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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 जून, 2010

अफगानिस्तान के बच्चों- मत रोओ

बिजूका लोक मंच की तरफ़ से फ़िल्म ‘ओसामा’ की तीसरी प्रस्तुति खजराना के अल फलाह स्कूल में 12 जून को की गयी।

पीटर थीस

‘ओसामा’ पहली फ़िल्म है जो कि अफगानिस्तान में तालिबान शासन के बाद बनाई गई। ये एक छोटी-सी कहानी है उन परिणामों की जो कि एक परेशान परिवार द्वारा अनसोचे जुर्म के तहत उठाया जाता है जिससे कि वे अपनी बेटी को बेटा बनाकर आजिविका कमाने के लिए भेजने को बाध्य होते हैं।

एक फ़िल्म की ख़सियत ये होती है कि वो वास्तविकता के क़रीब हो वरना वो पत्रकारिता से अधिक कुछ नहीं होती है। इस परिपेक्ष्य में लेखक/ निर्देशक / सम्पादक- सिद्दिक बरमाक पूरी तरह से सफल हुए हैं। जब हम बारह वर्षीय लड़की (मारिया गोलाबारी) को संघर्ष करते हुए देखते हैं तो हमारा दिल फट जाता है। वो स्क्रीन से निकलकर हमारे दिलों को भेद जाती है।

फ़िल्म एक प्रदर्शन से शुरू होती है।, जिसमें आसमानी रंग का बुर्का पहने कई औरतें तालिबान के विरुद्ध नारे लगा रही होती हैं। ये सभी एक धुल भरी चट्टान पर चल रही हैं और अपने लिए काम का अधिकार माँग रही हैं, जिससे कि वे अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें। इन सभी के पुरुष युद्ध में मारे जा चुके हैं। तालिबानी फौज इनके प्रदर्शन को हथियारों और पानी की तेज़ बौछारों से तितर-बितर कर देती हैं।

बरमाक ने इस हिंसा को प्रतिकात्मक रूप से दर्शाया है, जिसमें कि एक बुर्का पानी के बहाव में नीचे रास्ते की ओर बह जाता है। ऎसा बतलाकर वे हमें तालिबानियों के अत्याचारों से भली-भाँति परिचित करवा देते हैं। पूरी फ़िल्म के दौरान ये अत्याचार चलता रहता है, जिससें तालिबान ऎजेंटों की घुसपैठ सभी सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत स्थानों पर होती रहती है।

इस फ़िल्म की मुख्य किरदार इस प्रदर्शन में पकड़ी जाती है और अत्यधिक भयभीत हो उठती है। उसकी किशोरवय आँखों में ये तालिबानी सैनिक किसी शत्रु से कम नहीं होते हैं। पर चूँकि उसकी माँ (ख्वाजा नादेर) के पास और कोई उपाय नहीं होता, इसलिए वो अपनी इस बेटी को बेटा बनाकर इन तालिबानियों के बीच से काम पर भेजती है। तालिबानियों के खौफ़ से शादी के मौक़े पर होने वाला गाना-बजाना झूठ-मूठ मौत के मातम में बदल दिया जाता है। पूरी फ़िल्म में औरतों का जीवन के प्रति और ज़िन्दा बचे रहने का संघर्ष दिखाया गया है। वे जब घर से बाहर किसी भी काम से निकलती है, तो किसी पुरुष के साथ…। उनके घर में कोई पुरुष नहीं बचा है तो किसी और के साथ… क्योंकि अकेली औरत को तालिबानियों का खौफ़ बाहर निकलने से रोकता है ।

जब इस लड़की को लड़कों के साथ मदरसा में दाखिल किया जाता है तो वह अपने स्वाभाविक स्त्रैण गुणों को छुपाने में असमर्थ होती है। वो पगड़ी नहीं बाँध पाती, पेड़ पर नहीं चढ़ पाती, साहस कर चढ़ जाती है॥ तो उतरने में डरती है। यही सब उसे अपने सहपाठियों में संदेह के घेरे में खड़ा करती है और उसे अपना लड़की होना, छुपाने में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऎसे में एक लड़का जो कि भीखारी है और जिसे लड़की से स्नेहातीक सहानुभूति है। वह जानता है कि लड़की वास्तव में लड़का नहीं है। पर लड़के उसे परेशान न करे इसलिए वह उसे लड़का बताता है। हर क्षण उसकी मदद करता है। उसका नामकरण भी वही करता है- ओसामा। जोकि वहाँ पर ओसामा बिन लादेन एक तालिबानी योद्धा का प्रतीक है। मदरसे का एक बूढ़ा और भ्रष्ट मौलाना उस पर मोहित हो जाता है।

इसके बाद फ़िल्म में कुछ बहुत अच्छे और सोचने पर मजबूर करने वाले दृश्य हैं- जैसे लड़की को बाँधकर कुएँ में उतारना॥ उसे पंचायत में कट्टरपंथी मुल्लाओं द्वारा अन्यायपूर्ण फैसला सुनाया जाना एवं एक रस्सी में अनेकों ताले लेकर उसे अपनी पसंद का ताला चुनने के लिए कहना। फ़िल्म का सारांश यही है कि चाहे कोई भी परिस्तिथि हो.., औरत का स्थान वही निर्धारित होता है.. जो पुरुष चाहता है।

फ़िल्म ओसामा की सफलता का कारण उसका तालिबान के शासन के बाद बनी पहली फ़िल्म के कारण है। यह 35 mm के कैमरे पर फ़िल्माई गई है। यह फ़िल्म युनान के ‘स्पार्टा देश’ की सच्ची कहानी पैश करती है। ओसामा बनी लड़की अभिनय के क्षेत्र में एक ग़ैर व्यावसायिक किशोरी है, जिसे निर्देसक ने वहाँ की गलियों में से ढूँढा है। लड़की अपनी भूमिका में अपने भय और असमंजस को व्यक्त करने में बेहद सफल रही है। फ़िल्म की स्क्रीप्ट बहुत चुस्त है। निर्देशक ने रसिया के एन्द्री तारकोव्यस्की और ईरान के अब्बास … के प्रभाव को पैदा किया है। यह एक सशक्त फ़िल्म बनकर उभरी है।

संभव है कि कोई विश्लेषणकर्ता इसे इस्लाम विरोधी समझे या अमेरिका के अनुचित हस्तेक्षेप को सही ठहराए। क्या फ़िल्म इस विचार को सही ठहरा सकती है जिसके तहत तालिबानियों द्वारा औरतों के हक़ों को मर्दों द्वारा रौंदा गया ॥?
इस तरह के कई सवाल उठाए जा सकते हैं॥ परन्तु ‘बरमाक साहब’ इन सबसे बचकर निकल सकते हैं, यह कहते हुए कि यह फ़िल्म तो एक स्थानीय फ़िल्म है, जिसमें उन्होंने तालिबानियों के इस्लाम के उसुलों का सरलीकरण नहीं किया है, बल्कि पुलिस शासन में किस प्रकार मृत्यु के दर्द को ज़िन्दगी जीने के लिए झेला जाता है, यह बताया गया है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि एक ज़हरीले समाज में जीवन जीने की उत्कंठा की कल्पना को बड़े ही सुन्दर ढँग से फ़िल्माया गया है, जिसे समझदार दर्शकों और समीक्षकों की ज़रूरत है।
अनुवादः रेहाना

22 जून, 2010

पंजाब के पानी में यूरेनियम

मीनाक्षी अरोड़ा


यूरेनियम का कहर पांच नदियों का द्वाब पंजाब, अब बे-आब हो रहा है। आर्सेनिक के बाद पंजाब के एक बड़े इलाके के भूजल और सतही जल में यूरेनियम पाया गया है। दक्षिण पश्चिम पंजाब क्षेत्र में “सेरेब्रल पाल्सी” से पीड़ित बच्चों के बालों में यूरेनियम के अंश पाये गए है। हाल ही में जर्मनी की एक लैब ने फरीदकोट के एक मंदबुद्धि संस्थान “बाबा फ़रीद केन्द्र” के बच्चों के बालों पर शोध के बाद रिपोर्ट दी है। जर्मनी की माइक्रो ट्रेस मिनेरल लैब की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि शोध किये गए लगभग 150 बच्चों के बालों में 82 से लेकर 87 प्रतिशत तक यूरेनियम पाया गया है। इस खुलासे के बाद गुरुनानक देव विश्वविद्यालय द्वारा एक विशेष वैज्ञानिक जाँच शुरु करने का फ़ैसला किया गया है।

डॉ अम्बेडकर नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी, जालन्धर के फ़िजिक्स विभाग में कार्यरत असिस्टेंट प्रोफ़ेसर डॉ रोहित मेहरा ने 34 गाँवों के विभिन्न हैण्डपम्पों के पानी का परीक्षण किया। उनके अनुसार पानी में यूरेनियम की उपलब्धता के मामले में सबसे ज्यादा खतरनाक स्थिति मंसा जिले की है। अध्ययन के अनुसार मिट्टी के नमूनों में भी यूरेनियम, रेडियम, थोरियम और पोटेशियम की मात्रा का स्तर भी काफ़ी उँचा पाया गया है। मेहरा कहते हैं “ऐसा सम्भवतः भटिंडा इलाके की तोशाम पहाड़ियों से आ रही मिट्टी के कारण हो सकता है, लेकिन इस सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालने के लिये और शोध तथा अध्ययन करने पड़ेंगे…”

इस समस्या ने परमाणु ऊर्जा वैज्ञानिकों का ध्यान भी आकर्षित किया और उन्होंने इलाके के पानी और मिट्टी का परीक्षण किया तथा बच्चों के विभिन्न मेडिकल टेस्ट भी किये। गुरुनानक देव विश्वविद्यालय के वरिष्ठ जियोफ़िजिसिस्ट डॉ सुरिन्दर सिंह बताते हैं, पहले भी पंजाब के मालवा इलाके के भूजल और सतह जल दोनों में रासायनिक परीक्षण में यूरेनियम की मात्रा मानक से ज्यादा स्तर पर पाई गई थी, इसलिये बच्चों के बालों में यूरेनियम का पाया जाना खतरे की घण्टी तो है, लेकिन यह अनपेक्षित नहीं है। वे आगे कहते हैं, पूर्व में किये गये विभिन्न अध्ययनों के अनुसार भटिण्डा जिले में पीने के पानी में यूरेनियम की सान्द्रता 30 माइक्रोग्राम प्रति लीटर तक पाई जा चुकी है, जबकि वैज्ञानिकों के अनुसार पानी में यूरेनियम का मानक स्तर 9 माइक्रोग्राम प्रति लीटर से अधिक नहीं होना चाहिये।

पंजाब सरकार पंजाब के विभिन्न इलाकों में 200 रिवर्स ऑस्मोसिस (आरओ) संयंत्र लगाने की योजना बना रही थी। रिवर्स ओस्मोसिस एक प्राकृतिक लेकिन वैज्ञानिक प्रक्रिया होती है जिससे पानी में भारी धातुओं की उपस्थिति को कम किया जाता है। इस प्रक्रिया के द्वारा जल को प्रदूषण मुक्त करके उपयोग करने लायक बनाया जाता है। लेकिन अब पंजाब के मालवा इलाके, खासकर भटिंडा, फ़रीदकोट, मंसा, संगरूर, मुक्तसर और मोगा आदि यूरेनियम वाले इलाकों में यह योजना बेमानी हो गई है। अन्य हेवी मेटल्स (जैसे आर्सेनिक, क्रोमियम, लौह, आदि) की तरह यूरेनियम को आरओ से निष्क्रिय नहीं किया जा सकता। अब अन्य किसी वैकल्पिक योजना पर काम करना पड़ेगा।
अपंग होते बच्चे

फरीदकोट के छोटे से इलाके में बच्चों में शारीरिक विकृतियां देखी जा सकती हैं जैसे-बड़ा सिर, फूली हुई आंखें, मुड़े हाथ और मुड़े पैर। इन असमान्यताओं की जांच के लिए पिछले दिनों बच्चों के बालों के सैंपल साउथ अफ्रीकी टॉक्सिकॉलजिस्ट डॉ. करीन स्मिट की पहल पर जर्मन लैब में भेजे गए थे। पर हाल ही में मिली लैब रिपोर्टों से पता लगा है कि शारीरिक गड़बड़ी की वजह असल में यूरेनियम की उच्च मात्रा होना है।

फरीदकोट के बाबा फरीद सेंटर फॉर स्पेशल चिल्ड्रेन के हेड पृथपाल सिंह कहते हैं, 'टेस्ट नतीजों से हम हैरान हैं क्योंकि पंजाब में यूरेनियम का कोई ज्ञात स्त्रोत नहीं है। यूरेनियम की बात उजागर होने पर अब जर्मन और साउथ अफ्रीकी डॉक्टरों की मदद से 150 अन्य प्रभावित बच्चों पर टेस्ट किए जा रहे हैं। इस बात की पड़ताल की जा रही है कि क्या यूरेनियम कहीं से रिसाव के कारण आया है या इसका स्त्रोत प्राकृतिक है।'

टेस्ट के सिलसिले में अपनी सहयोगी डॉ. वेरिर ड्रिर के साथ यहां आए जोहानिसबर्ग से टॉक्सिकॉलजिस्ट डॉ. स्मिट के मुताबिक, 'जब मैंने पहली बार ब्रेन डैमिज के इतने बड़े पैमाने पर सबूत देखे तो मुझे लगा कि ऐसा जहर के कारण हो रहा है। यूरेनियम के बारे में तो मैंने कतई सोचा भी नहीं था। पर डॉ. स्मिट की कोशिशों से जर्मन लैब में सच सामने आ गया।

डॉ. स्मिथ ने कहा कि यूरेनियम के असर से बच्चों को मुक्त करने के लिए डीटॉक्सीफिकेशन किया जाना जरूरी है। यह तभी संभव है जब भारत और पंजाब सरकार के अलावा समाजसेवी संस्थाएं भी आगे आएं। यूरेनियम से मुक्ति दिलाने के लिए हर बच्चे पर 3 से 6 लाख रुपए खर्च आएगा।

उन्होंने कहा कि भारतीय मंदबुद्धि बच्चों के बालों में यूरेनियम के अंश मौजूद होने का तो पता चल गया है लेकिन इसका असर शरीर के दूसरे हिस्सों पर कितना है, इसका पता करना भी जरूरी है। जिसके लिए सभी बच्चों के टेस्ट एकत्र कर लिए हैं जो जर्मनी की ‘माइक्रो ट्रेस मिनरल लेबोरेट्री’ को भेजे जा रहे हैं।
यूरेनियम कहां से आया

यूरेनियम वो पदार्थ है जिसे न्यूक्लियर रियेक्टर और बम में इस्तेमाल किया जाता है। सबसे बड़ा सवाल ये है कि ये यूरेनियम कहां से आया? बाबा फरीद स्पेशल चिल्ड्रेन सेंटर के हेड और वैज्ञानिक अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिकों के साथ इस विषय पर काम कर रहे हैं। इनकी मानें तो ये खतरनाक यूरेनियम अफगानिस्तान में चल रहे तालिबान और अमेरिका के युद्ध की देन है। अक्टूबर 2001 से लेकर 2003 तक अमेरिका ने तालिबानियों के बंकर तबाह करने के लिए 6 हज़ार से ज्यादा बमों और मिसाइलों का इस्तेमाल किया। इन बमों और मिसाइलों में 1 हजार टन से ज्यादा डिप्लेटिंग यूरेनियम का इस्तेमाल हुआ है। वैज्ञानिकों की मानें तो एक हजार किलोमीटर के दायरे में हवा, पानी और जमीन के जरिए इसके दुष्प्रभाव फैल सकते हैं। गौरतलब है कि भारत से अफगानिस्तान की सीमा महज 400 मील दूर भी नहीं है।

लेकिन अभी इस विषय पर एकतरफा कुछ भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अभी तक कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आए हैं। इंडिया वाटर पोर्टल हिंदी टीम लगातार विभिन्न सूत्रों से संपर्क बनाए हुए है और तथ्यों का पता लगाने के लिए प्रयत्न कर रही है। आपकी राय का इंतजार रहेगा।

साभार – स्रोत

1- नवभारत टाइम्स (फरीदकोट से प्रिया यादव की रिपोर्ट)
2 - भास्कर न्यूज (परमजीत सिंह की रिपोर्ट)

14 जून, 2010

थ्री इडियट्स के बहाने पढ़ाई के लिये लड़ाई

जिस तरह से मुन्ना भाई एम.बी.बी एस. की सफलता ने गाँधी के क्राँतिकारी विचारों को ‘ आँधी ’ दी थी वैसे ही ‘थ्री इडियट्स ’ के प्रदर्शन और सफलता ने पढ़ाई के लिए लड़ाई छेड़ दी है। ऎसा नहीं है कि शिक्षा पद्धति को लेकर प्रबुद्धजनों, शिक्षा पद्धति में बदलाव चाहते हैं। यह अलग बात है कि ये सवाल फ़िल्मी चकाचौंध, नाटकीयता, मनोरंजन, फ़िल्म स्टार्स के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ फ़िल्म थ्री ईडियट्स की चौंकाने वाली सफलता के जरिये ज़्यादा मौजू नज़र आ रहे हैं।

यदि हम फ़िल्म थ्री इडियट्स के निर्देशक एवं फाइव प्वाईंट समवन के लेखक चेतन भगत के बीच हो रही खींचातानी पर भी गौर करें, तब भी शि़क्षा पद्धति में मूलभूत परिवर्तन का मूल विचार न तो चेतन भगत का है, न ही थ्री इडियट्स फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक का। वस्तुतः शिक्षा में मूलभूत परिवर्तन का विचार करीब 40 वर्षों से अनेक शिक्षाविद, समाज शास्त्री, शिक्षक वैग्यानिक तथा एक्टिविस्ट एवं शि़क्षा से सरोकार रखने वाले लोग करते रहे हैं और विग्यान सम्मत, मनोरंजक, जीवन से जुड़ी सस्ती एवं समाज से जीवंत जुड़ाव रखने वाली शिक्षा की न केवल पैरवी करते रहे हैं, बल्कि ऎसी शिक्षा व्यवस्था की अधोसंरचना बनाने के लिए जीवटता से जुटे रहे हैं। यह बात अलग है कि इस काम में जुटे रहने वाले शिक्षा क्राँति दूतों एवं संस्थाओं की कल्पनाशीलता एवं श्रम को रूपहले परदे पर नहीं दिखाया जा सकता, इनके कार्यों एवं सरोकारों पर साहित्य जगत के पुरोधाओं ने कोई ‘उपन्यास’ तो क्या ‘लेख’ लिखने तक की जहमत नहीं उठाई।

गर्वित होने की बात यह है कि शिक्षा पद्धति में बदलाव की मौन क्राँति मध्य प्रदेश की धरती पर आज से करीब 40 वर्षों पहले होशंगाबाद ज़िले से प्रारंभ होकर तमाम संघर्षों से जूझकर आज भी अपना मुकाम तय कर रही है। फ्रेन्ड्स रुरल सेंटर रसूलिया एवं किशोर भारती बनखेड़ी जो होशंगाबाद ज़िले की दो स्वैच्छिक संस्थाएँ थी एवं बाद में ‘एकलव्य’ संस्था को लोगों ने लार्ड मैकाले के जमाने से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था में यह महसूस किया कि यह पद्धति बच्चों में कहीं से स्वतंत्र चेतना तो पैदा करती ही नहीं, बल्कि भारतीय परिस्थितियों में अभाव से शिकार बचपन, समाज, परंपरा और अपने आसपास के पर्यावरण से अवलोकन कर बच्चा जो कुछ सीखता है उसका भी गला घोंट देती है। जब पूरे कुएँ में ही भाँग घुली हो तब ऎसी शिक्षा व्यवस्था से छेड़छाड़ कौन करे ? परंतु शिक्षा को जीवनपयोगी बनाने का सपना लिये हुए इन संस्थाओं के संस्थापक एवं जुड़े हुए लोगों ने अपने चमकदार करियर को दाँव पर लगाने का जोखिम भी लिया और ज़मीनी सच्चाई को समझते हुए स्थानीय,राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर की समझ का भी भरपूर उपयोग किया। शिक्षा में ठोस परिवर्तन की कसक लिये ये वे लोग हैं जो उच्चशिक्षा प्राप्त तो है ही पर उन्हें गाँव की गंदगी और अशिक्षित तथा ग़रीब लोगों से गंध नहीं आती है। ये वे लोग हैं जो उपदेश देने और प्रचार-प्रसार से दूर रहकर सिर्फ़ सिखाना नहीं चाहते, सीखना भी चाहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें शिक्षा तंत्र की अंधेरी कोठरी में जुगत के साथ चिराग जलाने में अपने हाथ भी जलाये हैं’।

साझा सोच एवं लोकताँत्रिक प्रक्रिया के हिमायती इन समूह के साथियों ने जब शिक्षण पद्धतियों का अवलोकन किया, सर्वेक्षण और विवेचन किया तो अनगिनत सवाल सामने आए, उनमें से प्रमुख था बच्चे की चिंतन शक्ति का विकास न होना। उनके सामने यह सवाल उठकर आ रहा था कि बच्चे को विग्यान के तथ्य रटने क्यों पड़ते हैं ? रटकर की गई पढ़ाई का क्या उपयोग है ? जो स्कूल से निकलते ही जीवन की वास्तविक सच्चाइयों के सामने फुस्स हो जाती है ? स्कूल के वर्तमान ढांचे पर सवाल भी उठे कि स्कूल बच्चों से जड़, चुप व निष्क्रिय होने की अपेक्षा क्यों करता है ? क्या स्कूल इसी तरह बच्चों की जिग्यासा को कुंठित व उनकी चिंतन शक्ति को अवरुद्ध करते रहेंगे ?

इन संस्थाओं से जुड़े साथियो ने न सिर्फ़ सवाल उठाये बल्कि इन कार्यों कि सबसे बड़ी चुनौती इन कार्यों को कैसे करें,के लिए पाठ्यक्रम आसपास की वस्तुओं से विग्यान के प्रयोग, पुस्तके, कार्यशालाओं,प्रशिक्षण शिविरों एवं कार्य संस्कृति का विकास भी किया। सरकारी ढांचे में दखल देकर तमाम विरोधो एवं राजनैतिक आक्रमणों को झेलते हुए आर्थिक दबावों के चलते सतत अपनी सक्रियता बनाए रखी। इन कार्यों का प्रभाव देखकर अनेक उत्साहीजन स्वेच्छा से शिक्षा में बदलाव की मौन क्राँति में सम्मिलित भी हुए और इस पद्धति से पढ़ाई करने वाले बच्चों ने तो अपनी रचनात्मकता, कल्पनाशीलता और वैग्यानिक दृष्टि ने अच्छे-अच्छों की आँखें खोली। दिल्ली विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टीट्यूट आॉफ तेक्नालॉजी ( कानपुर व मुंबई ) के वैग्यानिक एवं छात्र भी इन कार्यों से जुड़े। देश के शिक्षा के इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा था जब यह बात व्यवहारिक रूप से स्वीकार की गई कि स्कूली स्तर पर और वह भी गाँव के स्कूलों में शिक्षा में परिवर्तन व सुधार के लिये विश्वविद्यालय के लोगो की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

शिक्षा सस्ती कैसे हो ? शिक्षा मनोरंजक कैसे हो ? जीवन से कैसे जुड़े ? ज़िन्दगी की समस्याओं का हल शिक्षा से कैसे हो ? शिक्षा एवं विग्यान के सामाजिक सरोकार की पड़ताल के लिये यदि आप में रुचि है तो इसके जवाब के लिए आपको किसी ‘सिनेमा’ में या बुक स्टॉल पर जाने की बजाय ‘एकलव्य’ या इस तरह के कार्य करने वाले लोगों के कार्यों को गहराई से देखने के लिए ज़्यादा दूर नहीं मध्य प्रदेश के उन इलाकों तक तो जाना ही होगा, जहाँ शिक्षा में ठोस परिवर्तन के काम चल रहे हैं। इन संस्थाओं या इनसे जुड़े हुए हंसमुख, ऊर्जावान एवं चेतन्य साथियो के परिश्रम से ही जाना जा सकता है कि बच्चे के होठों पर पढ़ाई के नाम पर हँसी और उत्सुकता लाने में कितनी लड़ाई लड़ना पड़ती है। हाँ.., यदि इन कार्यों को फ़िल्म की तरह प्रचार एवं समर्थन मिलता तो अब तक शिक्षा की तस्वीर ही बदल जाती।

उन सभी लोगों एवं संस्थाओं के नाम यहाँ दे पाना संभव भी नहीं और शिक्षा में बदलाव की मौन क्राँति में लगे लोग ऎसी ख्याति चाहते भी नहीं, वे तो बस ‘कथनी’ को ‘करनी’ में बदलने लगे है, जिनके लिए मध्यकालीन संत कबीर ने कहा है-
कथनी मीठी खाँड-सी, करनी विष की खान
कथनी तज करनी करे, ते नर सकल सुजान।

(लेख में कुछ तथ्य ‘होशंगाबाद विग्यान की कहानी से लिये गये हैं’ ।)

सुरेश पटेल


(लेखक मध्यकालीन संत कबीर के कार्यों एवं विचारों को जन-जन से जोड़ने का कार्य कर रहे है।)