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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 फ़रवरी, 2013

हर शाख पर खिलेंगे भगत सिंह के सपनों के फूल


वक्तव्य



सत्यनारायण पटेल


यहाँ मौजूद और ग़ैर मौजूद प्यारे सथियो और देश वासियों…

सलाम

दोस्तों… यह इक्कीसवीं सदी है। देश और दुनिया के बहुत थोड़े लोगों के लिए विकास और तरक्की की सदी। इस सदी की चकाचौंध दुनिया की एक बड़ी आबादी को अंधेरे की गटर में धकेल रही है। मैं उसी गटर से बाहर निकलने को छटपटाता हुआ.. एक आदमी जैसा ही आदमी हूँ। मेरी समस्या यह कि मैं उस गटर से अकेला बाहर नहीं आना चाहता। मैं चाहता हूँ धरती की 85 प्रतिशत आबादी के साथ रोशनी में आना। लेकिन अभी रोशनी पर कब्जा है, आदमी की शक्ल वाले चन्द फिसदी पशुओं का। इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा और मर्मान्तक संघर्ष है आदमी जैसे आदमियों और आदमी की शक्ल वाले पशुओं के बीच। आदमी जैसे आदमी बार-बार अंधेरे की गटर से बाहर निकलना चाहते हैं, आदमी की शक्ल वाले पशु उन्हें अपने ग़ुलाम सरदारों की ठोकरों से बार-बार गटर में ठेल देते हैं। मैं इस जूझारू और अमर संघर्ष में शामिल बहुत नन्हा और कमज़ोर आदमी जैसा आदमी हूँ। मेरा हर हथियार, गोला-बारूद सिर्फ़ अथक जीजिविषा और विवेक से भींगा साहस ही है। यह हथियार भी पूँजी और पूँजी के बेटों यानी आदमी की शक्ल वाले पशुओं,  यानी धनपशुओं, के ग़ुलाम सरदारों को पसंद नहीं है। क्योंकि यह उनकी आँख में घास के सोंकलों की तरह चुभते हैं दिन-रात। क्योंकि यह उनके खसम अमरीका के हथियारों को चिढ़ाते हैं सुबह-शाम।

मैं मालवा-निमाड़ से आया हूँ आपके बीच। आपने अख़बार में पढ़ा ही होगा इन दिनों कुछ ज्यादा ही तरक्की की राह पर है मालवा-निमाड़। मालवा की धरती पर ताबड़तोड़ तरह-तरह की इंडस्ट्रियों का जंगल खड़ा करने का काम जारी है, तो निमाड़ में नर्मदा को छोटे-बड़े पोखरों की माला में बदलने का काम युद्ध स्तर पर जारी है। ह्रदय प्रदेश का मुखिया किताना झूठा और निर्लज्ज है..! एक तरफ़ तो नर्मदा को माई कहता है, और दूसरी तरफ़ माई को सिमेंट, पत्थर और लोहे से बँधवा रहा है जगह-जगह। या तो माई कहना बन्द करो, या बँधवाना बन्द करो भाई। जरा बताओ जगत मामा… ऎसी कौन-सी माँ है, जो अपने संतानों के हाथों बँधकर मुक्ति की साँस ले रही है..?

हमारे ह्रदय प्रदेश में शिव के विकास रथ में बैठा शिल्पी कैलास रौंद रहा है मालवा-निमाड़ की धरती को पग-पग। पगलाए हाथी की तरह।  सूख रहा है अंधेरे की गटरों में पड़े आदमी जैसे आदमियों की नसों में बूँद-बूँद नीर, या छलक रहा है नसों से लाल अबीर। और इस बात से कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि मैं मालवा-निमाड़ से आया हूँ या देश-दुनिया के किसी और हिस्से से आया हूँ। अँधेरे का रंग सब जगह काला ही होता है, और ख़ून भी हरेक की नसों में लाल ही बहता है। जैसा मेरे हृदय-प्रदेश में हो रहा है, वैसे देश-दुनिया के अनेक हिस्सों में हो रहा है। कहीं भी आँख उठाकर देखो- गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगड़, उड़िसा, बिहार, झारखण्ड, प.बंगाल या फिर हिमाचल प्रदेश। पूरे देश में विकास का रथ दौड़ रहा है बेसुध। रथ में बैठा धन पशुओं का ग़ुलाम सरदार बजा रहा है एक अश्लील गीत- हो रहा है भारत निर्माण.. हो रहा है भारत निर्माण। गीत के बोल की पोल खोलते आदमी जैसे आदमी भी फैले हैं हर जगह। मालवा-निमाड़ और बेतुल-मुलताई में सुनीलम माधुरी बेन, वाल सिंह, मेधा पाटकर, चित्तरूपा पालित और आलोक जैसे सैकड़ों-हज़ारों हैं। शेष भारत के अनेक इलाक़ो में दयामनी बारला, सोनी सोरी, सीमा आज़ाद-विश्वविजय, विनायक सेन, जीतेन मंराँडी, एस.पी.उदय कुमार, राधा बेन और हज़ारों-लाखों आदमी जैसे आदमी और उनके संघठन हैं।  
       
और बात सिर्फ़ देश की ही नहीं, देश से बाहर भी पूँजी के पहियों वाला विकास और तरक्की का रथ दलित, आदिवासी, किसान और मजदूर की गर्दन पर से गुज़र रहा है। फिर वह देश केन्या, इथियोपिया ब्राजील, कंबोडिया, कैमेरून, गैम्बिया, मडागास्कर, सेनेगल, तंजानिया, उगांडा, और जाम्बिया जैसा कोई देश हो। वहाँ भी विकास के रथ पर पूँजी के ग़ुलाम सरदार ही बैठकर घूम रहे हैं, और उतनी निष्ठा और पवित्र भाव से वैसे ही अश्लील गीत गा रहे हैं, जैसा हमारे यहाँ के मुखिया, सरदार गा रहे हैं। गीत को इतने ऊँचे स्वर में गाया और महिमामंडीत किया जा रहा है कि शोषित, उपेक्षित बहुसंख्य समाज के रुदन, संघर्ष और विद्रोह का स्वर अनसुना रह जाता है।  

प्यारे साथियों…. मैं कहना चाहता हूँ कि असमान विकास के दौड़ते ये रथ और उसमें बैठे ग़ुलाम सरदारों की शक्लें मुझे फूटी आँखों भी  नहीं सुहाती हैं। और मैं दावे से कह सकता हूँ कि अगर आपका खेती-किसानी और आदमियत से जरा भी गहरा रिश्ता है, तो यह असमान विकास और इन ग़ुलाम सरदारों की कुटिल मुस्काने आपको भी नहीं ही सुहाती होगी। क्योंकि आप और हम जानते हैं कि इस झूठी और छलावा तरक्की के रथ के पहिये की धुरी को चिकनी और पहिये को तेज़ गति से दौड़ाने के लिए जो ‘ बोळे’ लगाये जा रहे हैं, वे बोळे आदमी जैसे आदमी की खाल की चिन्दियों के हैं, और उन्हें किसी तेल में नहीं, आदमी के ख़ून में भींगोया जा रहा है।  

इन दिनों धनपशुओं का मुनाफ़ा बढ़ाने और उन्हें ख़ुश करने की खातिर धरतीपुत्रों से उनकी ज़मीन छीनने-लूटने का काम ज़ोर-शोर से चल रहा है। हमारे ह्रदय-प्रदेश में कभी यहाँ तो कभी वहाँ ग्लोबल इन्वेस्टर समिट हो रही है। कभी इंनफोसिस, कभी टाटा और कभी रिलायंस के गिद्ध मालवा की धरती पर पहुँच रहे हैं। उस धरती पर जो विश्व के किसी भी हिस्से से ज्यादा उपजाऊ, समतल और मक्खन जैसी मुलायम है। मालवा की यह धरती अकेली पूरे भारत का पेट भरने में सक्षम हो सकती है, तो निमाड़ पूरे भारत का तन ढाँकने जितना कपास पैदा कर सकता है। लेकिन इस धरती पर इंडस्ट्रियों का जंगल खड़ा करने की चमकदार साजिश रची जा रही है। और उन इंडस्ट्रियों को पानी और बिजली की कमी न हो, इसलिए मालवा-निमाड़ की जीवन रेखा नर्मदा पर छोटे-बड़े लगभग तीन हज़ार बाँधों की श्रृँखला बनायी जा रही है। 

ऎसे झूठे और अनचाहे विकास के ख़िलाफ़ मालवा-निमाड़ में नर्मदा बचाओ आन्दोलन लगभग छब्बीस-सत्ताईस साल से डटा हुआ है। मेधा पाटकर, चित्तरूपा पालित, देवराम भाई, आलोग अग्रवाल, रामकुँवर और कैलास भाई सरीके इसके जुझारू और संघर्षशील कार्यकर्ता हैं।

दोस्तों…मैं देश और दुनिया में होने वाले किसी भी तरह के विकास के ख़िलाफ़ नहीं हूँ। मैं बहुत शिद्दत्त से चाहता हूँ कि विकास हो और मनुष्य का जीवन स्तर लगातार बेहतर हो। लेकिन मैं जरा भी बर्दाश्त नहीं कर पाता हूँ असमान विकास की धारणा को। मेरा ह्रदय पसीज उठता है, जिस समय एक इंसान फटे-पुराने चिथड़ों में, भूखा-प्यासा किसी सड़क के किनारे कड़कड़ाती ठन्ड में गुड़ी-मुड़ी हो पड़ा रहता है, उसी समय एक दूसरा धनपशु अपने सत्ताइस माले महल के वातानुकुलित कक्ष में खर्राटे भर रहा होता है। वह धनपशु ऎसा इसलिए कर पा रहा होता है, क्योंकि उसने देश के सरदारों को ग़ुलाम बना रखे हैं। ऎसे अनेक देशी-विदेशी धनपशुओं ने ही देश के सरदारों को पूँजी के पहियों वाला रथ दिया है, जिसमें घूम-घूमकर धन पशुओं की मंशानुसार काम करते हैं। और धरती पुत्रों को एक अश्लील गीत- ‘ हो रहा भारत निर्माण’ सुनाकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं।

दोस्तों… अभी 28 जनवरी 13 की बात है। सुबह जब मैंने एक ख़बर पढ़ी तो मैं भौंचक रह गया। धनपशुओं की ग़ुलाम सत्ता के लिए…उसके पालतू चाकरों की नज़ीर थी यह ख़बर। ख़बर लगभग सभी अख़बारों के मुख्य पृष्ट पर थी- ‘बड़वानी में नक्शली’।

मैं आपको बताना चाहता हूँ कि बड़वानी म.प्र. का कुछ ही साल पहले बनाया गया ज़िला है। ख़बर की हेडिंग पढ़कर ही मुझे यह समझ में आ गया था कि यह एक झूठ है, जिसे किसी न किसी संगठन के माथे मढ़ने का प्रयास किया जा रहा है। बड़वानी में लम्बे समय से नर्मदा बचाओ आन्दोलन, के अलावा जागृत आदिवासी दलित संगठन भी तीव्र रूप से सक्रिय है।

एक तरफ़ नर्मदा बचाओ आन्दोलन लगभग छब्बीस-सत्ताईस बरसों से सरदार सरोवर बाँध के पुनर्वास, मुआवजे की लड़ाई लड़ रहा हैं। जिसमें शुरुआत से मेधा पाटकर, देवराम भाई जैसे आन्दोलनकारी हैं। फिर कैलास भाई, पवन भाई है। और आन्दोलन में मेरे लख्ते ज़िगर आशीष मंडलौई के योगदान और उसकी स्मृतियों को मैं कभी भूल नहीं सकता। और यही नहीं ‘मान बाँध’ के विस्थापित, जूझारू बोंदरी बाई जैसी प्रौढ़ ज़िन्दादिल स्त्री को, या फिर राळी और सकीना जैसी साहसी युवतियों की तरह की सैकड़ों सथिनों और साथियों के चेहरे मेरी आँखों से ओझल नहीं हो सकते हैं। जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी के बेहतरीन समय को किसानों, मज़दूरों, दलित-आदिवासियों के हक़ की लड़ाई में झोंक दिया हैं। जिनके चेहरे, पीठ, और पिंडलियों की सुन्दरता किसी कंपनी की क्रीम मलने से नहीं, कंपनियों की ग़ुलाम सत्ता की पालतू पुलिस के जूतों की ठोकरों, डन्डों और बन्दूक के कुन्दों के वार से निखरी थी। मैं ऎसे किसी भी साथी के संघर्ष को कभी नहीं भूल सकता हूँ। खैर…

नर्मदा बचाओं आँदोलन का दूसरा धड़ा पश्चिम निमाड़ और मालवा में मोर्चा संभाले हुए है। महेश्वर, हरसूद के बाद ओंकारेश्वर बाँध परियोजना पर बहुत दमदारी से डटा हुआ है। अभी कुछ माह पहले घोघल गाँव में सिल्वी, आलोक के साथ सैकड़ों ग्रामीणों का जल सत्यागृह हुआ था। ख़बरे तो आप ने भी पढ़ी ही होगी। घोघल गाँव जल सत्यगृह से प्रेरीरित होकर कुड़नकुलम में परमाणु सयंत्र के ख़िलाफ़ आन्दोलन करने वाले साथियों ने भी जल सत्यागृह का रास्ता अपनाया था। जहाँ हज़ारों कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह का मुक़दमा ठोंक दिया गया है। सरकार आन्दोलन कारियों पर झूठे-फर्ज़ी मुक़दमें इसलिए लगाती है, ताकि वे आन्दोलन करने की बजाए कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटे या फिर जेल में पड़े सड़ते रहे, और सत्ता सुकून के साथ देशद्रोही नीतियों और कामों को अंजाम देती रही है। आज देश भक्त होने का अर्थ ही बदल गया है दोस्तों….।

मैं कह रहा था बड़वानी ज़िले में जागृत आदिवासी दलित संगठन बहुत सक्रिय है। इस संगठन में माधुरी, वाल सिंह सस्ते और सैकड़ों दलित-अदिवासी स्त्री-पुरुष अपने हक़ के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इनका सबसे बड़ा गुनाह अपना हक़ माँगना ही है। बड़वानी ज़िला वह क्षेत्र है जिसमें देश में सर्वाधिक भ्रष्टाचार के प्रकरण उजागर हुए है। भ्रष्टाचार उन योजनाओं में, जो केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा किसान, मज़दूर, दलित और आदिवासियों के हित में लागू की गयी हैं। दरअसल आज़ादी के बाद से ही दलित-अदिवासी के नाम पर सरकार से आने वाले पैसे को हड़पने की लत प्रशासनिक और राजनीतिक तबकों के लोगों को लगी रही है, और यह लत छूट नहीं पा रही है। इस वजह से दलित-आदिवासी बहुल इलाक़ो में प्रशासन और सत्ता की राजनीति से जुड़े लोगों के बीच टकराव की स्थितियाँ पैदा होती रहती हैं। ‘बड़वानी में नक्शली’ ख़बर के पीछे की सच्चाई भी कुछ इसी तरह की है। यह बात शायद आपको आसानी से गले न उतरे कि बड़वानी जैसे छोटे ज़िले में मनरेगा का महाघोटाला हुआ है। पंचायत व ग्रामीण विकास विभाग के अधिकारियों द्वारा बड़वानी ज़िले के पानसेमल, निवाली और पाटी विकासखंडों की जाँच हो चुकी है, और लगभग 150 करोड़ का घोटाला उजागर हो चुका  है, जबकि अभी सेंधवा, राजपुर और ठीकरी विकास खन्डों में जाँच जारी है। इस जाँच में क़रीब सौ अधिकारियों और इंजीनियरों को लगाया गया है, और वे सिर्फ़ गत तीन वर्ष में मनरेगा में हुए कामों की जाँच कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि कई सड़कें, तालाब सिर्फ़ क़ाग़जों पर ही बने हैं, और पैसा प्रशासनिक अधिकारियों और सत्ता से जुड़े दबंग नेताओं के जेब में जमा हो चुका है। पंच, सरपंच और गाँव के गाँव ठगे गये हैं। जागृत आदिवासी दलित संगठन की माधुरी बेन, वाल सिंह और सैकड़ों कार्यकर्ताओं की सक्रियता का ही नतीजा है कि यह भ्रष्टता उजागर हुई है। इससे पहले भी ख़दान माफिया और तरह-तरह से आदिवासियों के हक़ को हड़पने वालों की करतूतों को इस संगठन ने बेपर्दा किया है। और इसके बदले में माधुरी सहित कई कार्यकर्ताओं ने खदान माफियाओं के हमले भी सहे, पुलिस के डन्डे भी खाये और जेल भी गये हैं।

यह एक मुख्य वजह है कि प्रशासन इस संगठन को नक्शलियों का संगठन ठहराने पर तुला है। आये दिन कार्यकर्ताओं पर झूठे मुक़दमें लगाता रहता हैं। ज़िलाबदर की कार्यवाही की जाती है, और तरह-तरह से मानसिक यातनाएँ दी जाती हैं। सोचने की बात है कि अगर हम आधे-आधूरे ही आज़ाद देश के नागरिक हैं, तब भी वंचित तबका सत्ता और प्रशासन की भ्रष्टता के ख़िलाफ़ कब तक मौन रहेगा..? और क्यों उसे मौन रहना चाहिए..? अपने हक़ के लिए लड़ने का अर्थ अगर नक्शल है….तो देश के 85 प्रतिशत लोगों को नक्शली कह कर गोलियों से भून देने या जेल में ठूँस देने की ज़रूरत है। क्योंकि यह 85 प्रतिशत लोग ठगे जा रहे हैं, और यह धीरे-धीरे ग़ुलाम सरदारों के ख़िलाफ़ लाम बन्ध हो रहे हैं। उनके दुश्मन यह ग़ुलाम सरदार नहीं, यह सिस्टम है, जो ऎसे धनपशुओं को पैदा कर रहा है, देश के सरदारों को पालतू बना रहे हैं। सवाल बड़ावानी का तो है ही, पर सिर्फ़ बड़वानी का कतई नहीं है। सवाल पूरे देश में चल रही भ्रष्टता का भी है।

दोस्तों… आप अभी भूले नहीं होंगे..! हम सभी ने हाल के दिनों में सजग जन समूहों को सड़कों पर उतरते देखा है। उनके भीतर भभकी ग़ुस्से की भट्टी ताप को महसूस किया है। उन्होंने भी अपने ग़लत चुनाव के पछतावे, खीज और बेबसी की ठेस से छलते नमकीन आँसुओं की धार से ह्रदय पर हुए जख़्मों के दर्द को चखा है। फिर वह अन्ना का आन्दोलन हो, या दिल्ली गैंग रेप। अन्ना का आन्दोलन तो पूरी तरह भटका हुआ था। वह सिर्फ़ लोगों के मन में इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ जमा होते गुस्से की हवा निकालने भर का था, सो वह अपने मक़सद में सफल रहा। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का छाता पूरी तरह सड़-गल और फट गया है। अब उसमें सूचना का अधिकार, मनरेगा, भोजन का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, लोकपाल, या कोई और सख़्त से सख़्त क़ानून आदि से कोई बात नहीं बनने वाली है। ये सब अधिकार या क़ानून छाते में थैगली तो लगा सकते हैं, पर थैगली को नयी नहीं बना सकते हैं। पर हमें नये छाते यानी नयी व्यवस्था जैसा सुख नहीं दे सकते हैं।  असल में हमें एक ऎसी व्यवस्था की ही ज़रूरत है, जिसमें आदमी और आदमी में समानता हो। किसी भी स्तर पर ग़ैरबराबरी अब नाकाबिले बर्दाश्त है। अब जनता और ज्यादा समय तक दर्द का स्वाद चखने के लिए अभिशप्त नहीं होना चाहती है। देश के आन्दोलन कारियों और क्रान्तिकारियों को जनता की इस भावना को समझना होगा। उसका आदर कर, ऎसा रास्ता अपनाना होगा, जिससे नयी व्यवस्था का निर्माण किया जा सके, और ऎसा करना देशहित में होगा, देश के ख़िलाफ़ नहीं। अगर ऎसा नहीं होता है, तो जनता के विवेकी ग़ुस्से और विवेकी जूते का स्वाद चखने के लिए तैयार रहना होगा। सिर्फ़ सत्ता को नहीं, बल्कि छद्म आन्दोलन कारियों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और क्रान्तिकारियों को भी। एन.जी.ओ. के गिरगिट शायद उस वक़्त भी रंग बदलने में सफल हो जाये, पर रंग बदलना सभी के लिए संभव नहीं है।

दोस्तों… यक़ीन मानिये…..जनता का विवेकी जूता बड़ा करामती होता है..। अभी इस जनता ने अपने चमत्कारी विवेकी जूते की तरफ़ सिर्फ़ देखा भर है, अगर उसका इस्तेमाल कर लिया…. तो क्या कहूँ बीरजी आपसे….?  बस इतना जान लें कि फिर भलेही क्यों न हो….. आततायी के बदन पर रिछ के बालों को भी धत्ता बताने जितने बाल…... जब पड़ते हैं जनता के विवेकी जूते…. आततायियों की नस्लें तक चिककी पैदा होती हैं। क्योंकि यह जूते गुच्शी कम्पनी में नहीं बनते हैं श्रीमान, जो धनपशुओं के ग़ुलाम सरदारों के पैरों की शोभा बढ़ायें। इन्हें धरती पुत्र अपने विवेकी ह्रदय की खाल से बनाते हैं, जो वाकय में बहुत करामाती होते हैं दोस्तों।

अभी तक देश चलने वाले अधिकांश जनान्दोलन शान्तिप्रिय ढंग से चल रहे हैं और वे अपने अधिकारों की रक्षा के लिए, राजकीय और धनपशुओं के संयुक्त अन्याय, शोषण, ख़िलाफ़ न्यायोचित माँग को लेकर चल रहे हैं। आन्दोलन कारी हिंसक गतिविधियों से, भड़काऊ भाषण से हमेशा बचते हैं, लेकिन राज्य धनपशुओं के दबाव में उन्हें हिंसक होने के लिए बाध्य करता रहता है। राज्य का तंत्र धनपशु के मातहतों की तरह काम करता है और अन्दोलन कारियों को कुचलने का प्रयास करता रहता है। राज्य जनान्दोलन कारियों पर तरह-तरह के फर्ज़ी मुक़दमें लगाता है, उन्हें नक्सलवादी ठहराने का प्रयास करता है, ताकि लोग आजीज आकर कोई ग़लत क़दम उठाये, ताकि राज्य की सशस्स्त्र पुलिस उन्हें आसानी से रौंद या भून सकें। बहुत दुःख और शर्म की बात है कि लोगों द्वारा चुने देश के मुखिया, देश के सरदार भी धनपशुओं के चाकरों की तरह पेश आते हैं। देश के सरदार देश की पगड़ी की लाज बचाने की बजाए, धनपशुओं के दाँतों और जूतों पर लगे देश के तीन लाख से ज्यादा अन्नदाताओं, देश के भाग्यविधाताओं के ख़ून को साफ़ करने में लगे हैं। किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला रुकने की बजाये बढ़ रहा है, और सिर्फ़ गाँवों में किसान ही नहीं,  शहरों में होने वाली छात्रों, बेरोज़गारों, कामगारों, महिलाओं, पुरुषों की आत्महत्याओं की वजह भी हमारी असफल नीतियाँ ही हैं। जिसकी ओर देश के अनेक बौद्धिकों का भी ध्यान नहीं है। कई बौद्धिक और पत्रकार तो सत्ता के दलाल बन कर तेज़ी से उभर रहे हैं, तो कुछ को बौद्धिक गिद्ध में तब्दील होने में भी कोई गुरेज नहीं है।      

आज देशी-विदेशी वाशिंगटनीय कुबेर नस्लीय तरह-तरह के गिद्धों के झुँडों की दृष्टि ज़मीन के भीतरी-बाहरी बहुमूल्य सम्पदाओं पर गड़ी है। इन सम्पदाओं को हाँसिल करने के लिए वे देश की लोक परंपराओं, मूल्यों और संस्कृतियों सहित धरती पुत्रों को भी चुग लेना चाहते हैं। ऎसे धनपिशाचों के ख़िलाफ़ बात करना, आन्दोलन करना अगर इनकी चाकर सरकरों की आँखों में चुभता है, तो चुभे। अगर लोगों द्वारा चुने सरदार धन पशुओं के इशारों पर, उन्हें ख़ुश करने और लाभ पहुँचाने के मक़सद से आगे बढ़ते रहना चाहते हैं तो बढ़े। अगर सत्ता देश के भक्तों को भगत सिंह, आज़द, बटुकेश्वर दत्त और असफ़ाक उल्ला के विचारों की रोशनी में चलने वालों को नक्शलवादी, माओवादी आदि..आदि कहकर मौत के घाट उतारती है, तो उतारती रहे। देश भक्तों पर देशद्रोही होने का मुक़दमा लादती है, तो लादती रहे। समय बतायेगा कि धनपशुओं की ग़ुलाम सत्ताओं की एस.एल.आर, एल.एम.जी. जैसे हथियारों की मैग्ज़ीनों में, या सिपाहियों की कमर में बन्धे बिल्डोरियों में गोलियाँ ज्यादा हैं, या इस धरती के पास इसके साहसी बेटों की संख्या ज्यादा हैं। यह पोल भी खुल रही है कि गोरे अंग्रेज ज्यादा क्रूर थे, या काले हैं। समय बतायेगा कि भगत सिंह और आज़ाद जैसे सैकड़ों धरती पुत्रों की क़ुर्बानियों से देश की युवा पीढ़ी ने कोई सीख ली कि नहीं..! समय ने बहुत कुछ छुपा रखा है अपने गर्भ में… देखना...उगलेगा जिस दिन समय सबकुछ…..हर शाख पर खिलेंगे … भगत सिंह के सपनों के फूल। देखना धनपशुओं के ग़ुलाम सरदारों…. साम्राज्यवादी पिशाच संस्कृति का कफ़न होगा वह समय। और यह समय ग़ुलाम सरदारों की कलाइयों में बँधी राडो कम्पनी की घड़ियों के काँटे नहीं बतायेंगे। काँटों की तरह नुकीली होती जनता की समझ बतायेगी वह समय। रुकता नहीं है कभी। जन-समझ घड़ी में समय का पहिया… टिक..टिक… तुम सुनों… न सुनों..! देश सुन रहा है। धरती पुत्र जाग रहे हैं।
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2 फ़रबरी 13, वर्धा

( महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वद्यालय, वर्धा (महाराष्ट्र) में ‘हिन्दी का दूसरा समय’ आयोजन ‘ 1 से 5 फ़रबरी 13 ’ को सम्पन्न हुआ। आयोजन के ‘ जनांदोलन ’ वाले सत्र में मेरे द्वारा यह लिखित वक्तव्य अधूरा पढ़ा गया। अयोजन में अलग-अलग विषय पर अनेक समानांतर सत्र चल रहे थे। हर सत्र में वक़्ताओं की ज़रूरत से ज्यादा अधिकता होने कि वजह से हर वक़्ता के पास समयाभाव था। इसलिए बहुत ही कम समय में यह पूरा पर्चा पढ़ा जाना संभव नहीं था। समय की सुई सिर्फ़ मुझे ही नहीं, वरवर राव जैसे वक़्ताओं को भी चुभाई जा रही थी। लेकिन खैर.. कम समय के सत्र के बावजूद सत्र बहुत विचारोत्तेजक थे और बहुत महत्त्वपूर्ण बातें हुई। इस काम के लिए संयोजक- कहानीकार श्री राकेश मिश्र की पीठ भी भपथपायी जा सकती है। वहाँ अधूरा पढ़ा पर्चा पाठकों और मित्रों के लिए यहाँ पूरा प्रस्तुत है। )