image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

31 अगस्त, 2015

कविता : कीर्ति राणा

आज समूह के साथी की रचनाऐ दे रहें हैं। पढ़कर अवश्य बताएं कैसी लगी आपको। कवि का नाम शाम को घोषित करेंगे।

(७अप्रैल २०१०)
-------
ढलान वाले रास्तों से
उतरते वक्त
कितना उत्साह रहता है
लोगों में।
सीधी सीढ़ियों रुकते-हांपते
आदमी ऐसा असहाय
नजर आता है
जैसे जिंदगी की लड़ाई में
सब कुछ
हार कर
लौट चला है ।

---------
अकेलापन (१६ मई २०१०)
भैंस की तरह
जुगाली करते न्यूज चैनल,
रेडियो पर गूंजते गीत-गजल
कोई कितना रिमोट बदले
कितने एफएम सुने ।
मन भी क्या है
अकेलेपन में
चाहता है सब को,
सब के बीच
तलाशता रहता है
अकेला होना। 
------

बारिश (शिमला ९ जून २०१०)
बहुत दिनों से
नहाए नहीं थे
काले ढुस्स पहाड़।
अब कितने
तरोताजा लग रहे हैं
नंगधड़ंग
मासूम बच्चे की तरह
जी करता है
इन्हें बांहों में भर लूं।

------
चर्च की मीनार पर
रात भर
अटका रहा
चांद
बच्चे के हाथ से छूट
पेड़ की डगाल पर अटकी
पतंग की तरह।

-----
ठंड वाली रात (शिमला १२ जून २०१०)
पहाड़ों को
फिर लगने लगी है ठंड
सेल पुराने हो गए हैं सूरज के।
बदमाश चांद
छुपा बैठा है कोने में
इंतजार कर रहा है शाम होने का। 
रात जब आएगी गेट लगाने
पीछे से दबोच लेगा
अपनी बांहों में।

------
शिमला में बर्फबारी (३१ दिसंबर २०१०)
अपने रथों में
चांदी की सिल्लियां लेकर
बीती रात चुपके से
जा रहे थे इंद्र देव। 
बादलों के झुंड ने लूट लिया
सिल्लियों के टुकड़े टुकड़े
बांट  दिए लोगों में।
पहाड़ों से झाड़ों तक
छतों पर, रास्तों पर
सब जगह
बिखरी है चांदी। 

----
इंदर बाबू ने
उतार फेंकी
पुरानी रजाई।
चल पड़े हैं
रूई का गट्ठर लादे
पिंजारे की दुकान पर। 
रास्ते भर
गिरती जा रही है
गट्ठर से हवा में
बिखरती-उड़ती रूई।  (१ जनवरी २०११)

---
बीती रात
बारिश से भीगी
थर थर कांपती
हिल्स क्वीन को
चुपचाप
सफेद कंबल ओढ़ाकर
नए साल की गिफ्ट
दे गए सांता क्लॉज।  (१ जनवरी ११)

-----
मुंबई की लोकल ट्रेन
अलस्सुबह
फौजी मार्चपाास्ट करती हुईं
गुजरती हैं गाड़ियां
और
सुबह से शाम तक
लाती ले जाती हैं
आत्म समर्पणकारी
कैदियों को।
(बंबई ९ दिसं १९८२)

-----
गरमी
आजकल
बहुत जल्दी उठ जाते हैं
सूरज बाबू।
सुबह सेशाम तक
रटते रहते हैं
धूप का पहाड़ा।
गर्म हवाओं का
करते रहते हैं
गुणा भाग।
शाम को  कंधे पर
बस्ता लटकाए
लौट जाते हैं घर। 

000 कीर्ति राणा
-----------------------------
टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
समूह के साथी की छोटे छोटे बिम्बों को साकार करने वाली कविताएँ। सबसे अच्छी बात ये कविताएँ डायरी और यात्रा वृत्तांतनुमा हैं और कहीं रोज़नामचा सी। जीवन के क्षणों को उनके अहसास को कविता की शक्ल मिली।  कुछ ज़रा और लम्बी होती तो बेहतर होता जैसे गर्मी कविता में  बस्ता वाले बच्चे की चन्द छवियाँ और होती सूरज के पहर दर पहर बाद। साथी को बधाई। शुक्रिया मनीषा जी

अल्का सिगतिया:-
होठों पर मुस्कान। खिल गई पढ़ते हुए ।रोज जो हम देखते हैं , चांद सूरज,रात,प्रकृति  का सुंदर मानवीकरण(personification) बरबस Keats Wordsworth याद आगये।मुझे  अच्छी। लगीं  प्यारी चुन्नु मुन्नू  सी कविताएँ।

आभा :-
अलका जी से सहमत।। और ऐसा भी लगा की कविताओं को विस्तार मिल सकता है।। दो तीन बिम्बों को जोड़कर एक नयी कविता भी बन सकती है। बहुत धन्यवाद प्यारी सी कवितायेँ पढ़वाने के लिए

अल्का सिगतिया:-
लेखक की। सफलता यही। है। ,जब पाठक उसे और आगे ले जाने की  गुंजाइश तलाश सके।जब लेखक कुछ अनुभूत करता है,वो उस पल की। उसकी। अनुभूति होती है।सब कुछ वह नहीं सोच सकता।एैसे तो फिर उन सीधी। मासूम सी कविताओं को दर्शन से गरिष्ठ  भी बनाया। जा सकता। था।बहरहाल हम सब अपने तई नये संदर्भ  तलाशेंगे ही।मेरे। मत से उतनी। भी। अच्छी। हैं।उससे ज़्यादा अच्छी। भि हो सकती थीं ,नहीं भी

संजय पटेल :-
रविवारी जनसत्ता में बिजूका कुनबे के दो साथियों का सहभाग।ब्रजेश दादा (कानूनगो) की कहानी और मनीषजी (जैन) के रेखांकन।साधुवाद।

मिनाक्षी स्वामी:-
बहुत अच्छी लगी कविताएं। छोटी छोटी सामान्य बातों को खास अंदाज में बहुत सटीक बिम्बों के साथ प्रस्तुत किया है।
'सेल पुराने हो गए हैं सूरज के' जैसे अनूठे बिम्बों से सजी कविताओं ने लुभा लिया।
कवि/ कवियित्री को बधाई।
बिजूका का आभार

नंदकिशोर बर्वे :-
उक्त सभी प्रशंसा से भरे विचारों से सहमत। एक अलग दृष्टि ही कवि को अकवियों से अलहदा मकाम पर ले जाती है। कलमकार को बधाइयाँ।

अंजनी शर्मा:-
सभी कविताएँ बहुत ही खूबसूरत बिम्ब लिए हुए ।
मुंबई की ट्रेन  और आत्म समर्पण कारी कैदी । दौडती भागती जिंदगी का चित्रण ।
'आत्म समर्पण कारी 'के स्थान पर 'आत्म समर्पित ' शब्द भाषा को कसावट प्रदान करता , मेरे विचार से ।
डगाल और झाड शब्दों का प्रयोग कविता को एक स्थानीय स्पर्श [local touch ] दे रहा है ।
कुल मिलाकर अच्छी कविताएँ ।
रचनाकार को बधाई ।
                    अंजनी शर्मा

ब्रजेश कानूनगो:-
बहुत सुन्दर कवितायेँ।सुन्दर बिम्बों से परिपूर्ण।सहज संप्रेषणीय।सीधे दिल से निकलती स्वाभाविक कवितायेँ।जो सप्रयास कतई नहीं लिखीं गईं हैं।बधाई और कविताओं की अपेक्षा रहेगी।

30 अगस्त, 2015

ग़ज़ल : इकबाल अशहर साहब

प्रस्तुत हैं मौजूदा वक़्त में देश के सबसे मशहूर और बेहतरीन शायरों में शुमार किए जाने वाले इक़बाल अशहर साहब(जन्म - 1965) की चार ग़ज़लें। बिना किसी लाग-लपेट के दिलकश शेर कह जाना इनकी खासियत है।

1.
सिलसिला ख़त्म हुआ जलने-जलाने वाला
अब कोई ख़्वाब नहीं नींद उड़ाने वाला

क्या करे आँख जो पथराने की ख़्वाहिश न करे
ख़्वाब हो जाए अगर ख़्वाब दिखाने वाला

याद आता है कि मैं ख़ुद से यहीं बिछड़ा था
ये ही रस्ता है तेरे शहर को जाने वाला

ऐ हवा उस से ये कहना कि सलामत है अभी
तेरे फूलों को किताबों में छुपाने वाला

ज़िन्दगी अपनी अंधेरों में बसर करता है
तेरे आँचल को सितारों से सजाने वाला

सब ही अपने नज़र आते हैं ब-ज़ाहिर लेकिन
रूठने वाला है कोई न मनाने वाला
(ब-ज़ाहिर - ज़ाहिरी तौर पर/सामने से)

ले गयीं दूर, बहुत दूर हवाएँ जिस को
वो ही बादल था मेरी प्यास बुझाने वाला

2.
दयार-ए-दिल में नया-नया सा चिराग़ कोई जला रहा है
मैं जिसकी दस्तक का मुन्तज़िर था, मुझे वो लम्हा बुला रहा है
(दयार-ए-दिल - दिल का घर; मुन्तज़िर - प्रतीक्षारत)

फिर अध-खुला सा कोई दरीचा मेरे तसव्वुर पे छा रहा है
ये खोया-खोया सा चांद जैसे तेरी कहानी सुना रहा है
(दरीचा - खिड़की; तसव्वुर - कल्पना)

वो रौशनी की तलब में गुम है, मैं ख़ुश-बुओँ की तलाश में हूँ
मैं दायरों से निकल रहा हूँ, वो दायरों में समा रहा है
(तलब - इच्छा/चाहत; दायरा - वृत्त)

वो कम-सिनी की शफ़ीक़ यादें गुलाब बनकर महक उठी हैं
उदास शब की ख़ामोशियों में ये कौन लोरी सुना रहा है
(कम-सिनी - कम-उम्री/लड़कपन/बचपन; शफ़ीक़ - प्यारी/दोस्ताना; शब - रात)

सुनो समंदर की शोख़ लहरों हवाएँ ठहरीं हैं तुम भी ठहरो
वो दूर साहिल पे एक बच्चा अभी घरौंदे बना रहा है
(शोख़ - चंचल; साहिल - किनारा)

3.
प्यास दरिया की निगाहों से छुपा रक्खी है
एक बादल से बड़ी आस लगा रक्खी है

तेरी आँखों की कशिश कैसे तुझे समझाऊँ
इन चिराग़ों ने मेरी नींद उड़ा रक्खी है
(कशिश - आकर्षण)

क्यूँ न आ जाए महकने का हुनर लफ़्ज़ों को
तेरी चिट्ठी जो किताबों में छुपा रक्खी है

तेरी बातों को छुपाना नहीं आता मुझ से
तू ने ख़ुश-बू मेरे लहजे में बसा रक्खी है
(लहजा - बात करने का अंदाज़)

ख़ुद को तन्हा न समझ लेना नए दीवानों
ख़ाक सहराओं की हमने भी उड़ा रक्खी है
(ख़ाक - धूल; सेहरा - रेगिस्तान/मरुस्थल)

4.
ठहरी ठहरी सी तबीयत में रवानी आई
आज फिर याद मुहब्बत की कहानी आई
(रवानी - तेज़ी/बहाव)

आज फिर नीँद को आँखों से बिछड़ते देखा
आज फिर याद कोई चोट पुरानी आई

मुद्दतों बाद चला है मेरा जादू उन पर
मुद्दतों बाद हमें बात बनानी आई

मुद्दतों बाद पशेमाँ हुआ दरिया हमसे
मुद्दतों बाद हमें प्यास छुपानी आई
(पशेमाँ - शर्मिन्दा)

मुद्दतों बाद मय्यसर हुआ माँ का आँचल
मुद्दतों बाद हमें नीँद सुहानी आई
(मयस्सर होना - पाना/मिलना)

इतनी आसानी से मिलती नहीं फ़न की दौलत
ढल गयी उम्र तो ग़ज़लों पे जवानी आई
(फ़न - हुनर)

प्रस्तुति:-फ़रहत अली खान
-------------------------------
टिप्पणियाँ:-

मनीषा जैन :-
जी जरूर अलका जी। फरहत साहब को जब भी समय मिले जरूर प्रकाश डालें।

आज की प्रस्तुति समूह के साथी फरहत जी की है।

सुवर्णा :-
अलका जी फ़रहत जी मीटर पर प्रकाश डालेंगे तब तक थोड़ी शुरुवात कर सकते हैं। जैसे दूसरी ग़ज़ल का मीटर बड़ा प्यारा लगा।
दयार-ए-दिल में    नया नया सा  चिराग कोई   जला रहा है।
12122  12122  12122  12122
इस मीटर पर पूरी ग़ज़ल को पढ़ने की कोशिश कीजिए।

फ़रहत अली खान:-
प्रज्ञा जी, अलका जी, सुषमा जी, मनीषा जी, कुंदा जी, सुवर्णा जी...
आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।
अलका जी,
सुवर्णा जी ने बिल्कुल सही बतायी दूसरी ग़ज़ल की बहर(यानी मीटर)।
ये लंबी बहर है जिस पर कहे गए शेर ज़रा लंबे होते हैं लेकिन ये बेहद प्रचलित बहर है।
सुवर्णा जी ख़ुद भी एक बा-कमाल शायरा हैं।
ऑफिस से निकल कर बहर के बारे में कुछ और बात करूँगा।
तब तक साथी आज की ग़ज़लों पर चर्चा जारी रखें और अपने पसंदीदा अशआर का भी ज़िक्र करें।

अंजनी शर्मा:-
हमेशा की तरह फरहतजी की उम्दा प्रस्तुति ।
उर्दू भाषा के बेहतरीन साहित्य से परिचित कराने के लिए फरहतजी को धन्यवाद ।

अंजनी शर्मा:-
हमेशा की तरह फरहतजी की उम्दा प्रस्तुति ।
उर्दू भाषा के बेहतरीन साहित्य से परिचित कराने के लिए फरहतजी को धन्यवाद

सुवर्णा :-
शुक्रिया फ़रहत जी शायरा तो नही पर पढ़ने में मज़ा खूब आता है। बहुत सारा पढ़ते हुए थोड़ा कुछ कहने की कोशिश हो जाती है। पर आज की ग़ज़लों में हासिल-ए-ग़ज़ल शेर ढूँढना बहुत मुश्किल है। उम्दा चयन।

ब्रजेश कानूनगो:-
प्यास दरिया की निगाहों से छुपा रक्खी है
एक बादल से बड़ी आस लगा रक्खी है।

इस के समकालीन मौजूं अर्थ भी खुलते हैं।इसलिए यह मुझे हासिल हुआ है।फरहत भाई।

कविता वर्मा:-
फरहत जी बेहद उम्दा गज़ले । राखी की व्यस्तता है इसलिये ज्यादा कुछ नही कह पाऊॅंगी ।

फ़रहत अली खान:-
अंजनी जी, ब्रजेश जी, कविता जी;
धन्यवाद।
रक्षाबंधन पर सभी साथियों को हार्दिक शुभकामनाएँ।

मनीषा जैन :-
मित्रो, कल राखी के पावन पर्व पर नियमित पोस्ट के स्थान पर क्यों न रक्षाबंधन के पर्व को और खूबसूरत बनाएं,  इसलिए समूह ने निर्णय लिया है कि सभी सदस्य अपने भाई बहन के प्रेम को समर्पित कोई छोटी कविता या गीत, दोहा पोस्ट करें जिससे पर्व की रोचकता व उल्लास बना रहे।

फ़रहत अली खान:-
रेनुका जी, मनीषा जी, मुकेश जी, नाज़िया जी, गरिमा जी, राजपूत सर;
आप सभी ने इक़बाल साहब के कलाम को सराहा इसके लिए बहुत बहुत शुक्रिया।

फ़रहत अली खान:-
गरिमा जी; मेरी कोशिश रहती है कि बेहतर से बेहतर कलाम लेकर आऊँ। कभी कभी ये भी कोशिश रहती है कि उन शायरों से रू ब रू कराऊँ जिनको हमारी पीढ़ी कम ही जानती है। ये तो आप लोगों का साहित्य-प्रेम है कि  इतनी लम्बी लम्बी पोस्ट पढ़कर सराहना करते हैं। यक़ीन कीजिये कि इसमें मेरा कोई कमाल नहीं है।

बलविंदर:-
दौर-ए-हाज़िर के बड़े मक़बूल शाइर हैं इक़बाल अशहर साहब, इन की पेशकर्दा ग़ज़लें भी ख़ूब हैं। शाइर को मुबारकबाद' और हम तक पहुंचाने की ज़हमत उठाने के लिए एडमिन का बहुत बहुत शुक्रिया

बलविंदर:-
इन की पहली ग़ज़ल से एक शे'र और हाज़िर है....

ये वो सहरा है सुझाए ना अगर तू रस्ता
ख़ाक हो जाए यहां ख़ाक उड़ाने वाले

बलविंदर:-
दूसरी ग़ज़ल के आख़िरी शेर् को देख कर "निदा फ़ाज़ली' याद आ गए..फ़रमाते हैं..

ऐ शाम के फ़रिश्तो ज़रा देख के चलो
बच्चो ने साहिलों पर घरौंदे बनाये हैं

राहुल वर्मा 'बेअदब':-
सही कहा बलविंदर जी
'आ' जैसे आसान और हरदिल अज़ीज़ काफ़िये के हिसाब से समान शब्दों की punravatti खटकती है

27 अगस्त, 2015

कहानी : अनदेखे अहसास : रेणुका

आज पढ़ते हैं समूह के साथी की कहानी। आप सब खुलकर अपने विचार व्यक्त करें जिससे रचनाकार को कुछ लाभ प्राप्त हो सके-

    अनदेखे अहसास
       -----------
शाम हो चली है. रात की ओर इशारा करते हुए सर्दियों की मीठी धूप गुम हो चली है. मेरे घर में मातम छाया हुआ है. माँ बिलख-बिलख कर आँसू बहा रही हैं, तो बाबा बिल्कुल मौन धारे बैठे हैं. सारा घर रिश्तेदारों की भीड़ में समाया हुआ है, मानो कोई सैलाब टूट पड़ा हो. कोई इधर आपस में बात-चीत कर रहा हैं, तो कोई उधर माँ-बाबा को सांत्वना दे रहा है. बारह वर्ष की उम्र की मैं, कुछ समझ नहीं पा रही हूँ कि आखिर हुआ क्या है?
 
दीदी अभी तक कॉलेज से नहीं लौटी है. रोज़ तो वह चार बजे ही लौट आती है, फिर आज क्यों नहीं आई? माँ से पूछने जाती हूँ तो वह और तेज़ स्वर में रोने लगती हैं. बाबा तो बस मुझ पर ही झल्ला कर कहते हैं, “जा, तू भी उसी की तरह भाग जा !” रोती हुई मैं अपने आठ वर्षीय अनुज भाई दक्ष के पास जाकर बैठ जाती हूँ. “तू भी उसी की तरह भाग जा !” मुझे बाबा के ये शब्द समझ नहीं आ रहे हैं. अपनी भीगी पलकें पोंछते हुए मैं दक्ष के साथ खेलने लगती हूँ. दक्ष के साथ खेलते हुए मैं कुछ पल के लिए आस-पास की घटनाओं से अपने-आप को अलग कर लेती हूँ.
 
रात के दस बज चले हैं. धीरे-धीरे सभी रिश्तेदार जाने लगे हैं. आखिर में माँ-बाबा को अकेला पाकर मैं एक बार फिर हिम्मत जुटाती हूँ. पहले दक्ष को खाना खिलाकर सुला देती हूँ. फिर एक थाली में खाना लेकर माँ के पास जाती हूँ. अपने नन्हे प्यार-भरे हाथों से माँ के आँसू पोछती हूँ और उनके मुंह में रोटी डालकर कहती हूँ, “माँ, तुमने आज सुबह से कुछ नहीं खाया है. थोड़ा खा लो वर्ना बीमार पड़ जाओगी.” सुनते ही माँ मुझे गले से लगा लेती हैं. यह सब देख कर बाबा का भी गला रूंध जाता है.
 
थक कर कब मेरी आँख लग जाती है, पता ही नहीं चलता. अगले दिन सुबह जब नींद खुलती है तो देखती हूँ कि माँ-बाबा तैयार होकर कहीं जाने को हैं. दीदी अभी भी कहीं दीख नहीं रही है. माँ मुझे बुलाकर कहती हैं, “ नीरू, हम तुम्हारी दीदी को लेने जा रहे हैं, देर हो जाएगी. तुम घर एवम् दक्ष का ख़याल रखना.” आज्ञाकारी बेटी का फ़र्ज़ निभाते हुए मैं “जी माँ” कह देती हूँ. माँ-बाबा के जाने पर घर का दरवाज़ा बंद कर गृहस्थी के कामों में जुट जाती हूँ. अपनी दीदी के घर लौट आने की खबर ने मुझे खूब उत्साहित कर दिया है. दक्ष को खेल में लगाकर मैं कोने में बैठ कर यूँ ही पिछले दिनों घर में घटित कुछ घटनाओं के बारे में सोचने लगती हूँ.
 
याद आ रहा है वो समय जब मैं महज सात-आठ साल की थी; तब परिवार सहित अपने बचपन का शहर हमेशा के लिए छोड़ कर एक बड़े नए शहर में आई थी. पुराने शहर, घर, स्कूल और दोस्तों से यूँ बिछड़ना मेरे लिए अत्यंत भारी पड़ रहा था. मानो अपने बाबुल का शहर छूट गया हो और वहाँ से विदा होकर एक पराये शहर से नाता जोड़ना हो. अभी सब कुछ नए सिरे से समझना था, नए “आस-पास” को अपनाना था, नए दोस्त बनाने थे, और नयी जीवन-शैली भी.
 
किन्तु ये सब हो पाता उससे पहले ही मुझे एक अनोखी ज़िम्मेदारी दे दी गयी; जासूसी करने की ज़िम्मेदारी! हाँ, अपनी ही दीदी की जासूसी ! मैं एक नन्ही-सी जान, न तो कुछ समझ पा रही थी और न ही कुछ सोच पा रही थी. बस मुझसे जैसा करने को कहा जा रहा था, वैसा ही करती जा रही थी. माँ-बाबा के डर से किसी से कुछ नहीं कहती थी. सुबह स्कूल जाती थी, आकर घर के छोटे-छोटे काम, और फिर पढाई, बाकी समय दीदी की जासूसी. हर रोज़ मुझसे पूछा जाता, “दीदी कल क्या कर रही थी? कहाँ जा रही थी? किससे बातें कर रही थी?” इत्यादि. अक्सर मैं माँ-बाबा को दीदी से कहते हुए सुनती, “तू अभी बच्ची है. पढाई करने की उम्र में यह सब शोभा नहीं देता.” इन सब बातों का अर्थ भला मुझे क्या समझ आता? बस इतना समझती की दीदी ने शायद कोई शैतानी की होगी जो माँ-बाबा उसे डांट रहे हैं. मैं तो अच्छी बच्ची हूँ जो उनका कहा मानती हूँ तथा उन्हें परेशान नहीं करती. यही सकारात्मक सोच लिए मैं दीदी की जासूसी करती रहती.
 
सुना है दो बहनों का सम्बन्ध बहुत गहरा होता है - एक अनोखा-अटूट बंधन, दिल के करीब होने का बंधन. परन्तु यहाँ तो स्थिति बिलकुल विपरीत बन रही थी. दीदी मुझसे कटी-कटी-सी रहने लगी. फलःस्वरूप मैं उसके पास आने से पहले ही उससे दूर हो चली थी. जब कभी मैं उत्साहित मन से अपनी दीदी के पास जाती, तो दीदी अपने द्वेषपूर्ण और कटाक्ष-भरे जुमलों से मुझे परास्त कर देती. मैं कभी सोचती की माँ-बाबा से शिकायत करूँ, लेकिन उनके पास फुर्सत ही कहाँ थी मेरी भावनात्मक दशा समझने के लिए. उन्हें तो मुझसे बस दीदी के विषय में ही जानने की रूचि रहती. धीरे-धीरे मेरा वजूद शायद कहीं खो चला था.
 
सोचती हूँ ऐसा क्यों होता है कि मंझली संतान को अपना अस्तित्व साबित करने के लिए बड़े और छोटे की अपेक्षा सबसे ज़्यादा संघर्ष करना पड़ता है. बड़ा बच्चा तो बड़ा और उम्मीदों का प्रतिफलन होता है; सबसे छोटे की सौ गलतियाँ माफ़, वो तो छोटा ही रहता है न, हमेशा. मंझली संतान अक्सर परिवार की संरचना में अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के प्रयास में लगी रहती है........कभी-कभी उम्र भर.
 
घर के कोने में बैठे ऐसी कुछ यादें मेरी आँखों के सामने आ रही हैं. अचानक दरवाज़े की घंटी बजती है और मेरी तन्द्रा टूटती है. दौड़ कर जब मैं दरवाज़ा खोलती हूँ तो अपनी दीदी को अपने सामने पाती हूँ. आवेग और प्रसन्नता से मैं दीदी से लिपट जाती हूँ. “दीदी, तुम कहाँ चली गयी थी? अब मैं कभी तुम्हें परेशान नहीं करूंगी. तुम्हारी किसी चीज़ को हाथ नहीं लगाऊंगी. तुम बस मुझे छोड़ कर मत जाना..........” बोलते-बोलते मेरा गला रूंध गया है.......दीदी, मेरी दीदी...........

000 रेणुका
--------------------------------
टिप्पणियाँ

गरिमा श्रीवास्तव:-
अच्छी कहानी।अछूता विषय जो मध्यवर्गीय परिवार में मंझली संतान के मनोविज्ञान को उकेरता है।

सुवर्णा :-
जी सुषमा जी से मै भी सहमत हूँ। कहानी अच्छी है पर अंत थोडा सा जल्दबाज़ी में हुआ सा लगता है। बहरहाल मंझली संतान का मनोविज्ञान समझने की कोशिश अच्छी लगी।

किसलय पांचोली:-
कहानी का कथानक नयापन लिए हुए है। शुरुवात अच्छी है। सही है कि  परवरिश में मंझली संतान के हिस्से का सुख अक्सर कुछ  कमतर रह जाता है। लेकिन इस कहानी के अंत में बहनों का मिलाप मूल कहानी पर थोपा हुआ लग रहा है और समय का निर्वहन भी समझ नहीं आया।

गरिमा श्रीवास्तव:-
कहानी जीवन के पहलू की ओर  ध्यान आकृष्ट करती है।एक मासूम बच्ची जो जासूसी का अर्थ नही जानती।पारिवारिक राजनीति का शिकार होती है।केट मिलेट ने जिसे गुड़ गर्ल सिंड्रोम कहा था।मंझला बच्चा अक्सर उपेक्षित रह जाता है वह न वात्सल्य का पहला साध्य है न अंतिम।उसे माँ बाप के प्यार के लिए दोहरी कोशिश करनी होती है और कहानी यह बताती है कि अभिभावक भी संतान का इस्तेमाल करते है।बच्ची को सिर्फ प्यार चाहिए माँ का बहन का पिता का।और वह इसके लिए कुछ भी करने को तैयार है।और काम ख़त्म होते ही बच्ची की अल्पकालिक उपादेयता भी शेष हो जाती है।मध्यवर्ग के परिवारों के एक पहलू का यथार्थ चित्रण।लेकिन लिखने में अभ्यास की सख्त ज़रूरत।और यह समूह तो इसलिए है ही।

प्रज्ञा :-
कहानी बच्ची के मनोविज्ञान को बड़े सहज रूप में रखती है। कई परिवारों में लड़कियां बच्चे इसी चौकीदारी के काम की और धकेले जाते हैं। कम वय में अनुत्पादक कामों में प्रवृत्त किये जाने से बाल मन पर पड़ती अनेक दरारें कितनी घातक होती हैं कहानी कुछ और घटनाओं के बयान से और बेहतर बता पाती। मेरा मानना है इस विषय पर काम होना चाहिए। असमय बच्चों को चौकन्ना करना और अपने ही भाई बहनों के बीच दीवारें खड़ी करना और माता पिता और बहन के बीच बच्ची कितने अत्याचार अपने मन पर झेलती होगी। ये कहानी अभी और लिखी जानी चाहिए थी। दूसरी लड़की का पक्ष इसे अधिक विश्लेषण की गुंजाइश देता।

नयना (आरती) :-
अपनी बात रखने के लिए शब्दो की बुनावट करते तक प्रज्ञा जी की टिप्पणी आ गई।उनके विचार से सहमत हूँ। कहानी मनोवैज्ञानिक पक्ष उत्तम है लेकिन कहानी कथन में अधूरी लगी ,आगे बढाई जा सकती है।

गरिमा श्रीवास्तव:-
प्रज्ञा जी और नयना जी से सहमत हूँ।कहानी को और आगे बढ़ना चाहिए।हो सकता है आगे पढ़ने को मिले।

कविता वर्मा:-
एक नये विषय के साथ लिखी अच्छी कहानी सहमत हूॅ सभी से थोड़ा विस्तार जरूरी है बहरहाल अच्छी कहानी । बधाई।

नंदकिशोर बर्वे :-
कहानी का विषय चयन उत्तम। लेकिन कहन के स्तर पर कसावट की दरकार। बड़ी बहन क्या करती है यह पाठकों के अनुमान पर है। वह कहाँ चली गई थी। माँ पिता उसे ढूंढने गये लेकिन वापस लौटे नहीं ये सब बातें कहानी को परिपूर्ण होने नहीं देती। लेखिका पुनः कुछ दिनों बाद पढ़ें और फिर लिखेंगी तो बात बन जायेगी।

फ़रहत अली खान:-
अभी अभी पढ़ी कहानी।
अच्छी कहानी है, एक बारह साल की बच्ची के जज़्बात ख़ूबी के साथ उकेरे गए हैं। बधाई रेनुका जी।
बस वो अंत में अधूरेपन का जो एहसास सबको हुआ सो मुझे भी हुआ। या तो कहानी को आगे बढ़ाकर या बीच में कुछ ख़ुलासे शामिल करके ये कमी दूर की जा सकती है।
माँ-बाप को जब इस बात का पता था कि बड़ी लड़की किसी के साथ चली गयी है तो ऐसे में उनके द्वारा ये ख़बर इतने ढेर सारे रिश्तेदारों को बता देना कि उनसे पूरा घर भर जाए, ये बात कुछ अजीब सी लगी; अमूमन शादी-ब्याह या किसी मातम के मौक़े पर इतनी भीड़ होना समझा जा सकता है लेकिन बदनामी वाले मामले में सब तक ख़बर पहुँचा देना समझ नहीं आया।
इसके अलावा 'घर' 'भीड़' में नहीं समाता, बल्कि 'भीड़' 'घर' में समाती है।��

गरिमा श्रीवास्तव:-
मनीषा और कविता जी आप लोगों की सक्रियता और रुझान काबिले तारीफ है और यह बिजूका मुझे सबसे आत्मीय समूह लगता है।लोकतान्त्रिक भी।आपके साथ फरहत भाई प्रज्ञा रोहिणी,निधीजी,अर्चना जी ,सत्य जी सबसे साक्षात् न होने पर भी रोज मिलना होता है।इतना मिलना और आत्मीय खुली बातचीत तो परिवार जनों के बीच भी रोज़ संभव नहीं हो पाती।मैं तो आपकी ही गरिमा हूँ मनीषा जी।निश्चिन्त रहिये।सादर।

मनीषा जैन :-
बहुत शुक्रिया,  इस आत्मीयता के लिए गरिमा जी। आप सबों की टिप्पणियाँ जब तक नही आ जाती उस दिन अधूरापन सा लगता है। और फरहत जी तो हमारे समूह की शान हैं। बिन एडमिन हो कर भी शुक्रवार की जिम्मेवारी वहन करते हैं आप सभी बहुत प्रिय हैं।

फ़रहत अली खान:-
गरिमा जी की बात पर एक सुपरलाइक।
बिल्कुल सही कहा आपने। सभी लोग रोज़ ऐसे मिलते हैं जैसे पुराने साथी हों और आमने-सामने मुलाक़ात कर रहे हों।
ऐसा माहौल बनाने के लिए आप सभी का शुक्रिया।

गरिमा श्रीवास्तव:-
और इसके लिए हम सभी आपके शुक्रगुज़ार हैं।ऐसा लगता है कहीं किसी ट्रेन बस जहाज़ में ,में मिलें तो सब एक दूसरे को तुरंत पहचान लेंगें,और अपरिचय के इस दौर में भी आत्मीयों की तरह सुख दुःख पूछने लगेंगें।आँखे भीग जाएँगी ठहाके लगने लगेंगे और ....विदा के बाद फिर मिलने के वायदे किये जायेंगे।