आज आपके लिए समूह के एक साथी मनीषा जैन की कुछ कविताएँ प्रस्तुत हैं। आपकी प्रतिक्रियाओं की दरक़ार है...
कविता:
1 'अंधेरे में चहलकदमी'
वह अब चुप है
चारों ओर आग
द्वेष, धड़-पकड़
बंदूक बलात्कार
जेल विरोध
घटाटोप अंधेरा
कौन हंसा यहां
एक दबी हुई हंसी
वो चुप रहकर तमाशा देखने लगे हैं
हसां वो जिसे मरने का डर नहीं
चुप है वह
जिसे करनी है अपने मन की
सारी हवा , पानी
पेड़ , जमीन किसके हैं?
जिनकी बाहों पर गुदे हैं नाम
उनके पतियों के
जो जा चुके हैं अंधेरे में
उनके सत्तासीन होते ही
शर्म से झुक गई हैं आंखें जिनकी
चाल में है मंदी
ये हमारे कल का भविष्य हैं
जो भारी क़दमों से कर रहें हैं चहलक़दमी
हाथ खाली हैं इनके
फिर भी अंधेरों में चमक रहीं हैं आंखें इनकी
क्या पता कब तख़्ता पलट हो जाए।
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2. 'समय'
सड़कों पर चीटियों से
बेशुमार आदमी
सब चुप्प
अपने में गुम
कोई नहीं बोलता किसी से
सारे हैं बेदम, भौचके, घबराये से
कोई नहीं खोलता स्वयं को
सभी चले जा रहे हैं
पता नहीं कहाँ..!
समय चलता हुआ तेजी से
ठेलता है आदमी को
फिर आदमी चला जाता है पता नहीं कहां ?
कहते हैं समय भाग रहा है
लेकिन समय नहीं आदमी भाग रहा है
न समय रुकता है न ही आदमी
बस रुक जाती है नियति
फिर इंसान देखता रह जाता है
और समय निकल जाता है दूर
हाथ खाली , खेल ख़त्म।
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3. 'दहशतगर्दी'
कितनी सहजता से चला दी उसने बंदूक
चुप्पी साधकर आया
और निपटा दिया सबको
दुनिया में विष फैला दिया उसने
दुनिया भर के बच्चों को ललकारा है उसने
अब बात बच्चों पर आ टिकी है
दुनिया की आखिरी उम्मीद पर
अब हत्यारे पता नहीं, कौन सी गली से निकलें
दबे पांव रखें बिल्ली की तरह
और रोक दें रास्ता आपका
ठूंस दें गोली आपके पेट में
और हो जाएं फरार
जेल भर जाए निरपराध लोगों से
कवि कविता लिखते रह जाएं
फिर सारी आत्माएं इकठ्ठी होकर
चौक पर करेंगी मातम
वो फिर आयेगें कहीं
दफतर में, बाजा़र में
एकान्त में, होटल में
और बंदूक का घोड़ा छोड़ देंगे सरे बाज़ार
शहर के चौराहे पर
सभी स्तब्ध, सभी हैरान
सभी औचक, सब परेशान
सभी निहत्थे, भागो... भागो
सभी....धड़ाम.... धड़ाम
सभी गिरे....गिरे
लेकिन वो तो निकल गया
पता ही नहीं किधर से.... कहां से
अभी तलाश जारी है उसकी
इश्तेहार दीवारों पर लगाए जा चुके हैं
वह छुप गया है खंडहरों में या गुफा में
या वह बैठ गया है राष्ट्राध्यक्षों के साथ
वह विकास की पांच साला योजना बनाने में व्यस्त है
लोग छिपे हैं घरों में अपने
आज शहर में स्वागत समारोह है उसका
सब जगह तैयारी पूरी है
शहर का चप्पा चप्पा सजाया गया है
लेकिन वह तो किसी और शहर गया है
शायद दहशतगर्दी करने।
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4. 'रामपुर'
रामपुर की एक
भादों भरी दोपहर में
जब पेड़ भी गर्मी से
बिलबिला रहे थे
कुछ बच्चों को दे रहे थे छांव
जलती हुई धरती पर
नगें पांव
ऐडी व अंगूठे के बल
चलता हुआ
भाई आता है घर
चुन्नी संभालती बहन
पानी का गिलास थमा देती है उसे
दोनों मुस्काते हैं
एक दूसरे की आंखों में
बस सिर पर हाथ धर देता है भाई।
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5. 'पांव धोेते बच्चे'
रेल की पटरियों सा
लम्बा जीवन
तपता झरता जीवन
पल पल होता क्षीण
कोई देता दिलासा
आयेगी कोई उम्मीद की रेल
सीटी बजा कर करेगी सचेत
मां से रोटी हाथ में लेकर
पानी भरने जाते बच्चे
पानी में बार-बार
पांव धोते बच्चे
अपना चेहरा पानी में देख
हंसते बच्चे
सफेद झक चेहरा लिए
सिर पर पानी की बाल्टी उठाये
नंगे पैर जाते है स्कूल
फिर
घरों की ओर लौटते बच्चे
क्या कोई उनका स्वागत करने को है वहां ?
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6. 'प्यार के सतरंगे प्रिज़्म के लिए दौड़'
जब प्रेम में डूबी हुई थी वे
तब पंखो की फडफडाहट रेंगती थी
बदन पर उनके
सदियों से कोई खेल खेलता है शिकारी
फंसाता है जाल में
और बांधकर भावनाओं की गठरी में
ले जाकर पटक देता है
अकेलेपन की चट्टानों के शिखर पर
जहां से नीचे देखने पर
कांपती है रूह उनकी
कि हवाओं को अभी रूकना होगा
उनका मर्सिया पढ़ने से पहले
कि सदियों से इसी तरह
हलाल होती रही हैं स्त्रियां
कि कौन कर सकता है
उन्हें सिर्फ प्यार
प्यार के सतरंगे प्रिज़्म के लिए
दौड़ती रहती हैं वे
फिर रंगहीन होकर खत्म होता है
आंख का पानी
क्या अब प्रेम की संभावनायें
क्षीण होती जा रही हैं ?
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7. 'ये बच्चे'
उन्हें नहीं मालूम
क्या होता है
बचपन का प्यार?
न ही मां की लोरी
वे नहीं जानते
कि फूल कैसे खिलते हैं
वे फूलों के रंग के बारे में नहीं सोचते
वे तितली के विषय में नहीं सोचते
न शहद के बारे में
वे दिनभर कूड़े में कुछ ढूंढ़ते रहते हैं
और रात में कहीं भी सो जाते हैं
ये हैं कूड़े के ढ़ेर पर
कुछ बीनते बच्चे
उन्हें नहीं मालूम
कब उगा लाल सूरज
कब उतरा नदी में नारंगी सूरज
उन्हें नहीं मालूम
भोर में चिड़िया का मधुर गान
न ही स्कूल की तख्ती
उन्हें पता है बस
दो रोटी के लिए दो पैसे कमाना
नहीं तो रात में पड़ेगा भूखे सोना
वे बचपन में ही हो रहे हैं बूढ़े
सचमुच उन्हें नहीं पता
रात में टिमटिमाते तारे
जो हैं सब उन्हीं के वास्ते
उन्हें नहीं पता चंदा है हमारा मामा
नहीं है पहचान रिश्तों की
वे बस जानते हैं पानी और रोटी
जिस दिन हाथ आ जाए रोटी
उस दिन मन जाए दिवाली
नहीं तो है फाकों की होली
महरूम हैं अनगिनत चीजों से
ये कूड़े पर खिलते पुष्प हैं
मुंह पर है हंसी इनके
आंखों में है भरे सपने
किसी के तो होंगे ये अपने
ये कूड़े पर कुछ बीनते बच्चे।
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8. 'हम नहीं चाहते'
हम नहीं चाहते
रक्तपात
हिंसा
नाउम्मीदी
चीख
मातम की पुकार
अपने सीने में
हम चुपचाप करना चाहते हैं
एक निवेदन
एक उजली सुबह का
एक उजले भरोसे का।
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9. 'हम सब लिखेंगे'
चट्टानें जो हैं अभी उभरी
फन दबोचना है उन्हीं का
तुम वस्त्रहीन
वह वर्दीधारी
तुम निहत्थे
वह शस्त्रधारी
जब रंक भी राजा बनेगा
उसी क्षण की है तैयारी
उसी नीले फण को दबाओ
तो ज़हर कितना झरेगा
रोटियों की आग में भी
वह भूखा ही मरेगा
मैं तुम्हें अपने माथे चढ़ांऊ
ईर्ष्या में वह जल मरेगा
मैं तुम्हें गद्दी बैठाऊँ
सिर वह अपना ही धुनेगा
तुम अपना पथ खोज निकल जाओ
वह इसी पथ पर मरेगा
शोक गीत फिर उसी के नाम का
हम सब मिलकर लिखेंगे।
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10. 'तवे पर रोटी'
रोशनी है चकाचौंध
भेड़िए दिखा रहें हैं दांत
आम जनता छुपाती है रोटी
पृथ्वी की पीठ पर उभर रही हैं दरारें
नदियां हो रही है वस्त्रहीन
सूरज के जल रहे हैं हाथ
सपनों में खोए हैं महामहिम
जनता गर्मी से बेहाल हो
सोई है फलाईओवरों के नीचे
राजा का नीद नहीं आती
उसे जाना है परियों के देश
कुछ दिन शाइन करेगा भारत
आंखें चौधिया रही हैं सबकी
अमीर और अमीर होगा थोड़ा
और गाल बजायेगा दीनहीन
धरती अक्स पर थोड़ा और झुकेगी
बादल ढूंढ रहा है किसान
नज़र नहीं आते किसान
न नज़र आते हैं बादल
सर्वहारा के घर उल्टा पड़ा है तवा
और सेठ के घर तवे पर रोटी नाच रही है
सत्तासीन मगन है अपने में ही
फिर से बजा रहा बांसुरी नीरो
जैसे अपनी अपनी ढपली
अपना अपना राग।
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परिचय:
नाम- मनीषा जैन
जन्म- 24 सितंबर, मेरठ, अब दिल्ली में निवास
शिक्षा- एम ए हिन्दी साहित्य, यू जी सी नेट
वर्तमान में शोध कार्य में संलग्न
प्रकाशित कृति -
दो कविता संग्रह ‘रोज गूंथती हूं पहाड़’ तथा ‘कल की उम्मीद लिए’ प्रकाशित
हायकु व रेखाचित्र संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
प्रकाशित साझा काव्य संग्रह - 1-सारांश समय का, 2-कविता अनवरत
देश की प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में कविताएं, समीक्षाएं, रेखाचित्र, आलेख प्रकाशित।
फोन - 9871539404
(प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियां:-
सूर्य प्रकाश:-
बहुत मर्म स्पर्शी रचनाएँ..।विशेषकर ,ये बच्चे, हम सब लिखेंगे एवं तवे पर रोटी ...रचनाएं वर्तमान समय ..समाज की त्रासद स्थिति को बयां करती है..।मनीषा जी को इन बेहतरीन रचनाओं के लिए बहुत बधाई ।..सूर्य प्रकाश जीनगर।
मनीषा जैन :-
आभार बिजूका । सभी साथियों से प्रतिक्रिया की अपेक्षा है जिससे मैं अपनी कविताओं में कुछ निखार ला सकूं। चाहें आलोचना ही करें, मुझे अच्छा लगेगा।
सादर
सुषमा सिन्हा:-
अच्छी, बढ़िया कविताएँ मनीषा जी की। हाशिये पर रहने वाले लोगों की सुध-बुध लेती हृदयस्पर्शी कविताएँ। बधाई आपको और शुभकामनाएँ
आनंद पचौरी:-
वर्तमान परिवेश और त्रासदीयों पर गंभीर चिंतन भरी मार्मिक कवितएँ, मनीषा जी बहुत शुभकामनाएँ
नीलिमा शर्मा:-
वाह वो चुप रह कर तमाशा देखने लगे है ।सुन्दर पञ्च लाइन मिली आपकी कविता से । सच हैं यहाँ सब चुप है । बिजूका की तरह ।
सभी कविताये अच्छी है सीधी सरल सी । एक पाठ काफी नही है
बढ़िया कवितायेँ
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