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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 जून, 2009

अल-रिसाला इस्लामिक इतिहास की कलात्मक प्रस्तुति


बिज़ूका फ़िल्म क्लब द्वारा 7 जून को दोपहर 12 बजे मसीह विध्या भवन, इन्दौर के दर्शकों से खचाखच भरे हॉल में फ़िल्म अल-रिसाला का सफल प्रदर्शन हुआ ।
अल-रिसाला के निर्देशक मुस्तफा मक्कद ने फ़िल्म के एक-एक दृष्य को इतनी बारीकी और कलात्मक ढंग से फ़िल्माया है कि दर्शक एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं देखता है। फ़िल्म का एक-एक संवाद जिस अदायगी के साथ बोला गया है, उसकी केवल तारीफ़ करना पर्याप्त नहीं है।
अल-रिसाला में संगीत भारत के मशहूर और कई अवार्ड प्राप्त संगीतकार अल्ला रक्खा रहमान द्वारा दिया गया है, जो अद्भुत है। अल-रिसाला की स्क्रीट, संगीत और अदाकारी ही नहीं, सिनेमेटोग्राफ़ी, एडीटिंग भी उम्दा है। फ़िल्म शुरू होते ही दर्शक को अपने भीतर इस तरह खींच लेती है कि दर्शक, दर्शक न रहकर फ़िल्म का एक हिस्सा हो जाता है।
अल-रिसाला में इस्लाम के विकास और पैगंबर मोहम्मद की कहानी को बहुत ख़ूबसूरती से फ़िल्माया गया है। मोहम्मद चालीस की उम्र में नबी हुए और फिर बाक़ी का जीवन (23 बरस) जिस संघर्ष के साथ बीता, उसे देख, समझकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है। जिसने कभी इस्लाम का ‘इ’ भी न पढ़ा, वह भी फ़िल्म देखकर यह समझ सकता है कि इस्लाम इंसानियत के हक़ की वक़ालत करने वाला धर्म है। जहाँ आदमी पर आदमी को किसी भी तरह के शोषण, अत्याचार, आतंक की ज़रा भी छूट नहीं है। जहाँ आदमी, औरत, अमीर, ग़रीब सबके बराबरी की बात की जाती है। जहाँ हक़ और ईमान की ख़ातिर किये जाने वाले संघर्ष को जेहाद कहते हैं और जेहाद करना इंसानियत के हित में हैं। फ़िल्म में इस्लाम के बारे में जो कुछ है, उस पर अमल किया जाये तो दुनिया में अमन और ख़ुशाहाली की बहार को आने से कोई रोक नहीं सकता।
इस्लाम के बारे में कुप्रचारित कई भ्राँतियों का अल-रिसाला कलात्मक ढँग से जवाब प्रस्तुत करती है। यह इस्लामिक इतिहास पर बेहतरीन नमुना है, इस फ़िल्म को किसी भी धर्म, सम्प्रदाय और जाति से ऊपर उठकर जो भी देखेगा, वह फ़िल्म देखने के बाद ख़ुद को पहले से बेहतर इंसान के रूप में महसूस करेगा।
फ़िल्म के प्रदर्शन से पहले बिज़ूका फ़िल्म क्लब के संयोजक सत्यनारायण पटेल ने संक्षिप्त क्लब के बारे में जानकारी देते हुए कहा कि बिज़ूका आगे भी सामाजिक, साँस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर बेहतरीन फ़िल्में लेकर हाज़िर होता रहेगा।
फ़िल्म प्रदर्शन के बीच में अघोषित ढंग से बिजली गुल होने की वजह से व्यवधान उत्पन्न हुआ। कुछ साथी बीच में चले गये। लेकिन बाक़ी साथी बिजली के इंतज़ार में बैठे रहे और बिजली आने पर न सिर्फ़ पूरी फ़िल्म देखी, बल्कि फ़िल्म के बाद क़रीब डेढ घण्टे तक फ़िल्म के विभिन्न पहलुओं पर बातचीत करते रहे। दर्शकों ने अल-रिसाला को इसी विषय पर बनी फ़िल्म ‘द मैसेज’ से भी उम्दा फ़िल्म माना। दर्शकों ने बिज़ूका क्लब के इस प्रयास की न केवल तारीफ़ की, बल्क़ि उसे सहयोग देने की बात भी कही। दर्शकों की माँग और सहयोग पर ज़ल्दी ही फ़िल्म का दूसरा शो भी होगा।

मुँह में पाइप दबाए चला गया सबका हबीब


8 जून 09 सोमवार की सुबह क़रीब सात-पौने सात बजे ख़बर मिली- हबीब तनवीर नहीं रहे। मेरी नींद हिरनी हो गयी। धड़कन धीमी हो गयी। कुछ देर सम्पट ही नहीं पड़ी क्या करूँ ? फिर मैं बिस्तर पर बैठे-बैठे ही और लोगों तक इस ख़बर को पहुँचाने लगा। सुबह ग्यारह बजे तक यही करता रहा और यही करना मेरे बस का भी था।
हबीब साहब का जन्म एक सितम्बर 1923 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में एक जागीरदार घराने में हुआ। उनका पूरा नाम हबीब अहमद खान था। हबीब साहब ने मैट्रिक की परीक्षा रायपुर के लौरी सरकारी स्कूल से पास की थी। मौरिश कॉलेज नागपुर (महाराष्ट्र ) से उन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी की और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.ए प्रथम वर्ष की पढ़ाई की।
1945 में हबीब साहब 22 बरस के थे और बम्बई की ओर कूच कर गये थे। जहाँ उन्होंने आकाशवाणी में काम किया। इसी दौरान वे हिन्दी फ़िल्मों के लिए गीत लिखते रहे और कुछ फ़िल्मों में काम भी किया। बम्बई में ही हबीब साहब ने प्रगतिशील लेखक संघ की सदस्यता ली और फिर इप्टा से भी जुड़े। ये वही दौर था जब इप्टा ने देश भर में हलातौल मचा रखी थी। 1943 में इप्टा का गठन हुआ था और वह ब्रिटिश साम्राज्य का पूरी ताक़त से विरोध कर रहा था। राजेन्द्र रघुवंशीजी के नेतृत्व में तो महीने-महीने तक नाटक मंडलियाँ गाँव-गाँव भटकती थी और रिहर्सल किये नाटक ही नहीं, आशू नाटक भी खेलती थी। अब तो खैर… इप्टा में न वह जज्बा रहा, न समझ रही। लेकिन वह दौर था, जब नाटक नुक्कड़ पर अपने सबसे प्रखर रूप में उभरा था। जब इप्टा बम्बई के प्रमुख साथियों को अँग्रेजों द्वारा गिरफ़्तार कर लिया गया, तो इप्टा का काम हबीब साहब को सौंपा गया।
1954 में हबीब साहब दिल्ली आ गये। बम्बई इप्टा छोड़ दिया। क्यों छोड़ दिया ? इप्टा की भीतरी राजनीति से हबीब साहब सहमत नहीं थे, या हबीब साहब का काम करने का ढँग इप्टा को पसंद नहीं था। जानना चाहिए, शायद उनकी आत्मकथा में इस बात का ज़िक्र हो भी।
दिल्ली में वे कुदमा जैदी के हिन्दुस्तान थियेटर के साथ जुड़े और काम शुरू किया। इसी दौरान उन्होंने बच्चों के लिए भी थियेटर में काम किया और उनके लिए नाटक भी लिखे। आग का गोला उनका बच्चों के लिए लिखा अच्छा नाटक है। दिल्ली में ही कलाकार और निर्देशक मोनिका मिश्र से उनकी मुलाक़ात हुई। दोनों में प्यार हुआ और बाद में शादी भी हुई। मोनिकाजी नाटक के क्षेत्र में कई मामलों में हबीब साहब से ज़्यादा जानकार थी और काम करते हुए उन्हें अक़्सर टोका करती थी। हबीब साहब अगर दुनिया में महान रंगकर्मी के नाम से जाने जाते हैं, तो अनेक वजहों में से एक ख़ास वजह यह थी कि मोनिका जी जैसी महान कलाकार और निर्देशक उनकी जीवन साथी थी, जिन्होंने अपनी सारी ऊर्जा हबीब साहब को खड़ा करने में झोंक दी। मोनिकाजी 2006 में नहीं रही, लेकिन वे जब तक रही हबीब को रोज़ ही कुछ न कुछ टीप्स देती रही थी और हबीब साहब इस बात को स्वीकार भी करते थे। देखा जाये तो जिसे दुनिया जानती है, वह हबीब तनवीर, मोनिका मिश्र के निर्देशन में निखरा था।
मोनिकाजी के साथ के बाद 1954 में ही हबीब साहब ने आगरा बाज़ार किया और एक निर्देशक के रूप में पहचान हासिल की, और वे ख़ुद एक अच्छे अदाकार तो थे ही। आगरा बाज़ार 18 वीं सदी के लोक शायर नज़ीर अकबराबादी की नज़्मों पर आधारित था। नज़ीर मिर्जा ग़ालिब की पीढ़ी के मशहूर जन शायर थे। जिनकी नज़्में गली-मोहल्लों में सामान्य जन गुनगुनाया करते थे। उनकी शायरी को नाटक के रूप में प्रस्तुत करना मोनिका और हबीब का बहुत ही विवेकपूर्ण निर्णय था। नाटक आगरा बाज़ार पूरा नज़ीर की शायरी के दम पर है, जिसे हबीब के निर्देशन में पात्रों ने 18 वीं सदी का जीवंत आगरा बाज़ार बना दिया। उसके बाद शतरंज के मोहरे, लाला शोहरत राय जैसे नाटक भी खेले, लेकिन जो मज़ा आगरा बाज़ार में था, उस तरह का किसी और में नहीं था। आगरा बाज़ार में पहली बार उन्होंने ओखला गाँव में रहने वाले जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों से काम करवाया था। उनका यह पहला ही अवसर था, जब उन्होंने नाटक को हॉल में करने की बजाय इप्टा के नाटकों की तरह खुले में और बाज़ार में किया था।
जब 1955 में हबीब साहब इंग्लैण्ड और यूरोप गये। उसी दौरान उन्होंने ब्रेख्त के नाटकों पर काम किया। उन्होंने और भी कई नाटकारों के नाटकों पर काम किया और नाटकों की बारीकियों को सतत समझते और सीखते रहे, जो सीख अपने नाटकों बहुत ख़ूबसूरती प्रयोग किया ।
जब 1958 में वे वापस लौटे, तब उन्होंने संस्कृत का नाटक मृच्छकटिका पर आधारित मिट्टी की गाड़ी, और फिर 19973 में गाँव का नाम ससुराल मोर नाम दामाद, 1975 में चरणदास चोर, 1977 में उत्तर रामचरितस्य, 1978 के बाद में बहादुर कलारिन, पोंगा पंडित, असग़र वजाहत का लिखा जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्या ही नहीं। जैसे कई महत्वपूर्ण नाटक खेले।
90 के दशक में उनके निर्देशन में खेले गये दो नाटक ज़्यादा चर्चित हुए। एक जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्या ही नहीं और दूसरा पोंगा पंडित था। यूँ तो ये नाटक पहले भी खेले जाते रहे थे, लेकिन 90 के दशक है, जब देश में साम्प्रदायिकता की लपटें सबसे तेज़ और ऊँची थीं, और देश की राजनीतिक पार्टियाँ इस आँच में अपने-अपने स्वार्थ की रोटियाँ सेंक रही थीं।
काँग्रेस 1984 के दंगो के दम पर सरकार पा चुकी थी। भाजपा भी साम्प्रदायिक कार्ड खेल कर सत्ता पाने का हथकंडा अपना रही थी। आडवाणी की रथयात्रा ज़ारी थी। उन परिस्थितियों में ‘जिन लाहौर नहीं वेख्या ओ जम्या ही नहीं’ का चर्चित होना तो स्वाभाविक था ही, पर वह कला के भी मापदण्डों पर एक उम्दा प्रस्तुति थी, और जब 1992 में बाबरी ढाँचा गिरा दिया गया, तब तो इस नाटक की लोकप्रियता और बढ़ी और इसे देश में कई जगह खेला गया। देश के कई प्रदेशों में काँगेस की सरकार थीं, जहाँ-जहाँ काँगेस की सरकार थी वहाँ-वहाँ ज़्यादा खेला गया।
पोंगा पंडित भी 90 के दशक से पहले कई बार खेला जा चुका था, और वह शहरी लोगों में इतना लोकप्रिय कभी नहीं हुआ था, जितना बाबरी ढाँचे के गिराने के बाद खेलने पर हुआ। बल्कि तब तक तो हबीब साहब के पास पोंगा पंडित की स्क्रीट भी नहीं थी। वह छत्तीसगढ़ के लोगों में एक प्रचलित किस्सा था और चूँकि हबीब साहब के कलाकार ज़्यादार छत्तीसगढ़ के लोग ही थे, वे उस क़िस्से को सुनाया और खेला करते थे। वही जब 90 के बाद बेहद लोकप्रिय हो गया। दक्षिण पंथियों ने जब उसका जमकर विरोध करना शुरू किया। तब ही हबीब साहब ने उसे एक स्क्रीप्ट के रूप में लिखा और फिर छपा।
90 के बाद म,प्र. में काँग्रेस की सरकार थी। प्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे और संस्कृति मंत्री अर्जुन सिंह के पुत्र अजय सिंह थे। यही वह समय था, जब भोपाल में काँग्रेस से कइयों की क़रीबी बढ़ी थी। और तब दिग्विजय सिंह के क़रीब काँगेसियों से भी ज़्यादा क़रीब कोई थे, वे लोग थे, जिनकी छवि वामपंथी की थी, और जो प्रलेसं, इप्टा जैसे संगठन से जुड़े थे।
अगर नाम लेकर कहें, तो इनमें वर्तमान प्रलेसं के राष्ट्रीय महासचिव श्री कमला प्रसाद । अजय सिंह से नज़दीकियों के चलते श्री कमला प्रसाद आदिवासी लोक कला अकादमी के सचिव बने और पूरे समय तक बने रहे। वहाँ रहकर उन्होंने क्या-क्या लाभ हासिल किये सभी प्रलेसी और काँगेसी जानते हैं। दूसरे थे लज्जा शंकर हरदेनिया, जो वामपंथी पत्रकार माने जाते थे, लेकिन उन्होंने राज्य मंत्री का दर्जा प्राप्त किया और सभी सुविधाओं का भरपूर दोहन किया। उन्होंने एक सेक्यूलर संस्था की भी स्थापना की, जिसमें दिग्विजय सिंह अध्यक्ष और वे स्वयं उपाध्यक्ष बने । जब काँग्रेस साम्प्रदायिकता का विरोध करने वालों को रेवड़ियाँ बाँट रही थी, तो कई लोग थे, जो लाइन में लगे थे।
यह दशक हबीब साहब की भी काँग्रेस से सबसे ज़्यादा नज़दीकी का दशक था । काँग्रेस ने उन्हें नया थियेटर के नाम से भवन आदि बनाने के लिए भोपाल में ज़मीन दी थी, जिस पर दक्षिणपंथियों ने उन्हें काम नहीं करने दिया। लेकिन दिग्विजय सिंह की सरकार द्वारा दिये गये आर्थिक सहयोग से ही हबीब साहब जिन लाहौर नहीं वेख्या, ओ जन्म्या और पोंगा पंडित कर थे। सोचने की बात यह भी है कि हबीब साहब अगर काँग्रेस से मदद न लेते तो दूसरा कौन था, जो मदद करता। वामपंथियों से त कोई उम्मीद करना ही बेकार था।
प्रलेसं और इप्टा से अपना सफर शुरू करने वाले हबीब, दोनों से काफ़ी दूर निकल आये थे। उन्हें इन संगठनों से दूर क्यों होना पड़ा था, सोचने और जानने का विषय है। इसका भी जवाब शायद उनकी आत्मकथा में होगा ! लेकिन उन्होंने इन संगठनों से अलग होने के बाद भी अपना नाटक करने का सफर ज़ारी रखा। वे इन संगठनों में रहते तो शायद इतना काम न कर पाते, क्योंकि यहाँ कलाकार को ताँगे का घोड़ा बनाने का काम किया जाता है, जो न बने उसे संगठन से बाहर कर दिया जाता है या उसका कलाकार का जीवन बर्बाद कर दिया जाता है। यहाँ काम कम साजिशें ज़्यादा होती हैं।
1959 में भोपाल में नया थियेटर की स्थापना करना ठीक समझा था और की भी थी। अब जब हबीब और मोनिका नहीं रहे हैं, नया थियेटर अपनी उम्र के पचासवें पायदान पर पहुँचने वाला है। नया थियेटर आगे चलता रहे, इसकी संभावनाएँ अभी सामने नहीं आयी हैं। हालाँकि मोनिका और हबीब के पीछे उनकी सुपुत्री नगीन हैं। नगीन तनवीर अच्छा गाती है, लेकिन वे नया थियेटर को चला सकेगी या नहीं, ये भविष्य के गर्भ में है।
हबीब साहब आर्थिक परेशानियों और राजनीतिक प्रपंचों के चलते काँग्रेस के क़रीब रहे, कई जगह अपने भाषणों में सोनिया गाँधी की तारीफ़ करते रहे, ये सब बातें भूला दी जायेगी। याद रखा जायगा उनका काम। उन्होंने इन सबके क़रीब रहकर भी अपने काम को प्रभावित नहीं होने दिया और आख़िरी दम तक बेहतरीन नाट्य कला का नमुना पेश करते रहे, यह बड़ी बात थी।
हबीब साहब के पास नया थियेटर में कई कलाकार थे, वे जहते तो मंचीय नाटक के अलावा एक ऎसी टीम भी बना सकते थे, जो नुक्कड़ करती। लेकिन वे ऎसा कुछ नहीं कर सके। न ही शायद उनकी इच्छा रही होगी।
आज हबीब साहब के बारे में याद करते हुए सफदर हाशमी की याद आ रही है, वह मंच पर नाटक करने से नहीं जाना जाता। वह नुक्कड़ से जाना जाता है। लोग कहते हैं, वह जब नुक्कड़ करता था, सड़के थम जाती थी। वह हमेशा जनता के ज्वलंत मुद्दे लाजवाब ढँग से सड़क पर प्रस्तुत करता रहा। सड़क पर नाटक करते हुए ही शहीद हो गया। जनता के मुद्दे पर, जनता के बीच और सामाज्यवादियों और पूँजीपतियों की छाती पर चढ़कर नाटक करने का साहस और कला जो सफदर में थी, हबीब जैसे दुनिया के बेहतरीन नाटकार में भी नहीं थी।
हबीब साहब ने छत्तीसगढ़ के लोक जीवन का भरपूर इस्तमाल किया। उनकी अपनी एक ख़ास शैली थी और बहुत उम्दा थी, वे एक ख़ास वर्ग के नाटककार थे और उनके नाटक की टिकिट पा लेना कई बार उपलब्धि लगती थी।
मेरी नज़र में उनका भोपाल गैस त्रासदी पर नाटक - ज़हरीली हवा, सबसे कमज़ोर नाटक था, जिसे मुझे दो बार देखने का अवसर मिला था। मुझे उनका ‘आगरा बाज़ार’ भी दो बार देखने को मिला था। चरणदास चोर, आगरा बाज़ार, जिन लाहौर नहीं देख्या… उम्दा नाटक हैं।
काँग्रेस से नज़दीकी के चलते हबीब साहब राज्य सभा सदस्य भी रहे। उन्हें उनके नाटकों के लिए तमाम पुरस्कारों से भी नवाजा गया। उन्हें कई फैलोशिप भी मिली। उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण फ़िल्मों में काम किया। वे फोर्ड फाउन्डेशन के पैसे के सहयोग से बने भारत भवन के भी सम्मानित सदस्य रहे। उन्हें अपने नाटकों के लिए काँग्रेस से पैसा और वामपंथियों से इज़्ज़त सदा और भरपूर मिलती रही। उनमें हर मौक़े के अनुरूप काम करने का हुनर और हर अवसर को सीढ़ी बना लेने की ज़बरदस्त कला थी। वे सच में तनवीर थे और कइयों के हबीब थे।
2009 की 11 मई को उन्हें अस्थमा का दौरा पड़ने पर भोपाल के एक निजी अस्पताल में उपचार हेतु भर्ती किया गया। निजी अस्पताल में इसलिए किया कि भोपाल या प्रदेश में कहीं भी ऎसा सरकारी अस्पताल है ही नहीं, जहाँ ठीक-ठाक इलाज हो सके। उन्हें कुछ दिन जीवन रक्षक उपकरण (वेंटीलेटर) पर रखा गया और उनके स्वास्थ्य में थोड़ा सुधार भी हुआ था। सुधार होने पर जीवन रक्षक उपकरण हटा भी लिया था। लेकिन बीमारी ने फिर पलट वार किया और उनका स्वास्थ्य लड़खड़ा गया।
डॉक्टरों के मुताबिक हबीब साहब कोएग्लोपैथी से पीड़ित थे और उनका ख़ून काफ़ी पतला हो गया था। अत्यधिक पाइप पीने से वे (क्रानिक डिस्र्टक्टिव एयर वे डिजीज) सी ओ ए डी की भी चपेट में आ गये थे। उनके ह्रदय, फेफड़े और किडनियों में गंभीर संक्रमण हो गया था। गठिया और बुढ़ापे में घेर लेने वाली छोटी-बड़ी तक़लीफों से वे पहले ही जूझ रहे थे। भाजपा की म.प्र. सरकार ने उनके उपचार के लिए दो लाख रुपयों का सहयोग भी दिया और इंतकाल के बाद राजकीय सम्मान भी। ये ऎसी बात थी जैसे गुजरात नरसंहार के बाद भाजपा ने श्री अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बना दिया था। जिसके बस में जो था, उसने हबीब साहब के लिए किया, लेकिन वह हमेशा की तरह अपनी धुन में चलने वाला जिद्दी डोकरा मुँह में पाइप दबाए चला गया।
86 बरस के जिद्दी डोकरे ने 8 जून 09 को दुनिया से कूच किया और अपने पीछे छोड़ गया- असंख्य यादों के धुएँ के छल्ले। कुल मिलाकर एक बेहतर इंसान और मँजा हुआ हुनरमंद चला गया। नाटक के क्षेत्र में काम करने वाले उन्हें याद करते हुए अब भी सीख सकते हैं, इन मानव विरोधी राजनीतिक परिस्थियों में काम करने का जज्बा और काम करने की कला। बिज़ूका फ़िल्म क्लब की ओर से हम उनके सम्पूर्ण जीवन और व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुए सम्मान और श्रद्धान्जली प्रेषित करते हैं।

संयोजक
सत्यनारायण पटेल
बिज़ूका फ़िल्म क्लब,
इन्दौर (म.प्र.)
09826091605