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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

26 अगस्त, 2015

लेख : सदानंद शाही

एक लेख दे रहे हैं और लेख बहुत प्रासंगिक है। आज हमारे अन्नदाता किसान पर ऐसा संकट छाया हुआ है कि वह आत्महत्या करने पर मजबूर है। हमें देखना होगा कि भई !  किसान फसल उगाता है और उसका मूल्य निर्धारित करती है सरकार। क्यों ? उसे अपनी लागत भी नहीं मिल पा रही है। तो आज इसी विषय पर आप भी अपनी राय खुल कर रखें लेकिन लेख पढ़ने के बाद।

॥किसान आत्म हत्याओं के दौर में प्रेमचन्द॥

सदानन्द शाही

किसानों की आत्म हत्यायें हमारे समाज की भयावह सचाई है। भारत जैसे देश में किसान आत्महत्यायें कर रहे हैं यह शर्मशार कर देने वाला तथ्य है। एक आकड़े के मुताबिक वर्ष 2014 में लगभग 1400 किसानों ने आत्महत्या की है।
सम्भव है संख्या को लेकर कोई दूसरा आकड़ा पेश कर दे लेकिन इस मामले में संख्या की बहस बेमानी है। जब भी किसानों की आत्महत्या की खबरें आती हैं बड़ी होशियारी से, उनकी संख्या पर मोड़ दी जाती है। सत्ता की राजनीति इस संख्या को कम करने के लिए अजीबो-गरीब कारण गिनाती है तो विपक्ष की राजनीति उसे अधिक या यथासंभव सही आँकड़े प्रस्तुत करने की कोशिश करती नजर आती है। नतीजा यह होता है कि किसान आत्महत्याओं के वास्तविक प्रकृति कारणों पर बहस होने से रह जाती है।
दरअसल आत्महत्या करना किसान की मनोवृत्ति के मेल में नहीं है। उसका जीवन प्रकृति पर इस कदर आश्रित है कि वह प्रकृति का ही पर अंग बन जाता है। वह अपनी नियति से लड़ता हुआ तरह-तरह के समझौते करता हुआ जीता है और जीना चाहता है।

प्रेमचन्द ने 19 दिसम्बर 1932 को जागरण के सम्पादकीय में ‘हतभागे किसान’ शीर्षक टिप्पणी लिखी थी।
भारत वर्ष में किसानों की स्थिति का बयान करने के लिए ‘हतभागे’ से बेहतर विशेषण कोई हो नहीं सकता।
इस टिप्पणी में प्रेमचन्द लिखते हैं- भारत के अस्सी फीसदी आदमी खेती करते हैं। कई फीसदी वह हैं जो अपनी जीविका के लिए किसानों के मुहताज है, जैसे गाँव के बढ़ई, लुहार आदि। राष्ट्र के हाथ में जो कुछ विभूति है, वह इन्हीं किसानों और मजदूरों की मेहनत का सदका है। हमारे स्कूल और विद्यालय, हमारी पुलिस और फौज, हमारी अदालतें और हमारी कचहरियाँ, सब उन्हीं के कमाई के बल पर चलती हैं, लेकिन वही जो राष्ट्र के अन्न वस्त्र दाता हैं, भरपेट अन्न को तरसते हैं, जाड़े पाले में ठिठुरते हैं और मक्ख्यों की तरह मरते हैं।’ इसीलिए किसान हतभागे हैं। सारी मेहनत मशक्कत के बावजूद दो जून की रोटी के लिए तरसने वाले किसान को ‘हतभागे’ न कहा जाय तो किसे कहा जाय।
प्रेमचन्द की कहानियों और उपन्यासों के असंख्य पात्र ऐसे ही हतभागे किसान हैं। गोदान उपन्यास का अमर पात्र होरी किसानों की इस स्थिति का बयान महज एक वाक्य में कर देता है-‘जब दूसरे के पावों तले अपनी गरदन दबी हुई है तो उन पावों को सहलाने में ही कुसल है।’ प्रेमचन्द अपने समय के किसानों और उनकी समस्याओं को भली भाँति जानते थे। वे जानते थे कि किसानों की गरदन कहाँ-कहाँ दबी हुई है। तमाम मेहनत मशक्कत के बावजूद उत्पादन कम था। लगान अधिक देनी पड़ती थी, कर्ज में सरापा डूबे रहते थे और जमीन से बेदखल होकर किसान से मजूदर बन जाने को अभिशप्त थे। गोदान का पात्र होरी ऐसा ही किसान है जो जमीन से बेदखल होकर मजदूर बनता है और सड़क पर पत्थर तोड़ते-तोड़ते मर जाता है।
किसान की दुर्दशा का सबसे बड़ा कारण कर्ज में डूबा होना था। 1905 में जमाना में छपी अपनी एक उर्दू टिप्पणी में प्रेमचन्द भोले-भाले किसानों की कर्ज लेने की आदत की चर्चा करते हुए लिखते हैं- देहाती किसानों की ज्यादातर जरूरतें कर्ज लेकर पूरी हुआ करती हैं। अगर आप आज किसी किसान को पचास रूपये की चीज उधार दे दीजिए तो वह बिना यह सोचे कि मुझमें यह चीज खरीदने की योग्यता है या नहीं फौरन मोल ले लेता है। और किसी न किसी तरह रो- धोकर उसकी कीमत अदा करता है। विलायतियों ने देहातियों के इस स्वभाव को बखूबी समझ लिया है।” हम जानते हैं कि यह समझ लेने के बाद भारतीय किसान को कर्ज के जाल में फँसाकर बेहाल करने में विलायतियों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उस मामलें में देसी महाजन अपने विदेशी आकाओं से कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे। जमीदार, सेठ, साहूकार, महाजन से लेकर अंग्रेज हाकिम तक जोंक की तरह किसानों को चूस रहे थे।

प्रेमचन्द के अनेक किसान पात्र हमें बताते हैं कि इसके बावजूद किसान अपनी क्रूर नियति से लड़ रहा था। वह दया पात्र, बेचारा, होकर भी हारा नहीं था। होरी का पत्थर तोड़ते-तोड़ते मर जाना पराजय नहीं बल्कि नियति के विरूद्ध संघर्ष था।

प्रेमचन्द ने होरी की मृत्यु का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया है। अपनी सारे संघर्षों, विपरीत स्थितियों और विफलताओं के बावजूद होरी पराजित नहीं होता है। मृत्यु के समय-‘होरी प्रसन्न था। जीवन के सारे संकट सारी निराशाएँ मानों उसके चरणों पर लोट रही थीं। कौन कहता है, जीवन संग्राम में वह हारा है। यह उल्लास, यह गर्व, यह पुकार क्या हार के लक्षण है? इन्हीं हारों में उसकी विजय है।’ किसान की उल्लास और उसकी जिजीविषा हार में भी विजय की अनुभूति कर सकती थी। इसीलिए प्रेमचन्द के साहित्य में नियति से हारकर और विवश होकर आत्महत्या करने वाले एक भी पात्र नहीं मिलते हैं। उस दौर के अखबारों को देखें तो गरीबी और महामारी से किसानों मजदूरों के मौत की खबरें मिलती हैं लेकिन किसानों की आत्महत्या की घटनाएँ नहीं मिलती।मुझे यह लिखते हुए दुख और ग्लानि दोनों का अनुभव हो रहा है कि आज किसान हार गया है। आज भी किसान की दुर्दशा के मूल में कर्ज ही है।

बेशक आजादी के बाद के साठ सत्तर वर्षों में किसान की उपज बढ़ी है पर उसी के साथ उसकी लागत कई गुना बढ़ गयी है। पिछले बीस पच्चीस सालों में खाद पानी बीच की कीमत दस गुना से ज्यादा बढ़ गयी है। पहले किसान पिछली फसल से बीज निकाल लेता था। अब उसे हर बार नया बीज खरीदना पड़ता है।
अधिक पैदावर के लिए शंकर (हाइब्रिड) बीज की जरूरत होती है और यह हाइब्रिड की दूसरी पीढ़ी काम की नहीं रह जाती। इसीलिए हमारे मित्र राजेश मल्ल बीजों की इस प्रजाति को निपूता कहते हैं। उन्नत बीजों से पैदा हुई फसल को दो बार बीज के रूप से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। डीजल की कीमत सात रूपये से साठ-सत्तर रूपये लीटर हो जाने से सिंचाई के लिए पानी की कीमत 5-7 रूपये प्रति घण्टा से 150-200 रूपये प्रति घण्टा हो गई। यूरिया की कीमत पचास साठ रुपये से बढ़कर सात सौ रुपये बोरी हो गई है। जब कि गेहूं के समर्थन मूल्य में महज तीन-चार गुना वृद्धि हुई है। आज का किसान ठीक-ठाक उपज के बावजूद अधिक लगान, अनियमित और अनियन्त्रित मूल्य के कारण कर्ज में डूब जाता है। तरह-तरह के कारणों से उसे अपनी जमीन और सम्मान से हाथ धोना पड़ता हैं। ऐसे में सिर्फ फाँसी का फंदा ही उसको एक मात्र मुक्ति मार्ग सूझता है। कपास, गन्ना, गेहूं, धान किसी भी चीज की खेती हो उसकी लागत और बाजार मूल्य में भारी अन्तर है।
अगर किसान के इन्तजार करने के समय की कीमत भी इसमें जोड़ दी जाय तो उसकी लगान और बढ़ जाती है। मुक्त बाजार युग में विकास की आंधी के दौरे दौरा का एक सच यह भी है किसान और किसानी हमारी चिन्ता के केन्द्र में नहीं रह गया है। नये भारत की जो भी परिकल्पनाएँ प्रस्तुत की जा रही हैं उसमें खेती और किसानी को लगातार हाशिए पर ढकेला जा रहा है। भारत एक कृषि प्रधान देश है, अब यह बीते और पिछड़े युग की बात हो गयी है। अब हम कृषि प्रधान  देश नहीं रह गए हैं क्योंकि विकास की मुख्यधारा में खेती किसानी और किसान बाहर कर दिए गए हैं।किसानों के पराजय का सम्बन्ध इस बदली हुई स्थिति से है। सेठों, साहूकारों, जमीदारों और अंग्रेजों से लड़ने और जूझने वाले किसान ने हथियार डाल दिए हैं। किसान की आत्म कथाओं का सम्बन्ध इस हारी हुई मानसिकता से है।
मजे की बात यह है कि जमीदार नहीं हैं, साहूकार और महारन नहीं है, अंग्रेजी हुकूमत नहीं है फिर भी किसान पराजित और हत भागा बना हुआ है।

प्रेमचन्द की भारतीय किसान की इस हारी हुई लड़ाई पर उसके पराजय पर विचार करने के लिए समाजशास्त्रियों, अर्थशास्त्रियों और साहित्य कर्मियों को आमंत्रित करती है।
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
एक बहुत ज़रूरी लेख। भारतीय समाज का सबसे जूझारू योद्धा आज पराजित टूटा और चुका हुआ महसूस करता है।और व्यवस्थाएं खामोश हैं या 100 200 रु का मुआवजा देकर इस मुद्दे को हास्यासपद बना रही हैं। किसान के लिये कोई उत्साहवर्धरक माहौल नही है। हाइब्रिड बीज और जमीन के अन उर्वर रूप के साथ तमाम ज़मीनों पर बॉयो फ्यूल के लिये खतरनाक जट रोफा लगाना नवसाम्राज्यवादी मुहीम ही है। सदानन्द शाही जी का आभार। इस दिशा में पत्रकार पी साईं नाथ का काम भी उल्लेखनीय। शुक्रिया मनीषा जी

किसलय पांचोली:-
दुर्भाग्य से 'जय जवान जय किसान' का नारा देश में सिर्फ नारा बन कर रह गया। हमारा तथायोजित विकास उद्योग और शहर केंद्रित रहा। हरित क्रांति के दुष्परिणामों को समझने और उनसे बचने में भी हमने बहुत देर कर दी। समृद्ध जैव विविधता, प्रचुर भौगोलिक विभिन्नता के बावजूद देश की अर्थ नीतियों में किसान और खेती कभी केंद्र में नहीं रहे। गांधी जी के समग्र दर्शन को हमने अपनी जरूरत अनुसार तोडा मरोड़ा। सबसे बड़ी कमी रही इस बाबद राजनैतिक इच्छाशक्ति की। राजनीतिज्ञों ने तो किसान को फकत वोटर ही माना। किसानों की आत्महत्याएँ सामान्य आत्महत्याएँ नहीं हैं। ये देश को गलत पटरी पर चलाने के परिणामों के जीवंत सबूत हैं।

फ़रहत अली खान:-
जैसा कि विदित है, आटा, दाल, चावल तो हम सभी खाते हैं; मैं भी, आप भी, वो बड़े अफ़सर भी जो खेती-किसानी से जुड़ी नीतियाँ बनाते हैं, वो राजनेता भी जो बड़े-बड़े मंत्रालयों के मुखिया बने बैठे हैं और सरकार के सबसे बड़े हुक्मरान भी। अन्न खाकर जब ताक़त आती है तो विकास की बात की जाती है, सब कुछ डिजिटल कर डालने की बात होती है, आयात-निर्यात पर चर्चाएँ होती हैं, छोटे-छोटे मुल्कों से दोस्ताना मुलाक़ातें की जाती हैं; कुल मिलाकर ये कि देश को प्रगति के पथ पर ले आने के ख़्वाब दिखाए जाते हैं।
अब सवाल ये है कि जिसको खाकर ये सब करने की ताक़त आती है, उस अन्न को उगाने वाले किसान की आख़िर क्यूँ सुनी जाए?
उसमें कोई सुर्ख़-आब के पर तो लगे नहीं हैं। वोट वो इकठ्ठा होकर देता नहीं है, कोई तो वोटिंग वाले दिन रोज़ी-रोटी के जुगाड़ में ही लगा रह जाता है, और कोई देता भी है तो उसे जाति-धर्म के आधार पर एक तरफ़ कर लिया जाता है।
चुनाव जीतने के बाद कभी कभी अपने 'मन की बात' उसे सुना दी जाती है, और वो ये सोचकर पूरी बात सुनता है कि शायद कहीं कोई अच्छी बात मुँह से निकल जाए। लेकिन जब वो अपने मन की बात कहना चाहता है तो उसकी तरफ़ से कान बंद कर लिए जाते हैं।
और जब तंग आकर वो आत्महत्या कर लेता है तो रस्मन कुछ मुआवज़ा उसके परिवार-जनों को पकड़ा दिया जाता है, ताकि दस-पाँच दिन घर की रोटी चलती रहे और वो लोग कोई फ़ौरी हंगामा न करें।
सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, हुक्मरानों को कम-ओ-बेश ऐसी ही कठिनाइयों से जूझते हुए देश को विकास के पथ पर ले जाना होता है।

बस ये है वो कहानी जिसको बदलने की ज़रूरत है।

मनीषा जैन :-
बहुत सही टिप्पणी आपकी फरहत जी । किसान तो अब बस इसी काम आयेगा कि उसकी जमीन भी औने पौने दामो पर लेकर उसे भूमिहीन बना दिया जाए।लगता है बातें  हो रही है किसान कि लेकिन अम्ल मे नही लाई जाती।

शिशु पाल सिंह:-
मनीषा जी ,क्या अपने विचार गद्य में ही रखना जरुरी है।क्या कविता के माध्यम से विचार नहीं रखे जा सकते। मै किसान का बेटा हूँ और गांव का रहने वाला हूँ।किसानो ला क्या दर्द है मुझसे बेहतर कौन जान सकता है।किसानो को उनकी समस्याओं के प्रति जाग्रत करने और उनसे मुकाबला करने के उद्देश्य से किसान संगठन से भी जुड़ा हूँ।यह गीत हमेशा किसानो के बीच गाता हूँ।

आनंद पचौरी:-
अन्नदाता के प्रति प्रेमचंद की संवेदना स्तुत्य है।हमारा किसान आज भी शोषण और कुत्सित राजनीति का शिकार है।योजनाएँ भ्रष्टाचारीयों की जेब़ में चली जाती हैं और किसान बेचारा हरिया ही रह जाता है। योजनाएँ उस गरीब तक पहुचती ही नहीं और वह  साहूकारों के चंगुल से कभी ऊबरता ही नहीं।हमारी नैैसर्गिक और प्रकृति से समन्वय रखती व्यवस्था को बहुराष्टीय कंपनीयों ने निगल लिया है। मूर्ख और भ्रष्ट मंतरी नीति नियंता है जिसका अपने हितों के लिए वे भरपूर उपयोग कर रहे हैं जैसा कि महाराष्ट में प्याज और शक्कर पर हो रहा है।पता नहीं वह हरित क्रान्ति कब होगी जब हमारा हरिया हरया जायेगा।

रेनेंद्र कुमार:-
लेखकों की बातें - किस्‍सा अट्ठावन - एक बड़े लेखक का बीहड़ जीवन और अंत - भुवनेश्वर (1910- )
पूरा नाम भुवनेश्वर प्रसाद श्रीवास्तव। बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाये। वे कद में नाटे और देखने में सांवले थे।
वरिष्ठ लेखक श्री दूधनाथ सिंह भुवनेश्वर को प्रेमचंद की खोज मानते हैं। प्रेमचंद कहते थे कि यदि भुवनेश्वर में कटुता और जैनेन्‍द्र में दुरूहता कम हो तो दोनों का भविष्‍य बहुत उज्ज्वल है। भुवनेश्वर की एक मात्र प्रकाशित किताब कारवां की भूमिका प्रेमचंद ने लिखी थी। उनकी अब तक प्राप्त 12 कहानियों में से 9 और अब तक प्राप्त 17 नाटकों में से 9 प्रेमचंद के हंस में ही प्रकाशित हुए। उनकी कहानी भेड़िये की तुलना में तब की और बाद की भी कोई कहानी नहीं ठहरती। वे बहुत उर्वर, कल्पनाशील, प्रखर और सहज लेखक थे। उनकी पहली रचना सूरदास की पद शैली में लिखी गयी कविता है।
भुवनेश्वर के नाटकों में से किसी का भी मंचन उनके जीवन काल में नहीं हुआ। इतने बड़े नाटककार की कृतियों को मंच पर उतारने के बारे में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ने कभी नहीं सोचा।
बाइबिल भुवनेश्वर की प्रिय किताब थी। वे गांधी जी को बहुत मानते थे।
भुवनेश्वर ने कई बार हाडा, वीपी, आरडी आदि छद्म नामों से भी लिखा। भुवनेश्वर को हिंदी एकांकी का जनक माना जाता है। भुवनेश्वर के कद का लेखक, चिंतक और सूझबूझ से भरा व्‍यक्‍ति हर युग में पैदा नहीं होता। भुवनेश्वर ने छिटपुट रेडियो की नौकरियां कीं लेकिन वहां उनका दम घुटता था। कई बार तो रेडियो से मिली किताब की समीक्षा करने के बजाये किताब बेच कर दारू पी लेते। हालांकि खुद फटेहाल होते हुए भी वे दूसरों की मदद कर दिया करते थे।
भुवनेश्वर बेहद सूझबूझ वाले और ब्रिलिएंट आदमी थे। वे अच्‍छी अंग्रेजी बोलना और लिखना पसंद करते थे। अंग्रेजी में लिखी गयी उनकी 10 कविताएं साहित्‍य की अमूल्य धरोहर हैं। शास्त्रीय संगीत में उनकी रुचि थे। जब मस्‍ती में होते तो कबीर, सूर, तुलसी मीरा के पद गाते। वे किसी से ज्‍यादा बात करना पसंद नहीं करते थे। वे उर्दू शायरों को पसंद करते थे।
भुवनेश्वर कई मित्रों के यहां महीनों निःसंकोच रह लिया करते थे और किसी से भी पैसे मांगने में शर्म नहीं करते थे। उनके कपड़े तक इस्‍तेमाल करते। वे कई बार कवि शमशेर बहादुर सिंह के घर रहे और शमशेर जी ने अपने बनिये से कह रखा था कि भुवनेश्वर को जो भी जरूरत हो, दे दिया करें और पैसे वे चुकायेंगे। मजे की बात ये कि खुद शमशेर जी का बनिये का उधार खाता उनके भाई चुकाया करते थे। वे शमशेर जी की जेब से रोजाना भाँग के लिए दूसरे तीसरे दिन गिन कर 6 पैसे निकाल लेते। यह वह वक्‍त था जब साहित्यकार आपस में मिल जुल कर रहते थे और कभी किसी को आर्थिक अभाव महसूस न होने देते।
भुवनेश्वर को छद्म गंभीरता और झूठी शालीनता पसंद नहीं थी। वे सबसे तू तड़ाक से बात करते। काशीनाथ सिंह जी बताते हैं कि नामवर जी का आग्रह रहता कि जब भी भुवनेश्‍वर उनके पास पैसे मांगने आयें, उन्‍हें पैसे देने के बजाये खाना खिलाया जाये। भुवनेश्‍वर यही नहीं कर पाते थे। काशीनाथ जी उनसे अपनी मुलाकातें याद करते हुए बताते हैं कि भुवनेश्‍वर बहुत समझदार और अपने वक्‍त से बहुत आगे के रचनाकार थे।
1948 से उनका मानसिक असंतुलन शुरू हुआ पर विक्षिप्त नहीं कहे जा सकते थे। नवंबर 1957 तक वे लखनऊ, बनारस, शाहजहांपुर और इलाहाबाद में फटेहाल घूमते देखे गये। वे तब बोरे के कपड़े पहनने लगे थे। मित्र उन्‍हें घर ले आते थे लेकिन वे जहां तक जा चुके थे, वापसी संभव नहीं थी।
उनकी मृत्‍यु की तारीख और शहर के बारे में मतभेद है। इलाहाबाद वाले बताते हैं कि वे शायद 1957 दिसंबर में चार बाग स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म में लावारिस हालत में मरे हुए पाये गये थे जबकि बनारस वाले मानते हैं कि वे वाराणसी के दशाश्‍वमेध घाट के पास गरीबों के लिए बनाये गये डेरे पर गुजरे थे।
कितनी अजीब बात है कि इतने बड़े लेखक की यही एक तस्‍वीर मिलती है।
लेखकों के बारे में मेरी सभी पोस्‍ट मेरे ब्‍लाग www.kathaakar.blogspot.com पर पढी जा सकती हैं।

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