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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अगस्त, 2016

किशोर कुमार का इंटरव्यू

आज के लिये आप सभी के सामने प्रस्तुत है किशोर कुमार जी के द्वारा साझा किये गए उनके विचार एक इंटरव्यू के दौरान ।

इस पागल दुनिया में सच्‍चा सरल आदमी ही पागल लगता है l

गायक-अभिनेता किशोर कुमार से पत्रकार प्रीतीश नंदी की बातचीत

यह एक दिलचस्‍प बातचीत है। अपनी तरह के अकेले और बेमिसाल गायक-अभिनेता किशोर कुमार से यह बातचीत पत्रकार प्रीतीश नंदी ने की थी। प्रीतीश के औपचारिक-पेशेवर सवालों का जवाब जितनी खिलंदड़ सहजता के साथ किशोर कुमार दे रहे हैं, उससे पता चलता है कि अपनी चरम लोकप्रियता का कोई बोझ वह अपने साथ लेकर नहीं चलते। इस बातचीत से यह भी पता चलता है कि एक महान रचनात्‍मक आदमी दुनियावी अर्थों में सफल होने के बाद भी अपना असल व्‍यक्तित्‍व नहीं खोता। यह इंटरव्यू पहली बार इलेस्‍ट्रेटेड वीकली के अप्रैल 1985 अंक में छपा था। इसका अनुवाद करके हिंदी में उपलब्‍ध कराने का श्रेय रंगनाथ सिंह को जाता है l

मैंने सुना है कि आप बंबई छोड़ कर खंडवा जा रहे हैं…

इस अहमक, मित्रविहीन शहर में कौन रह सकता है, जहां हर आदमी हर वक्त आपका शोषण करना चाहता है? क्या तुम यहां किसी का भरोसा कर सकते हो? क्या कोई भरोसेमंद है यहां? क्या ऐसा कोई दोस्त है यहां जिस पर तुम भरोसा कर सकते हो? मैंने तय कर लिया है कि मैं इस तुच्छ चूहादौड़ से बाहर निकलूंगा और वैसे ही जीऊंगा जैसे मैं जीना चाहता था। अपने पैतृक निवास खंडवा में। अपने पुरखों की जमीन पर। इस बदसूरत शहर में कौन मरना चाहता है!!

आप यहां आये ही क्यों?

मैं अपने भाई अशोक कुमार से मिलने आया था। उन दिनों वो बहुत बड़े स्टार थे। मुझे लगा कि वो मुझे केएल सहगल से मिलवा सकते हैं, जो मेरे सबसे बड़े आदर्श थे। लोग कहते हैं कि वो नाक से गाते थे… लेकिन क्या हुआ? वो एक महान गायक थे। सबसे महान।

ऐसी खबर है कि आप सहगल के प्रसिद्ध गानों का एक एलबम तैयार करने की योजना बना रहे हैं…

मुझसे कहा गया था, मैंने मना कर दिया। उन्हें अप्रचलित करने की कोशिश मुझे क्यों करनी चाहिए? उन्हें हमारी स्मृति में बसे रहने दीजिए। उनके गीतों को उनके गीत ही रहने दीजिए। एक भी व्यक्ति को यह कहने का मौका मत दीजिए कि किशोर कुमार उनसे अच्छा गाता है।

यदि आपको बांबे पसंद नहीं था, तो आप यहां रुके क्यों? प्रसिद्धि के लिए? पैसे के लिए?

मैं यहां फंस गया था। मैं सिर्फ गाना चाहता था। कभी भी अभिनय करना नहीं चाहता था। लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों की कृपा से मुझे अभिनय करने को कहा गया। मुझे हर क्षण इससे नफरत थी और मैंने इससे बचने का हर संभव तरीका आजमाया।

मैं सिरफिरा दिखने के लिए अपनी लाइनें गड़बड़ कर देता था, अपना सिर मुंड़वा दिया, मुसीबत पैदा की, दुखद दृश्यों के बीच मैं बलबलाने लगता था, जो मुझे किसी फिल्म में बीना राय को कहना था वो मैंने एक दूसरी फिल्म में मीना कुमारी को कह दिया – लेकिन फिर भी उन्होंने मुझे जाने नहीं दिया। मैं चीखा, चिल्लाया, बौड़म बन गया। लेकिन किसे परवाह थी? उन्होंने तो बस तय कर लिया था कि मुझे स्टार बनाना है।

क्यों?

क्योंकि मैं दादामुनि का भाई था। और वह महान हीरो थे।

लेकिन आप सफल हुए…

बेशक मैं हुआ। दिलीप कुमार के बाद मैं सबसे ज्यादा कमाई कराने वाला हीरो था। उन दिनों मैं इतनी फिल्में कर रहा था कि मुझे एक सेट से दूसरे सेट पर जाने के बीच ही कपड़ने बदलने होते थे। जरा कल्पना कीजिए। एक सेट से दूसरे सेट तक जाते हुए मेरी शर्ट उड़ रही है, मेरी पैंट गिर रही है, मेरा विग बाहर निकल रहा है। बहुत बार मैं अपनी लाइनें मिला देता था और रुमानियत वाले दृश्य में गुस्सा दिखता था या तेज लड़ाई के बीच रुमानियत। यह बहुत बुरा था और मुझे इससे नफरत थी। इसने स्कूल के दिनों के दुस्वप्न जगा दिये। निर्देशक स्कूल टीचर जैसे ही थे। यह करो। वह करो। यह मत करो। वह मत करो। मुझे इससे डर लगता था। इसीलिए मैं अक्सर भाग जाता था।

खैर, आप अपने निर्देशकों और निर्माताओं को परेशान करने के लिए बदनाम थे। ऐसा क्यों?

बकवास। वे मुझे परेशान करते थे। आप सोचते हैं कि वो मेरी परवाह करते थे? वो मेरी परवाह इसलिए करते थे कि मैं बिकता था। मेरे बुरे दिनों में किसने मेरी परवाह की? इस धंधे में कौन किसी की परवाह करता है?

इसीलिए आप एकांतजीवी हो गये?

देखिए, मैं सिगरेट नहीं पीता, शराब नहीं पीता, घूमता-फिरता नहीं। पार्टियों में नहीं जाता। अगर ये सब मुझे एकांतजीवी बनाता है, तो ठीक है। मैं इसी तरह खुश हूं। मैं काम पर जाता हूं और सीधे घर आता हूं। अपनी भुतहा फिल्में देखने, अपने भूतों के संग खेलने, अपने पेड़ों से बातें करने, गाना गाने। इस लालची संसार में कोई भी रचनात्मक व्यक्ति एकांतजीवी होने के लिए बाध्य है। आप मुझसे यह हक कैसे छीन सकते हैं।

आपके ज्यादा दोस्त नहीं हैं?

एक भी नहीं।

यह तो काफी चालू बात हो गयी।

लोगों से मुझे ऊब होती है। फिल्म के लोग मुझे खासतौर पर बोर करते हैं। मैं पेड़ों से बातें करना पसंद करता हूं।

इसका मतलब आपको प्रकृति पसंद है?

इसीलिए तो मैं खंडवा जाना चाहता हूं। यहां मेरा प्रकृति से सभी संबंध खत्म हो गया है। मैंने अपने बंगले के चारों तरफ नहर खोदने की कोशिश की थी, जिससे मैं उसमें गंडोला चला सकूं। जब मेरे आदमी खुदाई कर रहे थे, तो नगर महापालिका वाले बंदे बैठे रहते थे, देखते थे और ना-ना में अपनी गर्दन हिलाते रहते थे। लेकिन यह काम नहीं आया। एक दिन किसी को एक हाथ का कंकाल मिला – एड़ियां मिलीं। उसके बाद कोई खुदाई करने को तैयार नहीं था। मेरा दूसरा भाई अनूप गंगाजल छिड़कने लगा, मंत्र पढ़ने लगा। उसने सोचा कि यह घर कब्रिस्तान पर बना है। हो सकता हो यह बना हो लेकिन मैंने अपने घर को वेनिस जैसा बनाने का मौका खो दिया।

लोगों ने सोचा होगा कि आप पागल हैं! दरअसल, लोग ऐसा ही सोचते हैं।

कौन कहता है मैं पागल हूं। दुनिया पागल है, मैं नहीं।

आपकी छवि अजीबोगरीब काम करने वाले व्यक्ति की क्यों है?

यह सब तब शुरू हुआ, जब एक लड़की मेरा इंटरव्‍यू लेने आयी। उन दिनों मैं अकेला रहता था। तो उसने कहा : आप जरूर बहुत अकेले होंगे। मैंने कहा नहीं, आओ मैं तुम्हें अपने कुछ दोस्तों से मिलवाता हूं। इसलिए मैं उसे अपने बगीचे में ले गया और अपने कुछ मित्र पेड़ों जनार्दन, रघुनंदन, गंगाधर, जगन्नाथ, बुधुराम, झटपटझटपट से मिलवाया। मैंने कहा, इस निर्दयी संसार में यही मेरे सबसे करीबी दोस्त हैं। उसने जाकर वह घटिया कहानी लिख दी कि मैं पेड़ों को अपनी बांहों में घेरकर शाम गुजारता हूं। आप ही बताइए इसमें गलत क्या है? पेड़ों से दोस्ती करने में गलत क्या है?

कुछ नहीं।

फिर यह इंटीरियर डेकोरेटर आया था। सूटेड-बूटेड, तपती गर्मी में सैविले रो का ऊनी थ्री-पीस सूट पहने हुए … मुझे सौंदर्य, डिजाइन, दृश्य क्षमता इत्यादि के बारे में लेक्चर दे रहा था। करीब आधे घंटे तक उसके अजीब अमेरिकन लहजे वाली अंग्रेजी में उसे सुनने के बाद मैंने उससे कहा कि मुझे अपने सोने वाले कमरे के लिए बहुत साधारण सी चीज चाहिए। कुछ फीट गहरा पानी, जिसमें बड़े सोफे की जगह चारों तरफ छोटी-छोटी नावें तैरें। मैंने कहा, सेंटर टेबल को बीच में अंकुश से बांध देंगे, जिससे उस पर चाय रखी जा सके और हम सब उसके चारों तरफ अपनी-अपनी नाव में बैठकर अपनी चाय पी सकें।

मैंने कहा, लेकिन नाव का संतुलन सही होना चाहिए, नहीं तो हम लोग एक-दूसरे से फुसफुसाते रह जाएंगे और बातचीत करना मुश्किल होगा। वह थोड़ा सावधान दिखने लगा, लेकिन जब मैंने दीवारों की सजावट के बारे में बताना शुरू किया तो उसकी सावधानी गहरे भय में बदल गयी।

मैंने उससे कहा कि मैं कलाकृतियों की जगह जीवित कौओं को दीवार पर टांगना चाहता हूं क्योंकि मुझे प्रकृति बहुत पसंद है l  उसी समय वह अपनी आंखों में विचित्र सा भाव लिये धीरे से खिसक लिया। आखिरी बार मैंने उसे तब देखा था, जब वह बाहर के दरवाजे से ऐसी गति से भाग रहा था कि इलेक्ट्रिक ट्रेन शरमा जाए। तुम ही बताओ, ऐसा लीविंग रूम बनाना क्या पागलपन है? अगर वह प्रचंड गर्मी में ऊनी थ्री पीस सूट पहन सकता है, तो मैं अपनी दीवार पर कौए क्यों नहीं टांग सकता?

आपके विचार काफी मौलिक हैं, लेकिन आपकी फिल्में पिट क्यों रही हैं?

क्योंकि मैंने अपने वितरकों को उनकी अनदेखी करने को कहा है। मैंने उनसे शुरू ही में कह दिया कि फिल्म अधिक से अधिक एक हफ्ता चलेगी। जाहिर है कि वे भाग गये और कभी वापस नहीं आये। आप को ऐसा निर्माता-निर्देशक कहां मिलेगा, जो खुद आपको सावधान करे कि उसकी फिल्म को हाथ मत लगाइए क्योंकि वह खुद भी नहीं समझ सकता कि उसने क्या बनाया है?

फिर आप फिल्म बनाते ही क्यों हैं?

क्योंकि यह भावना मुझे प्रेरित करती है। मुझे लगता है कि मेरे पास कहने के लिए कुछ है और कई बार मेरी फिल्में अच्छा प्रदर्शन भी करती हैं। मुझे अपनी एक फिल्म- ’दूर गगन की छांव में’ याद है, अलंकार हॉल में यह मात्र 10 दर्शकों के साथ शुरू हुई थी। मुझे पता है क्योंकि मैं खुद हॉल में था। पहला शो देखने सिर्फ दस लोग आये थे! यह रिलीज भी विचित्र तरीके से हुई थी। मेरे बहनोई के भाई सुबोध मुखर्जी ने अपनी फिल्म अप्रैल-फूल जिसके बारे सभी जानते थे कि वो ब्लॉक-बस्टर होने जा रही है, के लिए अलंकार हॉल को आठ हफ्तों के लिए बुक करवा लिया था।

मेरी फिल्म के बारे में सभी को विश्वास था कि वो बुरी तरह फ्लॉप होने वाली है। तो उन्होंने अपनी बुकिंग में से एक हफ्ता मुझे देने की पेशकश की। उन्होंने बड़े अंदाज से कहा कि, तुम एक हफ्ते ले लो, मैं सात से ही काम चला लूंगा। आखिकार, फिल्म एक हफ्ते से ज्यादा चलने वाली है नहीं।

मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि यह दो दिन भी नहीं चलेगी। जब पहले शो में दस लोग भी नहीं आये तो उन्होंने मुझे दिलासा देते हुए कहा कि परेशान मत हो, कई बार ऐसा होता है। लेकिन परेशान कौन था? फिर, बात फैल गयी। जंगल की आग की तरह। और कुछ ही दिनों में हॉल भरने लगा। यह अलंकार में पूरे आठ हफ्ते तक हाउसफुल चली!

सुबोध मुखर्जी मुझ पर चिल्लाते रहे लेकिन मैं हॉल को हाथ से कैसे जाने देता? आठ हफ्ते बाद जब बुकिंग खत्म हो गयी, तो फिल्म सुपर हॉल में लगी और वहां फिर 21 हफ्तों तक चली! ये मेरी हिट फिल्म का हाल है। कोई इसकी व्याख्या कैसे करेगा? क्या आप इसकी व्याख्या कर सकते हैं? क्या सुबोध मुखर्जी कर सकते हैं, जिनकी अप्रैल-फूल बुरी तरह फ्लॉप हो गयी?

लेकिन आपको, एक निर्देशक के तौर पर पता होना चाहिए था?

निर्देशक कुछ नहीं जानते। मुझे अच्छे निर्देशकों के साथ काम करने का अवसर नहीं मिला। सत्येन बोस और बिमल रॉय के अलावा किसी को फिल्म निर्माण का “क ख ग घ” भी नहीं पता था। ऐसे निर्देशकों के साथ आप मुझसे अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?

एसडी नारंग जैसे निर्देशकों को यह भी नहीं पता था कि कैमरा कहां रखें। वे सिगरेट का लंबा अवसादभरा कश लेते, हर किसी से शांत, शांत, शांत रहने को कहते, बेख्याल से कुछ फर्लांग चलते, कुछ बड़बड़ाते और कैमरामैन से जहां वह चाहे वहां कैमरा रखने को कहते थे।

मेरे लिए उनकी खास लाइन थी : कुछ करो। क्या कुछ? अरे, कुछ भी! अत: मैं अपनी उछलकूद करने लगता था। क्या अभिनय का यही तरीका है? क्या एक फिल्म निर्देशित करने का यही तरीका है? और फिर भी नारंग साहब ने कई हिट फिल्में बनायीं!

आपने अच्छे निर्देशकों के साथ काम करने का प्रस्ताव क्यों नहीं रखा?

प्रस्ताव! मैं बेहद डरा हुआ था। सत्यजित रॉय मेरे पास आये थे और वह चाहते थे कि मैं उनकी प्रसिद्ध कामेडी पारस पत्थर में काम करूं और मैं डरकर भाग गया था। बाद में तुलसी चक्रवर्ती ने वो रोल किया। ये बहुत अच्छा रोल था और इन महान निर्देशकों से इतना डरा हुआ था कि मैं भाग गया।

लेकिन आप सत्यजीत रॉय को जानते थे।

निस्‍संदेह, मैं जानता था। पाथेर पांचाली के वक्त जब वह घोर आर्थिक संकट में थे, तब मैंने उन्हें पांच हजार रुपये दिये थे। हालांकि उन्होंने पूरा पैसा चुका दिया, फिर भी मैंने कभी यह नहीं भूलने दिया कि मैंने उनकी क्लासिक फिल्म बनाने में मदद की थी। मैं अभी भी उन्हें इसे लेकर छेड़ता हूं। मैं उधार दिये हुए पैसे कभी नहीं भूलता!

अच्छा, कुछ लोग सोचते हैं कि आप पैसे को लेकर पागल हैं। अन्य लोग आप को ऐसा जोकर कहते हैं, जो अजीबोगरीब होने का दिखावा करता है, लेकिन असल में बहुत ही चालाक है। कुछ और लोग आपको धूर्त और चालबाज आदमी मानते हैं। इनमें से आपका असली रूप कौन सा है?

अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग समय में मैं अलग-अलग रोल निभाता हूं। इस पागल दुनिया में केवल सच्चा समझदार आदमी ही पागल प्रतीत होता है। मुझे देखो, क्या मैं पागल लगता हूं? क्या तुम्हें लगता है कि मैं चालबाज हूं?

मैं कैसे जान सकता हूं?

बिल्कुल जान सकते हो। किसी आदमी को देखकर उसे जाना जा सकता है। तुम इन फिल्मी लोगों को देखो और तुम इन्हें देखते ही जान लोगे कि ये ठग हैं।

मैं ऐसा मानता हूं।

मैं मानता नहीं, मैं यह जानता हूं। तुम उन पर धुर भर भरोसा नहीं कर सकते। मैं इस चूहादौड़ में इतने लंबे समय से हूं कि मैं मुसीबत को मीलों पहले सूंघ सकता हूं। मैंने मुसीबत को उसी दिन सूंघ लिया था, जिस दिन मैं एक पार्श्व गायक बनने की उम्मीद में बांबे आया लेकिन एक्टिंग में फंसा दिया गया था। मुझे तो पीठ दिखाकर भाग जाना चाहिए था।

आप ने ऐसा क्यों नहीं किया?

हालांकि इसके लिए मैं उसी वक्त से पछता रहा हूं। बूम बूम। बूम्प्टी बूम बूम चिकाचिकाचिक चिक चिक याडले ईईई याडले उउउउउ (जब तक चाय नहीं आ जाती याडलिंग करते हैं। कोई लिविंग रूम से उलटे हुए सोफे की ओर से आता है, थोड़ा दुखी दिख रहा है, उसके हाथ में चूहों द्वारा कुतरी हुई कुछ फाइलें हैं, जो वो किशोर को दिखाने के लिए लिये हुए है।)

ये कैसी फाइलें हैं?

मेरा इनकमटैक्स रिकॉर्ड।

चूहों से कुतरी हुई?

हम इनका प्रयोग चूहे मारने वाली दवाइयों के रूप में करते हैं। ये काफी प्रभावी हैं। इन्हें काटने के बाद चूहे आसानी से मर जाते हैं।

आप इनकम टैक्स वालों को क्या दिखाते हैं, जब वो पेपर मांगते हैं?

मरे हुए चूहे।

समझा…

तुम्हें मरे हुए चूहे पसंद हैं?

कुछ खास नहीं।

दुनिया के कुछ हिस्सों में लोग उन्हें खाते हैं।

मुझे भी लगता है।

Haute cuisine… महंगा भी। बहुत पैसे लगते हैं।

हां?

चूहे, अच्छा धंधा हैं। किसी के पास व्यावसायिक बुद्धि हो तो वह उनसे बहुत से पैसे कमा सकता है।

मुझे लगता है कि आप पैसे को लेकर बहुत ज्यादा हुज्जती हैं। मुझे किसी ने बताया कि एक निर्माता ने आपके आधे पैसे दिये थे, तो आप सेट पर आधा सिर और आधी मूंछ छिलवा कर पहुंचे थे। और आपने उससे कहा था कि जब वह बाकी पैसे दे देगा, तभी आप पहले की तरह शूटिंग करेंगे।

वो मुझे हल्के में क्यों लेंगे? ये लोग कभी पैसा नहीं चुकाते, जब तक कि आप उन्हें सबक न सिखाएं। मुझे लगता है कि वह फिल्म मिस मैरी थी और ये बंदे होटल में पांच दिन तक बिना शूंटिग किये मेरा इंतजार करते रहे। अत: मैं ऊब गया और अपने बाल काटने लगा।

पहले मैंने सिर के दाहिने तरफ के कुछ बाल काटे, फिर उसे बराबर करने के लिए बायीं तरफ के कुछ बाल काटे। गलती से मैंने थोड़ा ज्यादा काट दिया। इसलिए फिर से दाहिने तरफ का कुछ बाल काटना पड़ा। फिर से मैंने ज्यादा काट दिया। तो मुझे बायें तरफ का फिर से काटना पड़ा। ये तब तक चलता रहा जब तक कि मेरे सिर पर कोई बाल नहीं बचा और उसी वक्त उन्होंने मुझे सेट पर बुलाया। मैं जब इस हालत में सेट पर पहुंचा, तो सभी चक्कर खा गये।

इस तरह बांबे तक अफवाह पहुंची। उन्होंने कहा था कि मैं बौरा गया हूं। मुझे ये सब नहीं पता था। जब मैं वापस आया तो देखा कि हर कोई मुझे दूर से बधाई दे रहा है और दस फीट की दूरी से बात कर रहा है।

यहां तक कि जो लोग मुझसे गले मिला करते थे, वो भी दूर से हाथ हिला रहे थे। फिर किसी ने थोड़ा झिझकते हुए मुझसे पूछा कि अब मैं कैसा महसूस कर रहा था। मैंने कहा, बढ़िया। मैंने शायद थोड़ा अटपटे ढंग से कहा था। अचानक मैंने देखा कि वो लौट कर भाग रहा है। मुझसे दूर, बहुत दूर।

लेकिन क्या आप सचमुच पैसे को लेकर इतने हुज्जती हैं?

मुझे टैक्स देना होता है।

मुझे पता चला है कि आपको आयकर से जुड़ी समस्याएं भी हैं।

कौन नहीं जानता? मेरा मूल बकाया बहुत ज्यादा नहीं था लेकिन ब्याज बढ़ता गया। खंडवा जाने से पहले बहुत सी चीजें बेचने का मेरा प्लान है और इस पूरे मामले को मैं हमेशा के लिए हल कर दूंगा।

आपने आपातकाल के दौरान संजय गांधी के लिए गाने को मना कर दिया था और कहा जाता है कि इसीलिए आयकर वाले आपके पीछे पड़े। क्या यह सच है?

कौन जाने वो क्यों आये। लेकिन कोई भी मुझसे वो नहीं करा सकता जो मैं नहीं करना चाहता। मैं किसी और की इच्छा या हुकुम से नहीं गाता। लेकिन समाजसेवा के लिए मैं हमेशा ही गाता हूं।

आपके घरेलू जीवन की मुश्किलें क्‍या हैं? इतनी परेशानियां क्यों?

क्योंकि मैं अकेला छोड़े जाना पसंद करता हूं।

आपकी पहली पत्नी रुमा देवी के संग क्या समस्या हुई?

वो बहुत ही प्रतिभाशाली महिला थीं लेकिन हम साथ नही रह सके क्योंकि हम जिंदगी को अलग-अलग नजरिये से देखते थे। वो एक क्वॉयर और कॅरियर बनाना चाहती थी। मैं चाहता था कि कोई मेरे घर की देखभाल करे। दोनों की पटरी कैसे बैठती?

देखो, मैं एक साधारण दिमाग गांव वाले जैसा हूं। मैं औरतों के करियर बनाने वाली बात समझ नहीं पाता। बीवियों को पहले घर संवारना सीखना चाहिए। और आप दोनों काम कैसे कर सकते हैं? करियर और घर दो भिन्न चीजें हैं। इसीलिए हम दोनों अपने-अपने अलग रास्तों पर चल पड़े।

आपकी दूसरी बीवी, मधुबाला?

वह मामला थोड़ा अलग था। उससे शादी करने से पहले ही मैं जानता था कि वो काफी बीमार है। लेकिन कसम तो कसम होती है। अत: मैंने अपनी बात रखी और उसे पत्नी के रूप में अपने घर ले आया, तब भी जब मैं जानता था कि वह हृदय की जन्मजात बीमारी से मर रही है। नौ सालों तक मैंने उसकी सेवा की। मैंने उसे अपनी आंखों के सामने मरते देखा। तुम इसे नहीं समझ सकते जब तक कि तुम इससे खुद न गुजरो। वह बेहद खूबसूरत महिला थी लेकिन उसकी मृत्यु बहुत दर्दनाक थी।

वह फ्रस्ट्रेशन में चिड़चिड़ाती और चिल्लाती थी। इतना चंचल व्यक्ति किस तरह नौ लंबे सालों तक बिस्तर पर पड़ा रह सकता है। और मुझे हर वक्त उसे हंसाना होता था। मुझसे डॉक्टर ने यही कहा था। उसकी आखिरी सांस तक मैं यही करता रहा। मैं उसके साथ हंसता था, उसके साथ रोता था।

आपकी तीसरी शादी? योगिता बाली के साथ?

वह एक मजाक था। मुझे नहीं लगता कि वह शादी के बारे में गंभीर थी। वह बस अपनी मां को लेकर ऑब्सेस्ड थी। वो यहां कभी नहीं रहना चाहती थी।

लेकिन वो इसलिए कि वह कहती हैं कि आप रात भर जागते और पैसे गिनते थे।

क्या तुम्हें लगता है कि मैं ऐसा कर सकता हूं? क्या तुम्हें लगता है कि मैं पागल हूं? खैर, ये अच्छा हुआ कि हम जल्दी अलग हो गये।

आपकी वर्तमान शादी?

लीना अलग तरह की इंसान है। वह भी उन सभी की तरह अभिने़त्री है लेकिन वह बहुत अलग है। उसने त्रासदी देखी है। उसने दुख का सामना किया है। जब आपके पति को मार दिया जाए, आप बदल जाते हैं। आप जिंदगी को समझने लगते हैं। आप चीजों की क्षणभंगुरता को महसूस करने लगते हैं। अब मैं खुश हूं।

आपकी नयी फिल्म? क्या आप इसमें भी हीरो की भूमिका निभाने जा रहे हैं?

नहीं, नहीं नहीं। मैं केवल निर्माता-निर्देशक हूं। मैं कैमरे के पीछे ही रहूंगा। याद है, मैंने तुम्हें बताया था कि मैं एक्टिंग से कितनी नफरत करता हूं? अधिक से अधिक मैं यही कर सकता हूं एकाध सेकेंड के लिए स्क्रीन पर किसी बूढ़े आदमी या कुछ और बनकर दिखाई दूं।

हिचकॉक की तरह?

हां, मेरे पसंदीदा निर्देशक। मैं दिवाना हूं लेकिन सिर्फ एक चीज का। हॉरर फिल्मों का। मुझे भूत पसंद हैं। वो डरावने मित्रवत लोग होते हैं। अगर तुम्हें उन्हें जानने का मौका मिले तो वास्तव में बहुत ही अच्छे लोग। फिल्मी दुनिया वालों की तरह नहीं। क्या तुम किसी भूत को जानते हो?

बहुत दोस्ताना वाले नहीं।

लेकिन अच्छे, डरावने वाले?

दरअसल नहीं।

लेकिन हमलोग एक दिन ऐसे ही होने वाले हैं। इसकी तरह (एक कंकाल की तरफ इशारा करते हैं जिसे वो सजावट की तरह प्रयोग करते हैं। कंकाल की आंखों से लाल प्रकाश निकलता है) – तुम यह भी नहीं जानते कि यह आदमी है या औरत। लेकिन यह अच्छा है। दोस्ताना भी। देखो, अपनी गायब नाक पर मेरा चश्मा लगा कर ये ज्यादा अच्छा नहीं लगता?

सचमुच, बहुत अच्छा।

तुम एक अच्छे आदमी हो। तुम जिंदगी की असलियत को समझते हो। तुम एक दिन ऐसे ही दिखोगे।

प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-

कैलाश बनवासी:-
किशोर कुमार की दुनिया वह नहीं थी जिसमें हम रहते हैं.यह उल्टी दुनिया को सिर के बल खड़ा होकर देखने की कवायद थी जो उनको खूब भाता था. बधाई इस पोस्ट के लि़ये.

पूनम:-
*किशोर कुमार*  *उर्फ* *आभास कुमार  कुंजीलाल* *गांगुली*।
*जन्म-04अगस्त-1929*
*(खंडवा मध्यप्रदेश)*
*निधन-13अक्टोबर-1987* *-----------------*

किशोर कुमार जितना अपने टैलेंट के लिए जाने जाते थे, उनकी निजी जिंदगी के किस्से भी उतने ही ज्यादा रोचक हैं। एक्टिंग और सिंगिंग में अपने लाजवाब अंदाज के लिए पहचाने जाने वाले किशोर दा के बारे में कम ही लोग जानते होंगे कि वे तब तक कोई काम नहीं किया करते थे, जब तक कि उन्हें पैसा न मिल जाए। यदि किसी ने आधा पैसा दिया तो वे काम भी आधा ही छोड़ दिया करते थे। उनके इस अक्खड़ स्वभाव के कारण कई फिल्म निर्माता उनके साथ काम करने में हिचकिचाते थे।

किस्सा नंबर 1. आधा पैसा-आधा काम

एक बार की बात है किशोर कुमार किसी फिल्म की शूटिंग कर रहे थे और प्रोड्यूसर ने उन्हें आधे ही पैसे दिए थे। कहते हैं कि इससे खिन्न होकर किशोर आधा मेक-अप करके ही शूटिंग सेट पर आ गए। जब डायरेक्टर ने उनसे पूरा मेक-अप करने के लिए कहा तो उन्होंने कहा कि 'आधा पैसा, आधा काम। पूरा पैसा, पूरा काम'।

किस्सा नंबर 2. जब 'तलवार' के घर के आगे तानी तलवार

किशोर कुमार की जिंदगी का एक मजेदार किस्सा फिल्म निर्माता आर. सी. तलवार से जुड़ा हुआ है। एक बार वे उनके साथ काम कर रहे थे, लेकिन आर. सी तलवार ने उन्हें आधे पैसे दिए। फिर क्या किशोर दा तो थे ही अपने उसूल के पक्के, वे रोज सुबह तलवार लेकर निर्माता के घर के सामने पहुंच जाते थे और जोर-जोर से चिल्लाने लगते थे, "हे तलवार, दे दे मेरे आठ हजार... हे तलवार, दे दे मेरे आठ हजार..."।

किस्सा नंबर 3. पेड़ों से करते थे बातें

किशोर कुमार के बारे में कहा जाता है कि वे अक्सर पेड़ों से बातें किया करते थे। 1985 में प्रीतीश नंदी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि उनका कोई दोस्त नहीं है और दोस्त बनाने की बजाय वे पेड़ों से बात करना बेहतर समझते हैं।

किस्सा नंबर 4. घर के बाहर बोर्ड : 'किशोर से सावधान'

किशोर दा के बारे में कहा जाता है कि वे अपने घर के बाहर एक बोर्ड लगाया करते थे, जिसपर लिखा होता था, 'किशोर से सावधान'। इस अजीब घटना के पीछे का राज आज तक कोई नहीं जान सका।

किस्सा नंबर 5. जब कांग्रेस ने लगाया गीतों पर बैन

बात आपातकाल के दौर की है। इस दौरान कांग्रेस ने किशोर दा के गीतों पर बैन लगा दिया था। दरअसल, उस समय कांग्रेस बुरे दौर से गुजर रही थी। उन्हीं दिनों पार्टी ने किशोर को मुंबई रैली के दौरान परफॉर्म करने को कहा, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। कांग्रेस को किशोर दा का इनकार करना नागवार गुजरा और उन्होंने दूरदर्शन और रेडियो पर उनके गीतों के प्रसारण पर रोक लगा दी। कहा जाता है कि यह रोक कांग्रेस के दिग्गज नेता वीसी शुक्ला ने लगाई थी, जिनका 2013 में नक्सली हमले में निधन हो गया है।

किस्सा नंबर 6. गोभी के शौकीन

किशोर दा को गोभी बहुत पसंद थी। कहते हैं कि वे अपने परिवार से कहा करते थे, "गोभी काटो और मुझे पूरी तरह उससे ढक दो। इसके बाद भी मैं अंदर ही अंदर पूरी गोभी खा जाऊंगा। हो सकता है कि मैं इसके बाद भी संतुष्ट न हो पाऊं।"

किस्सा नंबर 7. हॉरर फिल्मों से लगता था डर

किशोर ने एक बार खुद यह स्वीकारा था कि वे हॉरर फिल्में देखने से बहुत डरते हैं। उन्होंने कहा था, "मैं मानता हूं कि मैं थोड़ा पागल हूं, लेकिन सच में मुझे हॉरर फिल्में देखने से बहुत डर लगता है। मैं इनसे कभी फ्रेंडली नहीं हो पाया हूं।

किस्सा नंबर 8. काट लिया था एच.एस. रावेल का हाथ

एक बार प्रोड्यूसर और डायरेक्टर एच.एस. रावेल किशोर के फ्लैट पर कुछ पैसा चुकाने गए थे जो उन्होंने कभी उनसे उधार लिया था। किशोर ने उनसे चुपचाप पैसा ले लिया। इसके बाद, जब रावेल ने उनसे हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाया तो किशोर ने उस हाथ को पकड़कर दांत से काट लिया था और कहा 'Didn’t you see the sign?' इस पर रावेल हंस तो दिए, लेकिन तुरंत वहां से रवाना भी हो लिए थे।

किस्सा नंबर 9. मुंबई को कहा बदसूरत शहर

किशोर कुमार की अंतिम इच्छा भी उन्हीं की तरह स्पेशल थी। मुंबई में रहते हुए भी वे अपने घर खंडवा की खूब चर्चा किया करते थे। फिल्म इंडस्ट्री से संन्यास लेने के बाद किशोर खंडवा में ही बस जाना चाहते थे। हालांकि, उनकी यह इच्छा पूरी न हो सकी। जब उनका निधन हुआ तो अंतिम इच्छा के अनुसार, खंडवा में उनका अंतिम संस्कार किया गया। मुंबई के बारे में वे कहा करते थे, 'इस बदसूरत शहर में मरना कौन पसंद करेगा।

संदीप कुमार:-
किशोर कुमार के चरित्र का एक अलग पहलू ऒ पी रल्हन के संस्मरण में  झलकता है-
मधुबाला सभी बहनों से अलग, अब्बा के मन में एक खास जगह बनाये हुए थी। उसकी गाना सीखने की इच्छा को सब मुश्किलों के बावजूद पूरा करने की कोशिश की गयी। दिल्ली आकाशवाणी पर उसे प्रोग्राम मिलने लगे। जिसने सुना उसी ने उसे सराहा। खां साहब के दोस्तों ने सलाह दी कि यहां इस लड़की की प्रतिभा को पनपने का अवसर नहीं मिलेगा। मुंबई जाना (इंपीरियल टुबैको कंपनी के एक पदाधिकारी खान अताउल्ला खान की तीसरी लड़की का) बिरादरीवालों ने विरोध किया। एक मुसलमान अपनी पर्दानशीं लड़की को फिल्मों में काम करवाने की मंशा से मुंबई ले जाएगा, यह बात उनको बड़ी नागवार गुजरी, पर खान साहब अपनी धुन के पक्के थे, जो सोच लिया, वह पूरा करते थे।

‘बांबे टाकीज’ में कुछ लोगों से मिलने की कोशिश की, दिनभर धूप में बच्ची को लेकर बैंच पर बैठे रहते। किसी से मिल भी पाते, तो सुनने को मिलता, ‘ये कोई यतीमखाना नहीं, जो कोई आये और भर्ती हो जाए’ … पर हिम्मत नहीं हारी। कुछ ही दिनों में ‘मुमताज शांति’ और उनके पति ‘वली साहब’ तक मुमताज के गाने की तारीफ पहुंची। उनको अपनी फिल्म में एक बच्ची की जरूरत थी। इस तरह फिल्म ‘वसंत’ में ‘मुमताज शांति’ की बेटी के रोल में बेबी मुमताज (मधुबाला) ने फिल्मों में सन 1942 में पहला कदम रखा।

इसके बाद इधर-उधर छोटे-छोटे रोल मिलने लगे। इसी बीच खां साहब केदार शर्मा के संपर्क में आये। वे राजकपूर और कमला चटर्जी (केदार शर्मा की पत्नी) की फिल्म ‘नीलकमल’ को डायरेक्ट कर रहे थे। मुमताज को कमला की सहेली का रोल मिला। दिनभर उनकी रिहर्सल देखते-देखते मुमताज को उन सभी के डायलाग रट गये थे। इस फिल्म का मुहूर्त होने वाला था। सभी सेट पर पहुंच चुके थे। कमलाजी रोज सबका खाना साथ लाती थीं, इसलिए देर में आनेवाली थीं, सभी प्रतीक्षा में थे। हीरो, सपोर्टिंग कास्ट, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर … सब मौजूद पर हीरोइन कहीं नहीं। अचानक फोन आया, ‘कमलाजी नहीं रहीं।’ सब लोग सकते में आ गये। केदार शर्मा तो पागल जैसे हो गये, पत्नी के स्वर्गवास ने उन्हें गहरी चोट पहुंचायी। कुछ दिन वे काम से विरक्त रहे, फिर जुटे तो एक दिन बातों-बातों में कहा, ‘मैं सोचता हूं हीरोइन की जगह मुमताज (मधुबाला) को ले लूं।’ खां साहब ने कहा, ‘ठीक है आप उनके पति वली साहब से बात कर लीजिए।’ केदार शर्मा ने फिर बताया, ‘मैं बेबी मुमताज की बात कर रहा हूं, आपकी बेटी की।’ इस तरह ‘बेबी मुमताज’ 1947 में ‘नीलकमल’ में ‘मधुबाला’ बन गयी।

तेरह साल की बच्ची देखने में अपनी उम्र से ज्यादा बड़ी लगती थी। शिक्षा के नाम पर थोड़ी-सी उर्दू पढ़ लेती थी, पर उसकी प्रखर प्रतिभा ने सबकी शंकाओं को निर्मूल सिद्ध कर दिया। ‘नीलकमल’ बेहद पसंद की गयी। फिर तो हर तरफ से मांग बढ़ती गयी। उनकी यादगार फिल्मों में दुलारी (1949), महल (1949), बादल (1951), संगदिल (1952), अमर (1954), मि एंड मिसेज 55 (1955), चलती का नाम गाड़ी (1958), हावड़ा ब्रिज (1958), काला पानी (1958), फाल्गुन (1958), बरसात की रात (1960), झुमरू (1960), मुगले आजम (1960), पासपोर्ट (1961), हाफ टिकट (1962), शराबी (1964) आदि के नाम लिये जा सकते हैं। इस अभिनय यात्रा में 13 साल की उम्र से फिल्में करते-करते उनकी कला में निखार आता गया।

शुरू में अभिनय की अपेक्षा रूप पर ही सबका ध्यान था। ‘महल’ की रहस्यमयी सुंदरी के रूप में देखकर फिल्मी दुनिया चौंकी। फिर तो उस समय के सभी शीर्ष अभिनेता अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देवानंद, रहमान के साथ काम करने का उन्हें अवसर मिला। एक बार हंसना शुरू करने पर हंसी रुकती नहीं थी, समझो उस दिन का काम ठप्प। खनकती हंसी के लिए वह अमर हो गयीं। उनके जिस्म का पोर-पोर शोखियों और शरारतों से भरा था। देवानंद के साथ ‘अच्छा जी मैं हारी’ (काला पानी) गाती हुई, किशोर की शैतानियों से टक्कर लेती मधुबाला को कौन भुला सकेगा?

16-17 साल की कच्ची उम्र की किशोरी ‘बादल’ और ‘साकी’ में प्रेमनाथ के संपर्क में आयीं। इस आयु के आकर्षण से पार पाना किशोर-किशोरियों के लिए मुश्किल होता है। पिता ने समझाने की कोशिश की, अभी तो फिल्मी जिंदगी की शुरुआत है। प्रेमनाथ भी उतने ही प्रेम में डूबे हुए थे। वे धर्म-परिवर्तन तक के लिए तैयार थे। इस सीमा तक जाने वाले प्रेमनाथ को अचानक शूटिंग के लिए विदेश जाना पड़ा। मधुबाला बेसब्री से उनका इंतजार कर रही थी, पर प्रेम लौटे तो ‘औरत’ फिल्म की हीरोइन बीना राय के पति बनकर। मधु का दिल पहली बार टूटा।

लगभग तैयार फिल्म ‘सय्याद’ में प्रेमनाथ के साथ आगे काम करना संभव न हो सका। उस जमाने में अताउल्ला खां साहब ने आठ लाख डुबोकर फिल्म ठप्प कर दी थी। जरा संभली तो ‘तराना’, ‘संगदिल’ और ‘अमर’ बनने के दौरान दिलीप कुमार का साथ मिला। ‘तराना’ फिल्म की किशोरी के रूप में मधुबाला और संजीदा डॉक्टर की भूमिका में दिलीप कुमार … दोनों के बीच आकर्षण बढ़ता गया और अगली फिल्मों में रिश्ते मजबूत हुए, पर न जाने ‘किसकी लगी जुल्मी नजरिया’, प्यार परवान न चढ़ सका।

इन्हीं दिनों वह ‘बहुत दिन हुए’ की शूटिंग के दौरान मद्रास गयीं, दक्षिण में काम करनेवाली वे पहली नायिका थीं। वहीं पर एक मनहूस सुबह मधु के गले से खून की धार सी फूट निकली। प्रोड्यूसर श्रीवासन के घर में ही वे सपरिवार रह रहीं थीं। उन्होंने इलाज में जमीन-आसमान एक कर दिया। यूसुफ साहब (दिलीप कुमार) मुंबई से डॉ शिरोडकर को लेकर आये। मधुबाला को तीन माह तक श्रीवासन के घर पर ही बेड रेस्ट के लिए कहा गया, सबने समझा, संकट टल गया मगर प्राणलेवा रोग उसी समय से अपनी जड़ें जमा चुका था।

मधुबाला दर्द को दरकिनार इससे बेखबर प्यार के नशे में डूबी थीं। नौ साल तक चले दिलीप के साथ इस रिश्ते को सभी ने कुबूल कर लिया था। इनकी जोड़ी पर्दे पर हिट थी, व्यक्तिगत जीवन में भी इस युगल को सराहा जाता था, अब्बा की चेतावनियां मनमानी करने से रोकती थीं, उन्मुक्त प्रेमी दिलीप कुमार को कभी-कभी यह बंदिशें नागवार गुजरने लगीं थीं। यह छोटी-छोटी खलिशें ‘नया दौर’ (निर्माता-निर्देशक) की शूटिंग के दौरान सामने आने लगीं।

पिता अताउल्ला खां ने कभी मधु को मुंबई से बाहर नहीं भेजा था। वे जानते थे कि एक तो सौंदर्य को बार-बार अनावृत्त करने से आकर्षण फीका पड़ने का डर रहता है। दूसरे उन्मादी भीड़ के अनियंत्रित उत्साह से अपमान की आशंका रहती थी। यह सब सोचते हुए शूटिंग के लिए बाहर जाना मना हो गया। बहुत कहा-सुनी हुई। बीआर चोपड़ा ने अनुबंध तोड़ने के लिए केस कर दिया। यह केस बहुत दिन चला। मधुबाला को जब भी कोर्ट जाना पड़ता, लोग हजारों की संख्या में एक झलक पाने के लिए कोर्ट के बाहर उमड़ आते। इस कोर्ट केस में नुकसान की भरपाई के लिए शौक से बनाया गया बंगला (किस्मत) बेचना पड़ा।

इसके बाद जिंदगीभर मधुबाला को ‘अपना’ घर न मिल पाया। सबसे बड़ी त्रासदी तब हुई, जब दिलीप कुमार बीआर चोपड़ा के पक्ष में चले गये। बहस में गवाही के दौरान भरी कचहरी में दिलीप कुमार ने अताउल्ला खां को ‘बेटी की कमाई पर रहनेवाला बाप’ तक कह डाला। इससे आहत होकर मधुबाला ने एक झटके में दिलीप कुमार से नाता तोड़ लिया। बाद में वे कई बार मनाने के लिए आये, मगर मधु की एक ही शर्त थी – ‘अब्बाजी के पैरों में पड़कर माफी मांगो।’ दोनों का झूठा अभिमान, प्यार के रिश्तों को मथता रहा। ‘मुगले आजम’ में ज्यादातर अनबोला था दोनों में। पर दिलों में गहरे बसा हुआ प्यार हमेशा वैसा ही बना रहा। इस तरह तृप्ति देनेवाला प्यार का निर्मल झरना सामने बहता रहा, पर दोनों अपनी-अपनी सीमाओं में बंधे प्यासे ही रहे।

‘मधुबाला’ की जिंदगी में किशोर कुमार का आना माता-पिता के अनुसार मौत (यमराज) का हावी होना था। किशोर कुमार पर मधुबाला का जादू इस कदर चढ़ गया था कि वह कई-कई घंटे मधु के घर पर आकर बैठे रहते। वह इतनी आजिज आ जातीं कि घर आने से पहले फोन करके पूछ लेतीं, ‘वह बैठा है क्या?’ और फिर घंटों गाड़ी को सड़कों पर घुमाती रहतीं। यह तरीका भी अक्सर बेअसर रहता। अपने प्यार को सिद्ध करने के लिए किशोर कभी पंखे में हाथ दे देते, तो कभी सड़क पर लेट जाते। घरवालों को भी कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था। इधर बीमारी और कमजोरी बढ़ती जा रही थी।

फिर एक दिन किशोर को समझाया गया कि बीमार से शादी करके क्या करोगे? मधुबाला के चेहरे पर अभी तक बीमारी के निशान नहीं देखे जा सकते थे। शायद इसीलिए किशोर भी इसी भुलावे में थे कि ठीक हो जाएगी। मधु उसके प्यार के पागलपन के जाल में आ गयी और शादी के लिए ‘हां’ कर दी। इलाज के लिए ‘लंदन’ जाने से पहले 16 नवंबर, 1960 को उनकी शादी हो गयी। लंदन में भी उनकी बीमारी को लाइलाज ही बताया गया। लौटकर ससुराल गयीं।

नौ साल की शादी में कुल तीन महीने ससुराल रहीं। सास का बार-बार का ताना सुनती, ‘तू बीमार रहती है, तेरा क्या फायदा, छोड़ दे इसे।’ अपमानित-आहत होकर वह मायके लौट आयी। रोग तन को छलनी कर रहा था और पति की उपेक्षा मन को। ससुराल से दूर एकांत में उसके प्यार को पाने की तमन्ना से वह कार्टर रोड पर एक फ्लैट में रहने लगीं। वहीं उनके हृदय रोग के साथ काली खांसी भी जुड़ गयी। अब कभी-कभी पुरुष (पति) का पौरुष भी दिखाया जाने लगा। मौन सिसकियां पड़ोसियों तक पहुंचतीं तो मां-बाप तक भी आहट पहुंच ही गयी। मधु, मां के घर लौट आयी।

अब नित्य नये औलिया और फकीरों के कदमों पर सर रखकर शौहर को पाने की दुआएं मांगतीं। अकेलेपन को दूर करने के लिए रोज रिकार्ड प्लेयर पर किशोर के एलपी सुनती रहतीं। सुननेवाले उनकी निष्ठा पर आश्चर्य करते। मधु के परिवार के सदस्य किशोर से विनती करते कि यह तुम्हारे बिना उदास रहती है, रोती रहती है। इसे अपने पास रखो। नर्स रख लो। शाम को तो तुम आ ही जाओगे। किशोर आधी रात को आते, घंटेभर बाद चले जाते। कभी कहते, ‘पंखा तेज करो।’ मधु के लिए हवा ठीक नहीं थी। एसी खरीदा गया। फिर कहते, ‘मुझे खुली हवा में सोने की आदत है। दिनभर काम करते-करते थक गया हूं। बत्ती बंद कर दो।’ 8 बजे आते, तो नौ बजे ड्राइवर लेने पहुंच जाता। मधु अपने हाथों से फलों की पुडिंग बनाकर रखतीं, पर सब अनखाया रह जाता। किशोर तीन-तीन महीने बिना बताये बाहर चले जाते। फोन काट देते। कभी आते तो बीमार-कमजोर मधु पति सेवा में लग जाती। उसके सिर में तेल डालती। नाखून काटती, पांव दबाती। मधुबाला का ‘हार्ट एनलार्ज’ हो चुका था। डाक्टर दिल में छेद होने की भी बात कह रहे थे। पहनने-ओढ़ने से उन्हें एकदम अरुचि हो गयी थी। बेहतरीन पोशाकों से अलमारी भरी थी पर वह रात-दिन ढीली-सी नाईटी ही पहने रहतीं।

बीमारी जोर पकड़ती जा रही थी। ‘पल्मनरी प्रेशर’ बढ़ता जा रहा था। हर पंद्रह दिन बाद अतिरिक्त रक्त उनके शरीर से निकाला जाता – नहीं तो नाक और गले से बहने लगता। इस अवस्था में भी उनकी जिजीविषा क्षीण नहीं हुई थी। दर्द से कराहते हुए भी घुटने मोड़कर प्रार्थना करती।

नौ साल की लंबी बीमारी में मधुबाला ने अकेलेपन को कैसे सहा होगा? हर त्यौहार पर चाहे वह ‘दीवाली’ हो या ‘ईद’, जिसके कमरे में फूलों और उपहारों के ढेर लग जाते थे, अब वही उजड़ा हुआ नजर आता था। जो लोग कार का दरवाजा खोलने के लिए भागकर आया करते थे कभी, अब टैक्सी के इंतजार में खड़ी मधुबाला को अनदेखा कर सर्र से निकल जाते। कभी-कभी कोई मिलने आता, तो बहुत खुश होतीं। नींद की चाहे कितनी गोलियां खातीं, पर पलक झपकती तक न थी। रात-रातभर रोती रहतीं। खुद इतनी बीमार थीं, पर किसी के छींकने की आवाज पर भी चौंक जातीं और कलमें पढ़-पढ़कर फूंकतीं।

रात को जरा-सी बात के लिए सबको सावधान करतीं। सोने से पहले रोज परिवारजनों, बहनों को फोन करतीं, ‘ए बहन, गैस बंद कर लीजो। सब चिटखनियां लगा लीजो।’ घर का एक भी सदस्य वक्त पर वापस नहीं लौटता, तो उनकी बेताबी शुरू हो जाती। सड़क पर दो-तीन आदमी बार-बार आते-जाते दिखाई पड़ते, तो फिर नीचे बहनों के घर फोन की घंटी बज उठती। ‘अरे ये लोग कौन हैं? जरा ध्यान से सोना।’ किसी का चेहरा फीका-सा दिखाई दिया, तो झटपट कोई टॉनिक खिलाने लगतीं। बच्चों से इस कदर प्यार था कि अक्सर मां से कहतीं, ‘अम्मा मैं सोचती हूं अब मेरे भी बच्चा होना ही चाहिए।’ मां अंदर ही अंदर मन मसोसकर रह जाती। डाक्टर का कहना था कि बच्चे को जन्म देना उनके लिए मृत्यु को आमंत्रित करना था। चार बहनों और मां-बाप की दुलारी बेटी तिल-तिलकर खत्म हो रही थी और वे सब बेबस थे।

लंबी बीमारी ने शरीर खोखला कर दिया था। एक रात उनकी चीखों ने सबको चौंका दिया। बहनें नीचे की मंजिल में रहती थीं फौरन पहुंच गयीं। जाकर देखा तो अब्बा-अम्मा सकते में थे। बेटी की पीड़ा सह नहीं पा रहे थे। डाक्टर बुलाया गया, पता चला ‘हार्ट अटैक’ है। बचना मुश्किल है। पति किशोर कुमार को खबर दी, उन्हें सुबह शूटिंग पर बाहर जाना था। बार-बार कहने पर आये, तो देखकर बोले, ‘ठीक तो है … ऐसी हालत तो हजारों बार हुई है।’ मधु ने कमजोर आवाज में कहा, ‘इससे कहो चला जाए यहां से।’ तब वह दूसरे कमरे में जाकर सो गये।

सुबह तक मधुबाला ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। शरीर स्थिर था, पर कोई तीन घंटे बाद बंद पलकों से न जाने कहां अटके हुए आंसुओं की धारा बह निकली थी। इस तरह 14 फरवरी, 1935 को शुरू हुआ सफर 23 फरवरी, 1969 को बिना साथी, बिना मंजिल के खत्म हो गया। सांताक्रूज के कब्रिस्तान में मधुबाला को सुपुर्दे खाक कर दिया गया। संगेमरमर की बनी मजार पर उनका प्यारा शेर इस तरह से लिखा गया – ‘उम्रे दराज मांगकर लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गये दो…

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