आज पढ़ते हैं लियो तोल्सतोय की अनुवादित लघु कहानियाँ। कहानियाँ रोचक हैं आप भी पढ़े और प्रतिक्रिया दीजिए। पहली चार कहानियों का अनुवाद किया है सुकेश साहनी जी ने तथा आखिरी कहानी का प्रेमचंद जी ने।
बोझ
कुछ फौजियों ने दुश्मन के इलाके पर हमला किया तो एक किसान भागा हुआ खेत में अपने घोड़े के पास गया और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा, पर घोड़ा था कि उसके काबू में ही नहीं आ रहा था।
किसान ने उससे कहा, 'मूर्ख कहीं के, अगर तुम मेरे हाथ न आए तो दुश्मन के हाथ पड़ जाओगे।'
'दुश्मन मेरा क्या करेगा?' घोड़ा बोला।
'वह तुम पर बोझ लादेगा और क्या करेगा।'
'तो क्या मैं तुम्हारा बोझ नहीं उठाता?' घोड़े ने कहा, 'मुझे क्या फर्क पड़ता है कि मैं किसका बोझ उठाता हूँ।'
तकरार
राह से गुजरते दो मुसाफिरों को एक किताब पड़ी दिखाई दी। किताब देखते ही दोनों इस बात पर तकरार करने लगे कि किताब कौन लेगा।
ऐन इसी वक्त एक और राहगीर वहाँ आ पहुँचा। उसने दोनों को इस हालत में देखकर कहा, 'भाई, यह बताओ, तुम दोनों में पढ़ना कौन जानता है?'
'पढ़ना तो किसी को नहीं आता।' दोनों ने एक साथ जवाब दिया।
'फिर तुम इस किताब के लिए तकरार क्यों कर रहे हो...। तुम्हारी लड़ाई तो ठीक उन गंजों जैसी है जो कंघी हथियाने के लिए पुरजोर कोशिश में लगे हैं... जबकि कंघी फिराने के लिए उनके सिर पर बाल एक भी नहीं है।'
अंधे की लालटेन
अँधेरी रात में एक अंधा सड़क पर जा रहा था। उसके हाथ में एक लालटेन थी और सिर पर एक मिट्टी का घड़ा। किसी रास्ता चलने वाले ने उससे पूछा, 'अरे मूर्ख, तेरे लिए क्या दिन और क्या रात। दोनों एक से हैं। फिर, यह लालटेन तुझे किसलिए चाहिए?'
अंधे ने उसे उत्तर दिया, 'यह लालटेन मेरे लिए नहीं, तेरे लिए जरूरी है कि रात के अँधेरे में मुझसे टकरा कर कहीं तू मेरा मिट्टी का यह घड़ा न गिरा दे।'
गुठली
माँ ने आलूबुखारे खरीदे। सोचा, बच्चों को खाने के बाद दूँगी। आलूबुखारे मेज पर तश्तरी में रखे थे। वान्या ने आलूबुखारे कभी नहीं खाए थे
उसका मन उन्हें देखकर मचल गया। जब कमरे में कोई न था, वह अपने को रोक न सका और एक आलूबुखारा उठाकर खा लिया।खाने के समय माँ ने देखा कि तश्तरी में एक आलूबुखारा कम है। उसने बच्चों के पिता को इस बारे में बताया।
खाते समय पिता ने पूछा, 'बच्चो, तुममें से किसी ने इनमें एक आलूबुखारा तो नहीं लिया?'
सबने एक स्वर में जवाब दिया, 'नहीं।'
वान्या का मुँह लाल हो गया, किंतु फिर भी वह बोला, 'नहीं, मैंने तो नहीं खाया।'
इस पर बच्चों के पिता बोले, 'यदि तुममें से किसी ने आलूबुखारा खाया तो ठीक है, पर एक बात है। मुझे डर है कि तुम्हें आलूबुखारा खाना नहीं आता, आलूबुखारे में एक गुठली होती है। अगर वह गलती से कोई निगल ले तो एक दिन बाद मर जाता है।'
वान्या डर से सफेद पड़ गया। बोला, 'नहीं, मैंने तो गुठली खिड़की के बाहर फेंक दी थी।' सब एक साथ हँस पड़े और वान्या रोने लगा।
दयामय की दया
अनुवाद - प्रेमचंद
किसी समय एक मनुष्य ऐसा पापी था कि अपने 70 वर्ष के जीवन में उसने एक भी अच्छा काम नहीं किया था। नित्य पाप करता था, लेकिन मरते समय उसके मन में ग्लानि हुई और रो-रोकर कहने लगा -
हे भगवान्! मुझ पापी का बेड़ा पार कैसे होगा? आप भक्त-वत्सल, कृपा और दया के समुद्र हो, क्या मुझ जैसे पापी को क्षमा न करोगे?
इस पश्चात्ताप का यह फल हुआ कि वह नरक में गया, स्वर्ग के द्वार पर पहुँचा दिया गया। उसने कुंडी खड़खड़ाई।
भीतर से आवाज आई - स्वर्ग के द्वार पर कौन खड़ा है? चित्रगुप्त, इसने क्या-क्या कर्म किए हैं?
चित्रगुप्त - महाराज, यह बड़ा पापी है। जन्म से लेकर मरण-पर्यंत इसने एक भी शुभ कर्म नहीं किया।
भीतर से - 'जाओ, पापियों को स्वर्ग में आने की आज्ञा नहीं हो सकती।'
मनुष्य - 'महाशय, आप कौन हैं?
भीतर - योगेश्वर।
मनुष्य - योगेश्वर, मुझ पर दया कीजिए और जीव की अज्ञानता पर विचार कीजिए। आप ही अपने मन में सोचिए कि किस कठिनाई से आपने मोक्ष पद प्राप्त किया है। माया-मोह से रहित होकर मन को शुद्ध करना क्या कुछ खेल है? निस्संदेह मैं पापी हूं, परंतु परमात्मा दयालु हैं, मुझे क्षमा करेंगे।
भीतर की आवाज बंद हो गई। मनुष्य ने फिर कुंडी खटखटाई।
भीतर से - 'जाओ, तुम्हारे सरीखे पापियों के लिए स्वर्ग नहीं बना है।
मनुष्य - महाराज, आप कौन हैं?
भीतर से - बुद्ध।
मनुष्य - महाराज, केवल दया के कारण आप अवतार कहलाए। राज-पाट, धन-दौलत सब पर लात मार कर प्राणिमात्र का दुख निवारण करने के हेतु आपने वैराग्य धारण किया, आपके प्रेममय उपदेश ने संसार को दयामय बना दिया। मैंने माना कि मैं पापी हूँ; परन्तु अंत समय प्रेम का उत्पन्न होना निष्फल नहीं हो सकता।
बुद्ध महाराज मौन हो गए।
पापी ने फिर द्वार हिलाया।
भीतर से - कौन है?
चित्रगुप्त - स्वामी, यह बड़ा दुष्ट है।
भीतर से - जाओ, भीतर आने की आज्ञा नहीं।
पापी - महाराज, आपका नाम?
भीतर से - कृष्ण।
पापी - (अति प्रसन्नता से) अहा हा! अब मेरे भीतर चले जाने में कोई संदेह नहीं। आप स्वयं प्रेम की मूर्ति हैं, प्रेम-वश होकर आप क्या नाच नाचे हैं, अपनी कीर्ति को विचारिए, आप तो सदैव प्रेम के वशीभूत रहते हैं।
आप ही का उपदेश तो है - 'हरि को भजे सो हरि का होई,' अब मुझे कोई चिंता नहीं।
स्वर्ग का द्वार खुल गया और पापी भीतर चला गया।
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प्रस्तुति- मनीषा जैन
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टिप्पणियाँ:-
फ़रहत अली खान:-
टॉलस्टॉय अपने फ़लसफ़े के बेहतरीन कहानीकार थे। इनकी कहानियों के मुख्य पात्र आमतौर पर ग़रीब, भिखारी और सबसे निचले तबक़े के लोग होते हैं। इनकी कहानियाँ कई बार ऐसी सीख दे जाती हैं जो ज़िन्दगी भर याद रहे। इनकी कहानी 'तक़रार' और 'अंधे की लालटेन' शिक्षाप्रद कहानियाँ हैं। शुरु की तीनों कहानियाँ पसंद आयीं।
वासु कुमारी:-
कहानियां छोटी होने पर भी रोचकता से भरी और सीख देने वाली हैं। अनुवाद भी बहुत अच्छा हुआ है।
ध्वनि:-
छोटी छोटी कहानियाँ पर अपने आप मे अनूठी। सक्षिप्त परंतु सम्पूर्णता लिए हुए। मूल वस्तु को नही छोड़ा गया। अतिशयोक्ति का निषेध किया।
और अंत में यह प्रेमचंद की अनुदित यह तो मनुष्य के कुटिल मन और छल प्रपंचता को उजागर करती है
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