आज चर्चा के लिए प्रस्तुत है प्रतुल जोशी का एक आलेख ‘मृत्यु का अभिवादन’। आज और कल इसी पर बात होनी है। चर्चा को विस्तृत करने के लिए आप विषय से जुडी अन्य सामग्री कल के मुक्त दिवस में लगा सकते हैं।
"मृत्यु का अभिवादन"
यह एक शाश्वत सत्य है कि हर जीवधारी की अन्तिम परिणति मृत्यु है। जीवन की शर्तों में मृत्यु अनिवार्य रूप से शामिल होती है। चुकि इसमें हमेशा हमेशा के लिए बिछड़ने का भाव होता है इसलिए यह दुखद होती है। लेकिन अब जब विज्ञान ने जीवन की अनेकानेक गुत्थियों को सुलझा दिया है कुछ तर्कवादी लोग अब लम्बे समय शोक मनाने, रोने-धोने से इतर इसे भी उत्सवधर्मिता के रूप में मनाना चाहते हैं। इसी क्रम में मृत्यु के बाद लोगों में देह-दान की परम्परा तेजी से बढ़ी है। हाल ही में प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की पत्नी मृणालिनी साराभाई का निधन पश्चात् एक नया नजारा देखने को मिला। मृणालिनी साराभाई के शव के बगल में उनकी बेटी मल्लिका, अपनी माँ को श्रद्धांजलि एक नृत्य के माध्यम से देती दिख रही थीं। यह परम्परावादी तरीके से निहायत इतर मृत्यु को अपनी तरह से मनाने का एक नवीन उपक्रम था। प्रतुल जोशी ने इसे रेखांकित करते हुए एक आलेख लिखा है ‘मृत्यु का अभिवादन’। प्रतुल जोशी गुवाहाटी से प्रकाशित होने वाले चर्चित हिन्दी समाचार पत्र ‘पूर्वोदय’ के लिए इन दिनों नियमित रूप से एक कॉलम लिख रहे हैं। यह आलेख ‘पूर्वोदय’ से साभार लिया गया है। तो आइए आज ‘पहली बार’ पर पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का आलेख ‘मृत्यु का अभिवादन’।
मृत्यु का अभिवादन
प्रतुल जोशी
कुछ समय पहले जब अखबारों और फेसबुक पर एक तस्वीर देखी तो लगा कि मेरे भीतर का प्रवाह दूसरों के द्वारा क्रियान्वित किया जा रहा है। तस्वीर में प्रख्यात नृत्यांगना (वैज्ञानिक डॉ. विक्रम साराभाई की पत्नी) मृणालिनी साराभाई का शव फर्श पर रखा था। उसके बगल में उनकी बेटी मल्लिका, अपनी माँ को श्रद्धांजलि एक नृत्य के माध्यम से देती दिख रही थीं। बहुतों के लिए यह तस्वीर चौंका देने वाली हो सकती है। सामान्यतः अपने किसी परिचित अथवा रिश्तेदार के निधन पर रोने-धोने का माहौल बना रहता है। लोग बड़े गमगीन से मृतक के घर पर पहुँचते हैं। एक शाश्वत प्रश्न पूछा जाता है “कैसे हो गया यह सब?” अगर यह प्रश्न पूछते समय, प्रश्नकर्ता का गला भरा हुआ है और आँखों में नमी दिख रही है तो वह अत्यंत निकट का माना जाता है। हिन्दी फिल्मों ने मृत्यु के अवसर पर शोक के दृश्यों का बड़ा ही सफल चित्रण लंबे समय तक किया है। फिल्मों में मृतक के घर पहुँचने वाले अधिकतर दोस्त, रिश्तेदार सफ़ेद कुर्ते पाजामे में दिखाये जाते हैं। मृत्यु पर्व का ड्रेस कोड है सफ़ेद कुर्ता पाजामा और सफ़ेद साड़ी। शांति का प्रतीक चिन्ह।
ऐसे में कोई पुत्री अपनी माँ के शव के समीप नृत्य करती हुई दिखाई पड़े तो यह हमारे समाज और मौजूदा विचारधारा को भीतर तक झकझोर सकता है। लेकिन यहीं समाज और जीवन का एक दूसरा पक्ष उजागर होता है। वह पक्ष यह है कि किसी के निधन पर रोने-धोने की परंपरा को ही क्यूँ स्वीकारा जाए? जब यह तय है कि जो जीव इस दुनिया में जन्म लेगा, एक दिन उसे इस दुनिया से जाना ही है तो विदाई चीख-चीख कर रोते हुये क्यूँ दी जाए?
“मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यों रात भर नहीं आती”
उस्ताद शायर ग़ालिब साहब बहुत पहले फ़रमा गए हैं। शेक्सपियर से लेकर ‘आनंद’ फिल्म के नायक राजेश खन्ना कह चुके हैं, “बाबू मोशाय, यह संसार एक स्टेज है। और हम सब इस स्टेज पर कठपुतलियाँ। विश्व रूपी इस स्टेज पर सबको अपना किरदार बहुत थोड़ी देर निभाने की इजाजत है। उसके बाद इस स्टेज पर किसी दूसरे कलाकार की एंट्री होनी है”। इतना शाश्वत ज्ञान स्थापित होने के बाद भी यह बात हम में से अधिकतर लोगों को समझ नहीं आती। लेकिन इसी समाज में कुछ लोग अपवादस्वरूप भी हैं, जिन्होने मृत्यु की अवधारणा को अपने तरीके से परिभाषित किया है।
दरअसल मृत्यु का प्रश्न बहुत सरल नहीं है। यह सृष्टि के बनने, सृष्टिकर्ता की अवधारणा, आत्मा-परमात्मा के परस्पर संबंधों जैसे बहुत से अवयवों से निर्मित हुआ है। हिन्दू धर्म में ब्राह्मणों ने आत्मा की शुद्धि के लिए तमाम तरह के विधि-विधानों का प्रावधान किया है। इसी तरह अलग-अलग धर्मों और जनजातियों में अपने-अपने तरीकों से विधि-विधान बने हैं। इन सबके पीछे सामान्य अवधारणा यह है कि मृत्यु के बाद आत्मा एक पराभौतिक विश्व में चली जाती है। अगर सही तरीके से विधि-विधान नहीं किए गए तो आत्मा भटकती रहेगी। मृत्यु के बाद सारी चीजें “आत्मा की शांति” के लिए होती है। अंग्रेजी का एक शब्द RIP आजकल बड़ा लोकप्रिय है। RIP माने “Rest in peace” फेसबुक या व्हाट्सेप पर किसी के मृत्यु कि खबर प्रकाशित-प्रसारित होते ही RIP का तांता लग जाता है। लेकिन आत्मा-परमात्मा के इस सिद्धांत से सभी लोग सहमत नहीं हैं। बहुतों का मानना है कि स्वर्ग-नरक कहीं नहीं हैं। जो कुछ है, इसी विश्व में है। न आत्मा कहीं भटकती है, और न ही आत्मा का परमात्मा से मिलन जैसी कोई चीज है।
इस पंथ के मानने वाले अपने को अनीश्वरवादी कहते हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की अवधारणा समाज को दी, उसके बाद तो पूरी दुनिया में ही ईश्वर के अस्तित्व को लेकर बहस छिड़ गई। मार्क्सवाद ईश्वर के अस्तित्व का विरोध करता है। एक सच्चा मार्क्सवादी जीवन और विश्व की उत्पत्ति के पीछे किसी भी ईश्वरीय विधान में विश्वास नहीं रखता। मार्क्सवादी लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह आती है कि जीवन भर तो वह ईश्वर का विरोध करते हैं लेकिन मरने के बाद किस विधि-विधान से उनकी अंतिम क्रिया हो, इस बारे में कोई नियम मार्क्सवाद उन्हें नहीं बताता। इसके चलते अलग-अलग किस्म के उदाहरण सामने आते हैं।
अपनी नौकरी के प्रारम्भिक वर्षों में, मैं कानपुर में नियुक्त था। वहाँ मेरी मुलाक़ात कवि शील जी से हुई। शील जी बड़े कट्टर किस्म के मार्क्सवादी थे। उनकी कविताएँ मार्क्सवादी नारों के लिए जानी जाती थी। “देख रहा है, समय सिपाही/दायें अंधेरा, बाँये उजाला” जैसी कविताएँ।

नब्बे के दशक में कानपुर में ही उनकी मृत्यु हुई। संयोग से उस दिन मैं वहीं था। उस समय उनकी शवयात्रा को लेकर सबके चेहरों पर तनाव साफ दिख रहा था। “राम नाम सत्य है” कहना शील जी के सिद्धांतों के विपरीत था। तभी किसी ने सूचित किया कि शील जी की इच्छा थी कि उनकी शवयात्रा में कविताओं का पाठ किया जाए। बस फिर क्या था, तुरत-फुरत में उनकी कविताओं की एक पुस्तक, उनकी आलमारी से निकाली गई। वह कभी न भूलने वाला दृश्य आज वर्षों बाद भी मेरे हृदय पर अंकित है। शील जी का शव, उनके घर के बाहर मैदान में खुले में रखा था। उनके परिवार की महिलाएँ शव के सामने खड़ी हो रो रही थीं। साथ ही उनकी प्रसिद्ध कविता “देश हमारा धरती अपनी, हम धरती के लाल। नया संसार बसायेंगे, नया इंसान बनाएँगे” भी लगातार गाती जा रही थीं।
इसके बाद श्मशान पहुँचने तक रास्ते भर, ट्रक में उनके शव के चारों ओर खड़े-खड़े हम लोगों ने उनकी ढेर सारी कविताओं का पाठ किया। कानपुर के ही एक और कट्टर मार्क्सवादी और कानपुर में किताबों की दुकान (करेंट बुक डिपो, मालरोड) के मालिक खेतान जी एक ऐसी ही शख्सियत थे जिन्होंने अपनी मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व एक घोषणा-पत्र छपवाया था। इस घोषणा-पत्र में उन्होंने उन विधि-विधानों का उल्लेख किया था, जिसके अनुसार उनकी मृत्यु के बाद उनके मित्रों और रिश्तेदारों को क्या-क्या करना है और क्या नहीं करना है? एक पर्चे में छपे उनके नीति-निर्देशकों को बड़े पैमाने पर उनके मित्रों-रिश्तेदारों के बीच बांटा गया था। खेतान जी का कहना था कि चूंकि वह जीवन भर कर्मकांडों के विरोधी रहे थे, अतएव उनकी मृत्यु के बाद तेरहवीं जैसा कोई भी आयोजन न किया जाए। साथ ही उन्होने अपने घर वालों से निवेदन करते हुये लिखा कि उनका शव शहर के किसी सार्वजनिक स्थल पर रख दिया जाए। और उनके मित्र-रिश्तेदार वहाँ आ कर उनका अंतिम दर्शन कर लें और फिर अपने कार्य स्थल पर जाएँ। उनकी मृत्यु के संदर्भ में कुछ को छोड़ कर उनके बाक़ी परिचित/रिश्तेदारों को अपने ऑफिस या कार्यस्थल से किसी तरह का अवकाश लेने की जरूरत नहीं है। इसके अलावा भी कई तरह के नीति-निर्देश खेतान जी ने दिये थे। अपने विचारों को अपनी मृत्यु के बाद भी जीने वाले खेतान जी जैसे बिरले ही मैंने अपने जीवन में देखे।
लेकिन मृत्यु को एक अलग तरह से स्वीकार करने वाले अनीश्वरवादी या मार्क्सवादी ही हों ऐसा नहीं है। बहुत से ऐसे लोग मिल जायेंगे जिन्होंने अपने जीते जी अपनी मृत्यु उपरांत विधि-विधानों को अलग तरह से मनाने का अनुरोध किया था। कभी हिन्दी हास्य के शिखर पुरुष रहे काका हाथरसी भी ऐसा ही एक नाम है। अपनी रचनाओं से काका, जीवन भर पाठकों को हँसाते रहे थे। अपनी मृत्यु से पूर्व उन्होंने घोषणा की थी कि उनकी शव-यात्रा में लोग हँसते-हँसते जाएँ। काका हाथरसी के रिश्तेदार और एक अन्य व्यंग्य लेखक एवं कवि डॉ. अशोक चक्रधर ने इस पूरी शव-यात्रा का वर्णन बड़े ही रोचक तरीके से अपने संस्मरण में किया है- “काका ने वसीयत की थी कि ऊंटगाड़ी पर उनकी अंतिम-यात्रा निकाली जाए। उन्होंने यह भी चाहा कि चिता जलते समय भीड़ में कोई व्यक्ति रोए नहीं, बल्कि वहां हास्य कवि-सम्मेलन हो और लोग ठहाके लगाते हुए, नाचते-गाते हुए उनकी शव-यात्रा में शिरकत करें। बहरहाल, ऐसा ही हुआ; जैसा उन्होंने चाहा। काका के घर से श्मशान की दूरी लगभग एक कि० मी० होगी लेकिन अंतिम यात्रा हाथरस नगर में पूरे चार घंटे बिताने के बाद अपने गंतव्य तक पहुंच पाई। उस पूरे मार्ग में लोगों का हुजूम दूर तक दिखाई देता था। छज्जों पर, कंगूरों पर, अटारियों पर ढेर सारे बाल-वृद्ध, महिलाएं उनकी ऊंटगाड़ी पर पुष्प-वर्षा कर रहे थे। दृश्य बड़ा ही रोमांचकारी हो जाता था कई बार। फूल फेंकने वालों की श्रद्धांजलि और नीचे उल्लास में रसिया गाते हुए लोग 'सुरपुर सिधार गए हमारे काका'। तिलक, चंदन लगाए हुए विचित्र वेशभूषा बनाए हुए लोग, जिनमें आह्लाद भी ऐसा जिसके मूल में दुःख भरपूर था। मानव-जाति के इतिहास में शायद ही ऐसा कभी हुआ हो कि श्मशान-भूमि पर जिस व्यक्ति का अंतिम संस्कार करने के लिए लोग आए हैं, वे अग्निदाह के समय ठहाके लगाएं। पूरे दो घंटे एक हास्य कवि-सम्मेलन चला, जिसमें हास्य-शैली में ही कवियों ने काका को विदाई दी”।
मृत्यु से जुड़े धार्मिक विधि-विधानों का प्रश्न, आज भी समाज के कई हिस्सों को मथ रहा है। आजकल देहदान का चलन बड़ी तेजी से हमारे समाज में बढ़ रहा है। संभव है, आगे आने वाले समय में हम ऐसा समाज पायें जहाँ मृत्यु की अवधारणा को जीवन और समाज के व्यापक अर्थों में समझा जाए। लोग, अपने परिचितों और रिश्तेदारों की मृत्यु पर कई-कई दिनों का शोक रखने के बजाए जीवन को एक प्रवाह के रूप में स्वीकारें और बुद्ध के उस चिंतन को आधार बनाएँ जिसके अनुसार हर अगला पल पहले पल से अलग है। जो आज है, वह कल नहीं और जो कल है वह परसों नहीं।
प्रस्तुति:- बिजूका
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टिप्पणियां:-
राहुल चौहान:-
मेरे मन की दबी हुई आवाज को बाहर निकलता ये उच्च, नव, मनोविज्ञान में भरी पूर्व-जर्जर मान्य-वास्तुओ को विनम्रता से धोता, पोछता, साफ़ कर धवल बनाता आलेख।
इसकी आज सबसे ज्यादा जरुरत है, रीती-काण्ड की जकड़न में पक्षघात से स्तब्ध यांत्रिक मानवो को।
आशीष मेहता:-
एक क्षण को तो लगा, 'तुम क्या जानो' की दबी आवाज़, मेरे भी गहरे दबी है।
आलेख रोचक जानकारी से भरपूर है। और पूरे तरीके से 'दुख-उल्लास' पर केन्द्रित है , सिवाय आखरी पैरे की पहली पंक्ति के , जहाँ 'धार्मिक विधि-विधानों' का जिक्र है। यह खूबसूरती रही आलेख की कि बरबस ही 'सामाजिक कर्मकाँडों / कुरितियों' पर स्वत: ही ध्यान चला जाता है। मानो, मैं 'अपनी दाढ़ी टटोल रहा हूँ'।
इस कुरितियों की यथोचित मलामत के परे, मेरे छोटी समझ में यह आलेख 'व्यक्तिगत आजादी' में हस्तक्षेप मात्र ही है। सामाजिक कमजोरी है हमारी की हम 'मनचाहे धर्म' का चुनाव नहीं कर पाते हैं, या 'बिना धर्म' के 'नागवार' गुजरते हैं समाज को। धर्म की तरह, खाने पीने की आजादी की तरह दुख-उल्लास भी निजी, नितांत निजी विषय है। 'जिस तन लागे....' की तर्ज पर यह 'भुक्तभोगी' का चुनाव (निस्संदेह स्वविवेक से, न कि किसी सामाजिक दबाव / रीति रिवाज की वजह से) होना चाहिए, कि उसे किसी के मरने का उल्लास है या दुख....दुख एक दिन का है या जन्मभर का।
पूरा विश्व जुटा हुआ है, कि कोई एक किसी दूसरे को न मारे, पर नाकामी ही हासिल है। ऐसे में, मरने को लेकर 'बुद्ध चिन्तन' की सम्भावना (व्यापक स्तर पर) अति महत्वाकाँक्षी लगती है।
'सुलझने को आतुर एवं आकुल मस्तिष्क' के लिए पुष्ट खुराक है यह आलेख। पढ़ कर मजा आया (उल्लास / bliss के लिए कुछ दीगर प्रयासों की दरकार रहेगी, मगर। )
शोभा सिंह:-
बिजूका की प्रस्तुतियां बेहतरीन है इससे ज्ञान वर्धन भरपूर है आप बधाई के पात्र है
प्रदीप मिश्रा:-
मेरी बातें तुम क्या जानो और आशीष मेहता ने कह दी है। दोहराने का कोई मतलब नहीं है। लेखक और बिजूका का आभार।
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