस्लाम से कोई वास्ता नहीं।
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अंजुम पारेख- बात अकेली इस फ़िल्म में दिखाये गये औरतों, बच्चों पर अत्याचार की नहीं है, हमारे देश और घरों में भी कमोबेश यही हाल है। बस, उसका रूप अलग है। औरत की अभिव्यक्ति की आज़ादी। संपत्ति पर अधिकार और उसके इस्तेमाल की आज़ादी सब पर ताले पड़े हैं।
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यामिनि- यह फ़िल्म देख मैं स्तब्ध हूँ। कोई समाज पर इतना अत्याचार कैसे कर सकता है और कोई इतना सह भी कैसे सकता है। यह पूरा खेल इस सड़ी-गली व्यवस्था में चल रही साम्राज्यवादी राजनीति का और उसके ख़िलाफ़ कोई ताक़तवर आंदोलन न होने का नतीजा है।
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04 जनवरी, 2010

अनंत में विलीन हो गई नंदाजी की वाणी




जीवन के साथ उम्र की हद तयशुदा है;नंदाजी के नाम से पूरे मालवी-निमाड़ी जनपद के लाड़ले कृष्णकांत दुबे भी उससे अछूते नहीं रहे और उस अनंत आकाश में विलीन हो गए जहाँ से अब उनकी वाणी को सुना नहीं जा सकेगा. ज़माना बड़ा बेरहम है साहब और उसकी याददाश्त और ज़्यादा ख़राब. अभी बीस बरस पहले की ही तो बात है जब मावला-हाउस का रूतबा पूरे मालवे-निमाड़ में छाया हुआ था और उसी मालवा हाउस के ईमानदार और निष्ठावान लोगों की संक्षिप्त सी सूची में कृष्णकांत दुबे आख़िरी नाम थे...यानी उनके बाद अब वैसी बलन के लोगों का नामोनिशान ही मिट गया समझिये. नंदाजी और दुबेजी आपस में ऐसे गडमड हो गए थे जैसे उस्ताद बिसमिल्ला ख़ान की शहनाई और पण्डित रविशंकर का सितार.एक प्रतिष्ठित प्रसारण संस्था के लेखक और प्रसारणकर्ता के रूप में कृष्णकांत दुबे (नंदाजी)अपने आप में एक करिश्मा ही थे.

रविवार की सुबह नईदुनिया में इसी अख़बार के दो पुराने स्तंभों के ढह जाने का समाचार पढ़ना दु:खद था. व्यवस्थापक दामोदरलाल पुरोहित और कृष्णकांत दुबे दोनो ही नईदुनिया की शुरूआत के साथी थे. दुबे जी सन ४८ से ५४ तक नईदुनिया के सम्पादकीय सहयोगी रहे. शब्द से दुबेजी का साथ जीवनपर्यंत बना रहा. वे आकाकशावाणी की वाचिक परम्परा के प्रमुख हस्ताक्षरों के रूप में कभी भी भुलाए नहीं जा सकेंगे. जो काम उन्होंने इन्दौर में रह कर किया वह यदि दिल्ली-मुम्बई में किया होता तो शायद उनका नाम भी प्रभाकर माचवे,चिरंजीत,सुरेश अवस्थी,जसदेवसिंह या पं.नरेन्द्र शर्मा से कम नहीं होता. लेकिन न जाने क्यों मालवी आदमी अपनी मिट्टी में एक किस्म का ’कम्फ़र्ट झोन’ तलाश लेता है उसी के आसरे अपनी ज़िन्दगी के सारे सुखों और उपलब्धियों को परिभाषित कर लेता है. दुबेजी भी मालवा हाउस के संतोषी और सुखी जीव बने रहे.सरलता और सौजन्यता का भाव ऐसा कि जब जिसने जो कहा;कर दिया. दुबेजी..नाट्य रूपांतर करना है...दुबे जी इस मास का गीत लिखना है...दुबे जी परिवार नियोजन पर एक एनाउंसमेंट लिखना है....दुबेजी मांडू पर एक रूपक लिखना है....कितने ही आग्रहों को दुबेजी मुस्कुराहट के साथ स्वीकार कर लेते और अपनी मातृ-संस्था का आदेश मान झटपट काम निपटा देते .मालवा हाउस परिसर में अब वह पीढ़ी ही नहीं बची जो दुबेजी या नंदाजी को शिद्दत से याद कर सके लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि दुबेजी आकाशवाणी इन्दौर के ऐसे पाने थे जो किसी भी बोल्ट पर फ़िट हो जाता था.

निर्विवाद रूप से वे खेती-गृहस्थी या ग्राम सभा कार्यक्रम का ऑक्सीजन थे और अपने अन्य दो साथियों भेराजी और कान्हाजी के साथ बरसों-बरस तक इस कार्यक्रम को निर्बाध चलाते रहे. ना कोई स्क्रिप्ट और ना कोई पूर्व-योजना. बस मौसम के मिजाज से ये तीनों जान लेते थे कि हमारे मालवा-निमाड़ के किसान भाईयों के खेत-खलिहानों में क्या हो रहा होगा और हाल-फ़िलहाल क्या कुछ बोलने की ज़रूरत है. आपको जानकर हैरत होगी कि किसान भाइयों के नब्बे फ़ी सदी कार्यक्रमों का प्रसारण लाइव हुआ है. हाँ उसमें प्रसारित होने वाली भेंटवार्ताओं,रूपकों या लोकगीतों का प्रसारण ज़रूर पूर्व-रेकॉर्डेड होता था लेकिन नंदाजी-भेराजी और कान्हा जी अमूमन बिना किसी काग़ज़ के कार्यक्रम प्रसारित कर देते थे.

इन्दौर में निकलने वाले गणेस विसर्जन की झाँकियों का सीधा प्रसारण, आकाशवाणी की काव्य-गोष्ठियों का संचालन, बच्चों के कार्यक्रम में छक्कन चाचा के रूप में दीदी रणजीत सतीश के साथ लाइव प्रसारण और हाँ उज्जैन में होने वाले सिंह्स्थ के शाही स्नान के सीधे प्रसारण और रेडियो रिपोर्ट में दुबेजी एक स्थायी स्तंभ होते थे.उन्होनें अशोक वाजपेयी के कालखण्ड में भोपाल के भारत भवन में हुए विश्व-कविता सम्मेलन को पूरे एक हफ़्ते कवर किया. कम लोगों की जानकारी में है कि वे प्रगतिशील लेखक संघ, इन्दौरे के संस्थापकों में से एक थे .जूनी इन्दौर के ओटलों पर शरद जोशी, रमेश बक्षी,प्रभाष जोशी, रामविलास शर्मा,महेन्द्र त्रिवेदी,और दुबेजी जैसे युवको का टोली खूब बतियाती और लिखने पढ़ने की दुनिया में अपनी आमद के ख़्वाब बुना करती थी.

कृष्णकांत दुबे के जाने से मालवा का एक शब्द-नायक चला गया है. उनके होने से सहजता और शालीनता का पता मिलता था. हाँ इस बात का हमेशा अफ़सोस रहेगा कि कृष्णकांत दुबे के भीतर बसे सक्षम हिन्दी कवि का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया.सुमनजी स्वयं दुबेजी कविताओं के क़ायल थे और उन्हें जब-तब लिखते रहने के लिये प्रेरित करते थे. लेकिन शायद मालवा-हाउस की की व्यस्तताओं में कवि कृष्णकांत दुबे उभर कर नहीं आ पाए. हाँ यह भी कहना चाहूँगा कि दुबेजी की प्रतिभा और सीधे-पन का सीधा लाभ उनके समकालीनों ने खूब लिया और राष्ट्रीय स्तर पर जब सम्मानों और पुरस्कारों की बात आई तो श्रेय लेने ख़ुद आगे हो गए;दुबेजी को पीछे धकेल दिया. लेकिन दुबेजी या नंदाजी का सच्चा सम्मान था ग्रामीण अंचलों के भोले और मासूम किसान भाईयों और श्रोताओं में ह्र्दय में बसी श्रध्दा. नंदाजी/भेराजी के मशवरों पर हज़ारों गाँवों के खेतो में हरियाली छाई होगी और सैकडों परिवारों को ख़ुशियाली मिली होगी. अपने जीवन के अंतिम समय तक दुबेजी के प्रिय बने रहने का एक महत्वपूर्ण कारण ये रहा कि वे आकाशवाणी के शक्तिशाली समय में भी मृदु और दंभ से परे बने रहे.अब आकाशवाणी बुरे दौर से गुज़र रहा है और जिन लोगों ने वहाँ अकड़कर काम किया उनकी क्या फ़ज़ीहत है वह पूरा शहर जानता है.

आकाशवाणी इन्दौर का वर्तमान रूखा दौर शायद मालवा हाउस के इस सपूत पर कोई रस्मी कार्यक्रम कर अपनी ज़िम्मेदारी की इतिश्री कर ले या न भी करे लेकिन बिलाशक इस परिसर के ज़र्रे ज़र्रे में मोहक मुस्कान और बड़ी-बड़ी आँखों वाले नंदाजी के किये हुए काम के सुनहरे कलेवर जगमागाते रहेंगे. दुबेजी ज़िंदगी भर अपनी माँ की नसीहत का पालन करते रहे कि ’नाना छटाक भर का मन पे...मन भर को वजन मती लीजे”(बेटा छोटे से दिल पर ज़माने भर का तनाव मत रखना) वाक़ई वे बिलकुल तनावमुक्तरह कर ख़ामोशी से अपना कर्म करते रहे और सौजन्यता की प्रतिमूर्ति बन कर मावला-निमाड़ के जनमानस पर छाए रहे.शब्द और स्वर से संगसाथ का अपना धर्म निबाहते रहे. मालवा हाउस के कर्मी उन्हें याद न करें न करें...लेकिन उस परिसर के बूढ़े पेड़ ज़रूर नंदाजी की याद में आँसू बहा रहे होंगे.राम राम हो नंदाजी

संजय पटेल