आज आपके सामने समूह के साथी मनोज चौहान कवितायें प्रस्तुत हैं। कविताओं पर आप खुलकर चर्चा करें।
1. विषैले खूख
तथाकथित कुछ नेता
उभरने लगे हैं आज
जैसे उग आते हैं
बरसाती मौसम में
घातक विषैले ‘खूख’
स्वतः ही l
टिकट की चाह में
कर रहे हैं अभिनय
दिन – प्रतिदिन
समाज सेवा, भाईचारे
और इंसानियत की आड़ में l
बटोरना चाहते हैं
लोकप्रियता
मात्र सस्ते हथकंडों से
गरीब बच्चों को पात्र बनाकर
भेंट कर कुछ कपडे
खींचे जाते हैं फोटो
और अगले दिन
बन जाते है सुर्खियाँ
समाचार पत्रों की l
महापुरषों की जयन्तियों पर
माल्यार्पण करते हुए
अथवा किसी समारोह के
मुख्य अतिथि बनाये जाने पर
समझते हैं
सौभाग्यशाली खुद को
ध्येय मात्र एक ही
ध्यानाकर्षण और समर्थन
उपस्थित
जनसमूह का l
समाजसेवक का मुखौटा ओढे
छल रहे हैं
अपने ही लोगों को
दे रहे है दगा
सामाजिक जागरण और
सद्भावना रैलियों के नाम पर l
भूल चुके है फर्क
नैतिक और अनैतिक के मध्य
अमादा है छीनने को हक़
यथार्थ में ही शोषितों का l
गुमराह, भ्रमित और कुंठाग्रस्त
एक भीड़
करती है उनका अनुसरण
समर्थन प्राप्त है उन्हें
कुटिल बुधिजीवी वर्ग का भी
घोल रहे हैं जहर
समाज की नशों में l
बैकलॉग का लॉलीपॉप देकर
मोहपाश में बांधते
बेरोजगार युवाओं को
दिखा रहे हैं राह
स्वाभिमानहीन और पंगु
बन जाने की l
उम्मीद है कि जागेगा युवा
एक दिन
छोड़ कर संकीर्णताएं
टिकाएगा पावं मजबूती से
सत्य की उर्वरा भूमि पर
और रौंद डालेगा
ये विषैले ‘खूख’ l
*खूख : कुकुरमुत्ता या कवक , जो बरसात के दिनों में नर्म भूमि पर उगता है l हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला की स्थानीय बोली में इसे “खूख” कहा जाता है l
2. बड़े दांतों वाली मशीन -
खड़ी है
उपेक्षित अवस्था में
वह बड़े दांतों वाली मशीन
कुछ ही दूरी पर
परियोजना स्थल से l
न जाने कब पड़ जाए
नजर उसपर
किसी कबाड़ी की
क्योंकि अब
समाप्त हो चुका है
निर्माण कार्य l
उसकी अपार क्षमताओं का
उपयोग कर
उसे भूल चुका है चालक
और शायद मालिक भी
वह दे चुकी है
अपना सौ प्रतिशत
या उससे भी
कई गुणा l
मगर अडिग है दृढ़ता से
आज भी
जंग लगे कल - पुर्जों ने
भले ही उसे
कर दिया हो निष्प्राण l
उसके घुमावदार हिस्से के नीचे
आश्रय पाते हैं आवारा जंतु
बारिश और भीषण गर्मी से
बचाव के लिए
कर रही है सार्थक
आज भी
अपने होने के अर्थ को l
समयचक्र ने कर दिया है
उसे गतिहीन
मगर प्रेरणापुंज है वह
हर उस व्यक्ति के लिए
जो कर चुका है
आत्मसमर्पण
परिस्थितियों से हारकर l
जननी है वह
नई अवधारणाओं की
झिंझोड जाती है
मस्तिष्क के तंतुओं को
अनायास ही
त्वरित वेग से
ताकि मंथन सदैव
जारी रहे l
3. पुश्तैनी खेत
आजीविका कमाने की
जदोजहद में
दूर गाँव में छुट गए हैं
वह पुश्तैनी खेत
जिनमें मिला है पूर्वजों की
कई पीढ़ियों का पसीना
बेशक निगल रही है
उनकी उर्वरता को अब
रासायनिक खाद l
चित्र उभर आते हैं अक्सर
मस्तिष्क के कैनवस पर
खेत की बीड़ पर बैठे
दादा, पिता और कभी चाचा का
मुझे देखना बैलों को हांकते
व हल चलाते हुए
और साथ में समझाना भी
ताकि छूट न जाए इंच भर भी जगह
बिना बिजाई के
और हल का लोहाला फिसलकर कहीं
चुभ न जाए बैलों के पावं में l
बादलों की गर्जना सुन
भारी बारिश से आशंकित हो
समेटना तेजी से
ताज़ा कटी हुई पकी फसल को
ताकि कई महीनों की मेहनत
हो न जाए जाया
और घर के पेडू में आ सकें
पके व सूखे हुए अनाज के दाने l
वो महज खेत नहीं हैं
मूल्यों व संस्कारों की पाठशाला के
खुले अध्ययन कक्ष हैं मेरे लिए
सीखे हैं जहाँ अनेक सबक
मेहनत में रत
अपने ही कुटुंब जनों से l
बोझिल हो उठता है मन कभी
दुनियादारी के झमेलों से
तो लौटना चाहता हूँ पुनः
उन्ही के सानिध्य में l
उनकी मिट्टी के भराव से
देना चाहता हूँ मजबूती
उन जड़ों को भी
जो समायी हैं मेरे अंतस में
बहुत भीतर तक कहीं l
ये जडें परिचायक हैं
मेरे बजूद की
और बुनियाद हैं उस गहरे
भावनात्मक जुड़ाव की भी
जो खींचता है मुझे
बरबस ही
उन पुश्तैनी खेतों की ओर l
दो विपरीत ध्रुवों के मध्य
घटित होते
किसी प्रबल
चुम्बकीय आकर्षण की तरह l
शब्दार्थ – 1) बीड़ – खेतों की सीमा रेखाएं 2) लोहाला - लोहे से निर्मित हल का नुकीला अग्रभाग 3) पेडू – अनाज के भण्डारण के लिए बांस का बनाया हुआ बड़ा बर्तन l
4. वो दिन
जीवन की आपाधापी से
लेकर कुछ बक्त उधार
लौटता हूँ जब
गाँव के गलियारों में
तो चाहता हूँ जी लेना
फिर से
वही पुराने दिन
मगर घेर लेती हैं मुझे वहां भी
कुछ नयी व्यस्ततायें
और जिम्मेदारियां l
बचपन के उन लंगोटिए दोस्तों से
मिल पाता हूँ सिर्फ
कुछ ही पल के लिए
वह भी तो होते हैं व्यस्त आखिर
अपनी - 2 जिम्मेदारियों
के निर्वहन में
इसीलिए नहीं करता शिकायत
किसी से भी l
सोचता हूँ कि सच में
कितने बेहतर थे वो दिन
बचपन से लेकर लड़कपन तक के
बेफिक्री के आलम में
निकल जाना घर से
और फिर लौट आना वैसे ही
हरफनमौलाओं की तरह
बेपरवाह l
जवानी की दहलीज पर
कदम रखते ही
हावी हो जाना उस जूनून का
करना घंटों तक बातें
आदर्शवाद और क्रान्ति की l
आयोजित कर सभाएं, बैठकें
शामिल होना रैलियों में भी
बनाना योजनाएं
अर्धरात्रि तक जागकर
ताकि बदला जा सके समाज
और उसकी सोच को l
मेरे दोस्त आज भी
वही पुराने चेहरे हैं
मगर बक्त के रेले में
छिटक गए हैं हम सब
अपने - 2 कर्मपथ पर l
बेशक आ गया होगा फर्क
चाहे मामूली सा ही सही
हम सब के नजरिये
और सोचने के तरीकों में
झुलसकर निज अनुभवों की
भठ्ठी की ऊष्मा से l
मगर वो मौलिक सोच यक़ीनन
आज भी जिन्दा है
कहीं ना कहीं
जो कर देती है उद्विगन
दिलो – दिमाग को
और सुलगा जाती है अंगारे
बदलाब और क्रांति के लिए l
5.चिठ्ठियाँ
दूर सियाचिन के ग्लेशियरों से
जब भी आती थी
फौजी दोस्त की चिठ्ठियाँ
मीलों के फासलों के दरम्याँ भी
ख़त पढ़ते ही लगता था
आया हूँ उसी क्षण
उससे मिलकर l
शून्य से नीचे के तापमान में
शब्द कभी जम नहीं पाए
वो पाते रहे आकार
अहसास और भावनाओं के ताप से l
आज भी संजोये हुआ हूँ
वो पुरानी चिठ्ठियाँ
धुंधले पड़ गए है शब्द
नर्म पड़ चुके
और गले हुए कागज़
बचाए हुए हैं अपना वजूद
जैसे – तैसे l
दोस्त अब हो गया है
सेवा निवृत्त
पुनः मुस्तैद है
जीवन के एक और मोर्चे पर
परिवार से दूर बिताए वक्त की
भरपाई आवश्यक है l
मैंने भी लांघी हैं
घर की दहलीज
रोजी के जुगाड़ में
अब बोलबाला है इन्टरनेट
एवं सूचना क्रान्ति का l
व्हाट्स एप्प और फेसबुक की
आभासी दुनिया में
बेशक मित्रों की लंबी कतारें हैं l
नदारद है मगर
अपनापन और संवेदनाएं
आत्मीयता खो चुकी है अर्थ l
अब मैं भी
नहीं लिख पाता चिठ्ठियाँ
इन्तजार डाकिये का भी
नहीं रहता अब l
मगर चिठ्ठियों के
उस दौर की
टीस उठती है
आज भी जेहन में
जिसे लील गए हैं
विज्ञान के ये आधुनिक
मगर
संवेदनहीन दूत l
6.पोखर
बजूद
खोते जा रहे हैं पोखर
बुजुर्गों की
दूरदर्शी सोच के परिचायक
जिनका होना
प्रतीक था
खुशहाली और समृद्धि का l
गाँव के बीचोंबीच
होते थे स्थित
ताकि होता रहे रिसाव
धरती के भीतर से
और बनी रहे नमी
कृषि योग्य भूमि की l
खिले हुए कमल
और उनके गोलाकार
पत्तों से ढकी उपरी सतह
मछली, मेंढक और
बगुलों की शरणस्थली
संध्याकाल के समय
इनके इर्द – गिर्द
गप - शप करते
बड़े – बुजुर्ग
और क्रीड़ा करते
बच्चों की टोलियाँ
गाँव की व्यस्तत्तम जगह l
समर्थ थे ये
पशुओं के लिए पेयजल
और कपड़े धोने आदि
अनेक क्रियाओं के लिए
या फिर गाँव में आगजनी जैसी
भीषण घटनाओं का सामना
करने को तत्पर
करते थे प्रतिपूर्ति
बालपन के लिए
स्विमिंग पूल की l
आज वक्त ने बदली है करवट
अधिकतर पोखरों का भराव कर
तैयार कर दिए गए हैं
सामुदायिक भवन
या फिर पंचायत घर
ईका – दुक्का कुछ जगह
संघर्ष करते
अपने बजूद के लिए
शिकार हैं अतिक्रमण का l
गाँव अब हो गए हैं विकसित
शामिल हो गए हैं
शहरीकरण की होड़ में l
विकास और सुविधाओं की
बलिवेदी पर कुर्बान
धरती के गर्भ में समा चुके
पोखरों की चीत्कार
अब नहीं सुनना चाहते
बहरे हो चुके गाँव !
7. पहाड़ी पर घर
अपने कवार्टर की बालकनी से
निहारता हूँ जब भी
पहाड़ी पर बने उन घरों को
तो एकाएक ही कौंध पड़ते हैं
कई सवाल जहन में l
कैसे जुटाते हैं वह
रोजमर्रा की जरुरत का सामान
मीलों की पैदल थका देने वाले
रास्ते की चढाई और उतराई
बाधा बन खड़ी है हमेशा से ही
उनके और शहर के बीच l
सर्दी के मौसम में हालात
हो जाते हैं और भी भयावह
पहाड़ी पर गिरा बर्फ
और उसकी ठिठुरन
कंपा देती है उन्हें
अन्दर तक l
पहाड़ मोह लेते हैं
मन सैलानियों का
चांदी की परत सी दिखती है
बर्फ की चादर
मगर नहीं दिखता
कोई भी आतुर
जान लेने को वेदना
उनके भीतर की l
दूर पहाड़ी के
उस घर की खिड़की से
निहारता है बूढा सुखिया
और खांसता है
चिलम गुडगुडाते हुए l
चिंता की लकीरें
उभर आई हैं उसके माथे पर
वह करता है हिसाब
ठण्ड से मर चुकी बकरियों का
बर्फ पर फिसलने से
मुन्नी के पावं पर चढ़े प्लास्टर का
और दूर शहर में
पढ़ रहे बेटे की फीस का l
दरवाजे पर हुई आहट
रोक देती है
विचारों का प्रबल वेग
क्षण भर के लिए l
चाय और सत्तू देने आई
पत्नी के लौटते ही
पुनः खो जाता है वह
पहाड़ी जीवन के गणित को
सुलझाने में l
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प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-
रेणुका:-
पहली तीन कविताएँ बहुत अच्छी लगीं। सभी कविताओं में एक फ्रेशनेस लगी। सामान्य विषयों को एक नए अंदाज में पढ़ने जैसा लगा। कवी को बधाई।
मनोज:-
नमस्कार बिजूका समूह
पहली रचना "विषैले खूख" मासूम जनता को बहला फुसलाकर मुर्ख बनाने वाले नेताओं को आड़े हाथों लेकर भ्रष्टाचारी व सत्तालोलुप मानसिकता पर करारा प्रहार करती है... कविता में जितनी सादगी व सरलता है उतना ही सपष्ट आशय! बधाई!
दूसरी रचना "बड़े दांतों वाली मशीन" कवि ने एक निर्जीव वस्तु का उदाहरण देकर (जो समय को मात देकर अभी भी उपयोगी है) मनुष्य को हार न मानकर सदैव प्रगतिशील बने रहने की ओर प्रेरित करती है!
तीसरी व अंतिम रचना में कवि ने एक कृषक के अपनी ज़मीन से जुड़े मन के भावों का एक हृदयस्पर्शी चित्र खींचा है! रचना किसान, उसकी ज़मीन, ज़मीन से जुड़े उसके पारिवारिक पेशे का सुंदर चित्रण करती है!...
कवि हर कविता में अपनी बात बहुत सुंदर तरीके से रखते हैं! कविताऐं हर दृष्टिकोण से प्रशंसनीय है! बहुत बहुत बधाई व शुभकामनाऐं...
विनोद राही:-
आज की प्रस्तुती में कविताएं सहज, स्पष्ट और सरल हैं| किसी भी कविता को समझने के लिए उसे बार बार पढ़ने की आवश्यकता नहीं है| ऐसी स्पष्ट और सीधे निशाने पर चोट करने वाली कविताओं को पढ़ने का अपना ही आनंद है| कवि महोदय ने सजीव निर्जीव वस्तुओं के माध्यम से व्यवस्था और मानव मन पर वक्त के प्रहार को बखूबी उकेरा है| रचनाएं अनायास ही उस गुजरे वक्त में ले जाने से नहीं चूकती जो सबको प्रिय रहता है| स्वार्थी, गैरजिम्मेदार नेताओं की खूब पोल खोली है| क्षेत्रीय शब्दों को बखूबी इस्तेमाल किया है| वक्त कैसा भी हो, अगर इंसान हिमालय की तरह उसके समक्ष खड़ा हो जाए तो बुरा वक्त आसानी से कट जाता है|
खूबसूरत रचनाओं के लिए रचनाकार महोदय को बधाईयाँ व उज्जवल भविष्य के लिए मंगलकामनाएं|
चिट्ठियां अब इतिहास बनती जा रही हैं| चिट्ठी भेजना, इंतजार करना, चिट्ठी मिलना, रोमांच और भी बहुत कुछ जो अब यादों में ही सिमटकर रह गया है| मनोज जी की रचनाएं हमें अतीत में ले जाकर रोमांचित करती हैं| विज्ञान और विकास की अंधी दौड़ ने हमसे बहुत कुछ ऐसा छीन लिया है जिसे तबाह न किया होता तब भी मानव जीवन सरल ही होता| पहाड़ों पर, जहाँ हमें पहुंचना भी असंभव दिखता है, लोगों का जीवन कितना मुश्किल होता है, कवि महोदय को यह भलि भांति ज्ञात है| पहाड़ी परिवेश की सुंदरता से कवि व रचनाएं दोनों अछूते नहीं हैं| मनोज जी हिमाचल के चर्चित और युवा रचनाकार हैं| सहजता, स्पष्टता और सरलता इनकी रचनाओं की खूबी रही है| साहित्यिक संसार को उनसे बहुत सी उम्मीदें हैं| मेरी शुभकामनाएं उनके साथ हैं|
मनोज:-
चिट्ठियाँ कविता जंग के दुर्गम स्थल से घर लौटे व ज़िंदगी की जंग में डटे एक सैनिक मित्र पर लिखी सुंदर भावनात्मक रचना है! गाँव के पोखर किस तरह ग्रामीण जीवन का अटूट हिस्सा बने हैं, कविता पोखर साफ़ साफ बयां करती है! पहाड़ी पर घर कविता दुर्गम मगर वहां के अभ्यस्त पहाड़ी लोगों के जीवन यापन को दर्शाती है.. इन लोगों का हौसला पहाड़ से भी कई गुणा बड़ा है!
तीनों कविताऐं बहुत सुन्दर हैं!
बहुत बहुत बधाई भ्राता श्री मनोज चौहान जी को!
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