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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 जनवरी, 2011

वीर विद्यार्थियों तुम्हें सलाम!





वीरों तुम्हें सलाम....
बहते लहू की नदियों तुम्हें सलाम...
विद्यार्थियों तुम्हें सलाम...

पौ फटते समय, पाठ पढ़ते समय
खेलते समय, गाते समय
पढ़ानेवाली मां- पेट भरनेवाली बन जाये तब
तेलन्गाना मां की -बेड़ियां तोडने को
जय तेलंगाना कहकर- जंग में कूदकर
कांग्रेस सरकार की गोलियों का सामना कर
उनके सामने सीना तानने वाले विद्यार्थियों
विद्यार्थियों तुम्हें सलाम...

कौमार्य में हो सौ साल जीयो तुम
माँ-बाप दोनों के सपनों के फल तुम
भारत माता के भावी नागरिक तुम
वैग्यानिक भी तुम, समर योद्धा तुम
सच्चे प्रेमी तुम, लैला मजनूँ तुम
भगत सिंह के लाड़ले भाई तुम
तेलंगान माँ के आँसू देखकर
युद्ध में कूदकर
ऋण चुकानेवाले तुम
विद्यार्थियों तुम्हें सलाम...

तुम्हार बलिदान देख सृष्टि अवाक हुई
माँ गोदावरी ने सीने से लगाया
माँ कृष्णा जी ज़ार ज़ार रोयी
सिंगरेणी माँ ने केश पाश खोल दिया
दंडकारण्य बना गले का हार
जंगली फूलों ने उतारी आरती
विद्यार्थियों तुम्हें सलाम...

वीरता को देख शूरता को देख
कोमरम भीम ने कहा मेरे बच्चे हैं ये
सम्मका सारक्का ने शाबाशी दी
धोबन ऐलम्मा लाद देकर ख़ुश हुई
बंदगी ने हाथ उठाकर कहा शत शत वंदन
वीर तेलंगाना का नाम रोशन करने पर
गाँव गाँव ने तुम पर फूल बरसाए
विद्यार्थियों तुम्हें सलाम...

तुम्हारी मौत की ख़बर सुन हमारे मुर्गे
पैरों में चाकू बांधकर उछल पड़े
तुम्हारी चीखें सुन हमारे बछड़े
सींग झटकार कर ललकारने लगे
दूध पीती बिल्ली पालतू कुत्ता
तुम्हारे संघर्ष के रास्ते पर दौड़ने लगे
विद्यार्थियों तुम्हें सलाम...

तुम्हारे बलिदान देख तुम्हारे साहस देख
भद्राद्रि की सीता मायी ने संतोष ज़ाहिर किया
कोमरेल्लि मल्लना ख़ुशी से कूक उठा
यमुडाल राजन्ना ने शंख बजाया
यादगिरि नरसिंह ने कमर कस ली रण के लिए
सहस्र स्तंभों का मंदिर ने जय जयकार किया
रामप्पा मंदिर ने उठकर युद्ध घंटा बजाया
विद्यार्थियों तुम्हें सलाम...

मूल रचना : गद्दर
अनुवाद : आर. शांता सुंदरी



ये गाँव हमारा ये गली हमारी


ये गाँव हमारा, ये गली हमारी
ये बस्ती हमसे है, हर काम हमसे है
हल अपना, हथौड़ा अपना, हँसिया अपना, कुल्हाड़ा अपना
बैल अपना रे, बैलगाड़ी अपनी रे
तो ज़ालिम कौन है उसका जुल्म क्या है ।

हल हमने चलाया, खेतों को जगाया
दिन रात जागकर, फ़सलों को उगाया
अपन बिन फ़सल नहीं, दूध नहीं, दही नहीं, सारा नहीं
तो ज़ालिम कौन है उसका जुल्म क्या है।
ये गाँव हमारा………..
मिट्टी के लिए हम हैं, महलों के लिए हम हैं
ग़ुलाम के लिए हम हैं, सलाम के लिए हम हैं
अपना बिना खाना नहीं, कपड़ा नहीं, सारा नहीं
तो ज़ालिम कौन है उसका जुल्म क्या है।
ये गाँव हमारा…….

हम ख़ून पसीना करके , तेरा नसीब जगाया
बन्दूक हम चलाया, हम तेरी जान बचाया
मुर्दों को हम उठाया, शहनाई अपना,
नसीब अपना, सारा अपना
तो ज़ालिम कौन है उसका जुल्म क्या है ।
ये गाँव हमारा ………..

खेतों में हम झुके हैं, छाती पे ज़मीदार
मुँह खोले वह तो उसकी बदबू की धार निकले
माँ बहन से वे लेकर गालीज़ गाली देता
उसको मारना क्या रे..तोड़ना क्या रे
उसकी ज़िद्द क्या है उसका जुल्म क्या है।
ये गाँव हमारा…………
ग़रीब शरीफ़ मज़दूर किसान, मिलजुल के रहना रे
हिल-मिल के रहना रे हिलमिल के रहना रे
क्रान्तिकारी झण्डे तले जुड़ना रे
ज़ालिमों को लात मार के भगा दो
ये गाँव हमारा……..

मूल रचना : गद्दर
अनुवादः अग्यात