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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 नवंबर, 2015

कविता : वसुंधरा

आज पढ़ते हैं समूह की नयी साथी की पहली बार साझा हो रही रचनाएँ। आप सब पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। नाम की घोषणा कल सुबह करेंगे।

जिंदगी

जिंदगी कितने रंग दिखाती है
कभी कुछ दे जाती है
कभी कुछ ले जाती है
दे जाती है..
कुछ होंठों पर हँसी
कुछ आँखों में नमी
और ले जाती है
अपने साथ उड़ाकर
अतीत की यादों के पन्नों को
जो थे केवल एक स्मृतिभर
अब हमारे लिए..
उसे पता है कि हम
नहीं जान पाते उसके मोडों को
इसलिए वो हमारे सामने
आ खडी होती है
नए-नए रूप बदल..
कभी वो लगती है
एक रुपहली छवि सी
जो कर दे हमें
जीने के लिए मजबूर
और कभी
एक अनसुलझी पहेली सी
जिसका कोई अंत नहीं..।

अस्तांचल

चल पड़ ऐ मुसाफ़िर

उस अस्तांचल की ओर

जहाँ डूबा सूरज

फिर कभी उगेगा

तब मिलेगी तुझे एक नई दिशा

होगा दूर तेरा अंधकार

जब फिर से तरंगें उठेंगी उसमें

होगा जीवन का संचार

तब पाएगा तू मंज़िल

चल पड़ ऐ मुसाफ़िर

उस अस्तांचल की ओर....।

 
सवेरा

चम्पा के फूलों की महकती गंध ने
आकर छुआ मुझे हौले से
मस्त, चंचल, मदमाती पवन ने
आकर कहा मुझे हौले से
तारों की ओढ़नी ओढे रात
प्रतीक्षारत खडी है
चंदा की बिंदिया माथे पर लगाए
सोच में पडी है
तुम आओ तो मैं जाऊं
ठौर ठिकाना कहाँ पाऊं
मैं मुस्कुरा कर
चल दिया हौले से
किरणें सारी बिखेर दी
एक-एक झोले से
रात भी तभी सो गई
उसकी बिंदिया भी खो गई
तब सूरज भी  ऊपर चढ़ आया
मेरा रूप भी  और बढ़ आया
पंछियों ने कलरव शुरु किया
और सवेरा  हो गया ।

000 वसुंधरा
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टिप्पणियाँ:-

मनचन्दा पानी:-

पहली कविता जीवन के उलझनों को लेकर बुनी गयी है। संभवत शुरूआती कवितायेँ ऐसी ही होती हैं जब हम अपने आसपास के या अपने निजी जीवन के अनुभवों पर कविता बुनते हैं।
मैं कवि को शुभकामनाये देते हुए कहना चाहूँगा लेखन को थोडा विस्तार दो। जैसा के ये सब सीनियर लोग करते हैं।

मेरी कविता यदि ज़िन्दगी पर हो तो उससे मेरे समाज की, देश की ज़िन्दगी का पता चलता हो।

मेरी कविता यदि सवेरे पर हो तो उसमे उगने वाला सूर्य मेरे समाज, मेरे देश के लोगों का सवेरा हो, उनके लिए आशा, सम्भावना और ऊर्जा लेकर आये।

मेरी कविता मेरी कविता ना रहे सबकी कविता हो जाये।

सादर।

ब्रजेश कानूनगो:-
कविता की शुरुआत की है तो उसे बेहतर करने में लगे रहें।बहुत और भिन्न भिन्न तेवरों और शिल्पों और महत्वपूर्ण चर्चित कवियों की रचनाओं को लगातार पढ़ें।खूब लिखें और खूब खारिज भी करते रहें।अच्छी कवितायेँ आपकी कलम से ज्यादा दूर नहीं।शुभकामनाएं और बधाई।

मनीषा जैन :-
वसुन्धरा जी का वक्तव्य
शुक्रिया मनीषा जी । ये कविताऐं पहले गिनेचुने लोगों ने ही पढी हैं। समूह के माध्यम से अन्य लोगों तक ये भावनऐं पहुँचेगीं तो लिखने की प्रेरणा मिलती रहेगी। बिजूका समूह को आभार

नंदकिशोर बर्वे :-
जिन्दगी और सवेरा कविताओं में कसावट की जरूरत है। तब वे और बेहतर हो जाएगीं। शेष बातों में ब्रजेश जी से सहमत।

फ़रहत अली खान:-
वसुंधरा जी ने अच्छी कवितायेँ लिखी है। सरल भाषा और बिम्ब कविता को सहज बनाते हैं। साथ ही कई जगह तुकांत होने की वजह से लय के साथ पढ़ना भी आसान हो गया।
हालाँकि पहली कविता की 10वीं और 11वीं पंक्तियों में क्रमशः 'थे' और 'अब' का इस्तेमाल विरोधाभास देता है, सो यहाँ ये बात खटकी।

29 नवंबर, 2015

अनुवादित कहानियाँ : लियो टॉलस्टॉय

आज पढ़ते हैं लियो तोल्सतोय की अनुवादित लघु कहानियाँ। कहानियाँ रोचक हैं आप भी पढ़े और प्रतिक्रिया दीजिए। पहली चार कहानियों का अनुवाद किया है सुकेश साहनी जी ने तथा आखिरी कहानी का प्रेमचंद जी ने।

बोझ

कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागा हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था।

किसान ने उससे कहा, 'मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आए तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे।'

'दुश्मन मेरा क्या करेगा?' घोड़ा बोला।

'वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा।'

'तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?' घोड़े ने कहा, 'मुझे क्या फर्क पड़ता है कि मैं किसका बोझ उठाता हूँ।'

तकरार

राह से गुजरते दो मुसाफिरों को एक किताब पड़ी दिखाई दी। किताब देखते ही दोनों इस बात पर तकरार करने लगे कि किताब कौन लेगा।

ऐन इसी वक्त एक और राहगीर वहाँ आ पहुँचा। उसने दोनों को इस हालत में देखकर कहा, 'भाई, यह बताओ, तुम दोनों में पढ़ना कौन जानता है?'

'पढ़ना तो किसी को नहीं आता।' दोनों ने एक साथ जवाब दिया।

'फिर तुम इस किताब के लिए तकरार क्यों कर रहे हो...। तुम्हारी लड़ाई तो ठीक उन गंजों जैसी है जो कंघी हथियाने के लिए पुरजोर कोशिश में लगे हैं... जबकि कंघी फिराने के लिए उनके सिर पर बाल एक भी नहीं है।'

अंधे की लालटेन

अँधेरी रात में एक अंधा सड़क पर जा रहा था। उसके हाथ में एक लालटेन थी और सिर पर एक मिट्टी का घड़ा। किसी रास्ता चलने वाले ने उससे पूछा, 'अरे मूर्ख, तेरे लिए क्या दिन और क्या रात। दोनों एक से हैं। फिर, यह लालटेन तुझे किसलिए चाहिए?'

अंधे ने उसे उत्तर दिया, 'यह लालटेन मेरे लिए नहीं, तेरे लिए जरूरी है कि रात के अँधेरे में मुझसे टकरा कर कहीं तू मेरा मिट्टी का यह घड़ा न गिरा दे।'

गुठली

माँ ने आलूबुखारे खरीदे। सोचा, बच्चों को खाने के बाद दूँगी। आलूबुखारे मेज पर तश्तरी में रखे थे। वान्या ने आलूबुखारे कभी नहीं खाए थे

उसका मन उन्हें देखकर मचल गया। जब कमरे में कोई न था, वह अपने को रोक न सका और एक आलूबुखारा उठाकर खा लिया।खाने के समय माँ ने देखा कि तश्तरी में एक आलूबुखारा कम है। उसने बच्चों के पिता को इस बारे में बताया।

खाते समय पिता ने पूछा, 'बच्चो, तुममें से किसी ने इनमें एक आलूबुखारा तो नहीं लिया?'

सबने एक स्वर में जवाब दिया, 'नहीं।'

वान्या का मुँह लाल हो गया, किंतु फिर भी वह बोला, 'नहीं, मैंने तो नहीं खाया।'

इस पर बच्चों के पिता बोले, 'यदि तुममें से किसी ने आलूबुखारा खाया तो ठीक है, पर एक बात है। मुझे डर है कि तुम्हें आलूबुखारा खाना नहीं आता, आलूबुखारे में एक गुठली होती है। अगर वह गलती से कोई निगल ले तो एक दिन बाद मर जाता है।'

वान्या डर से सफेद पड़ गया। बोला, 'नहीं, मैंने तो गुठली खिड़की के बाहर फेंक दी थी।' सब एक साथ हँस पड़े और वान्या रोने लगा।

दयामय की दया
     
अनुवाद - प्रेमचंद

किसी समय एक मनुष्य ऐसा पापी था कि अपने 70 वर्ष के जीवन में उसने एक भी अच्छा काम नहीं किया था। नित्य पाप करता था, लेकिन मरते समय उसके मन में ग्लानि हुई और रो-रोकर कहने लगा -

हे भगवान्! मुझ पापी का बेड़ा पार कैसे होगा? आप भक्त-वत्सल, कृपा और दया के समुद्र हो, क्या मुझ जैसे पापी को क्षमा न करोगे?
इस पश्चात्ताप का यह फल हुआ कि वह नरक में गया, स्वर्ग के द्वार पर पहुँचा दिया गया। उसने कुंडी खड़खड़ाई।
भीतर से आवाज आई - स्वर्ग के द्वार पर कौन खड़ा है? चित्रगुप्त, इसने क्या-क्या कर्म किए हैं?
चित्रगुप्त - महाराज, यह बड़ा पापी है। जन्म से लेकर मरण-पर्यंत इसने एक भी शुभ कर्म नहीं किया।
भीतर से - 'जाओ, पापियों को स्वर्ग में आने की आज्ञा नहीं हो सकती।'
मनुष्य - 'महाशय, आप कौन हैं?
भीतर - योगेश्वर।
मनुष्य - योगेश्वर, मुझ पर दया कीजिए और जीव की अज्ञानता पर विचार कीजिए। आप ही अपने मन में सोचिए कि किस कठिनाई से आपने मोक्ष पद प्राप्त किया है। माया-मोह से रहित होकर मन को शुद्ध करना क्या कुछ खेल है? निस्संदेह मैं पापी हूं, परंतु परमात्मा दयालु हैं, मुझे क्षमा करेंगे।
भीतर की आवाज बंद हो गई। मनुष्य ने फिर कुंडी खटखटाई।
भीतर से - 'जाओ, तुम्हारे सरीखे पापियों के लिए स्वर्ग नहीं बना है।
मनुष्य - महाराज, आप कौन हैं?
भीतर से - बुद्ध।
मनुष्य - महाराज, केवल दया के कारण आप अवतार कहलाए। राज-पाट, धन-दौलत सब पर लात मार कर प्राणिमात्र का दुख निवारण करने के हेतु आपने वैराग्य धारण किया, आपके प्रेममय उपदेश ने संसार को दयामय बना दिया। मैंने माना कि मैं पापी हूँ; परन्तु अंत समय प्रेम का उत्पन्न होना निष्फल नहीं हो सकता।
बुद्ध महाराज मौन हो गए।

पापी ने फिर द्वार हिलाया।

भीतर से - कौन है?

चित्रगुप्त - स्वामी, यह बड़ा दुष्ट है।

भीतर से - जाओ, भीतर आने की आज्ञा नहीं।

पापी - महाराज, आपका नाम?

भीतर से - कृष्ण।

पापी - (अति प्रसन्नता से) अहा हा! अब मेरे भीतर चले जाने में कोई संदेह नहीं। आप स्वयं प्रेम की मूर्ति हैं, प्रेम-वश होकर आप क्या नाच नाचे हैं, अपनी कीर्ति को विचारिए, आप तो सदैव प्रेम के वशीभूत रहते हैं।

आप ही का उपदेश तो है - 'हरि को भजे सो हरि का होई,' अब मुझे कोई चिंता नहीं।
स्वर्ग का द्वार खुल गया और पापी भीतर चला गया।
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प्रस्तुति- मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-

फ़रहत अली खान:-
टॉलस्टॉय अपने फ़लसफ़े के बेहतरीन कहानीकार थे। इनकी कहानियों के मुख्य पात्र आमतौर पर ग़रीब, भिखारी और सबसे निचले तबक़े के लोग होते हैं। इनकी कहानियाँ कई बार ऐसी सीख दे जाती हैं जो ज़िन्दगी भर याद रहे। इनकी कहानी 'तक़रार' और 'अंधे की लालटेन' शिक्षाप्रद कहानियाँ हैं। शुरु की तीनों कहानियाँ पसंद आयीं।

वासु कुमारी:-
कहानियां छोटी होने पर भी रोचकता से भरी और सीख देने  वाली हैं। अनुवाद भी बहुत अच्छा हुआ है।
ध्वनि:-
छोटी छोटी कहानियाँ पर अपने आप मे अनूठी। सक्षिप्त परंतु सम्पूर्णता लिए हुए। मूल वस्तु को नही छोड़ा गया। अतिशयोक्ति का निषेध किया।
और अंत में यह प्रेमचंद की अनुदित यह तो मनुष्य के कुटिल मन और छल प्रपंचता को उजागर करती है

कहानी / संस्मरण : मश्विरह : फ़रहत अली खान

आइये पढ़ते हैं कहानी मश्विरह

मश्विरह"(Advice)

अभी क़रीब तीन साल पहले हुआ ये कि अचानक मेरा कुछ लिखने को जी करने लगा; दिल प्यास की शिद्दत में किसी प्यासे की तरह बेचैनी महसूस करने लगा। यूँ तो तरह-तरह के ख्यालात ज़ेहन में आते लेकिन जब उन्हें काग़ज़ पर उतारने बैठता तो लफ़्ज़ नहीं मिलते थे; दिमाग़ ऐसे ठस हो जाता था गोया(जैसे कि) किसी चौराहे पर ज़बरदस्त जाम लग गया हो। कुछ नहीं सूझता था कि क्या लिखूँ; और अगर कुछ लिख भी लेता था तो उसे पढ़कर दिल मुतमइन(संतुष्ट) नहीं होता था; मज़्मून में जगह जगह ख़ामियाँ नज़र आती थीं। इसी कशमकश में दो-तीन महीने बीत गये। मैं अक्सर खोया-खोया सा, गहरी सोच के समंदर में डूबा हुआ रहने लगा था। इस वजह से मैं अपने कारोबार पर भी ध्यान नहीं दे पा रहा था। घर में आटा-दाल पूरा है कि नहीं, बच्चों के स्कूल की फ़ीस कितनी और कब जानी है, दुकान से शाम को घर जाते वक्त क्या लेकर जाना है, कुछ लेकर भी जाना है या नहीं, घर में किसी को कोई हर्ज़-मर्ज़ है, कोई ज़रूरत है; इन सारे हिसाबों से तो मानो मैं फ़ारिग(मुक्त) ही हो गया था.   

एक दिन सोचा कि ये सब अपनी बीवी को बताऊँ। जब मैंने उसके सामने इस बात का ज़िक्र किया तो वो उदास होकर बोली, "हमारे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी परवरिश, पढ़ाई-लिखाई की कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी है आपके कन्धों पर; और सारा दारोमदार एक छोटी सी दुकान पर ही तो है। मेहरबानी करके आप उस पर ध्यान दें।"

"कह तो तुम ठीक ही रही हो।", मैंने दिल ही दिल में कहा; मगर सामने चुप रहा।

लेकिन मुझे लगा कि किसी और से भी इस बारे में मशविरह लिया जाए; सो अगले ही दिन अपने एक दोस्त और ख़ैर-ख़्वाह(शुभचिंतक) हकीम साहब के पास पहुँच गया जिनका मतब मेरी परचून की दुकान के बराबर में ही था। जब उनको मैंने अपना हाल बताया तो उन्होंने कहा, "देखिये, आपकी परेशानी को मैं समझ रहा हूँ। यूँ तो आपको कोई बीमारी नहीं है, लेकिन एक लिहाज़ से इसे एक ज़ेहनी बीमारी कहा भी जा सकता है; और इस बीमारी का इलाज ख़ुद आप ही के पास है। आप अपने ज़ेहन को तमाम बातों से हटा कर किसी एक ही चीज़ पर लगाने की कोशिश करें; और बेहतर होगा कि अपनी दुकान पर ही ध्यान दें। ज़ेहन जब दस जगह बँटा होता है तो याददाश्त और सेहत पर इसका बुरा असर पड़ता है। अपना ख़्याल रखें।"

"हकीम साहब की बात में दम तो है।", मैंने सोचा और उन्हें सलाम करके वहाँ से चल दिया।

हालाँकि मशविरह तो मैं दो जगह से ले चुका था मगर सच कहूँ तो फिर भी मैं एक अजीब उलझन में फँसा हुआ था; गर्म दूध निगलने का था न उगलने का।

तभी मुझे अपने एक दूसरे दोस्त जो शहर के अच्छे कहानीकारों में शुमार होते हैं, का ख़्याल आया; तो सोचा कि उनसे भी इस बाबत बात करूँ।

उनसे बात की तो वो बोले, "लिखने की शुरुआत करने वालों के साथ अक्सर ऐसा होता है। आप बस अच्छी सोच रखिए, अच्छा पढ़ते रहिए और ख़ुदा से दुआ करते रहिए कि आपका क़लम सिर्फ़ भली और सच्ची बात पर ही चले; फिर आपको इसका एहसास होगा कि ज़ेहनी सुकून क्या होता है।"     

ये सुनकर मैंने सोचा, "वाह! कितनी उम्दा बात कही।"  

जब मैं वहाँ से निकला तो मेरे ज़ेहन में अपनी बीवी, हकीम साहब और मेरे कहानीकार दोस्त तीनों की कही बातें बार-बार एक-एक करके घूम रही थीं। तीनों ने अपने-अपने हिसाब से मुझे मश्विरह दिया और तीनों ही की बातें मुझे मुनासिब नज़र आती थीं; सो मैंने तय किया कि मैं तीनों ही की बताई बातों पर एक साथ अमल करूंगा।

बस फिर क्या था, तभी से मैं दुकान के वक़्त पर दुकान की तरफ़ पूरा ध्यान देने लगा; अपनी सेहत और घर की ज़िम्मेदारियों को ख़ास तवज्जोह देने लगा। रब से दुआ करता कि मैं अगर कुछ लिखूँ तो सिर्फ़ हक़ और सच बात लिखूँ। सो अब मैं अच्छी किताबें पढ़ता और जब भी थोड़ा बहुत वक़्त मिलता उसमें काग़ज़-क़लम लेकर बैठ जाता। अब मुझे बातों को अलग-अलग रंग में कहने का ढंग आने लगा था। जैसे-जैसे सोचता वैसे-वैसे लिखता जाता।

अच्छा लिखने से जो ज़ेहनी सुकून हासिल होता है वो बयाँ नहीं किया जा सकता; अंदर का सारा मवाद बाहर आ जाता है; जी हल्का हो जाता है। हालाँकि मैं तारीफ़ी जुमले सुनने के लिए नहीं लिखता हूँ, लेकिन इस बात को कहने में कोई झिझक भी महसूस नहीं करता कि अब मुझे अपने लिखे पर ऐसे जुमले कई नामचीन लोगों के मुँह से अक्सर सुनने को मिलते हैं।

अब इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि मैंने वाक़ई अपनी ज़ेहनी परेशानी के वक़्त उन तीनों से बात की थी, या मैंने ख़ुद ही ये तसव्वुर कर लिया कि मैं उनसे एक-एक करके मश्विरह ले रहा हूँ।

000 फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

सुषमा अवधूत :-
बहुत सुंदर लिखा है,पर क्या ये कहा नी है ये मुझे समझ  नहीं आया पर है वाक़ई अच्छा अनुभव

नयना (आरती) :-
बहुत उम्दा कहानियां । मनीषा जी धन्यवाद आपका इन्हें पढ़ाने का

अल्का सिगतिया:-
कहानी। ने शुरु  में। बहुत। जिग्यासा पैदा की,पर पता नहीं,मैं  जो कहना चाह  रही। हूँ,फिलहाल  बर्क पर उतर नहीं रहा ।

रेणुका:-
Ji mujhe bhi samajh nahi aaya ki saare mashware kaise madadgaar rahe....

अल्का सिगतिया:-
वो शायद। यूँ कि सब कुछ। करते हुए लेखन किया

अल्का सिगतिया:-
कुछ लोगों। के जैसे शायद hill station  पर अलहदा होकर लिखने नहीं। बैठे

मनीषा जैन :-
मुझे ऐसा लगता है कि ये संस्मरण या आत्मकथ्य जैसा है। लेखक ने अपनी मन की परेशानी तीन अलग अलग व्यक्तियो को बताई व तीनो ने ही अपने अपने तरीके से अच्छी राय दी और लेखक तीनों  की ही बातों पर ध्यान देकर अपने जीवन में अग्रसर हुए।

सुवर्णा :-
अच्छी रचना। कल व्यस्तताओं के चलते अपनी बात नहीं रख पाई थी पर लग रहा था कि कलम शायद फ़रहत जी की ही है। अच्छी परिपक्व रचना फ़रहत जी।

आर्ची:-
मैं भी समझ गई थी कि लेखक फरहत जी ही हैं ऊर्दू शब्दों के अर्थ कोष्ठक में जो दिए थे.. अच्छी थी रचना एक संस्मरण या प्रसंग के रूप में कहानी के रूप में नहीं

आभा :-
लेखक का नाम तो शैली से ही पता चल गया था। ये संस्मरण हो सकता है कहानी तो नहीं लगती

चंद्र शेखर बिरथरे :-
फरहत सर मजा नहीं आया । कोशिश अच्छी है । लगे रहिये । एक न एक दिन कामयाबी आपके कदम चूमेगी । इंशाल्लाह । चंद्रशेखर बिरथरे

फ़रहत अली खान:-
अल्का जी;
अभी मैं भी सीखने के ही फ़ेज़ में हूँ। अच्छी उर्दू अभी दूर की कौड़ी है मेरे लिए। हालाँकि सीखने के साथ ही साथ सिखाना भी चलता रहता है।
कल ही मेरे एक सीनियर ने मुझसे कहा- 'आपकी उर्दू अच्छी नहीं है, अभी आपको सीखनी पड़ेगी।'

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, अर्जुन जी, नयना जी, अल्का जी, रेनुका जी, कुंदा जी, मनीषा जी, सुवर्णा जी, अर्चना जी, आभा जी...
इतनी विस्तृत टिप्पणियों के लिए आप सभी का तह-ए-दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ।
अगर कोई मुझसे पूछे-
'क्या ये कोई संस्मरण या आत्मकथ्य है?'
तो मेरा जवाब होगा- 'नहीं; क्यूँकि जो भी कुछ इसमें वर्णित है, वो मेरी आप-बीती या मन में पैदा हुई भावनाएँ-मात्र नहीं हैं।'

और अगर पूछा जाए-
'क्या ये कोई कहानी है?'
तो मैं कहूँगा- 'हाँ; क्यूँकि ये मेरी कल्पना मात्र है जिसमें एक छोटी सी घटना का ज़िक्र किया गया है।'
(हालाँकि कई बार कल्पनाएँ भी हमारे अनुभवों से प्रेरित होती हैं; और यहाँ भी ऐसी किसी संभावना से मुझे इंकार नहीं है।)

दरअसल होता ये है कि अगर किसी कहानी में कोई किरदार 'मैं' भी हो, तो वो किसी संस्मरण या आत्मकथ्य सी प्रतीत होती है और उसका ऐसा लगना स्वाभाविक ही है। अब ऐसे में लेखक को ख़ुद ये बात बतानी पड़ती है कि फ़लाँ लेख आत्मकथ्य या संस्मरण है(यानी आपबीती या मन में उपजी भावनाएँ) या फिर ये कहानी(काल्पनिक घटना या चरित्र-चित्रण) है।

अब जबकि ये कोई संस्मरण या आत्मकथ्य नहीं है, तो इस काल्पनिक घटना के विवरण को कहानी के अलावा साहित्य की और किस श्रेणी में रखा जा सकता है?

काफ़ी दिन पहले मनीषा जी ने प्रेमचंद जी की जयंती पर उनकी एक कहानी 'कश्मीरी सेब' ग्रुप में साझा की थी; उस कहानी में भी 'मैं' मुख्य किरदार था।

मैंने इसे एक मनोवैज्ञानिक कहानी मान कर लिखा है।
आप में से अक्सर लोग मुझसे ज़्यादा तजुर्बा-कार हैं; मैंने साहित्य की अलग-अलग विधाओं का संरचनात्मक अध्ययन नहीं किया है, बस जो मुझे लगता है उसी आधार पर अपनी धारणा को आपके सामने रखा।
कृपया मार्गदर्शन करें।

मनीषा जैन :-
हाँ, कहानी के लिए मैं शैली भी अपनाई जा सकती है। और ये भी जरूरी नहीं कि वो 'मैं' लेखक का अपना मैं ही होगा। हम अक्सर जब कोई मैं शैली की कहानी पढ़ते हैं तो सोचते हैं कि यह लेखक की अपनी कहानी है लेकिन ऐसा होता नहीं है।
और साथी भी इस पर अपने विचार रखें।

आर्ची:-
मैं के रूप में लिखने के कारण नहीं कहानी के लिए आवश्यक कुछ तत्वों की कमी के कारण यह रचना कहानी नहीं लग रही.. जैसा कि कुंदाजी ने कहा एक स्पष्ट कथानक कहानी में होना चाहिए।

वसुंधरा काशीकर:-
फ़रहत जी बहुत अच्छी कोशिश है। माफ़ कीजियेगा ज़रा देर से पढ़ रही हूँ। मेरे दृष्टी से शैली और आशय ये दो विषय साहित्य में महत्व रखते है। कोई भी कला कलाकृती relate की जा सकता है/ या सवाल पूछती है वो महत्वपूर्ण है। आपका ये संस्मरण या कहानी या आत्मकथ्य रिलेट कर सकते है! बधाई!!

फ़रहत अली खान:-
बाक़ी साथी भी इस विषय पर कुछ कहें।
ताकि सभी की बातों का एक निचोड़ निकाला जा सके।
एक सवाल अभी भी मेरे ज़ेह्न में है; अगर ये लेख संस्मरण या आत्मकथन नहीं है तो किन-किन विधाओं की श्रेणी में इसे रखना मुमकिन है?
मैं चाहूँगा कि बे-झिझक इस बात पर कुछ चर्चा हो।

स्वाति श्रोत्रि:-
लेखक लिखने के लिए विषय चुनता है।उस पर बहुत विचार करता है।पश्चात एक रचना का जन्म होता है वो कौनसी विधा है उसका नामकरण वाचक करता है। आपने एक लेखक के लेखक बनने की प्रक्रिया को अपने शब्दों में प्रस्तुत किया हैं। वो काबिलेतारीफ है।

निधि जैन :-
मुझे ऐसा लगता है कि ये संस्मरण या आत्मकथ्य जैसा है। लेखक ने अपनी मन की परेशानी तीन अलग अलग व्यक्तियो को बताई व तीनो ने ही अपने अपने तरीके से अच्छी राय दी और लेखक तीनों  की ही बातों पर ध्यान देकर अपने जीवन में अग्रसर हुए।

मनीषा जी की टिप्पणी से सहमत

ये आत्मकथ्य ही है

कहानी तो नही
फ़रहत अली खान:-: शुक्रिया निधि जी।

वैसे कहानी के अंतिम हिस्से में इस बात की तरफ़ भी इशारा है कि उन तीनों से मश्विरह लेने की बजाए शायद सिर्फ़ ये तसव्वुर(कल्पना) ही कर लिया गया कि उन तीनों से मश्विरह लिया गया है; यानी संभवतः असल में किसी से कोई मश्विरह नहीं लिया गया बल्कि सबकी ओर से उन तीनों के संभावित विचार लेखक द्वारा ख़ुद ही आत्मसात कर लिए गए।

23 नवंबर, 2015

डायरी के कुछ अंश : शालिनी बाजपेयी

आज पढ़ते हैं समूह के साथी की डायरी के कुछ अंश। अच्छा लगे तो रचनाकार का हौसला जरूर बढ़ाये।

भैय्या जैसे ही दूब को बकरे की गर्दन पर रखते हम लड़कियां मेंहssss...मेंहssss...कर मिमियातीं

हमारे यहां हर व्रत-त्योहार पूरे विधि विधान और परंपरागत रूप से मानाया जाता है। मझे तिल-गुड़ के लड्डू वाला वो व्रत-त्योहार आज भी याद आता है। सकट चौथ। मम्मी इस दिन व्रत रखती थी लेकिन हम बच्चों के लिए ऐसा हर कर्मकाण्डी दिन किसी त्योहार से कम नहीं होता था। और मेरी मम्मी, चाची और ताई जी ही नहीं मुहल्ले की सभी ऐसी शादीशुदा औरतें जो 'पुत्रवती' थीं वो सब इस दिन व्रत रखती थी। शाम होते ही एक बड़ी सी कढ़ाई चूल्हे पर रखकर उसमें गुड़ गरम किया जाता। काले तिल भूनकर उससे डाले जाते। इसके बाद हम सब बैठकर लड्डू बनाते। कोई गोल बनाता, कोई अंडाकार। मेरा छोटा चचेरा भाई बहुत खेल करता था, वो चौकोर लड्डू बनाता और हम सबको दिखाता। मम्मी, चाची सब उसे डांटतीं..... भागो यहां से तुम लड्डू ख़राब कर रहे हो....और वो सबको मुंह चिढ़ाता अपना लड्डू ले कर भाग जाता। वहां उसे ही बैठने की इजाज़त मिलती, जिसकी हथेली लड्डू को गोल बना पाती।

लड्डू बनाने के साथ ही एक बड़ी सी पीतल की परात में तिल-गुड़ से बकरे की आकृति बनायी जाती। उस परात में उतने हो बकरे बनाए जाते जितने घर में लड़के होते। इसके बाद उसे दूर रख दिया जाता, ताकि कोई बच्चा गंदे हाथों से छूकर उसे 'अपवित्र' न कर दे। पूजा से पहले किसी को भी लड्डू खाने की इजाज़त नहीं होती थी।
घंटों ऐसे ही लड्डू बनाने के बाद फिर पूजा की तैयारी होती। चौक रखने के बाद लकड़ी के पाटे पर सकट चौथ बनाई जाती। मम्मी-चाची-ताई जी पूजा करती और हम लोग दूर से देखते।

पूजा करने के बाद समय आता उन तिल-गुड़ के बकरों को काटने का जो परात में बनाए गए थे। फिर मम्मी-चाची बकरे के सर की पूजा करतीं, उस पर चन्दन लगातीं। इसके बाद घर के लड़कों को बुलाया जाता। और वो सब राजकुमारों की तरह ऐंठते हुए आते। मम्मी उन्हें दूब (घास) देतीं। वे दूब को परात में जमे बकरे की गर्दन पर रखते। जैसे ही दूब बकरे की गर्दन पर रखी जाती, हम लड़कियां चिल्लातीं मेंहssss...मेंहssss...मेंहssss....। बारी-बारी से हर लड़का ऐसे ही बकरे की गर्दन पर दूब रखता और हम लड़कियां हर बार ऐसे ही मिमियातीं। इसके बाद बकरे का सर पूजा में चढ़ाया जाता और बाकी का उसका शरीर लड़कों को ही खाने को मिलता।

मुझे याद है दीपावाली के अगले दिन दादी अलसुबह ही घर में सूप बजाकर मम्मी-चाची-ताई जी को उठा देतीं थी। फिर वे सब नहाने के बाद रात को भिगोए गए नए चावल सिल पर पीसतीं। पीसने के बाद एक तरफ चावल की चिड़िया बनाई जाती, तो दूसरी तरफ गोबर से बने गोबर्धन रखे जाते। चिड़िया बनाने के बाद उसे भाप पर पकाया जाता। घर की हर स्त्री के लिए एक-एक चिड़िया बनानी होती थी। पकने के बाद चिड़िया को लाकर गोबर्धन की पूजा होती। उसके बाद चिड़िया के सर पर चन्दन लगाकर उसकी भी पूजा होती।

चिड़िया को पूजने के बाद मम्मी, चाची और ताई जी उस चिड़िया का सर तोड़कर पैर के अंगूठे के नीचे दबा लेतीं। इसके बाद में बिना बोले चीनी के खिलौने के साथ चिड़िया का बाकी का शरीर खातीं। हम लोग पास में बैठकर उन्हें हंसाने की खूब कोशिश करते, बोलने के लिए उकसाते, वो हमें आंखें दिखाती लेकिन एक शब्द नहीं बोलतीं। एकदम मौन रहकर पूरी चिड़िया खातीं। चिड़िया खाने के बाद वे पैर के अंगूठे से उसका सर निकालतीं और अपने सर के चारों ओर उसे घुमाकर छत पर फेंक देतीं। ...फिर हम लोगों को डांटना शुरू करतीं और हम बच्चा पार्टी वहां से फुर्र हो जाते।

मैं हमेशा सोचती थी कि जब हमारे घर में मांस-मछली का नाम लेना भी किसी अपराध से कम नहीं तो फिर पूजा में ये बकरा-चिड़िया बना कर उन्हे प्रतीकात्मक रूप से मारने और उन्हें खाने की रस्में क्यों होती हैं? जब मैं दादाजी से पूछती कि बाबा, भैय्या लोग बकरे को ऐसा क्यों करते हैं जैसे काट रहे हों जबकि हम लोग तो बकरा खाते ही नहीं और हम लड़कियों से मेंहssss....मेंहssss... करने को क्यों कहा जाता है। तब मुझे हर बार यही जवाब मिलता, अरे पगली, ये तो पूजा है....ये कोई बकरा थोड़े है, ये तो तिल-गुड़ का लड्डू ....,...तुम भी सीखो मम्मी कैसे करती हैं।

मेरे दादाजी संस्कृत के विद्वान थे। वे मुझे बहलाते थे या उनके पास मेरे सवालों के जवाब नहीं थे मुझे नहीं पता। लेकिन आज जब सकट चौथ और गोवर्धन पूजा के बारे में सोचती हूं तो लगता है इन प्रतीकों का कुछ तो अर्थ होगा। संभव है किसी काल में बकरे और पक्षियों की बली की प्रथा रही हो जो समाप्त हो गयी हो और ये प्रतीकात्मकता उसका अवशेष हो। अन्यथा मुझे कोई और कारण नहीं समझ आता कि व्रत-पूजा आदि में प्रतीक के रूप में भी गुड़-तिल के बकरे की आकृति बना दूब को उसकी गर्दन पर रखना, जैसे बकरे की गर्दन काट रहे हों, हमारा मेंहsss...मेंहsss... की आवाज निकालना, चावल से बनी चिड़िया की गर्दन मरोड़ना आदि का क्या अर्थ हो सकता है।

हमारे पूर्वज मांस-भोजी थे। यज्ञादि में पशु बलि भी दी जाती थी। इन बातों से इंकार नहीं किया जा सकता। हमारे ही धर्मशास्त्रों में मांसाहार और पशुबलि के संबंध में नियम दिए गए है। ये भी सच है कि समय के साथ हिन्दुओं में मांसाहार कम हुआ और पशुबलि में भी कमी आयी। जो प्रथाएं धार्मिक कर्मकाण्डों के साथ जुड़ी थीं, वे प्रतीक के रूप में आज भी विद्यमान हैं।

हमारे घर में मांस, मछली, अण्डे का नाम लेना मना है। पाप उस घर का पानी भी नहीं पीते जहां मांस, मछली और अण्डा पकाया जाता हो। हमारी बुआ ऐसी दुकान से कोई सामान नहीं लेती हैं, जहां पर अण्डा बिकता हो। वे ये बात मानने को तैयार नहीं होंगे कि उनके पूर्वज मांस भोजी थे। व्रत-पूजा आदि में हम आज भी कुछ ऐसी रस्मों का पालन करते है जो शायद इसी ओर इशारा करती हैं।
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टिप्पणियाँ:-

निधि जैन :-:
तो क्या कहना चाहती हैं लेखिका
कि मांसाहार को पाप मानना गलत है?
अगर भूतकाल में हम कोई गलती करते रहे तो उसे आज भी जारी रखें
या जिस बात की आवश्यकता भूतकाल में थी उसकी आवश्यकता न होने पर भी उसे ही जारी रखें?

सुवर्णा :-
मेरे ख्याल से नहीं। यहाँ प्रतीकों के इस्तेमाल की चर्चा बस हुई है। मैंने और भी कई घरों में देखा है कि हलवे को जानवर की शक्ल देकर बलि को प्रतिस्थापित किया जाता है। मुमकिन है उन घरों में कभी पहले प्रथा रही हो बलि देने की जिसे महज़ प्रतीक के तौर पर रस्म अदायगी कर ली जाती है।

ब्रजेश कानूनगो:-
वो कौनसा भय है जिसके कारण छोड़ दी गयी बांते किसी और रूप में जारी रखना जरूरी  लगता  है?

जैन :-
कोई भी बात और जब वो आस्था से जुडी हो एकदम से छोड़ना कठिन होता है

खाते तो हमारे पूर्वज भी रहे ही होंगे

पर जैनियों में अब इस तरह का कहीं कोई विधान नही दीखता

इवन नारियल तक नही फोड़ा जाता बलि के नाम पर

शायद इसलिए भी कि जैन पंथ में अहिंसा मूलभूत रही

और जगह अहिंसा पूर्ण रूप से नहीं अपनाई गई?

सुवर्णा :-
जी मुझे भी यही लगता है। कि यह अंतर्मन का भय ही है कि लोग छोड़ नहीं पाते तो मोड़ लेते हैं और प्रतीकों का सहारा लिया जाता है। जैन धर्म नया है और अहिंसा उसका मूल रहा है इसलिए शायद वहाँ ऐसा कुछ नहीं मिलता। हाँलांकि हमारे घरों में भी ऐसा कुछ नहीं मिलता.....

ब्रजेश कानूनगो:-
हम तो दशहरे पर बिना भय के गिलकी के पकौड़े खाते हैं। न जाने कौनसी प्रथा का परिवर्तित रूप है।

प्रज्ञा :-
ये लेख उन धार्मिक रिवाज़ों की ओर ध्यान दिलाता हुआ बलि संदर्भ को सामने लाता है। वेदों में ब्राह्मणों के मांस भक्षण का उल्लेख है। भारतेंदु का नाटक पढ़ना बेहद ज़रूरी
वैदिक हिंसा हिंसा न भवति
जहाँ अग्नि में खूब मांस पकाया जा रहा है। ये प्रतीक आज भी धर्म और हिंसा के समीकरण की पुष्टि तो कर ही रहे हैं । वैश्विक संदर्भों में देखिये धर्म का अंधानुकरण और रूढ़िवादिता कितनी जघन्य हत्याओं की ज़िम्मेदार है। कितने लोग इस अग्नि में होम हो चुके तारीख गवाह है।

मनीषा जैन :-
प्रज्ञा जी से सहमत। हिंसा चाहे किसी भी तरह की हो दुख देती है। धर्म का अंधानुकरण हम सभ्य कहे जाने वाले प्राणी आज भी करते हैं। मानसिक हिंसा भी उतनी दुखदायी है जितनी शारीरिक हिंसा।

शालिनी बाजपेयी:-
दीपावली पर घर गई थी। गोवर्धन पूजा पर मम्मी ने वही सब किया जो मैं बचपन से देखती रही हूं। पहले दादी मम्मी और चाची होतीं थी अब मम्मी और मेरी भाभी। भाभी सीख रही हैं कि गोवर्धन पूजा कैसे की जाती है चावल की चिड़िया कैसे बनाई जाती है आदि आदि। मैनें देखा है कि कार्य कारण से किसी को कोई मतलब नहीं है। मेरी मां और भाभी जैसी घरेलू स्त्रियों के लिए ये एक सीखा हुआ व्यवहार है। एक रस्म है जो निभानी है। क्योंकि उनकी नज़र में ये धर्म है।

मांसाहार पाप है या पुण्य मैं इस बहस में नहीं पड़ती। हमारे पूर्वज मांसाहारी थे इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। सकट चौथ....गोवर्धन  पूजा आदि पर की जानी वाली क्रियाएं भी, जिन्हे आम लोग धर्म मान कर करते है, इसी ओर इशारे करती हैं। ऐसा मेरा मानना है। इन्हे समझना होगा।

आभार...