आज पढ़ते है एक अनुवादित कविता मक्सिम गोर्की जी की ।
यह विख्यात कविता गोर्की ने 1905 की पहली रूसी क्रान्ति के दौरान क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग की अपार ताकत और साहसिक युगपरिवर्तनकारी भूमिका से परिचित होने के बाद उद्वेलित होकर लिखी थी जो पूँजीवादी दुनिया की अमानवीयता को सर्वहारा वर्ग द्वारा दी गर्इ चुनौती का अमर दस्तावेज बन गई। अपनी गुलामी की बेड़ियों को तोड़कर पूरी मानवता की मुक्ति और उत्कर्ष के लिए पूँजीवादी विश्व के जालिम मालिकों के विरूद्ध तफानी रक्तरंजित संघर्ष की घोषणा करने वाले शौर्यवान और साहसी सर्वहारा को गोर्की ने इस कविता में बादलों और समुद्र के बीच गर्वीली उड़ानें भरते निर्भीक पितरेल पक्षी के रूप में देखा है जो भयानक तूफान का चुनौतीपूर्ण आहावन कर रहा है। समाज के कायर, बुजदिल बुद्धिजीवियों तथा अन्य डरपोक मध्यमवर्गीय जमातों को गोर्की ने तूफान की आशंका से भयाक्रान्त गंगाचिल्लियों, ग्रेब और पेंगुइन पक्षियों के रूप में देखा है। जिस क्रान्तिकारी तूफानी परिवर्तन का आना निश्चित है, ऐतिहासिक नियति है और जिसके बिना मानव समाज और मानवीय मूल्यों की मुक्ति और उत्कर्ष असम्भव है, उसके भय से अपनी मान्दों में दुबकने वाले समाज के ग्रेब, पेंगुइन और गंगाविल्लियों के समानान्तर पितरेल सर्वहारा वर्ग के साहस, जीवन दृष्टि और भावनाओं-मूल्यों को जितने सुन्दर बिम्बों-रूपकों में बान्धकर गोर्की ने यहां प्रस्तुत किया है वह अद्वितीय है।
-सम्पादक
"तूफानी पितरेल पक्षी का गीत"
समुद्र की रूपहली सतह के ऊपर
हवा के झोंकों से
तूफान के बादल जमा हो रहे हैं और
बादलों तथा समुद्र के बीच
तूफानी पितरेल चक्कर लगा रहा है
गौरव और गरिमा के साथ,
अन्धकार को चीरकर
कौंध जाने वाली विद्युत रेखा की भान्ति।
कभी वह इतना नीचे उतर आता है
कि लहरें उसके पंखों को दुलराती हैं,
तो कभी तीर की भान्ति बादलों को चीरता
और अपना भयानक चीत्कार करता हुआ
ऊंचे उठ जाता है,
और बादल उसके साहसपूर्ण चीत्कार में
आनन्दातिरेक की झलक देख रहे हैं।
उसके चीत्कार में तूफान से
टकराने की एक हूक ध्वनित होती है!
उसमें ध्वनित है
उसका आवेग, प्रज्ज्वलित क्षोभ और
विजय में उसका अडिग विश्वास।
गंगाचिल्लियां भय से बिलख रही हैं
पानी की सतह पर
तीर की तरह उड़ते हुए,
जैसे अपने भय को छिपाने के लिए समुद्र की
स्याह गहराइयों में खुशी से समा जायेंगी।
ग्रेब पक्षी भी बिलख रहे हैं।
संघर्ष के संज्ञाहीन चरम आह्लाह को
वे क्या जानेंॽ
बिजली की तड़प उनकी जान सोख लेती है।
बुद्धू पेंगुइन
चट्टानों की दरारों में दुबक रहे हैं,
जबकि अकेला तूफानी पितरेल ही
समुद्र के ऊपर
रूपहले झाग उगलती
फनफनाती लहरों के ऊपर
गर्व से मंडरा रहा है!
तूफान के बादल
समुद्र की सतह पर घिरते आ रहे हैं
बिजली कड़कती है।
अब समुद्र की लहरें
हवा के झोंको के विरूद्ध
भयानक युद्ध करती हैं,
हवा के झोंके अपनी सनक में उन्हें
लौह-आलिंगन में जकड़ उस समूची
मरकत राशि को चट्टानों पर दे मारते हैं
और वह चूर-चूर हो जाती है।
तूफानी पितरेल पक्षी चक्कर काट रहा है,
चीत्कार कर रहा है
अन्धकार चीरती विद्युत रेखा की भान्ति,
तीर की तरह
तूफान के बादलों को चीरता हुआ
तेज धार की भान्ति पानी को काटता हुआ।
दानव की भान्ति,
तूफान के काले दानव की तरह
निरन्तर हंसता, निरन्तर सुबकता
वह बढा जा रहा है-वह हंसता है
तूफानी बादलों पर और सुबकता है
अपने आनन्दातिरेक से!
बिजली की तड़क में चतुर दानव
पस्ती के मन्द स्वर सुनता है।
उसका विश्वास है कि बादल
सूरज की सत्ता मिटा नहीं सकते,
कि तूफान के बादल सूरज की सत्ता को
कदापि, कदापि नहीं मिटा सकेंगे।
समुद्र गरजता है… बिजली तड़कती है
समुद्र के व्यापक विस्तार के ऊपर
तूफान के बादलों में
काली-नीली बिजली कौंधती है,
लहरें उछलकर विद्युत अग्निवाणों को
दबोचती और ठण्डा कर देती हैं,
और उनके सर्पिल प्रतिबिम्ब,
हांफते और बुझते
समुद्र की गहराइयों में समा जाते हैं।
तूफान! शीघ्र ही तूफान टूट पड़ेगा!
फिर भी तूफानी पितरेल पक्षी गर्व के साथ
बिजली के कौंधों के बीच गरजते-चिंघाड़ते
समुद्र के ऊपर मंडरा रहा है
और उसके चीत्कार में
चरम आह्लाद के प्रतिध्वनि है-
विजय की भविष्यवाणी की भान्ति….
आए तूफान,
अपनी पूरी सनक के साथ आए।
(यह अनुवाद ‘युयुत्सा’, मई-जून ’68 के अंक से साभार)
प्रस्तुति-बिजूका समूह
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टिप्पणियां
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प्रदीप मिश्रा:-
यह कविता कम गद्य ज्यादा है। हो सकता अनुवाद में मूल कविता के लय का निर्वाह नहीं हो पाया हो। गोर्की हमारे आदर्श लेखक हैं। उनका लेखकीय कौशल कथ्य और विचार में स्पष्ट है। कविता के शिल्प में यह गद्य स्वीकार्य नहीं है।
नीलिमा शर्मा निविया:-
Lambi gadhy Kavita . jyada prbhaavit n kar paayi
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