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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 दिसंबर, 2010

छः दिसम्बर एक तलाश

वरवर राव की यह कविता बिजूका पर प्रकाशन के लिए समय से गयी थी, लेकिन हमारी अत्यधिक व्यस्तता की वजह से इसका प्रकाशन देर से कर पा रहे हैं! इस देरी के लिए कवि और अनुवादक से क्षमाप्रार्थी हैं! वरवर राव की कविताओं को कला-व्याकरण आदि कविता को नामपने के सरल और सामान्य उपकरणों से नहीं नापा जा सकता! वरवर राव एक ऎसे कवि है जिन्हें राजनीतिक कसौटि पर परखने की ज़रूरत है ! हमारे समय में ऎसे कई कवि हैं जो कविता सिर्फ़ कला के लिए लिखते हैं..उनका देश में हो रही उथल-पुथल से कोई सरोकार नहीं होता है….उनकी कविताएँ आम जनता को तो समझ में नहीं ही आती, कई कवियों को भी नहीं आती है..वरवर राव की कविताओं के साथ ऎसा नहीं है.. यह संभव है कि उनकी कविता पाठक को एक टिप्पणी ही लगे..पर वह ज़रूरी टिप्पणी होती है.. यही उनकी विशेषता हैवरवर राव की इस कविता पर युवा कवि प्रदीप मिश्र की एक अलग टिप्पणी भी दी जा रही है.. उम्मीद है बिजूका के पाठक इस पर अपनी बात भी कहेंगे !

बिजूका

वरवर राव हमारे समय के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि हैं। उनकी कविताएँ हमें हमारे समय के राजनीतिक परिदृश्य को समझने की तमीज देती हैं। मिथकीय चेतना को संदर्भगत करते हुए उनकी कविता दिसम्बर एक अन्वेषण का उत्तरार्ध निश्चितरूप से स्वागत योग्य है। उन्होंने क्या बुद्ध की तरह सयाना ईश्वर पैदा नहीं होगा कह कर जिस भाव भूमि पर सवाल उठाया है, वह हमारे समय का ज्वलन्त सावल है, जिससे हमारे देश का हर जागरूक नागरिक दो-चार हो रहा है। लेकिन कविता के व्याकरण में यह कविता एक कमजोर कविता है। पहली बात तो बुद्ध ईश्वर नहीं थे। हम उन लोगों के ख़िलाफ़ हैं जो कबीर और बुद्ध जैसे संतों को ईश्वर घोषित करने में लगे हैं। वस्तुतः यह कविता अलग तरह की अच्छी कविता हो सकती है। लेकिन शुरू के अंश का विवरणात्मक विस्तार कविता को कमजोर करता है। यह समस्या अनुवाद की भी हो सकती है। लेकिन छः दिसम्बर के संदर्भ में जितनी राजनीतिक पुष्टता और वैचारिक तापमान की अपेछा बनती है, वह इस कविता में मौजूद नहीं है। एक औसत दर्जे की कविता की तरह से इसका स्वागत है। -

प्रदीप मिश्र

छः दिसम्बर एक तलाश

वरवर राव

न्यायाधीश शर्मा जी मोहित हो गए

उन टूटे-फूटे खंडहरों के विध्वंस में

सनातन की गंध महसूस हुई शायद

लेकिन

देर से बड़ी ख़्वाहिशों के बाद जन्मे उस बच्चे को

हद से ज़्यादा लाड़-प्यार दिया था शायद

कि वह लाड़ला सयाना हुआ ही नहीं

वोट डालने की उम्र से पहले ही

चाव से मुनियों के बुलाने पर चला गया जंगल

स्त्री समझकर भी हिचकिचाया नहीं मारने को

धनुष तोड़ने से लेकर बाण चलाने तक

जाने कैसी-कैसी विशिष्ट विद्याएँ सीख ली उसने

दुश्मनों को ही नहीं

माता-पिता को भी दुःख देकर मारने वाला

संदेह को ही प्यार का प्रमाण मानकर

जीवन-साथी को जंगल के हवाले कर देने वाला

दंडकारण्य में और श्रीलंका में

उस जमाने में भी

आॉपरेशन ग्रीनहंट और आइ पी के एफ

चलाने वाला आदर्श नरेश

देश को खड़ाऊ का पालन और दासता प्रदान करने वाला

पिरामिड या फासिल की तरह

दर्शन या प्रदर्शन के लिए हो तो

नमन किया जा सकता है

या उपेक्षा की जा सकती है

जाषुवा ने कहा था

साँपों को दूध पिलाकर

पत्थर के देवता को नैवेद्य समर्पित करने वाले देश में

साँपों के दाँत निकल आते

देवताओं के हाथों के हथियार ज़िन्दा हो जाते

और

बाबरी, गुजरात, कन्दमाल

मृत्यु-क्षेत्र बनते जाते

स्वार्थ का विकृत तीसरा पैर उग आया

और धरती के लिए

महाबलि को विस्थापित करने वाले वामन को

'सेज़' जन्मभूमि के वासियों के लिए

हल चलाने वालों को

अपनी ज़मीन से बेदखल करने वाले वामन के वारिसों को छोड़

हमारी पुण्य भूमि में

क्या बुद्ध की तरह कोई सयाना ईश्वर

पैदा नहीं होगा…….?

30.11.2010

अनुवादः आर. शान्ता सुन्दरी