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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 जनवरी, 2012

हमारी राहें चाहे जुदा हो..पर मंज़िल एक हो
सत्यनारायण पटेल

साथियो
आज आपके बीच आकर मुझे अच्छा लग रहा है.., और कुछ असमंजस में भी हूँ। कुछ समझ नहीं आ रहा है कि मैं आप लोगों से कैसे मुखातिब होऊँ..? कैसे पैश आऊँ…? मुझमें मौक़ों के मुताबिक पैश आने का हुनर नहीं है शायद।
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ, उसमें होने वाली राजनीतिक, सामाजिक और साँस्कृतिक हलचल मेरे भीतर भी उथल-पुथल मचाती रहती है। बाहर से ज्यादा मेरे भीतर तरह-तरह से टूट-फूट होती रहती है। कभी ख़ुद से तो कभी पूँजीवादी व्यवस्था, ‘ जो कि अव्यवस्था का उत्कृष्ट उदाहरण है, के प्रतिनिधियों से तमाम सवालों की दरकार रहती है। मैं अपने भीतर ज्वारभाटों की तरह उठती नुकीले सवालों की लहरों को चाहकर भी किसी रचनात्मक कौशल से कलात्मक क़ब्र में दफ़्न नहीं कर सकता। सवालों के जवाब की खोज मुझे चैन से नहीं रहने देती है। अपने सवालों के जवाब में जब पूँजीवादी व्यवस्था के बूटों की प्रत्येक्ष-अप्रत्येक्ष ठोकरों से ख़ुद को ज़ख्मी पाता हूँ, तो फिर मेरे कानों में प्रतिरोध का संगीत गूँजता है। शायद इसलिए ही मुझे प्रतिरोध की संस्कृति सुहाती है, अपनी लगती है। कला का कोई रूप हो साहित्य, संगीत, चित्र, फ़िल्म आदि आदि अगर उसमें शोषण के ख़िलाफ़, अन्याय के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की चिन्गारी का फूल नहीं खिलता है… तो वह मुझे जरा भी प्रभावित नहीं करती है। बोदी लगती है।
मुझे कला का वह हर रूप पसंद है, जिसमें हर तरह की जड़ता, रूढ़ियाँ, अवैग्यानिकता और मानवीयता को रौंदते विकास के क्रूर पहिये के ख़िलाफ़ प्रतोरोध की चिन्गारियाँ चमकती हों, जिसमें अपनी भाषा, बोली, लोक गीत, लोक कथा, लोक संगीत, खान-पान, रहन-सहन यानी सम्पूर्ण लोक सँस्कृति को सम्मान मिलता हो। आज पूँजीवाद हमारे जीवन में न सिर्फ़ आर्थिक असमानता की खाई को चौड़ी कर रहा है, बल्कि वह सुनियोजित ढँग से हमारी लोक सँस्कृति को भी धीरे-धीरे हाशिए पर धकेल रहा है। मेरी कोई भी कहानी हो भेम का भेरू माँगता कुल्हाडी ईमान, लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना या कोई और हो। मैंने अपनी कहानियों में शोषित, दमित, ठगाऎ हुए आदमी और उसकी लोक सँस्कृति, लोक संघर्ष के स्वर को बुलंद करने की कोशिश की है। मेरी कोशिश कितनी कामयाब हुई या नहीं.. ये तो पाठक, समीक्षक और आलोचक ही बेहतर बता सकेंगे। लेकिन मेरी लेखकीय प्रतिबद्धता, चिंता और संघर्ष अपनी भाषा, बोली और लोक सँस्कृति को सम्मान के साथ जीवित रखने के लिए है। आज रोज कोई न कोई बोली, भाषा और सँस्कृति का कोई रूप पूँजी की भाषा, सँस्कृति की साजिश का शिकार होकर दम तोड़ रही है। ज़रूरत पड़ने पर … मैं अपनी सँस्कृति की रक्षा के लिए.. वैसा साहस दिखाना चाहता हूँ.. जैसे कोई अपने प्राण की रक्षा के लिए दिखाता है। मेरे प्राण और मेरी लोक सँस्कृति मुझे समान रूप से प्यारे हैं। इसलिए मैं ख़ुद को प्रतिरोध की लोक सँस्कृति के क़रीब पाता हूँ। किसी भी कलात्मक रचना में चेतना की चिन्गारियाँ देखना चाहता हूँ…ऎसी चिन्गारियाँ.. जो पूँजीवादी व्यवस्था को झुलसती हो। मैं पूँजीवादी व्यवस्था की राख देखने के सपने से भरा, आपके ही बीच का साधारण इंसान हूँ।
कुछ-कुछ असमंजस्ता और कुछ-कुछ घबराहट इसलिए हो रही है कि आप मुझसे कहीं ऎसी उम्मीद न लगाये बैठे हों कि मैं आपको अपने वक्तव्य से मंत्रमुग्ध कर दूँगा। मुझमें वह कौशल नहीं है। मैं आपसे रू-ब-रू कहानी, क़िस्सों के मार्फ़त होऊँ या साक्षात….सीधे-सीधे बात करना मेरे स्वभाव का हिस्सा है। आपको जैसा भी लगे… पर मैं वैसे ही पैश आ सकूँगा… जैसा हूँ… ।
आज अपनी बात शुरू करूँ.. उससे पहले मैं ‘प्रेमचंद स्मृति सम्मान’ की जूरी का शुक्रियादा करना चाहता हूँ, जिन्होंने मेरे द्वारा लिखी कहानियों की किताब- ‘लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना’ को इस सम्मान के योग्य समझा… और मुझे आपसे रू-ब-रू होने का अवसर उपलब्ध कराया। मैं शबरी संस्थान, बान्दा के साथियो का भी शुक्रियादा करना चाहता हूँ, जिन्होंने शोषितों की कहानियाँ कहने वाले, बहुसंख्य समाज के लाड़ले कथाकार-उपन्यासकार मुंशी प्रेमचन्द के नाम से यह सम्मान देने की अच्छी शुरुआत की। यह प्रेमचन्द और उनकी तरह रचनारत साथियो के प्रति स्नेह व्यक्त की, उनका हौसला अफजाई करने की, उन्हें यह एहसास दिलाने की कि हम उनके साथ है… जो बहुसंख्य शोषितों की आवाज़ को बुलंद करने में प्रयासरत हैं। आपकी इस कोशिश का, इस पहल का…. इस पक्षधरता का… मैं ह्रदय से सम्मान करता हूँ। आभार मानता हूँ।
मैं आपको बता दूँ कि मैं एक छोटे किसान परवार से हूँ। देवास ज़िले में गाँव नारायण गढ़ (मकोड़िया) मेरा पैत्रक गाँव है और मैं ननिहाल (गाँव-लोहार पिपल्या, ज़िला- देवास) में पला-बड़ा हूँ। ननिहाल में नानाजी भी छोटे किसान ही थे। युवा अवस्था तक खेती- किसानी और तरह-तरह की मजदूरियों से मेरा गहरा रिश्ता रहा है। हालाँकि अब मैं छोटी-मोटी नौकरी ज़रूर करता हूँ…पर वह भी किसी असंगठित मजदूर जैसी ही है।
अभी भी खेती-किसानी और मजदूरी से मेरा रिश्ता टूटा नहीं है। टूट भी नहीं सकता। भले ही पूँजीवादी व्यवस्था की अनीतियाँ खेती-किसानी के रकबे को लगातार कम कर-कर के एक दिन पूरी तरह समाप्त ही क्यों न कर दे..? जैसे-जैसे पूँजीवादी व्यवस्था के प्रतिनिधि खेती-किसानी का काम करना मुश्किल.. और ज़मीन को हड़पना आसान बनाते जा रहे हैं… वैसे-वैसे मेरे जेहन में खेती का रकबा विस्तार पा रहा है। खेती को पूँजीवादी दैत्यों के पंजों से बचाने की इच्छा और चिंता बलवती होती जा रही है। कभी अपने भीतर ‘लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना’ कहानी के पात्र डूँगा का प्रतिरोध स्वरूप खँजड़ी बाजाना सुनता-महसूस करता हूँ। कभी ‘पनही’ कहानी के पूरण की तरह पत्थर पर छूरी को धार करते देखता हूँ। कभी ‘भेम का भेरू…’ की सकीना की तरह आँखों में सवाल भर कर पूँजीवादी व्यवस्था की कोख से जन्में सवालों और समस्याओं को घूरता हूँ। मैं अपने द्वारा कही कहानियों के पात्रों का भी ऋणि हूँ….जिन्हें जानते-समझते मैंने अपनी समझ का भी विस्तार किया है। आज इस मौक़े पर उन सभी का आभार भी मानता हूँ।
मैंने कहानी कही और आपने पुरस्कार दे दिया। लेकिन कहानियों के पात्र आज भी अपने खेतों में जुते हुए हैं। उनकी गर्दन पर रखा है पूँजीवादी व्यवस्था का जुआ…जो लगातार उनकी रगों से सोखता है मुनाफ़ा।
किसान को कम्पनियों का महँगा बीज ख़रीदने के लिए बाद्ध किया जा रहा है। महँगा बीज जब बोदा, ख़राब निकल जाता है, कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। किसान ठग-सा रह जाता है। खाद, दवा और खेती के उपकरणों के दाम भी आसमान चीरते जा रहे हैं। आज अनियंत्रित मूल्य दरों की वजह से पूँजीपति और सत्ताएँ मिलकर मुनाफ़ा ऎंठ रही हैं। ऎसी कई वजह है जो किसान को खेती से अलग कर रही है।
हमारे इस तथाकथित ‘महान’ देश के किसानों ( जो कि हमारे देश की अर्थ व्यवस्था की रीड़ है ) की स्थिति पर एक नज़र डालें…. तो हम पायेंगे कि 1995 से…बल्कि उसके कुछ पहले से ही… अब तक… यानी महज 16-17 बरसों में लगभग 2, 57, 996 किसानों ने आत्महत्या की है।
बातचीत में लोग कहते हैं कि आत्महत्या करना कायरता है…। लेकिन मैं कहना चाहता हूँ कि किसानों की आत्महत्या को कायरता मानना एक एतिहासिक चूक है। सच्चाई से आँखें फेरना है। मुझे किसान कायर नहीं लगते हैं। मुझे लगता है कि जब किसान के पास इस क्रूर व्यवस्था का प्रतिरोध करने का कोई और रचनात्मक रास्ता नहीं बचता… जब ग़लत नीतियाँ किसान के सपने को रौंदती है… उसकी मेहनत का मज़ाक़ उड़ाती है। तब वह ऎसी क्रूर और मानव विरोधी (अ) नीतियाँ के प्रतिरोध स्वरूप आत्महत्या करता है। वह संदेश देता है कि भले ही इस पूँजीवादी व्यवस्था पर तात्कालिक रूप से विजय प्राप्त नहीं कर सकता है…पर इस बात से भयभीत होकर… इस पूँजीवादी व्यवस्था की अधीनता भी स्वीकार नहीं कर लेना चाहता है। अगर कोई किसान के इस साहसिक प्रतिरोध को कायरता समझता है…तो ऎसी समझ से.. मैं ख़ुद को असहमत पाता हूँ।
सच तो ये है कि किसान के संघर्ष, उसकी जीवटता, उसकी जिजीविषा और मेहनत करने की क्षमताओं का हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। कोई तोड़ नहीं है। उसे क्यों ऎसी पूँजीवादी व्यवस्था के सामने हाथ फैलाने या गिडगिडाने की ज़रूरत पड़ती है.. जो उसी का ख़ून-पसीना पीकर फलती-फूलती है…? उसे अपने आत्माभिमान की रक्षा करने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए…?
मैं बेचैन भी हो जाता हूँ यह सोचकर कि आत्महत्या करते इस किसान ने कभी अपने हाथ में हथियार थाम लिया….और उसने यह मान लिया कि वह इस रास्ते पर चलकर अपना सम्मान, खेत, जीवन, लोक सँस्कृति, भाषा, बोली, साहित्य, कला, संगीत को पूँजीवादी व्यवस्था के ख़ूनी पँजों से बचा सकता है और बचा कर रहेगा….. तब… क्या होगा..? आज भी देश में सत्तर प्रतिशत लोगों का जीवन खेती-किसानी पर आधारित हैं। क्या हमारे देश के 13 लाख सैन्य बलों की ताक़त सवा अरब में से सत्तर प्रतिशत लोगों के इरादों को कुचलने में सफल हो सकेगी..? यह देश की व्यवस्था चलाने वाले कर्णधारों के ही सोचने की नहीं…बल्कि आप-हम के सोचने की भी बात है…?
अभी महाराष्ट्र के जेतापुरा में, तमिलनाडू के कुडनकुलम में परमाणु उर्जा संयंत्र परियोजना शुरू करने की जिद्द हम देख ही रहे हैं। वहाँ की जनता इसे स्वीकार नहीं कर रही है। उनका साफ़-सुथरा सवाल है कि जब दुनिया के अनेक हिस्से में परमाणु परियोजनाओं को धीरे-धीरे बन्द करने के निर्णय लिये जा रहे हैं..। रुस के चर्नोबिल और जापान के फूकूसिमा में परमाणु संयंत्रों में हुई दुर्घटनाओं से देश और दुनिया वाक़िफ़ है…। और जहाँ परमाणु संयंत्र स्थापित होते हैं.. वहाँ ऎसी दुर्घटनाएँ संभाव्य है.. जानते हुए भी… सरकार हमारी रोजी-रोटी और ज़िन्दगी की परवाह किये बग़ैर… जबरन इस परमाणु परियोजना को क्यों स्थापित करना चाहती है..? सरकार का उत्तरदायित्व किसके प्रति है..? हमारे अपने देश वासियों की ज़िन्दगी और रोजी-रोटी को सुरक्षित रखने के प्रति या किसी और के प्रति..? ग्रामीणों के सवाल इतने कठिन नहीं है कि सत्ताधीशों के पास उनके जवाब नहीं है..। जवाब तो है.. लेकिन वे जवाब प्रभावितों के हित में नहीं हैं…. शायद इसलिए उनके सवालों के जवाब देने की बजाय… उन्हें सवालों सहित कुचलना ही एक मात्र उपाय समझा जा रहा है।
पूँजीवादी व्यवस्था की सत्ताएँ इंसानी ज़िन्दगी के साथ छल, कपट का खेल खेलने की आदि हो गयी है। फिर बात सिर्फ़ खेती-किसानी की हो..। इन्दिरा सागर, बरगी या भाखड़ा जैसे बड़े बान्धों के मनमाने ढँग से निर्माण की बात हो… शहरों, गाँवों के अनुचित पुनर्वास की बात हो..। राज्य सत्ताओं की गिद्ध दृष्टि कई जगहों पर जमी हुई हैं। कहीं से खदान के लिए आदिवासियों को खदेड़ा जा रहा है.. तो कहीं से जंगल के लिए….. और ज़मीन अधिग्रहित करने के लिए। क्योंकि खदान, जंगल, ज़मीन और नदी सब कुछ देशी-विदेशी पूँजीपति… कम्पनियों को देना है.. ताकि वे प्राकृतिक सम्पदाओं का मन माफ़िक़ दोहन कर मुनाफ़ा कमा सके। यह सोचने की बात है कि जब लोकतंत्र का तंत्र लोक को पूर्णतः निगलने पर अमादा हो… तब लोक क्या करे…?
ऎसे में किसी लोक कलाकार, लोक सँस्कृतिकर्मी की भूमिका क्या हो..? यह ऎसा प्रश्न है.. जो हर ईमानदार जनकलाकर के मन उठता है…। जो कलाकार इससे बचकर निकल जाता है.. वह सुविधाभोगी हो जाता है.. और वह जन कलाकार होने की बजाए…. भरे पेट वालों का मनोरंजन करने वाला मसखरा, भाँड, चुटकलेबाज या कला कला के लिए जैसा विमर्श करने वाला बुद्धिजीवी बन जाता है, या राज्य द्वारा पोषित किसी कला अकादमी का अध्यक्ष, सचिव आदि.. आदि बन जाता है।
लेकिन जो उक्त रास्ता नहीं अपनाता है….जो लोक की बात लोक सँस्कृति में करता है। लोक सँस्कृति और उसकी अस्मिता की रक्षा के लिए तमाम साँस्कृतिक माध्यमों के जरिए सक्रिय रहता है। वह राज्य की आँखों की किरकिरी बन जाता है। जीतन मरांडी हमारे समय के ऎसे ही लोक सँस्कृतिकर्मी है। जिनके लोक गीत, बाँसुरी की धुन, ढोलक की थाप या नाटक का एक-एक संवाद आदिवासी सँस्कृति में पगा हो होता है। जो आदिवासियों के मन में कार्पोरेटीय लूट, राजकीय दमन के ख़िलाफ़ चेतना की चिन्गारी पैदा करता है। जीतन मरांडी वैसा ही काम कर रहे थे जैसा आँध्र प्रदेश में गद्दर और वरवर राव की जोड़ी करती रही है। जैसा प्रेमचन्द, नागार्जुन, त्रिलोचन, गोरख पान्डे, पाश की रचनाएँ करती रही हैं। मैं समझता हूँ कि किसी भी जन कलाकार का यही कर्त्तव्य है। जनता के हित में सोचना, लिखना, गाना-बजाना, नाटक करना अपराध नहीं हो सकता है। जीतन मरांडी भी यही कर रहे थे और झारखन्ड में उनकी यही एक लोक व्यापी पहचान है।
लेकि आज जीतन मरांडी को जनता के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाने की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ रही है। उन पर झूठे मुक़दमें न सिर्फ़ लादे गये..बल्कि उन्हें एक में दोषी भी ठहरा दिया और 23 जून 2011 को गिरिडीह जिले के अतिरिक्त सेशन जज ने मौत की सज़ा भी सुना दी, हालाँकि बाद में उच्च न्यायालय ने उन्हें रिहा भी कर दिया है।
लेकिन फिर भी मन में प्रश्न उठता ही है कि क्या सचमुच हम आज़ादी के 62-63 साल बाद के समय में हैं…? क्या हम ऎसे देश में हैं जहाँ पर लोकतांत्रिक व्यवस्था है…? दोस्तो… कल जो जीतन मरांडी के साथ हुआ … वह कभी भी किसी भी सँस्कृतिकर्मी, मानव अधिकार कार्यकर्ता साथ हो सकता है.. जो जल, जंगल, ज़मीन, प्राकृतिक और साँस्कृतिक धरोहरों को बचाने की बात करेगा..लोकसँस्कृति और बहुसंख्य शोषित तबके की अस्मिता बचाने की बात करेगा..। जो किसी भी रूप में जनता के हित की बात करेगा…उसे देशद्रोही कहकर या उस पर अनेक तरह के झूठे मुक़दमें लगाकर विनायक सेन, सीमा आज़ाद, अरुण फरेरा आदि की तरह जेल में सड़ने को डाल दिया जाता है…., या फिर नक्शलवादी, माओवादी आदि… आदि की उपाधि देकर ठिकाने लगा दिया जाता है।
दोस्तो…मैं कहना चाहता हूँ कि आज हमें राजकीय आतंक का सामना साँस्कृतिक तरीक़े से करने के लिए एक साझा साँस्कृतिक मंच पर आने की बेहद ज़रूरत है, क्योंकि राज्य हमारे संवैधानिक अधिकारों की चटनी बनाकर खा रहा है। सँस्कृति कर्म करने की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है। आज पूरा देश गणतंत्र दिवस मना रहा है… कहीं ऎसा न हो कि जल्दी ही 26 जनवरी को… हमें गणतंत्र बचाओ दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत करनी पड़ जाये…!
क्योंकि पूँजीवाद का हित साधने वाली सत्ताएँ तो कुछ-कुछ ऎसी ही परिस्थियाँ निर्मित कर रही हैं। जिनके अनेक प्रमाण हैं। नर्मदा घाटी के विस्थापित आज भी दर-दर की ठोकरें खाने को विवश है…. ईरोम शर्मिला की भूख हड़ताल ग्यारह बरसों से जारी है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड प्लान्ट के पीड़ितों को पच्चीस साल बीत जाने पर भी न्याय नहीं मिला है….और न ही इस बात का जवाब कि ऎसे भयानक प्लान्ट को शहरी आबादी के क़रीब स्थापित ही किस लालच में किया गया था..?
पूँजीवाद का हित साधने वाली सत्ताएँ न सिर्फ़ देश….और देश की जनता के प्रति अपनी जवाब देही से पीठ फेरती है, बल्कि वे समझती ही नहीं कि उनकी देश… और देश की जनता, जनता की सँस्कृति, भाषा, बोली, साहित्य, कला आदि के प्रति कोई ज़िम्मेदारी भी है। उनका हर क़दम और हर निर्णय प्रत्येक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सिर्फ़ और सिर्फ़ पूँजीवादी व्यवस्था के पक्ष में होता है। कई बार हमें यह भ्रम ज़रूर होता है कि हमारे बारे में भी कुछ सोचा जा रहा है। हमारे लिए भी कुछ किया जा रहा है… लेकिन जैसे ही हम उसकी तह में जाते हैं तो पाते हैं कि यह मरूस्थल में कमल के होने-सा भ्रम ही था। अगर ऎसा न होता तो…. देश की 85 प्रतिशत आबादी 20 रुपये रोज पर जीने को कभी मजबूर न होती..! लेकिन आज यह ऎसी सच्चाई है…. जिसे चाहकर भी झूठलाया नहीं जा सकता।
दोस्तो… ऎसे कई मुद्दे और कई सवाल हैं.. जिन पर लम्बे समय तक बात करते रह सकते हैं। पर कहने का मतलब यह है कि जब हम अपने जीवन में ऎसी सच्चाइयों से रू-ब-रू हैं… तो फिर हम कला के किसी भी रूप में काम करने वाले हों, हम उपन्यासकार, कहानीकार, कवि, चित्रकार या फिर फ़िल्मकार हैं…हम जो भी हैं.. अगर हम सच्चे कलाकार हैं….तो जीवन को झकझोर देने वाली सच्चाइयों, द्वन्द्वों को नज़र अंदाज करके कोई भी कलात्मक काम कैसे कर सकते हैं…? और अगर कोई कर सकने का दावा करता है…., तो मुझे उसके सच्चे कलाकार होने पर शक है। मुझे विश्वास है कि वह छल करता है.. न सिर्फ़ ख़ुद से…बल्कि हम-आप सभी से।
दोस्तो…मेरा स्पष्ट मानना है कि अच्छा रचनाकार होने से पहले… अच्छा इंसान होना बेहद ज़रूरी है। मैं अच्छा रचनाकार हूँ… ऎसी डींग तो नहीं हाँकूगा। लेकिन मैं यह ज़रूर कहूँगा कि मैं अच्छा…और अच्छा इंसान होने की लगातार कोशिश करता हूँ। जीवन में भी और रचना में भी..। जबकि परिस्थियाँ बहुत विपरित है फिर भी..। अभी जैसा हूँ उससे बेहतर….और बेहतर…और अकेला नहीं…पूरी दुनिया के साथ बेहतर होना चाहता। इसलिए माँजता हूँ ख़ुद को रात-दिन… संदेह की रेत से, अनुभवों के काँकरों से… ताकि चमक सकूँ अँधेरे के ख़िलाफ़। जम न पाये मन पर पूँजी के मैल की परत….इसलिए धोता हूँ बार-बार आत्मा में पड़ते छालों के कुनकुने पानी से। ताकि झाँक ले उसमें कोई भी…. कभी भी बेखटके।
क्योंकि मैं समझता हूँ कि जिस व्यवस्था की चक्की में मजदूर, किसान, आदिवासी और दलित पीसे जाते हैं। एक अच्छी रचना… वह चाहे जिस विधा में हो…. वह बहुसंख्य शोषितों के सुख-दुख और संघर्ष में शरीक हुए बग़ैर लिखना कठिन है, और किसी और के लिए हो न हो…मेरे लिए तो मुमकिन ही नहीं।
मैं समझता हूँ कि प्रकृति में संघर्ष की पत्थरीली ज़मीन की छाती चीरकर प्रस्फुटित हुए पौधे पर ही… अकल्पनिय सुगन्धित और ख़ूबसूरत फूल खिल सकते हैं, न कि किसी गमले में रोपे पौधे में। जैसे गमले में पौधे रोपे जाते हैं…..वैसे इन दिनों हमारे बीच हर विधा के कलाकार भी रोपे जा रहे हैं। जैसे बाज़ार अनेकानेक ग़ैर ज़रूरी उत्पदनों की ख़ासियत बताता है। ताकि हम उसकी मीठी-मीठी भाषा के जाल में फँस कर…. अपने ख़ून-पसीने से कमाई रक़म उस उत्पाद को ख़रीदने में ख़र्च कर दें…..। हमारे बीच बाज़ार वैसी फ़िल्में, वैसा साहित्य और चित्रकला भी परोसता है…जो बाज़ार के हित को ठेस न पहुँचाता हो। जो भरे पेट वालों का मनोरंजन करता हो। बाज़ार ऎसी ही फ़िल्म, साहित्य और कला की व्याख्या कर, प्रचार कर पाठकों, दर्शकों का ध्यान खींचता है। उन्हें ज़रूरी और अद्वितिय बताता है। ताकि नया दर्शक, पाठक बाज़ार के इस छलावे में आकर….उस रचना से दूर रहे.. जो पाठक, दर्शक को शोषितों के पक्ष में और पूँजीवाद के ख़िलाफ़ खड़ा होने की चेतना से भरती है, क्योंकि बाज़ार पूँजीवाद के बग़ैर फल-फूल नहीं सकता है..?
बाज़ार यथार्थपरक और जनपक्षीय साहित्य का प्रचार नहीं करता। बाज़ार द्वारा गढ़ा गया आलोचक भी ऎसी रचनाओं के नाम नहीं लेता। ऎसे रचनाकारों को वह कलाकार नहीं मानता। वह प्रेम और सेक्स की विलासित और कुन्ठित मानसिकताओं से उपजी भोंडी रचनाओं के संस्करण-दर–संस्करण प्रस्तुत करता है। यही उसकी नज़र में ज़रूरी और अद्वितिय होता है।
मैं समझता हूँ कि जिस किसी भी विधा में लिखा-रचा गया साहित्य हो….अगर वह बहुसंख्य शोषित समाज के हित के सवाल को बुलंद नहीं करता है। अगर वह संघर्ष के रास्ते पर बढ़ते शोषितों की आँखों की रोशनी नहीं बनता है। अगर वह शोषितों को सामाजिक, राजनीतिक और साँस्कृतिक चेतना से दूर करता है या भटकाने का प्रयास करता है। अगर वह शोषितों के मन में अपने हक़-अधिकारों को छीन लेने का विवेकशील जब्बा और जोश पैदा नहीं करता है। अगर वह अपनी भाषा, बोली और सँस्कृति के सम्मान की रक्षा करने को नहीं उकसाता है। अगर वह सिर्फ़ और सिर्फ़ मनोरंजन, आनन्द और समय काटने भर की कोई कलात्मक चीज़ है, तो बाज़ार की नज़र में ऎसा साहित्य चाहे जितना महान और कालजयी हो। माफ़ मत करना… जो मैं कहने जा रहा हूँ उसके लिए। दे सको तो… न भुला सकने वाल दण्ड ही देना…। क्योंकि मेरी नज़र में वह कलात्मक कृति नहीं, बल्कि वह कोई ऎसी चीज़ है…. जिसका नाम लेने से भी जिबान गंदी होने का ख़तरा रहता है।
दोस्तो…. जैसे कि एक बेहतर ज़िन्दगी के लिए आज़ादी, हवा, पानी, अन्न, शिक्षा, उपचार, संगीत, कला, भाषा, बोली, साहित्य आदि बेहद ज़रूरी है। वैसे ही बेहतर साहित्य के लिए भी बेहद ज़रूरी है कि जनसंघर्ष की कोख से जन्मे। कमजोर बाजू की ताक़त बने….रास्ता खोजती आँखों की रोशनी बने। ग़ैरबराबरी की खाई को पाटने की समझ पैदा करे। दुनिया सम्पूर्ण रूप से सुन्दर और सुखद बनाने का प्रयास करे। पूँजीवाद की क़ब्र खोदने वाला फावड़ा बने। ये सच है कि सिर्फ़ साहित्य या किसी भी तरह के कलाकर्म से क्रान्ति नहीं होती…लेकिन यह भी उतना ही सच है कि सिर्फ़ साहित्य या किसी भी तरह के कलाकर्म के बग़ैर क्रान्ति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। साहित्य और क्रान्ति का चोली-दामन का साथ होता है।
मैं आज इस मौक़े पर अपनी वरिष्ठ और हम उम्र पीढ़ी के साथी रचनाकारों से ऎसी राह पर चलने की अपेक्षा रखता हूँ…हालाँकि कुछ रचनाकार हैं… जिनकी रचनाओं में अपनी बोली और भाषा की ख़ूशबु होती है। अपनी धरती का लोकगीत, लोक संगीत गूँजता है। पर फिर भी बहुत कम है। इसलिए मैं विनम्र अपील करता हूँ कि वरिष्ठ और युवा पीढ़ी मिलकर मजदूर, किसान, दलित, आदिवासी और हर दबे-कुचले तबके के स्वर को बुलंद करे। हम यथार्थ से मुँह नहीं फेरें…. कतरायें नहीं…बल्कि हम यथार्थ, लोक कला, लोक संस्कृति और कल्पना के मिश्रण से कुछ ऎसा रचनात्मक काम करें….जो बहुसंख्य शोषित समाज की आँखों की रोशनी बन जाये। उन्हें आत्मिक रूप से मज़बूत, ईमानदार, बुद्धिमान और अपने हक़-अधिकारों के लिए, मानवता की बेहतरी के लिए लड़ने-भिड़ने का हुनर सीखा जाये। मैं बेचैन हो उठता हूँ यह देखकर कि लोग असल ज़िन्दगी जीते नहीं हैं.. जीने का सपना देखते हैं….और इस उम्मीद में कि कभी वे भी असल ज़िन्दगी जी सकेंगे…अभाव के दलदल में पूरी ज़िन्दगी काट देते हैं।
आज प्रेमचन्द, मुक्तिबोध, गोर्की, हावर्ड फास्ट, ब्रेख्त, लू शून,यशपाल, फैज़ अहमद फैज़ जैसे अनेक साहित्यकार बहुसंख्य समाज के जेहन में इसलिए गूँजते हैं कि उनका लिखा एक-एक शब्द शोषितों के पक्ष में खड़ा है। उन्हीं की तरह किसी भी विधा में काम करने वाले रचनाकार हो। वरवर राव, गद्दर, पाश, गोरख पाण्डे या फिर जीतन मंराडी हो। लोग उन्हें कभी नहीं भूल पायेंगे…जो दुनिया की बेहतरी के लिए लड़े। जिन्होंने शब्दों से तोप और तलवारों का सामना किया। मैं ऎसे संघर्षों की राह पर चलने वालों को सलाम करता हूँ। मैं उर्जस्वित होता हूँ, विभिन्न सँस्कृतियों को बचाने के लिए विवेकशील संघर्ष और संघर्षशील विवेक से उपजे कला के हर रूप से…, और अपने समय में सवालों को पत्थर की तरह उठाकर पूँजीवादी व्यवस्था के चमकते भाल की तरफ़ उछालता हूँ। मैं बहुसंख्य समाज के साथ उपर उठना चाहता हूँ, मैं अकेला तरक्की के आसमान के चोतरे पर बैठ…. किसी चतुर लोमड़ी की तरह इठलाना नहीं चाहता।
इसिलिए….आज जब आपके सामने हूँ तो कुछ-कुछ असमंजस में हूँ…। कुछ-कुछ घबराया हुआ भी हूँ कि कहीं यह पुरस्कार आपके या मेरे मन में ऎसी कोई ग़लतफहमी पैदा न कर दे कि मैं आपसे अलग हूँ, इसलिए पुरुस्कृत हूँ। क्योंकि मेरी राह बेहद उबड़खाबड़ है.. और ठोकरें मेरी प्रतिक्षा में बेसब्र हैं। हमारी राहें चाहे जुदा हो..पर मंज़िल एक हो।
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26 जनवरी 2012 को बान्दा ज़िले में शबरी संस्थान द्वारा ‘प्रेमचन्द स्मृति सम्मान’ के आयोजन में सत्यनारायण पटेल द्वारा दिया गया वक्तव्य। यह सम्मान सत्यनारायण पटेल को कहानी संग्रह- लाल छींट वाली लूगड़ी का सपना’ के लिए प्रदान किया गया।