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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 अगस्त, 2016

लेख : 'संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ : राधावल्लभ त्रिपाठी

भारत जैसे पितृसत्तात्मक देश में ( यदि कुछ विशेष प्रदेशों की बात छोड़ दें) यह पुरुष प्रधान वृत्ति बहुलता में रही है। जीवन और समाज के लगभग हर क्षेत्र में स्त्री की स्वाधीनता पर गंभीर प्रश्नचिह्न रहे हैं...  चाहे वह आर्थिक स्वावलंबन हो, सामाजिक /राजनैतिक निर्णय या साहित्य। किन्तु आरंभ से स्थिति ऐसी नहीं थी।
              इतिहास बताता है कि आर्य परंपरा में सभी महत्वपूर्ण कार्यों में स्त्रियों की भूमिका निर्णायक रही है,  पर समय के साथ-साथ अन्य जातियों का समावेश होने पर उनकी परंपराओं ने इस पर दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ा है।
इसी धारणा की पुष्टि करता 'राधावल्लभ त्रिपाठी' जी का यह लेख एक सुखद अनुभूति प्रदान करता है कि हमारा अतीत मातृसत्तात्मक रहा है और सबसे अधिक समृद्धि देश ने उसी कालखंड में अर्जित की।
   लेख पर आपके विचारों का स्वागत है....

  लेख :

'संस्कृत साहित्य में स्वाधीन स्त्रियाँ : राधावल्लभ त्रिपाठी'

         ये संस्कृत साहित्य की मनस्विनी नारियाँ हैं, भक्तिकाल की वे भक्तिनें नहीं तो बार-बार हाथ जोड़ कर या पैर पड़ कर पति से कहें कि ʻबिनती बहुत करों का स्वामीʼ ....

संस्कृत साहित्य की परंपरा पाँच हजार साल से अधिक पुरानी है। कविता और शास्त्र की विविध विधाओं में यह बहुत संपन्न साहित्य है। पर यह प्रायः पुरुषों के द्वारा और पुरुषों के लिए लिखा गया साहित्य है। इसके बावजूद इसमें स्वाधीन मन वाली, स्वाधीनता के लिए संघर्ष करती या पुरुष के वर्चस्व के आगे न झुकने वाली स्त्रियों की अनेक छवियाँ हैं। इसके दो कारण हैं। एक,  जिस वैदिक समाज में इस साहित्य का उपक्रम हुआ उस समाज में मातृसत्ताक आदिम कबीलों का सातत्य बना हुआ था। दो, चिंतन और संवेदना के स्तर पर दार्शनिकों तथा कवियों ने स्त्री की गरिमा को पहचाना और उसकी स्वाधीनता का सम्मान किया।

किसी भी समाज में व्यक्ति की स्वाधीनता की पहचान निम्नलिखित कारकों से हो सकती है – एक, वह व्यक्ति अपनी सर्जनात्मकता, संकल्पों और अभीप्साओं को स्वयं की तथा समाज की बेहतरी के लिए स्वायत्त अभिव्यक्ति दे सके; दो, वह अन्य व्यक्तियों से वाद, विवाद और संवाद कर सके; तथा तीन, वह अपना योगक्षेम स्वयं वहन  कर पाए।

ऋग्वेद तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में कतिपय स्त्रियों का ऋषि के रूप में उल्लेख है। स्त्री के ऋषि होने का अर्थ है कि वह मंत्रों का साक्षात्कार कर लेती है।  हरिपद चक्रवर्ती (1981: 54) ने लोपामुद्रा, अपाला तथा घोषा को महिला ऋषि माना है। मांधात्री, अगस्त्य की अज्ञातनाम बहिन, वसुक्र की पत्नी, शाश्वती, गोधा विश्ववारा भी ऐसी ही महिला ऋषि हैं। मंत्रों की रचनाकार कवि के रूप में घोषा का उल्लेख ऋग्वेद (1.117.7, 10.40.5, 10.39.3.6) में आता है। घोषा राजा कक्षीवत की बेटी थी। अपाला तथा विश्ववारा आत्रेय वंश की थीं। ऋग्वेद के पंचम मंडल में आत्रेय ऋषियों के मंत्र हैं। अपाला तथा विश्वारा के भी मंत्र इनमें हैं। इन महिला ऋषियों में से कुछ ने तो पूरे पूरे सूक्त (बहुसंख्य मंत्रों का एक अध्याय) भी रचे।
  
मंत्रों का साक्षात्कार कर सकना या काव्य रच लेना – वैदिक काल में ऐसा कर्म है, जो स्वाधीनता की परम स्थिति को प्रकट करता है। जो स्त्री ऋषि के रूप में मंत्रद्रष्टा हो सकती है, वेद उसके लिए जन्मजात अधिकार बन जाता है। कौषीतकि ब्राह्मण में बताया गया है कि वेद में पारंगत स्त्रियों को पथ्यस्वस्ति वाक् की उपाधि से सम्मानित किया जाता था। वैदिक यज्ञों में, जहाँ यजमान के साथ उसकी पत्नी की सहभागिता अनिवार्य थी, सीतायज्ञ तथा रुद्रयज्ञ ये दो यज्ञ ऐसे बताए गए हैं, जिनका अनुष्ठान केवल स्त्रियों के द्वारा  ही किया जा सकता था। स्त्री अपनी पुरोहित स्वयं है, और अपना कर्मकांड वह स्वयं ही करती है – यह स्थिति वैदिक समाज के भीतर भी मातृसत्ताक समाज की मौजूदगी साबित करती है।

अशोक वाटिका में सीता

यह कहना गलत होगा कि  इन स्त्री ऋषियों का प्रेरणा के स्पंदित क्षणों में कुछ मंत्र रच लेना उनकी स्वाधीनता का लक्षण नहीं है। वस्तुतः मंत्रद्रष्टा स्त्री ऋषियों ने अपने कर्तृत्व व रचनाशीलता के द्वारा ऋषि के रूप में मान्यता हासिल की। ऋषि होने का अर्थ अपनी प्रज्ञा की सक्रियता से समाज में सार्थक हस्तक्षेप के लिए स्वाधीन होना भी है। जिन महिला ऋषियों का उल्लेख यहाँ किया गया है, उनमें से कुछ बाद में ब्रह्मवादिनी हो गईं। ब्रह्मवादिनी बुद्धिजीवी महिला है, जो वाद या खुली बहस में शिरकत कर सकती है, शास्त्र रच सकती है या धर्मोपदेश कर सकती है। पूर्ववैदिक काल में घोषा और इला इसी तरह की महिलाएँ थीं। उत्तर-वैदिक काल में जब उपनिषद रचे जा रहे थे, उस समय इनकी संख्या और बढ़ी होगी। काशकृत्स्ना मीमांसा दर्शन की आचार्य थी। उपनिषदों में गार्गी, मैत्रेयी, कात्यायनी और सुवर्चला – ये महिलाएँ अपनी जीवनशैली स्वयं चुनती हैं। गार्गी ब्रह्मवादिनी है, वह अकेली याज्ञवल्क्य के सामने उस समय के बुद्धिजीवियों के कदाचित् सब से बड़े जमावड़े बहस में टिकी रहती है। मैत्रेयी घर-बार और अटूट संपदा का त्याग कर याज्ञवल्क्य के साथ जाने का निर्णय लेती है, कात्यायनी अपने पति को छोड़ कर भी इसी घर-बार और ऐश्वर्य में रमने का।

ऋग्वेद में ऐसी अनेक महिलाओं का उल्लेख है, जो पुरुषों के साथ सहज रूप में युद्ध में शरीक होती हैं। स्त्री का हथियार उठाना यहाँ उसका एक स्वैच्छिक कर्म है, इसमें न कोई अनहोनी बात है, न लड़ाई में शामिल होने के लिये उसे मजबूर ही किया गया है।  ऋग्वेद में विश्पला का वर्णन आया है। विश्पला राजा खेल की रानी थी। वह अपने पति के साथ युद्ध में लड़ी, उसकी जंघा (घुटने के नीचे का अंग) कट गई। अश्विनी कुमारों ने, जो वैद्य होने के साथ  सर्जरी में भी माहिर कहे गए हैं, उसके आयसी जंघा (घुटने में लगाने के लिये लोहे का बना पाँव) लगा दी। मुद्गल की पत्नी मुद्गलानी (इन्द्रसेना) तीरंदाजी में माहिर थी। वह भी मुद्गल के साथ गाएँ चुरा कर ले जाते दस्युओं से भिड़ंत में धनुष-बाण ले कर मैदान में उतरी। वेदों के अंतर्गत पंचविंश ब्राह्मण में (25.13.3) रुशमा की कथा आती है। रुशमा कुरुक्षेत्र की रहने वाली थी, उसने इंद्र से युद्ध किया।

शकुंतला

ऋग्वेद में ऐसी अनेक महिलाओं का भी वर्णन है, जो अपनी यौनिकता को सहज उन्मुक्त अभिव्यक्ति देती हैं। स्त्री के खुल कर दैहिक संसर्ग की कामना को पुरुष के आगे प्रकट करना उस समय बुरा भी नहीं माना गया। अगस्त्य ऋषि की महत्ता तो संस्कृत के वेदों और पुराणों में ही नहीं, तमिल साहित्य में वर्णित है। अगस्त्य उत्तर को दक्षिण से जोड़ने के अपने अभियान में या असुरों से संघर्ष में इतने व्यस्त रहते थे कि अपनी पत्नी लोपामुद्रा की ओर ध्यान देने का समय ही उनके पास न था। फिर वे बूढ़े भी हो गये थे। ऋग्वेद के पहले मंडल का 179वाँ सूक्त अगस्त्य और लोपामुद्रा का संवाद है। लोपामुद्रा कहती है कि काया बुढ़ा जाए, फिर भी एक पति को कामना करती हुई पत्नी के पास आना चाहिए। इस सूक्त में लोपामुद्रा देह की जिस भाषा में बोलती है,  वह इतनी बेबाक है कि ऋग्वेद का अँग्रेजी में अनुवाद करने वाले यूरोप के संस्कृत विद्वान ग्रिफिथ साहब को इस सूक्त के कतिपय मंत्रों का अंग्रेजी उल्था करने में शर्म लगी, तो उन्होने इन मंत्रों का लैटिन में अनुवाद कर दिया, और जिन मंत्रों में उन्हें शर्म नहीं लगी, उनका अंग्रेजी में करते गये। अंग्रेजी में क्रिश्चियनिटी की बदौलत जो पापबोध आ मिला है, उसके कारण वहाँ देह को ले कर पाखंड से भरी शर्म और झिझक हो सकती है, संस्कृत और लैटिन की अपनी परंपरा में शर्म का यह पाखंड नहीं है। इस पाखंड से मुक्त होने की वजह से ऋग्वेद के ऋषि वाणी की भव्यता का वर्णन करते हुए यह कह सके – ʻजानकार व्यक्ति के सामने वाणी अपनी काया को ऐसे ही अर्पित कर देती है, जैसे कामना से भरी पत्नी अपनी देह को अपने पुरुष के आगे।ʼ यहाँ पत्नी के लिये विशेषण ʻउशतीʼ है, जिसका उन आधुनिक भाषाओं में अनुवाद थोड़ा मुश्किल है, जिन्हें बोलने वालों ने पाखंडमयी लज्जा का लबादा ओढ़ लिया है। इंद्र की पत्नी इंद्राणी के वर्णन भी वेदों में एक प्रखर अभिव्यक्ति वाली महिला के रूप में हैं। कामसूत्रकार वात्स्यायन तो इंद्राणी का अपने शास्त्र की एक आद्य प्रवक्त्री के रूप में स्मरण करते हैं।

संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त गृहिणी और दंपती जैसे शब्द घर पर स्त्री के स्वामित्व के बोधक रहे हैं। मातृसत्ताक समाजों में स्त्री अपने घर की मालकिन है, घर का प्रबंध वही करती है, कमाई भी वह अपने पास रखती है। अपना पुरुष या पति चुन कर उसे अपने घर ला कर रखने का अधिकार भी वह रखती है। वेदों और उपनिषदों के समय तक किसी लड़की के द्वारा अपना पति स्वयं चुनना एक सहज बात बनी हुई है। इसीलिए उपनिषदों की सुवर्चला जब अपने पिता से कहती है कि वह जाँच-परख कर अपने लिए अपना पति स्वयं चुनेगी, तो पिता उसे इसके लिए बिना ननुनच के छूट देते हैं। सुवर्चला अपने चयन का मानक भी स्वयं बनाती है – जो युवक उसके सामने अपने आप को उसकी बराबरी का ब्रह्मज्ञानी या बुद्धिजीवी साबित कर देगा, वह उससे विवाह करेगी। श्वेतकेतु जैसा तेजस्वी युवा चिंतक उसकी कसौटी पर खरा साबित होता है, सुवर्चला उसे पसंद कर के उसे ब्याह लेती है। सावित्री के पिता अश्वपति अपनी बेटी के गुणों के कुछ ऐसे कायल थे कि उन्हें लगा वे उसके लायक लड़का नहीं ढूँढ सकेगें। उन्होंने सावित्री के लिए यात्रा करने की व्यवस्था कर के उसे रवाना कर दिया कि वह दुनिया भर में घूम कर देख-भाल कर अपने लिये लड़का चुन ले। सावित्री ने अपनी इस वरण की स्वतंत्रता का सही-सही उपयोग किया। पर सारे पिता सुवर्चला और सावित्री के पिताओं जैसे उदार और समझदार नहीं होते। ऐसे हद दर्जे के गँवार पिता भी हमारे समाज में रहे हैं कि लड़की कायदे का लड़का अपने लिए जान-परख कर उससे विवाह कर ले तो वे वरवधू दोनों की बनी-बनाई  दुनिया को नेस्तनाबूद करने के लिए  कमर कस लें।

दूल्हे को वर कहा जाता था। वर का अर्थ ʻचुना गयाʼ भी होता है और ʻचुनने वालाʼ भी। पर मेरी समझ से मूल अर्थ ʻचुना गयाʼ ही होगा, क्योंकि लड़की अपना लड़का चुनती थी। मजे की बात यह है कि वर का स्त्रीलिंग संस्कृत में नहीं बनता, क्योंकि लड़की चुनने वाली है, चुनी जाने वाली नहीं। लड़की के लिये स्वयंवरा (स्वयं वरण करने वाली) या पतिंवरा शब्द हैं। आगे चल कर लड़की के लिए वरण की अपनी स्वतंत्रता को स्वयंवर के रूप में एक औपचारिक जश्न बना दिया गया। स्वयंवर में मूलतः तो चुनने की स्वतंत्रता लड़की के पास ही है, विवाहार्थी पुरुषों को उसके आगे नुमाइश की तरह पेश होना है, और उसके द्वारा खारिज किए जाने पर आपत्ति दर्ज कराने का उन्हें अधिकार नहीं है।  महाभारत में दमयंती या कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में इंदुमती के स्वयंवर इसी तरह के हैं।

स्त्री स्वाधीन मन के साथ ही जन्म लेती है। पुरुष या समाज उसकी स्वाधीनता को अक्षुण्ण रहने दे – यह भी संभव है; और जैसा होता रहा है, यह भी कि अपनी वर्जनाओं, पाबंदियों और जड़ नैतिक मान्यताओं के तहत उसकी स्वाधीनता का वह हनन करता जाए। संस्कृत साहित्य में स्त्री की स्वाधीनता और स्वाधीनता के हनन की सभी स्थितियों के अक्स हैं। इस दृष्टि से तीन तरह की स्त्रियाँ संस्कृत साहित्य में देखी जा सकती हैं – एक तो वे जिन्होंने स्वाधीनता को एक मूल्य की तरह आत्मसात कर के उसे अपने जीवन में चरितार्थ किया; दूसरी वे जिन्हें इस मूल्य को हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा और उसकी कीमत चुकानी पड़ी; तीसरी वे जिनके लिए स्वाधीनता एक सपना बन कर रह गया। यदि वाल्मीकि की रामायण से तीनों के उदाहरण देना हो, तो पहले का उदाहरण कैकेयी, दूसरे का सीता, तारा, मंदोदरी और  अहल्या; तथा तीसरे का उदाहरण कौसल्या, सुमित्रा आदि बहुसंख्य नारियाँ हैं।

कैकेयी के जैसी स्वाधीन मन वाली तथा स्वाधीनता के मूल्य को सत्यापित करने वाली स्त्री रामायण में तो दूसरी नहीं है। वाल्मीकि ने जितनी रामायण की कथा बताई है, उसी को ध्यान में रखें, तब इस कथन की सचाई समझी जा सकेगी। कैकेयी विश्पला, मुद्गलानी, रुशमा आदि वैदिक काल की नारियों की तरह युद्ध के मैदान में दशरथ के साथ उतरी थी। वाल्मीकि के अनुसार युद्ध में दशरथ घायल हो कर मरणासन्न हो गए, तो कैकेयी उनके प्राण बचाने के लिए उन्हें युद्धभूमि से उठा लाई। दशरथ इस बात से प्रसन्न हुए और उन्होंने कैकेयी से दो वर माँगने के लिये कहा। कैकेयी ने कई साल बाद राम के ऐन राज्याभिषेक की तैयारी के मौके पर ये वर माँगे – इसमें न चालाकी है, न मौकापरस्ती; यह दशरथ को उनकी ऐतिहासिक भूल के लिए दिया गया दंड अवश्य है। वाल्मीकि बताते हैं कि दशरथ ने कैकेयी के साथ विवाह राज्यशुल्क दे कर किया था, अर्थात उन्होंने कैकेयी के पिता को वचन दिया था कि उनकी लड़की से यदि लड़का होगा, तो अयोध्या का राजपद उसी को दिया जाएगा। इस बात को कैकेयी जानती थी, इस बात को राम भी उस समय जानते थे जब उनके राज्याभिषेक के लिए तैयारियाँ की जा रहीं थीं। तभी तो वे कैकेयी के वर की बात पता चलते ही वन जाने के लिए इस तरह तैयार हुए जैसे मन से एक बोझ हट गया हो। दशरथ के मन में राम के लिये मोह था, वे कैकेयराज को दिए वचन पर सुविधा के साथ लीपापोती कर सकते थे, और उन्होंने राम को समझा-बुझा कर राजपद स्वीकार कर लेने की साजिश में शामिल भी कर लिया था।

अहल्या ने इंद्र से प्रेम  किया था। योगवासिष्ठ वेदांत का ग्रंथ होते हुए भी इंद्र और अहल्या के प्रेम के अपार आनंद का रोमांचक वर्णन करता है। एक समय अहल्या और इंद्र के प्रेम की कहानी एक लोककथा बन गई होगी, क्योंकि दक्षिण के मंदिरों में अहल्या और इंद्र के प्रेमनिरत युगल अंकित हैं। अहल्या को गौतम ने छोड़ दिया, और वह वर्षों अकेली रही। राम जब दंडकारण्य जा रहे थे, तो वे अहल्या से मिले, उसे माँ कह कर पुकारा और उसे प्रणाम किया। फिर उन्होंने गौतम ऋषि को भी समझा-बुझा कर अहल्या को फिर से स्वीकार कर लेने का अनुरोध किया। वाल्मीकि की इस कथा में अहल्या सचमुच का पत्थर नहीं बनती, न ʻछुअत सिला भइ नारिʼ की ही कोई बात है।

रामायण की सीता, तारा और मंदोदरी और महाभारत की द्रौपदी अपने पतियों से वाद, विवाद और संवाद करती हैं। सीता राम के साथ वन जाने की जिद करती हुई कहती हैं - ʻमैं तुम्हारे रास्ते के कुशकाँटे रौंदती हुई आगे आगे चलूँगी (अग्रतस्ते गमिष्यामि मृद्नन्ती कुशकण्टकान्)।ʼ अपहरण करते रावण से वह जूझती है। अशोकवाटिका में अकेली उसे चुनौती देते हुए वह कहती है – ʻअरे दुर्मति, तू गीदड़ है, जो मुझ सिंहिनी की कामना कर रहा है (त्वं पुनर्जम्बुकः सिंहीं मामिहेच्छसि दुर्मते)।ʼ रावण उसके सामने सहमता है। रावणवध के बाद राम सीता को सामने देख कर आपे से बाहर हो कर कुछ का कुछ बोलने लगते हैं, सीता तब भी उनसे वाद और संवाद करती है। द्रौपदी का एक पति जुआ खेल कर अपने भाइयों के साथ गुलाम बन चुका है, द्रौपदी अपने बुद्धिवैभव से उन्हें गुलामी से  निजात दिलाती है, पर उनकी मानसिक गुलामी का वह क्या करती?

सीता के तेज से रावण घबराता है, राम उसके आगे निरुत्तर रहते हैं; द्रौपदी के एक सवाल के सामने महावीर भीष्म परेशान और पसीने पसीने हो जाते हैं।  कौन अधिक स्वाधीन है - सीता या राम और रावण? द्रौपदी या भीष्म और युधिष्ठिर?

मंदोदरी रावण को सलाह देती रही है कि वह सीता को राम को लौटा कर उनसे संधि कर ले। पर युद्ध में अपने सारे भाई-बंधुओं के मारे जाने पर पूरी तरह से हताश रावण जब उसके पास सलाह माँगते हुए पूछता है कि क्या अब राम से संधि कर लूँ और सीता को लौटा दूँ, तो वही मंदोदरी हनुमन्नाटक में रावण से कहती है – अब क्या संधि करना? और दशानन, अब यदि तुम लड़ने से डर रहे हो, तो मैं तलवार उठा कर युद्ध में कूदने के लिये तैयार हूँ।ʼ ये संस्कृत साहित्य की मनस्विनी नारियाँ हैं, भक्तिकाल की वे भक्तिनें नहीं तो बार-बार हाथ जोड़ कर या पैर पड़ कर पति से कहें कि ʻबिनती बहुत करों का स्वामीʼ

दुष्यंत शकुंतलामहाभारत की शकुंतला को विवाह कर के भी दुष्यंत ने पहचानने से इंकार किया तो दोनों के बीच जम कर झड़प हुई। शकुंतला अंत में यह कह कर चल दी, मैं अपने बेटे को इतना बड़ा वीर बनाऊँगी कि यह अपने बूते पर तुझसे आर्यावर्त का राज्य ले लेगा।
  
कालिदास की जिस शकुंतला को उन्नीसवीं सदी के फ्रेंच आपेरा में नारी की मुक्ति के प्रतीक के रूप में  उद्धृत किया गया, उसमें महाभारत वाली शकुंतला की आँच नहीं है। बाद के संस्कृत साहित्य में स्त्री का तेज मंदा होता गया है, स्वाधीन स्त्रियाँ कम होती गईं हैं। पर स्त्री की स्वाधीनता का सपना बाण, शीला भट्टारिका और भवभूति जैसे कवियों में जागता दिखता है। बाणभट्ट की महाश्वेता और कांदबरी तो उस जादुई यथार्थ का हिस्सा लगती हैं, जो पुरुषतंत्र के परे है। भवभूति के नाटकों की दुनिया में एक लड़की आत्रेयी है, जो प्रयाग के पास वाल्मीकि के तपोवन से चलती चलती दंडकारण्य में अकेली वेदांत पढ़ने के लिए दूसरे तपोवन में जा रही है। वासंती है, जो सीता पर राम के द्वारा किए गए अत्याचार को ले कर उनसे कड़ी बहस करती है, एक महिला कामंदकी है, जो अपने गुरुकुल में वह शास्त्र (आन्वीक्षिकी) पढ़ाती है, जिस पर पुरुषों का एकाधिकार माना जाता रहा है। मालती है, जो पिता का घर छोड़ कर माधव से विवाह करती है।

वेदों में इंद्र को अहल्याजार (अहल्या का यार) कहा गया। पिछले दो हजार सालों में संस्कृत में रचित काव्यों में स्त्री के जारज संबंधों के रोमांचक वर्णन किये जाते रहे, विज्जिका और शीलाभट्टारिका जैसी महिला कवियों के द्वारा भी और अन्य कवियों के द्वारा भी। ये संबंध पुरुषों के आधिपत्य और वर्जनाओं के संसार को छिन्न-भिन्न करने वाले ओपन सीक्रेट थे।

1975 के आसपास उज्जैन के कालिदास समारोह में महादेवी वर्मा का व्याख्यान सुनने को मिला। महादेवी की कविता जितना कोमल, करुणामय और रहस्यमय लगी, मंच पर उतने ही बेबाक और दबंग स्वर में उन्हें बोलते देखा और सुना। अपनी संस्कृत के अध्ययन को ले कर उन्होने बताया कि उनकी वेद पढ़ने की बड़ी लालसा थी, पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के वेद के गुरुजी को यह मान्य नहीं था कि कोई लड़की या महिला वेद का अध्ययन करे, लिहाजा उनका संस्कृत का अध्ययन जारी नहीं रह पाया।

विश्पला और रुशमा जैसी योद्धा नारियों या अपाला और गार्गी जैसी मंत्र रचने वाली या वेदज्ञ स्त्रियों के देश में स्त्री को वेद पढ़ने का निषेध करने की स्थिति क्यों और कैसे आई – यह अलग से विचार का विषय है।

( प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियां:-

आनंद पचौरी:-
बहुत जानकारी,इतिहास और प्रमाणिकता से भरा आलेख।साध ही उन लोगों की भी आँखें खोलने वाला है जो स्त्री स्वातन्त्रय पर वैदिक साहित्य में कमियाँ ही ढूढते रहते हैं

आशीष मेहता:-: पूरा पढ़ना बाकी है, पर बेहद रोचक आलेख (तथ्यात्मक गुण, आप गुनिजन् बताएँ।)..... रचनाजी आभार।

संजीव:-: "संस्कृत साहित्य पांच हजार साल पुराना है।" लेख का पहला वाक्य ही प्रमाणिकता को संदिग्ध कर रहा है। वैदिक काल के लगभग १५ सौ वर्ष के इतिहास में १५ - २० स्त्रियों के कुछ साहित्यिक संदर्भों से तत्कालीन आम स्त्रियों की स्वतंत्रता या अच्छी स्थिति का अनुमान करना उचित नहीं है। तत्कालीन साहित्य मे हजारों प्रमाण स्त्री विरोधी भी उपलब्ध हैं।
"भक्तिकाल की भक्तिनें" कहकर जिन्हें नकारा गया है। यह लेखक की एक रूढ और अधिक प्रच्छन्न पितृसत्तात्मक  सोच को स्पष्ट कर रहा है। । पूरा आलेख दिखने में तो स्त्री के पक्ष में है परन्तु वह पोषण पितृसत्तात्मक सोच की श्रेष्ठता का ही कर रहा है।

दीपक मिश्रा:-: शरद कोकास जी का एक आलेख है। वैदिक काल की जो महिमा मंडन होती है, चार पांच स्त्रियों के अलावा और नाम नही मिलते।

आलोक बाजपेयी:-: संजीव जैन जी से सहमत। पर उन्होंने उदारता पूर्वक कमियां बतायीं। बोगस लेख है। बिना कोई इतिहास दृष्टि के पंडिताई झाड़ता उदघोष गान।

प्रदीप मिश्रा:-: पहली बात तो यह सिर्फ विवरण और जानकारी है। राधावल्लभ जी के संस्कृत ज्ञान पर कोई शक नहीं है। वे वैदिक समाज के उपक्रम की बात करते हैं। वैदिक समाज की नहीं। यह तो सत्य है और लेख में पहले ही लिखा गया है कि परुषों द्वारा पुरुषों लिए लिखा गया साहित्य है। तो फिर इसे अलग से रेखांकित क्यों किया जा रहा है कि पतृसत्तात्मक आलेख जब लेख ने खुद ही घोषित किया है। अगर हमारे पास तर्क़ हो तो हम इसके तथ्यों को गलत साबित करें। जैसे जिन स्त्रियों की बात की गयी है वे वैसी ना रहीं हैं। या फिर हम जिस सभ्यता और संस्कृति को बेहतर समझते हैं वहाँ से 15-20 इस स्तर की महिलाओं का नाम निकाल कर दे दें। मेरे इन सवालों से मुझे लेख और उस सभ्यता के पक्ष में न माना जाये लेकिन मेरी जिज्ञासा है। संस्कृत का नाम आते ही हम इतना बिदक क्यों जाते हैं। अगर हम साहित्य और वैज्ञानिक समाज को महत्त्व देते हैं तो हमें हर विचार को जिज्ञासा की तरह स्वीकार करके उसकी पड़ताल करनी चाहिए।

संजीव:-: "वैदिक समाज में मातृसत्तात्मक आदिम कबीलों का सातत्य बना हुआ था।" इस वाक्य का कोई अर्थ नहीं है। वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था और उसने स्थानीय कबीलों की स्त्रियों को लूटा, बंधक बनाया और अपने भोग के लिए दासियों के रूप में रखा। उसने कभी भी उन कबीलों को और उनकी मातृप्रधान व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया। यही कारण है कि आज भी हमारा समाज पितृ प्रधान है। तमाम वैदिक नियम और समाज व्यवस्थायें पुरुष की सत्ता और वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हैं न कि स्त्री की पहचान या अस्मिता के लिए हैं।
इसके आगे का वाक्य दूसरा बडा झूठ है। उस समय के किसी भी चिंतक ने स्त्रियों के लिए कुछ नहीं सोचा और गरिमा के संबंध में तो रंच मात्र भी नहीं सोचा। स्त्री की गरिमा को जानवरों की गरिमा से अधिक महत्व कभी नहीं मिला वैदिक समाज के पुरुषों के द्वारा।

प्रदीप मिश्रा:-: अगर विश्व के किसी दूएरे समाज जो आप कह रहे हैं। वह हुआ हो तो बताने की कृपा करें।

संजीव:-: विश्व के दूसरे समाज की मैंने कोई बात नहीं की है। मैं तो राधावल्लभ जी के लेख के संबंध में बात कर रहा हूं। स्त्रियों के गरिमा के संबंध में एक तथ्य यह है कि अश्वमेघ यज्ञ के बाद राजा की पटरानी को यज्ञ के घोडे के साथ सहवास करना होता था। जब राजा की पटरानी की गरिमा की यह स्थिति है तो शेष का क्या होता होगा ?
बुरा और गलत में फर्क समझेंगे तो बात स्पष्ट होगी और बिना तुलना के कुछ बुरा   नहीं हो सकता यह बात भी गले नहीं उतर रही।

प्रदीप मिश्रा:-: यह सब मनगढंत और झूठ है। इससे हमें बचना चाहिए। और थोड़ा अपना विवेक भी प्रयोग मे लें तो यह समश्या नहीं होगी। कोई भी समाज काबिले से ही बनता है। जो कबीलों में आज भी बचे हैं वहीं सही रूप से प्राचीन सभ्यता से जुड़ते हैं। उनमें स्त्रियों स्थिति दोनो तरह की रही है। प्राचीन समय में और आज भरे दूसरे देशों की तुलना में स्त्रियों की स्थिति भारतीय समाज में आज भी बेहतर। यह अलग बात है कि हम इस बेहतर से संतुष्ठ नहीं हैं। हमें इससे ज्यादा बेहतर चाहिए। हमें हमारे समाज में स्त्रियों को उस स्तर पर लाना है। जहां उनकी आवाज और पुरुषों की आवाज बराबर हो। इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन इसके लिए प्राचीन और परंपरा को गाली दे कर और झूठ को स्थापित कर करने का प्रयास करना हमारी बौद्धिक क्ष्मता पर सवाल उठता है। हम कोई राजनीतिक पार्टी या संघ नहीं हैं। साहित्य और संकृति के वैज्ञानिक समझ के साथ अगर हम चीजों को समझेंगे तो साफ़ समझ में आयेगा। किसी बायोलॉजी के स्टूडेंट से पूछिए वह जो घोड़ेवाली बात आपने कही है। क्या वह संभव है क्या? चश्मा उतार कर देखिये साफ़ दिखेगा। वैसे अगर आपको आपका अंधकार पसंद है।  उसी में बने रहे ।

संजीव:-: अश्वमेघ यज्ञ के किसी भी प्रमाणिक विवरण को जो उन्हीं लोगों ने लिखे हैं जिनके ऊपर नाम हैं, यह सब लिखा है। दूसरी बात संभव होने की है तो वह आज भी हो रहा है।
एक एेसी बात जो हमारे गले नहीं उतर रही सामने आयी तो हम सब विचलित हो गए। गंभीरता से उस साहित्य का अध्ययन करेंगे तो इस तरह हजारों तथ्य हम जान सकेंगे। सच को सच कहना और गाली देना नहीं होता है। आज की बात अलग है। यह लेख का विषय नहीं है। हम लेख के संदर्भ में ही बात करें तो ठीक होगा।

प्रदीप मिश्रा:-: यह हमारे आप जैसे लोगों ने लिखे हैं। आपको एकदम वर्त्तमान का उदहारण देता हूँ चीजें किस तरह से बदलतीं हैं। राष्ट्रीयता का क्या अर्थ होता है।? आज इसके क्या अर्थ हैं 500 साल बाद आज क्र इस शब्द किस अर्थ में स्थापित किया जायेगा। सहारे स्थापना तो संभव ही नहीं है।

राजेश्वर वशिष्ट:-: सच यह है कि सनातन धर्म से अलग होकर नए उपजे धर्मावलम्बियों ने इसे बदनाम करने के लिए उसमें इस प्रकार के भ्रामक तथ्य जोड़ कर उनका प्रचार किया। ऐसी साजिश हर काल में होती आई है आज भी हो रही है।

प्रदीप मिश्रा:-: लेख के सन्दर्भ पहले ही बात हो चुकी है। वह सिर्फ विवरण है। लेखक ने कोई विश्लेषण नहीं किया है। वे बहुत विद्वान है और उनकी संस्कृत और साहित्य के ज्ञान पर सवाल उठाने से पहले बहुत सोचना होगा। अगर वे विश्लेषण करते तो हम उनको संवाद में ले सकते थे। उन्होंने जो सन्दर्भ दिए हैं। मेरे अध्य्यन के अनुसार भी सही है। फिर भी प्राचीन चीजों को आज समझने के पर्याद में कभी 100% सही का दावा नहीं कर सकते हैं।

संजीव:-: विषय से इतर बात कर रहे हैं। मैंनै जो लिखा है वह उसी वैदिक साहित्य में है जिसके बारे में लेख बात कर रहा है। राधावल्लभ जी भी जानते होंगे अगर वे संस्कृत के जानकार हैं तो।

आशीष मेहता:-: घिसे-पिटे तरीके से मलामत करते रहने में अपने अपने स्वार्थ/संतुष्टी हो सकते हैं। विषय की सार्थकता को ध्यान रखते हुए तर्क और सौहार्द, दोनों का ही दामन थामे रहें।

कहीं शाम को निष्कर्ष यह न रहे कि 'मूर्ख सामान्यत: पाए जाते हैं' (बिना अपवाद के।)

आलेख की तथ्यामक प्रामाणिकता से दीगर 'स्वतंत्रता' के भिन्न आयामों के सामाजिक अस्तित्व और मौजूदा समय में इन आयामों के विस्तार पर चर्चा हो सकती है। अवरोधों पर चर्चा हो सकती है।

रचना:-: मज़ाक नहीं जी।  जिन साथिनों ने इतिहास पढ़ा है,  जिनके पास संदर्भ हैं,  उनके हस्तक्षेप की प्रतीक्षा है।
ऐसे संदर्भ, जो यहाँ दिये जा रहे हैं,  उन पर ख़ामोशी खल रही है जानकार साथिनों की..

संजीव:-: यहां संघी और मालवी का संदर्भ क्यों आया?  मूर्ख को जिस तरह से उल्लेखित किया गया है, वह इस मंच की गरिमा को खंडित कर रहा है। जिस स्त्री की गरिमा की बात हो रही थी उसी संदर्भ को गरिमा के खिलाफ रखा तो उसे मूर्ख कहना ही मूर्खती का प्रमाण है। आप नहीं जानते तो गलत है।

रचना:-: जी।  सहमत हूँ संजीव जी से...  किसी संदर्भ की सत्यता / असत्यता,  जो भी बाद में प्रमाणित हो,  इस तरह के शब्‍द अशोभनीय हैं।  विमर्श में परस्पर सम्मान ज़रूरी है।

आशीष मेहता:-: जी रचनाजी, 'मजाक' वाले पोस्ट के मर्म पर ध्यान दें, तो सभी 'साथिनों' का आह्वान ही है। संजीवजी के मंतव्य पर आपके समर्थन का भी अनुमोदन विनम्रता से करता हूँ।

साथियों की तरह ज्ञाता नहीं हूँ, शब्दों का कारीगर भी नहीं हूँ,........ चर्चा में ऐतिहासिक  / संदर्भों पर बिना रिदम (Rhythm) के ही रह पाऊँगा । संदर्भों का 'सदुपयोग' उद्देश्यपरक हो, समकालीन हो, तो सरलता / सार्थकता रहे, शायद।

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~अश्वमेध-यज्ञ का सच~(कैसे होता था “अश्वमेध यज्ञ)
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Nathu Ram Meghwal
~अश्वमेध-यज्ञ का सच~(कैसे होता था “अश्वमेध यज्ञ)
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अश्वमेध मुख्यत: राजनीतिक यज्ञ होता था, और इसे वही सम्राट कर सकता था, जिसका अधिपत्य अन्य सभी नरेश मानते थे। आपस्तम्ब: में लिखा है: सार्वभौम राजा अश्वमेध करे असार्वभौम कदापि नहीं। अर्थात जब कोई राजा अपने साम्राज्य व आस-पास के अन्य राजा-महाराजाओं को युद्ध में परास्त कर देता और उसे बंदी या हत्या कर उनकी रानियों, दासियों और परास्त राजा के महलों की समस्त धन संपदा लूटकर अपने साथ ले आता तब वह राजा स्वयं को समस्त भूमि का मालिक अर्थात “भूपति” मानकर गौरान्वित हो जाता |इस अवसर पर उनके राजपुरोहित-ब्राहमण आदि उसे “अश्वमेध” यज्ञ की सलाह देते ताकि वह “दिग्विजयी राजा” की उपाधि से अलंकृत हो सके |
इस प्रकार यह यज्ञ सम्राट का प्रमुख कर्तव्य समझा जाने लगा। जनता इसमें भाग लेने लगी एवं इसका पक्ष धार्मिक की अपेक्षा सामाजिक अधिक होता गया। वाक्चातुर्य, शास्त्रार्थ आदि के प्रदर्शन का इसमें समावेश हुआ। इस प्रकार इस यज्ञ ने दूसरे श्रोत यज्ञों से भिन्न रूप ग्रहण कर लिया।

यज्ञ का प्रारम्भ-
यज्ञ का प्रारम्भ बसन्त अथवा ग्रीष्म ॠतु में होता था तथा इसके पूर्व प्रारम्भिक अनुष्ठानों में प्राय: एक वर्ष का समय लगता था। सर्वप्रथम एक अयुक्त अश्व (घोड़ा) चुना जाता था। यज्ञ स्तम्भ में बाँधने के प्रतीकात्मक कार्य से मुक्त कर इसे स्नान कराया जाता था तथा एक वर्ष तक अबन्ध दौड़ने तथा बूढ़े घोड़ों के साथ खेलने दिया जाता था। इसके पश्चात इसकी दिग्विजय यात्रा प्रारम्भ होती थी। इसके सिर पर जय-पत्र बाँधकर छोड़ा जाता था। एक सौ राजकुमार, एक सौ राज सभासद, एक सौ उच्चाधिकारियों के पुत्र तथा एक सौ छोटे अधिकारियों के पुत्र इसकी रक्षा के लिये सशस्त्र पी

आलोक बाजपेयी:-: छोड़िये। जिन्हें समझना ही नहीं और वेद कालीन गौरव में डूबे रहना है उन्हें कुछ भी बताइये वो कहाँ समझने वाले।

प्रदीप मिश्रा:-: यह कौन से वेद से लिया गया है? क्या आपने स्वीकार कर लिया है कि राम ईश्वर थे। रामायण सत्य घटना है। उसमें कोई कल्पना नहीं है। सजीव भाई यह सब मैं बहुत पहले पढ़कर फाड़ चूका हूँ। अलोक जी मैं वेदकालीन गौरव की बात कर रहा हूँ। झूट और गलत को प्रचारित किया जाता है तो वह गलत है। चाहे कोई भी करे। यह काम जब संघ करता है तो हम भर्त्सना करते हैं। जब स्वयं करते हैं। तो सही कहते हैं। यह ठीक नहीं है। अब आप इसे वैदिक वुराव डूबना बोले या मुझे संघी घोषित कर दें। जब तक मैंने गंभीरता से वैदिक साहित्य को नहीं पढ़ा था तब तक मैं भी इसतरह की चीजों को पढ़कर और दूसरों को सुनकर खूब गली देता था। आज शर्म आती है। इसका मतलब यह नहीं कह रहा हूँ वहाँ सब कुछ सही था।या मैं उसके पक्ष था।

प्रदीप मिश्रा:-: आज आप लोग जो कुछ जान समझ रहे उसमें 90% झूठ है।

प्रदीप मिश्रा:-: है कि स्त्री को घोड़े के साथ सहवास करवाया जाता था। जो संभव ही नहीं। मैंने भी पढ़ा था कि राजपुरोहित के साक्ष्य में यह कार्य किया जाता था। लेकिन क्या यह संभव है?

आलोक बाजपेयी:-: आप अगर बता सकें की प्राचीन भारतीय इतिहास पर किन इतिहासकारो,किताबो के आधार पर चर्चा कर रहे हैं तो आसानी हो आपका दिमाग समझने में।

प्रदीप मिश्रा:-: मैं किसी इतिहास कर की बात नहीं कर रहा हूँ। मेरा विश्वास इतिहासकारों में नहीं है। मैंने गीता प्रेस गोरखपुर से चारो वेद खरीदे हैं। उनको खुद पढ़ा है। और उनपर लिखे गए बहुत सारे आलेखों को अपने विवेक से देखा और तय किया है। किसी भी दूसरे व्यक्ति क़ी अवधारणा और विचार नहीं है मेरे पास।  वैदिक युग का कोई प्रामाणिक इतिहास उपलब्ध ही नहीं है। मैं सिर्फ वैदिक युग और उस जीवन की बात नहीं कर रहा हूँ। बाद के जीवन और इतिहास पर मेरी कोई टिप्पणी नहीं है। मनुस्मृति वैदिक साहित्य या जान जीवन का अंश नहीं है। मैं उससे पहले की बात कर रहा हूँ। जबमी ।अनु स्मृति पर भी विवाद है। जो स्वरुप हमारे सामने है वह मूल स्वरूप से एकदम अलग है। खैर अब आप लोग बात करें। मुझे जाना है।

संजीव:-: प्रदीप जी इतना दुराग्रह सेहत के लिए उचित नहीं। आप स्वतंत्र हैं पढने और फाडने के लिए। मानने और न मानने के लिए।

मनीषा जैन :-: वैसे मैं बिना किसी शोध के कुछ नहीं कहना चाहती लेकिन अभी मैं एक ऋग्वेद से संबधित एक शोध पत्र पढ़ रही थी जिसका निष्कर्ष यह था कि प्रश्न यह है कि क्या हमारा पितृसत्तात्मक समाज इन स्त्रियों( त्रृषिकायें जिन्होंने मंत्र रचे) की ऋचाओं की विषयवस्तु से इत्तेफाक रखता है ? ऋग्वैदिक स्त्री को उसकी स्वतंत्र यौनाभिव्यक्ति की सहमति देता है, उसे सहजता से लेता है ? इन स्त्रियों की ऋचाओं की विषयवस्तु पर प्रायः चर्चा नहीं मिलती। ऋग्वेद की विषयवस्तु भी ऐसी कोई दावेदारी प्रस्तुत नहीं करती जिससे माना जाए कि स्त्री की स्वतंत्र, स्वाग्राही प्रकृति प्रशंसनीय थी। ऋग्वेद में विभिन्न स्थितियों , परिस्थितियों में जीवन निर्वाह करने वाली स्त्रियां मिलती हैं पर उन सभी की सामाजिक प्रस्थिति एक जैसी है। समाज में उनका दर्जा दोयम है। वे पुरूष से निचले पायदान पर अवस्थित हैं। ऋग्वेद की अधिकांश ऋचायें ऐसा ही आभास कराती हैं।
- वेदो में स्त्रियों के सम्पत्ती संबधी अधिकार एवं उत्तराधिकार  पर कुछ नहीं लिखा है।।

आलोक बाजपेयी:-: अनुरोध है कि रामशरण शर्मा जी की प्राचीन भारत पर दो किताबें जरूर देखें।
प्राचीन भारत में राजनितिक विचार एवं संस्थाएं
प्राचीन भारत का सामाजिक आर्थिक इतिहास।

आलोक बाजपेयी:-: यदि प्राचीन भारत की सामाजिक संथाओं , धर्म ग्रंथों में दिलचस्पी हो तो  पी वी काणे का history of dharm shastra 4 volumes भी अपने पास रखिये। यह हिंदी में भी उपलब्ध है।

आलोक बाजपेयी:-: भारत में इतिहास विषय में विश्व ख्यात इतिहासकार हुए हैं। यदि किसी विषय को समझना हो तो खयाली घोड़े दौड़ाने से बेहतर है कि उन इतिहासकारो की किताबो के पास जाइये।

शोभा सिंह:-: राधा वल्लभ  जी  का  लेख ज्ञान वर्धक है  और  बहुत  सराहनीय  है  बहुत  सी  भ्रांतियों के  मिथ  टूटे  इस लेख  पर कुछ लोगों की अप शब्द  का  इस्तेमाल  ठीक  नहीँ

संजीव:-: आदमी की निगाह में औरत राजेन्द्र यादव       राजकमल प्रकाषन
औरत अस्तित्व और अस्मिता अरविन्द जैन       सारांष प्रकाषन
औरत उत्तर कथा संपा राजेन्द्र यादव       राजकमल प्रकाषन 2002
8. अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य सं. राजेन्द्र यादव, वर्मा
उपनिवेष में स्त्री मुक्ति कामना की दष वार्तायें प्रभा खेतान       राजकमल प्रकाषन           
धर्मग्रंथों का पुर्नपाठ मुद्राराक्षस       इतिहासबोध प्रकाषन
नारीवादी राजनीति: संघर्ष एवं मुद्दे संपा. निवेदिता मेनन दिल्ली विष्वविद्यालय
पितृसत्ता के नए रूप, सं. राजेन्द्र यादव, प्रभा खेतान, राजकमल प्रकाषन
बाजार के बीच बाजार के खिलाफ प्रभा खेतान वाणी प्रकाषन
स्त्री परंपरा और आधुनिकता संपादक राजकिषोर वाणी प्रकाषन
त्री मुक्ति का सपना संपादक कमला प्रसाद वाणी प्रकाषन
स्त्री लेखन: स्वप्न और संकल्प रोहिणी अग्रवाल राजकमल प्रकाषन
स्त्री अधिकारों का औचित्य साधन मेरी वोल्सटनक्राफ्ट राजकमल प्रकाषन
स्त्री उपेक्षिता, अनु. प्रभा खेतान हिन्द पॉकेट बुक्स

प्रदीप मिश्रा:-: पुराणों में किस तरह से गड़बड़ी हुई उसे भी देखें। हरिवंश पुराण और ब्राह्मण सतपथ आदि ग्रंथों से इसकी व्याख्या में घालमेल हुआ। इसमें अंगरेजी के विद्वानों माँ बड़ा योगदान है। बाकी इतिहासकारों के गेम तो सबको पता है। ये ग्रन्थ वेद नहीं है। और ना ही प्रामाणिक हैं।

प्रणय कुमार:-: उन्होंने जिन साहित्यकारों का नाम लिया है उनमें से कुछ का साहचर्य मुझे प्राप्त रहा है|उन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता रहा हूँ और एक-आध की कुंठाओं का शिकार भी रहा हूँ!इनमें से एक लेखक की पत्नी ने उनके बारे में क्या लिखा है,जरा इसका भी संज्ञान ले लीजिए

प्रदीप मिश्रा:-: बाकी कभी फुर्सत मिली तो आपको वेद के सही version भी निकाल कर दूंगा। मैं वेब साइट पर लोडेड मैटर की प्रामाणिकता पर संदेह रखता हूँ। इस लिए ना तो आपके लिंक से सहमत हूँ और ना ही अपने। मैंने यहां पर सिर्फ इसलिए पोस्ट करदिया कि लोगों तक दोनों तरह के विचार जाएँ। इन किताबों की सूची यहाँ दी गयी है। वे या तो स्त्री विमर्श के फैशन में लिखी गयीं हैं। या एक तरह के विचारधारा के लोगो की है। सत्य के लिए तो हमें दोनों तरह के विचारों को देखना होगा। कुछ प्रमाण के लिए डॉ रामविलास शर्मा और रामधारी सिंह दिनकर की किताब संस्कृति के चार अध्याय को सन्दर्भ में लीजिये।

प्रदीप मिश्रा:-: इसीलिये कहा जाता है कि कब्र खोदोगे तो ऐर्फ हड्डियां हाथ लगेगी। यानी इतिहास का सत्य कभी भी हाथ नहीं लगेगा।

परेश जयश्री:-: वैसे तो बिजुका समूह मे बहोत सुंदर कविताए और बहोतसे अच्छे आलेख भी पढने मिलते है। पर जब वैचारिक चर्चा जब खुले खुले से व्यक्तिगत आरोप प्रत्यारोपोपर उतर आती है तो एकदम से अटपटा सा लगता है।