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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

28 नवंबर, 2010

अमेय कान्त की कविताएँ


नयी पहल

परिचय:
अमेय कान्त
जन्म: १० मार्च १९८३
शिक्षा: एम. ई. (इलेक्ट्रानिक्स )
प्रकाशन: ज्ञानोदय, साक्षात्कार, परिकथा, कथाचक्र आदि पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित.
अन्य: किताबें पढना, संगीत आदि में रूचि
सम्प्रति: इंजीनियरिंग कॉलेज में व्याख्याता
सम्पर्क: 155- एल. आई. जी., मुखर्जी नगर ,देवास-455001, (म प्र)
मोबाईल : +919827785868
ई मेल: amey.kant@gmail.com


प्रदीप मिश्र

जीवन दृष्टि से समृद्ध कविताएँ

इन कविताओं को पढ़ते हुए कवि के रियाज और जीवन दृष्टि की समृद्धि स्पष्ट दिखाई देती है। जब बह खिलौने के माध्यम से पिता के बचपन को संरक्षित घोषित करता है, तो साथ ही एक घोषणा और होती है कि जीवन में जुड़ने और प्रसन्न रहने के लिए बहुत सारी चीजें हमारे आस-पास होती हैं, बस जरूरत है अपने आप के संवेदनात्मक ज्ञान को चौकन्ना रखने की। 'पृथ्वी की अंतहीन वेदना' तो बहुत ही सुन्दर कविता है। जहाँ पर अपेक्षा और उपलब्धता के माध्यम से जीवन के यथार्थ तक पहुँचने में कवि सफल है। जब वह लिखता है - अँधेरे में लथपथ सूरज / मैं खुले में आकर लेना चाहता हूँ एक भरपूर साँस/लेकिन भर जाता हूँ ज़हरीले धुएँ से/और पृथ्वी के किसी बहुत अपने - से एकांत में/ठहरने की कोशिश करता हूँ/तब महसूस करता हूँ/ठीक अपने पांवों के नीचे /पृथ्वी की अंतहीन वेदना। पृथ्वी की इस अंतहीन संवेदना को पूरी शिद्दत के साथ कविता अभिव्यक्त करती है और कवि की समर्थता ने जीवन के यथार्थ को खूबसूरती से पकड़ा है। 'पन्नों के बीच' कविता को पढ़ते हुए पुनः एक अच्छी कविता का आस्वाद मिलता है। यह कविता स्मृतियों और संवेदना को अंतर्संबन्धों की पड़ताल करते हुए, स्थापित करती है कि मनुष्य का वर्तमान भूत और भविष्य की छवियों से भरा होता है। इन छवियों में तात्कालिक समय के सुख और दुःख भी उसी प्रवणता के साथ उपस्थित होते हैं। 'सड़क के किनारे पर' कविता कामगारों की समर्थता को उदघाटित करती है। श्रम के मूल्य और महत्ता को रेखांकित करती हुई, यह एक अच्छी कविता है। इस कविता की स्थापना हमें जीवन के वैज्ञानिक विवेक से परिचित करवाती है। 'सन्नाटा और अँधेरा' कविता बहुत बड़े फलक की कविता है। यहाँ पर तीन शब्द सन्नाटा, नश्वरता और अँधेरा हैं। इन तीनों शब्दों के माध्यम से एक सभ्यता के विकास और पतन पर बहुत गहन टिप्पणी करती हुई इस कविता के कई पाठ पल्लवित होते हैं। इन शब्दों में छिपे प्रगतिशील अध्यात्मिकता के मूल्यों को संरक्षित करते हुए कवि ने जो कलात्मक ऊर्जा संग्रहित की है, वह उसकी काव्य प्रवीणता का प्रमाण है। इस कविता के माध्यम से हर सकारात्मक संराचना और उसके विघटन की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। 'चहचहाहट'कविता को पढ़ते हुए मन भी चह चहाने लगता है। लड़की और चिड़िया के माध्यम से कवि ने मन को अभिव्यक्त किया है। हारमोनियम हमारा जीवन है, जिसका सुर, साधना हमारी नियति है।
समग्ररूप से इन कविताओं के कई पाठ हैं और उतनी ही अर्थ ध्वनियाँ। यह उपलब्धि अर्जित करना कठिन है। यहाँ पर कवि की समर्थता, उसकी रियाज़, उसका विवेक और पक्षधारता काम करते हैं। इन कविताओं का कवि उन सारी कसौटियों पर खरा उतरता है, जो एक अच्छे कवि में जरूरी है। हिन्दी कविता को और समृद्ध करने में कवि सक्षम है। इतनी अच्छी कविताएं पढ़वाने के लिए सत्यनारायण को बधाई।




अमेय कान्त की कविताएँ



खिलौना

पिता जब छोटे थे
उनके पास एक खिलौना था
छोटा - सा
चीनी मिटटी का बना हुआ
पिता बड़े हुए
खिलौना वैसा ही रहा
मौन, गंभीर
पिता ने की नौकरी
फिर शादी , घर - गृहस्थी
इस बीच खिलौना बना और बचा रहा
पिता ने सम्हाल कर रखा उसे
और खिलौने ने
अपने भीतर
पिता का बचपन

00000




पृथ्वी की अंतहीन वेदना

मैं पेड़ पर चिड़िया ढूंढता हूँ
और मुझे मिलती है
एक कुल्हाड़ी
मैं ढूंढता हूँ आकाश में बादल , इन्द्रधनुष
और वहाँ मिलता है मुझे
अँधेरे में लथपथ सूरज
मैं खुले में आकर लेना चाहता हूँ एक भरपूर साँस
लेकिन भर जाता हूँ ज़हरीले धुएँ से
और पृथ्वी के किसी बहुत अपने - से एकांत में
ठहरने की कोशिश करता हूँ
तब महसूस करता हूँ
ठीक अपने पांवों के नीचे
पृथ्वी की अंतहीन वेदना

0000




पन्नों के बीच

पुरानी डायरी खोलता हूँ
और ढेर सारे पीले पत्ते उड़ निकलते हैं
एक गंध आती है हल्की सी
शायद तब पन्नों में दबी रह गयी थी
एक पूरा संसार ज़िन्दा है वहाँ
पन्नों के बीच
कैद से आज़ाद होकर
हवा के साथ फड़फड़ाकर
फैल जाता है सामने
कुछ रिश्ते फिर हरे हो जाते हैं

ठण्ड, गर्मी, बारिश;
सब छुपा दिए थे मैंने
पन्नों के बीच कहीं कहीं पर
फिर नहा लेता हूँ गुनगुनी धूप से
और मिल आता हूँ उस बच्चे से
जो अभी भी खेल रहा है
अपने दोस्तों के साथ
हरे मैदान में
नंगे पाँव
0000


सड़क के किनारे पर

सड़क के किनारे पर
कल मैंने उन लोगों को देखा
जिनके लिए बदलते मौसम और बदलती खबरें
कुछ ख़ास मायने नहीं रखते

सड़क के किनारे पर
कल मैंने उन लोगों को देखा
जो ठिठुरती सर्दी को खुलेआम
चूल्हे पर बनी रोटी पर लगाकर
खा चुके थे

सड़क के किनारे पर
कल मैंने उन लोगों को देखा
जो कड़ी धूप को भरी दोपहर
टेलीफ़ोन लाइनों के साथ दफना चुके थे

सड़क के किनारे पर
कल मैंने उन लोगों को देखा
जो बारिश को तकरीबन रोज़
पी जाते हैं घूँट-घूँट
दिन भर की थकान के बाद
एक पव्वे के साथ



सड़क के किनारे पर
कल मैंने उन लोगों को देखा
जो पता नहीं कब से
और पता नहीं कब तक के लिए हैं
सड़क के किनारे पर

0000


सन्नाटा और अँधेरा

सन्नाटा और अँधेरा
अक्सर बतियाते हैं एक दूसरे से
और हँसते हैं नश्वरता पर
अँधेरे को ओढ़कर सन्नाटा कई बार
खंडहरों के भीतर गहरी खोहों में
सोता है उल्टा लटककर
और जब एक सभ्यता नष्ट हो जाती है
करता है अट्टहास
जिसकी गूँज को सुनने के लिए
दूर - दूर तक कोई नहीं होता
सिवाए अँधेरे के

0000


चहचहाहट
( हारमोनियम बजाती हुई एक बच्ची के लिए )



उसके नन्हे हाथ ऐसे चलते हैं हारमोनियम पर
जैसे चिड़िया फुदकती है डाल पर
स्वरों के बीच के लम्बे अंतर को
पाट नहीं पाती उसकी छोटी उँगलियाँ
और गुम हो जाती हैं बीच में ही कहीं

धम्मन देती है अपनी पूरी ताकत से
और करीब उतनी ही ताकत
वह गाने में भी लगा देती है
हर बार गा और बजा लेना चाहती है वह
सब कुछ , जो उसने अभी तक सीखा है
हवा भी है कि रुकती ही नहीं
टूटे दांतों के बीच !

अपने और हारमोनियम के स्वरों को
साधे रखने की कोशिश में
उसका चहचहाना जारी है…

0000

15 नवंबर, 2010

नयी पहल

श्री मनीष वैद्य की कविताएँ




इस बार हम युवा पत्रकार, काहनीकार श्री मनीष वैद्य की कविताएँ प्रकाशित कर है । मनीष ऎसे कवि हैं जो कविताएँ लिखते तो हैं, पर पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिए भेजते नहीं है। समाकालीन हिन्दी की अनेक पत्रिकाओं में उनकी कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी है। इस बार उन्होंने बिजूका को प्रकाशन के लिए पाँच कविताएँ दी है, जिन्हें बिजूका के पाठको के लिए हम प्रकाशित कर रहे हैं.. उम्मीद है एक कहानीकार और पत्रकार की कविताएँ अपको पसंद आयेगी।
बिजूका

श्री प्रदीप मिश्र की टिप्पणी


इन कविताओं को एक संवेदनशील सुरूचिपूर्ण व्यक्ति की अभिव्यक्ति की तरह से देखा जा सकता है। जहाँ पर कवि होने की संभावना पूरी तरह से मौजूद है। जब हम पढ़ते हैं - पहाड़ कंपकंपाया डर से / बूढ़ी औरत / भर न ले / उसे अपनी तगारी में, तो एक अपेक्षा बनती है और संतोष मिलता है। लेकिन कविता के इस तापमान से समन्वय करते दूसरे बंधों की अनुपस्थिती कवि से और परिश्रम और स्पष्ट जीवन विवेक की मांग करते हैं।
स्त्री कविता में बिम्ब विधान बहुत पुराना है । भाषागत समस्या भी है जैसे इन पंक्तियों में - नदी से पहाड़ / बहुत ऊँचा / नज़र ही नहीं आता । नज़र ही नहीं आता में एक सवाल उठता है कि क्या नज़र नहीं आता, पहाड़ तो दिख रहा है । मुझे लगता यहाँ पर कुछ संशोधन की गुंजाइश है। इसी तरह से - और कभी / वही होती चट्टान / जिसपर पछीटी जाती वही – यहाँ पर वही की पुनरावृत्ति ठीक नहीं है। अंत के शब्द को किसी अन्य पर्याय में बदले पर कविता और समृद्धहोती है । जबकि प्रयोग अच्छा है कि - वही होती चट्टान / जिसपर पछीटी जाती वही । पछीटने का श्रेष्ठ उपयोग चंद्रकांत देवताले की औरत कविता में मिलता है। पहाड़ चढ़ते हुए कविता में अधूरापन है। हाँपती कोई शब्द नहीं होता है, हाँफती होना चाहिए। पहाड़ एक अच्छी कविता है। बूढ़ी औरत कविता में व्याकरण और मूल्य दोनों का संकट है। पहाड़ की स्वीकृति सामान्य अर्थों में सकारात्मक है। यहाँ पर बूढ़ी औरत अपने बच्चों को उन जीवन संघर्षों से बचाने की बात कर रही है, जो उनके जीवन के लिए जरूरी हैं । इन कविताओं को पढ़ते हुए आभास होता है कि कवि के पास अनुभव और शब्दों की कमी है।
000

श्री मनीष वैद्य की कविताएँ


स्त्री


पहाड़ से नदी
बहुत छोटी
पतली धार की तरह

नदी से पहाड़
बहुत ऊँचा
नज़र ही नहीं आता

नदी किनारे पर
चट्टान पर
कपड़े पछीटती स्त्री

कभी पहाड़ बन जाती
कभी नदी
और कभी
वही होती चट्टान
जिसपर पछीटी जाती वही
000

पहाड़ चढ़ते हुए


पहाड़ चढ़ते हुए
मैंने उससे पूछा
इतनी जद्दोजहद
के बाद
क्या तुम्हें उम्मीद है दुख की ..?
उसने कहा- नहीं
मैंने विस्मय से उसे देखा
वह बढ़ रही थी
हाँपती हुई
ऊँचाई की ओर….

000

पहाड़


खिड़की की झिर्रियों से
जब कभी झाँकती
पहाड़ बहुत ऊँचा
और दुर्गम नज़र आता

ब्याह की पहली रात से
बरसों बाद तक
एक दिन
दहलीज लाँघकर
चढ़ गई
पहाड़ वहाँ नहीं था
एक ढ़ेर भर था
मिट्टी
और पथ्तर का…
000

बूढ़ी औरत


थरथर हाथों में
कुदाल उठाए
एक बूढ़ी औरत
खोद रही है
पहाड़ का सीना
ताकि
बच्चों को नहीं चढ़ना पड़े पहाड़
सर-सीधे रास्ते
लौट आएँ वे
शहरों से
पहाड़ कंपकंपाया डर से
बूढ़ी औरत
भर न ले
उसे अपनी तगारी में
000


पहाड़ी स्त्रियाँ


वे जीती हैं
अपनी ज़िन्दगी
पहाड़ से ऊँचे दुखों को काटने की कोशिश में
अपने बच्चे में चिन्हती है वे
आदिम अनजाने स्पर्श की गंध
लम्बी दूरी उतरकर
वे पूछती है डाक बाबू से
यह जानते हुए कि
नहीं आएगी चिट्ठी
वे अकेले नहीं
प्रेम की सज़ा पाने वाली
सदियों से इसी तरह छली जाती रही वे
प्रेम के नाम पर
फिर भी प्रेम झरता है
वहाँ अब भी…
000

09 नवंबर, 2010

नयी पहल

सुरेश सेन निशांत का जन्मः 12 अगस्त 1959 हुआ। 1986 से लिखना शुरू किया.. लगभग पाँच साल तक ग़ज़लें लिखते रहे। तभी उन्हें एक मित्र ने ‘पहल’ पढ़ने को दी। पहल से मिलना, उसे पढ़ना उनके जीवन बहुत ही अद्भुत अनुभव रहा। इसी दरमियान कविता को पढ़ने की समझ बनी। उन्होंने 1992 से कविता लिखना शुरू किया। हाल ही में कुछ कविताएँ पहल, हंस, कथाक्रम, आलोचना, कथादेश कृतिओर, सूत्रा, सर्वनाम, वर्तमान साहित्य, उद्भावना, लमही, समकालीन भारतीय साहित्य, वागर्थ, परिकथा, बया, आधारशीला आदि देश के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में निशान्त की कविताएँ प्रकाशित होती रहती है।

निशान्त ने दसवीं तक पढ़ाई के बाद विद्युत संकाय में डिप्लोमा किया और वर्तमान में कनिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत हैं। निशान्त को पहला प्रफुल्ल स्मृति सम्मान, सूत्रा सम्मान 2008 आदि प्राप्त हुए हैं, उनका पहला कविता संग्रहः वे जो लकड़हारे नहीं हैं, अंतिका प्रकाशन ग़ाज़ियाबाद से 2010 में प्रकाशित हो चुका है। उन्होंने आकण्ठ पत्रिका के अगस्त -2010; हिमाचल समकालीन कविता विशेषांक का सम्पादन भी किया है। हाल में सुरेश सेन निशांत गाँव सलाह, डा. सुन्दर नगर-1,ज़िला मण्डी, हि.प्र. 174401 में रहते हैं। यहाँ हम निशान्त की दस कविताएँ प्रकाशित कर रहे हैं। इन दस कविताओं पर इन्दौर के ही युवा कवि श्री प्रदीप मिश्र की टिप्पणी भी प्रकाशित कई जा रही है। पाठकों की टिप्पणी भी निशान्त के लिए महत्त्वपूर्ण होगी।


श्री प्रदीप मिश्र की टिप्पणी

इन कविताओं को पढ़ते हुए एक मुकम्मल कवि की बेचैनी का अहसास होता है। कवि का वर्तमान हिन्दी कविता के सफर और जरूरत की पूरी जानकारी है। वह मुख्य धारा से क़दमताल में सक्षम है तो भविष्य में कविता को मनुष्य के जीवन के लिए एक जरूरी औजार सिद्ध करने का विवेक रखता है। इसलिए इतनी अच्छी कविताओं के लिए बधाई। अगर एक – इन कविता पर बात करें तो -

मुड़ा-तुड़ा नोट में कविता में पूंजी और हमारे जीवन के सम्बन्ध और उसकी सीमाओं को लेकर बहुत अच्छी अभिव्यक्ति दिखाई देती है। कवि जब कहता है - लड़ सकती थी माँ / अपने बुरे दिनों से या इतना बड़ा नोट / इतना छोटा मेला। तो कवि का जीवन विवेक साफ़-साफ़ समझ में आता है। आज के पूंजी घमासान में यह कविता मनुष्यता के पक्ष में खड़ी ताक़त की तरह है।

इस वृक्ष के पास- कविता के पड़ते हुए स्त्री समाज से हमारा जुड़ना होता है और कविता के माध्यम से हम स्त्री शक्ति से परिचित होते हैं। कविता में कुछ ख़ास नया नहीं है, इस तरह के कथ्य और भी जगहों पर उपलब्ध मिल जाऐंगे लेकिन अपने शिल्प विधान के कारण कविता अस्तित्व ग्रहण करती है। कविता में रत शब्द का प्रयोग पहले प्रार्थना के लिए किया गया है। लेकिन दुबारा जब यहाँ पर होता है -एक औरत और ईश्वर / रत है बातचीत में तो भावविन्याश गड़बड़ी हो जाती है। यहाँ पर कवि से कुछ संशोधन की अपेक्षा बनती है।

माँ की कोख में- कविता के पड़ते हुए माँ और उसके गर्भ में पल रहे शिशु का आंतरिक संबन्ध और भावों की श्रृँखला दिखाई देती है। यहाँ पर फूलों का संदर्भ दो बार आता है - एक खिलता हुआ फूल / याद आता है माँ को तथा हिलता है बच्चा / सैकड़ों फूलों की ख़ुशबू / हज़ारों पेड़ों का हरापन / अनन्त झरनों का पानी / अपने आँचल से / उड़ेल देती है माँ / ज़िन्दगी के सीने में । इस दुहराव से बचना चाहिए।

सेब- एक औसत कविता है। मुझे लगता है कवि जिस प्रतीक विधान में काम करते हुए अपने मूल्यू अर्जित कर रहा है। वहाँ पर और गहन महत्वपूर्ण प्राप्त हो सकता है।

पीठ- एक आख्यान मूलक कविता है। इस कविता के माध्यम से कवि बचपन में ही काम पर लग जानेवाले बच्चों का स्थिति पर बात करता है। यह विषय कविता के इस कलेवर में पर्याप्त बार प्रयुक्त हो चुका है, अतः बहुत अलग और अनूठे की अपेक्ष नहीं की जा सकती है। लेकिन कवि की कविता यात्रा की महत्त्वपूर्ण कड़ी की तरह इस कविता को देखा जा सकता है। इन पंक्तियों में इस थकी पीठ को / अपने आँसुओं से देती है टकोर एक माँ / एक छोटी बहिन तथा इस पीठ पर / कभी-कभी उपड़े होते हैं / बेत की मार के गहरे नीले निशान। टकोर और उपड़े शब्दों का प्रयोग किया गया है। ये हिन्दी को शब्द नहीं हैं और देशज शब्दों के प्रयोग की जरूरत इन जगहों पर नहीं है।

काग़ज़- बहुत अच्छी कविता है। शिल्प और आख्यान का संतुलन कविता को संप्रेषणीय बनाता है। काग़ज़ के माध्यम से अपने समय के दृश्य को पूरे जीवन विवेक के साथ उद्घाटित किया गया है। कविता के अंत में कवि कहता है - एक बच्चा बनाएगा कश्ती / और सात समन्दर पार की / यात्रा पे निकल जाएगा । यहाँ पर मुझे कविता के कलेवर में अपेक्षानुरूप भावार्थ संचित होता हुआ नहीं दिख रहा है। कहीं अंदर इसमें पलायन की ध्वनि भी सृजित होती है। जबकि कविता अपनी संरचना में संघर्षशील जीवन विवेक के साथ उठती दिखाई दे रही है।
देश कोई रिक्शा तो है नहीं- साइकिल रिक्शा कहें तो ज्यादा ठीक तरह से बात बनेगी। इस कविता को बहुत अच्छे कोण से पकड़ा है और सटीक संरचना के साथ कविता आगे बढ़ती है। कविता में कुछ चीज़ें समझ में नहीं आयीं जैसे यहाँ पर दुनके का अर्थ क्या उनके दुनके में / रत्ती भर भी योगदान है सरकार का, एक जगह सेज शब्द का प्रयोग हुआ है जो अलग अर्थ दे रहा है।

हम बहुत अच्छी कविता है, कविता के इस अंश में निर्वाह की समस्या दिखाई देती है - ध्यान रहे हम / डंक भी मारते हैं / ज़हर बुझा डंक / कोई यूँ ही हमारे छत्ते पे / मारे अगर पत्थर / वैसे हम मधुमक्खियाँ भर नहीं। मुझे लगता है कविता डंक भी मारते हैं पर समाप्त हो जाती है।

बीज एक अच्छी कविता हो सकती है। इसको ठीक से सम्पादित करने की ज़रूरत है। जैसे तुम्हारा सबसे बड़ा सखा / बीज हूँ मैं यहाँ पर दूसरी लाइन की बीज हूँ शब्द को हटा देने पर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
मैं हूँ तो / सजते रहेंगे गाँव हाट में / छोटी-छोटी ख़ुशियों के मेले तथा मैं हूँ तो / ज़रा-सा भीगने पर / पुलक से भर जाती है / परती धरती इन दोनों बन्धों में दुहराव है। अगर पूरा भी निकाल दिया तो कविता में बात पूरा होती है। घुणों की जगह घुन शब्द आना चाहिए। इस वाक्य में दी का अर्थ समझ में नहीं आया- मैं हूँ तो / हरी रहेगी तुम्हारी दी । इस कविता का अंत बहुत ही अच्छा किया है उसे देखना चाहिए - बीज हूँ मैं / मुझे मत बिसराना / किसी लालच में पड़कर / गिरवी मत रखना / मैं तुम्हारा ईमान हूँ।
इस कवि की सारी कविताओं को पढ़ते हुए कविता के भविष्य को प्रति एक अच्छी आस्था
बनती है। लेकिन शब्दो के प्रयोग और उनके पर्याय को पकड़ने के में रियाज़ कमा दिखाई देती है।
000

श्री सुरेश सेन निशान्त की कविताएँ

मुड़ा-तुड़ा नोट
वह मुड़ा-तुड़ा नोट
एक रुपये का
अब भी है
मेरे बचपन की
स्मृतियों की जेब में सुरक्षित ।

वह मुड़ा-तुड़ा नोट
जिसमें गन्ध थी रची-बसी
माँ के पसीने की
जिसमें क्षमता थी इतनी
लड़ सकती थी माँ
अपने बुरे दिनों से ।

मेरे ज़िद करने पर जिसे
अपने दुपट्टे की गाँठ से
खोल दिया था माँ ने
उत्साह से लबालब
ख़ुशी के घोड़े पे सवार
सरपट
निकल पड़ा था
गाँव के मेले में मैं
इतना बड़ा नोट
इतना छोटा मेला
इतना थोड़ा था सामान
दुकानों के मेले की
पूरा मेला घूम-घाम कर
लौट आया मैं
जेब में सुरक्षित लिये
मुड़ा-तुड़ा नोट ।
घर में ख़ूब हंसी थी बड़ी बहिनें
चुपके से रोई थी माँ
अब दूर है माँ
उनकी हंसी और उदासी
दूर है ।

बहुत पास है मेरे
और मुड़ा-तुड़ा नोट
एक रुपये का
अब भी
मेरे बचपन की
स्मृतियों की जेब में सुरक्षित ।
000

इस वृक्ष के पास

चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
प्रार्थना में रत है यहाँ एक औरत
उसे विश्वास है
इस वृक्ष में बसते हैं देवता
और वे सुन रहे हैं उसकी आवाज़।

एक औरत और ईश्वर
रत है बातचीत में
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
ऎसा कौतुक
एक औरत ही रच सकती है
जो ईश्वर को स्वर्ग से उतार कर
एक वृक्ष की आत्मा में बसा दे ।

चिड़ियों की चहचहाहट
हवाओं की सरसराहट
कुछ भी नहीं सुनाई दे रहा है उसे
सिवाय अपने ह्रदय की धड़कनों के
सिवाय अपनी प्रार्थना के ।

वृक्ष के हरे पत्ते
तालियों की तरह बजते हुए
दे रहे हैं उसे आश्वासन
कि उठो माँ
सुन ली है ईश्वर ने तुम्हारी प्रार्थना ।

मंदिर और मस्ज़िद से दूर
उनकी घंटियों और अजानों
से बहुत दूर
प्रार्थना में रत है एक औरत
चुपचाप गुज़रो
इस वृक्ष के पास से
000



माँ की कोख में

माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
एक खिलता हुआ फूल
याद आता है माँ को ।

माँ की कोख में
हिलता है बच्चा

आसमाँ में उड़ती चिड़िया पे
बहुत प्यार आता है माँ को

माँ की कोख में
हिलता है बच्चा

मछली-सी तैरती जाती है
ख़्यालों के समन्दर में माँ
अपने बच्चे के संग-संग



माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
सैकड़ों फूलों की ख़ुशबू
हज़ारों पेड़ों का हरापन
अनन्त झरनों का पानी
अपने आँचल से
उड़ेल देती है माँ
ज़िन्दगी के सीने में ।

माँ की कोख में
हिलता है बच्चा
पृथ्वी के सीने में भी
उतर आता है दूध
फैल जाता है हरापन
खिलते हैं फूल
निखरती है ख़ुशी ।
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सेब


सेब नहीं चिट्ठी है
पहाड़ों से भेजी है हमने
अपनी कुशलता की

सुदूर बैठे आप
जब भी चखते हैं यह फल
चिड़िया की चहचहाहट
पहाड़ों का संगीत
धरती की ख़ुशी और हमारा प्यार
अनायास ही पहुँच जाता है आप तक

भिगो देता है
ज़िस्म के पोर-पोर।

कहती है इसकी मिठास
बहुत पुरानी और एक-सी है
इस जीवन को ख़ुशनुमा बनाने की
हमारी ललक ।
बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी आँखों में बैठे इस जल में
झिलमिलाती प्यार भरी इच्छाएँ ।

पहाड़ों से हमने
अपने पसीने की स्याही से
खुरदरे हाथों से
लिखी है यह चिट्ठी
कि बहुत पुराने और एक-से हैं
हमारे और आपके दुख
तथा दुश्मनों के चेहरे

बहुत पुरानी और एक-सी है
हमारी खुद्दारी और हठ

धरती के हल की फाल से नहीं
अपने मज़बूत इरादों की नोक से
बनाते हैं हम उर्वरा ।

उकेरे हैं इस चिट्ठी में हमने
धरती के सबसे प्यारे रंग
भरी है सूरज की किरणों की मुस्कान
दुर्गम पहाड़ों से
हर बरस भेजते हैं हम चिट्ठी
संदेशा अपनी कुशलता का
सेब नहीं
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पीठ


यह दस वर्ष के लड़के की पीठ है
पीठ कहाँ हरी दूब से सजा
खेल का मैदान है
जहाँ खेलते हैं दिन भर छोटे-छोटे बच्चे

इस पीठ पर
नहीं है किताबों से भरे
बस्ते का बोझ
इस पीठ को
नहीं करती मालिश माताएँ
इस पीठ को नहीं थपथपाते हैं उनके पिता
इस दस बरस की नाजुक-सी पीठ पर है
विधवा माँ और
दो छोटे भाइयों का भारी बोझ
रात गहरी नींद में
इस थकी पीठ को
अपने आँसुओं से देती है टकोर एक माँ
एक छोटी बहिन

अपनी नन्हीं ऊँगलियों से
करती है मालिश
सुबह-सुबह भरी रहती है
उत्साह से पीठ

इस पीठ पर
कभी-कभी उपड़े होते हैं
बेत की मार के गहरे नीले निशान
इस पीठ पर
प्यार से हाथ फेरो
तो कोई भी सुन सकता है
दबी हुई सिसकियाँ

इतना सब कुछ होने के बावजूद
यह पीठ बड़ी हो रही है

यह पीठ चौड़ी हो रही है
यह पीठ ज्यादा बोझा उठाना सीख रही है

उम्र के साथ-साथ
यह पीठ कमज़ोर भी होने लगेगी
टेड़ी होने लगेगी ज़िन्दगी के बोझ से
एक दिन नहीं खेल पाएँगे इस पर बच्चे

एक दिन ठीक से घोड़ा नहीं बन पाएगी
होगी तकलीफ़ बच्चों को
इस पीठ पर सवारी करने में

वे प्यार से समझाएँगे इस पीठ को
कि घर जाओ और आराम करो
अब आराम करने की उम्र है तुम्हारी
और मंगवा लेंगे
उसके दस बरस के बेटे की पीठ
वह कोमल होगी
ख़ूब हरी होगी
जिस पर खेल सकेंगे
मज़े से उनके बच्चे
000


काग़ज़


इस काग़ज़ पर
एक बच्चा सीखेगा ककहरा
एक माँ की उम्मीदें
इस काग़ज़ पर उतरेंगी
चिड़िया की तरह
दाना चुगने के लिए

एक पिता देखेगा
अपने संग बच्चे का भविष्य
संवरता हुआ

इस काग़ज़ पर सचमुच
एक लड़का सीखेगा ककहरा

एक कवि लिखेगा कविताएँ
इस काग़ज़ पर
एक-एक शब्द को लाएगा
गहन अंधेरों से ढूँढकर

हज़ारों प्रकाश वर्ष की दूरी
तय करेगा इस छोटे से काग़ज़ पर
अपनी चेतना की
रौशनाई के सहारे
एक-एक पंक्ति को
कई-कई बार लिखेगा
तपेगा दुख की भट्टी में
कितने ही रत जगे होंगे उसके
इस काग़ज़ के भीतर
सदियों बाद भी
किसी कबीर का
तपा निखरा चेहरा झाँकता मिलेगा
इसी तरह के किसी काग़ज़ पे

इस काग़ज़ पर
लिखे जाएँगे अध्यादेश भी

इस काग़ज़ पर
कोई न्यायाधीश
लिख देगा अपना निर्णय
क़ानून की किसी धारा के तहत

और सो जाएगा
मज़े से गहरी नींद

इस काग़ज़ पर
एक औरत लिखना चाहेगी
अपने मन और ज़िस्म पे हुए
अनाचार की कथा

इस काग़ज़ पर
एक दूरदर्शी संत लिखेगा उपदेश
जिन पे वह ख़ुद कभी भी
नहीं करेगा अमल

एक मज़दूर लिखेगा चिट्ठी
इस काग़ज़ पर
अपने घर अपनी कुशलता की
आधी सदी के बाद भी
किसी स्त्री के संदूक में
सुरक्षित मिलेगा यह काग़ज़

इस काग़ज़ से
एक बच्चा बनाएगा कश्ती
और सात समन्दर पार की
यात्रा पे निकल जाएगा
000


देश कोई रिक्शा तो है नहीं


देश कोई रिक्शा तो है नहीं
जो फेफड़ों की ताक़त की दम पे चले
वह चलता है पैसों से

सरकार के बस का नहीं
देना सस्ती और उच्च शिक्षा
मुफ्त ईलाज भी
सरकार का काम नहीं

कल को तो आप कहेंगे
गिलहरी के बच्चे का भी
रखे ख्याल सरकार
वे विलुप्त होने की कगार पे हैं

परिन्दों से ही पूछ लो
क्या उन्हें उड़ना
सरकार ने सिखाया है..?

क्या उनके दुनके में
रत्ती भर भी योगदान है सरकार का
जंगल में
बिना सरकारी अस्पताल के
एक बाघिन ने
आज ही दिया जन्म
तीन बच्चों को
एक हाथी के बच्चे ने
आज ही सीखा है नदी में तैरना

बिना सरकारी योगदान के
पार कर गया नील गायों का झुण्ड
एक खौफ़नाक बहती नदी

सरकार का काम नहीं है
कि वो रहे चिन्तित

उन जर्जर पुलों के लिए
जिन्हें लाँघते है हर रोज
ग़रीब गुरबा लोग

सरकार के पास नहीं है फुर्सत
हर ग़रीब आदमी की
चू रही छत का
रखती रहे वह ख्याल
और भी बहुत से काम है
जो करने हैं सरकार को

मसलन रोकनी है महँगाई
भेजनी है वहाँ सेना
जहाँ लोग बनने ही नहीं दे रहे हैं
सेज

सरकार को चलाना है देश
वह चलाता है पैसों से
और पैसा है बेचारे अमीरों के पास
आज ही सरकार
करेगी गुज़ारिश अमीरों से
कि वे इस देश को
ग़रीबी में डूबने से बचाए

देश की भलाई के लिए
अमीर तस्करों तक के आगे
फैलाएगी अपनी झोली
बदले में देगी
उन्हें थोड़ी-सी रियासतें

क्योंकि देश कोई रिक्शा तो नहीं
जो फेफड़ों की ताक़त के दम पे चलें
वह तो चलता है पैसों से
000


हम


हम शहद बाँटते हैं
मधुमक्खियों की तरह
हज़ारों मील लम्बी और कठिन है
हमारे जीवन की भी यात्राएँ

उन्हीं की तरह
रहते हैं हम अपने काम में मगन
उन्हीं की तरह धरती के
एक-एक पुल की गंध और रस का
है पता हमें
वाकिफ़ हैं हम
धरती की नस-नस से

आपके मन और देह को रिझाता हुआ
आपकी जिव्हा पे
हमारी ही मेहनत का
है ये मीठा स्वाद

ध्यान रहे हम
डंक भी मारते हैं
ज़हर बुझा डंक
कोई यूँ ही हमारे छत्ते पे
मारे अगर पत्थर
वैसे हम मधुमक्खियाँ भर नहीं
000

बीज

बीज हूँ मैं
तुम्हारे हाथों में
तुम्हारे खेतों में
पेड़-पौधों की फुनगियों से सजा
धरती की नसों में करवट बदलता
तुम्हारे सपनों में फलता
बीज हूँ मैं
मुझे तुम्हारे पास लाए हैं
तुम्हारे पुरखे
कभी-कभी मैं
ख़ुद ही हवा-पानी के संग
डोलता हुआ आ गया

कभी पँछियों की बीट में
कभी मवेशियों की पूँछ से चिपका
कभी कामगारों की पीठ
मुझे ले आई तुम्हारी देहरी पे

बूढ़ी दादी ने मुझे संभाले रखा
मिट्टी और बाँस की पेड़ियों में
मुझ तक नहीं पहुँचने दिया घुणों को

तुम्हारे संग बहती
हवा-पानी नदी में रचा बसा
तुम्हारा सबसे बड़ा सखा
बीज हूँ मैं

चाहता हूँ मैं रहूँ
तुम्हारे विचारों में
तुम्हारी ख़ुशियों में
मैं भी लडूँ
तुम्हारी विपदा में
तुम्हारे हाथों की ताक़त बनकर

बीज हूँ मैं
मैं प्यार हूँ
हवा हूँ
पानी हूँ
पुरखों की एक मात्र निशानी हूँ
मैं हूँ तो तुमसे दूर है
महाजन की टेड़ी नज़र

मैं हूँ तो
बची हुई है
तुम्हारे ज़िन्दा रहने की ख़बर

मैं हूँ तो
सजते रहेंगे गाँव हाट में
छोटी-छोटी ख़ुशियों के मेले

मैं हूँ तो
ज़रा-सा भीगने पर
पुलक से भर जाती है
परती धरती

मैं हूँ तो
सीधी रहेगी तुम्हारी पीठ

मैं हूँ तो
हरी रहेगी तुम्हारी दी

बीज हूँ मैं
मुझे मत बिसराना
किसी लालच में पड़कर
गिरवी मत रखना
मैं तुम्हारा ईमान हूँ
000


कविता


कविता वहीं से करती है
हमारे संग सफ़र शुरू
जहाँ से लौट जाते हैं
बचपन के अभिन्न दोस्त
अपनी-अपनी दुनिया में

जहाँ से माँ करती है हमें
दूर देश के लिए विदा

जिस मोड़ पर
अपनी ऊँगली छुड़ाकर
अकेले चलने के लिए
कहते हैं पिता

ठीक वहीं से करती है
हमारे संग कविता
अपना सफ़र शुरू
000

03 नवंबर, 2010

नयी पहल

इस बार हम बिजूका के पाठकों का परिचय एकदम नयी कवियत्रि से करा रहे हैं। कवियत्रि सुश्री दीक्षा दुबे ( देवास) एक ऎसी कवियत्रि है… जिसने अभी तक अपनी कविताएँ कहीं छपने नहीं भेजी हैं.. न ही किसी कवि गोष्ठि में अभी तक अपनी कविताओं का पाठ किया है। कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी पहचान एक कवियत्रि के रूप बनाने की कभी कोई कोशिश नहीं की है। बस.. जो भी अपने मन में उमड़ता-घुमड़ता है.. उसे कभी गद्य के रूप में.. कभी कवितायी अँदाज़ में अपनी डायरी में लिख लेती है। सुश्री दीक्षा दुबे साहित्य की दुनिया से और साहित्यिक संस्कारों से भी उतनी परिचित नहीं है, जितना आज का साहित्यकार है। उनका ज्यादातर समय गृहस्थि के कामों में और शिक्षिका होने के नाते अपने स्कूल और छात्र के बीच ही गुज़रता है। हम बिजूका के पाठकों का परिचय इस चुप्पा किसिम की और साहित्यिक हलके से अनजान कवियत्रि से उनकी दस कविताओं के मार्फ़त करा रहे हैं। उनकी कविताओं पर जाने-माने युवा कवि श्री प्रदीप मिश्र की टिप्पणी भी दे रहे हैं। श्री प्रदीप मिश्र को जब हमने ये कविताएँ टिप्पणी के लिए भेजी थी.. उन्हें कवियत्रि के नाम और परिचय के बारे में कुछ नहीं बताया था। उनसे हमने बिजूका की तरफ़ से इतना भर अनुरोध किया था कि आप कविता पढ़े और कविताओं के बारे टिप्पणी लिखे। ताकि चेहरे और नाम देखकर टिप्पणी करने वाली प्रवृति से हटकर कुछ किया जा सके। अब कविताएँ और उन पर लिखी टिप्पणी आपके लिए प्रस्तुत है। आगे भी इस तरह से और नये-पुरने साथियो की रचनाएँ प्रकाशित होती रहेगी। उम्मीद है यह पहल आपको पसंद आयेगी। इसकी खामियों पर पाठक हमें अपने महत्त्वपूर्ण सुझाव टिप्पणी के रूप भेज सकते हैं, जो नये या पुराने साथी इस पहल के भागीदार बनना चाहते हैं.. वे हमें अपना रचनात्मक सहयोग भी दे सकते हैं।

सत्यनारायण पटेल


इन दस कविताओं को पड़ते हुए, एक स्त्री के हृदय का आस्वाद लगातार महसूस होता है। महसूस होता है एक व्यक्ति के निज में कितना प्रेम भरा होता है और परिवेश की कितनी बारीक सी चीज चुभ कर इसे चीथड़े में बदल देती है । मेरी नजर में इन दसों कविताओं के दस स्वतंत्र शीर्षक होने चाहिए थे, इनमें इस तरह की सूत्र बद्धता नहीं है कि इनको सृंखलाबद्ध कविताओं की तरह देखा जाए। पहली कविता में एक माँ और उसकी अजन्मी बेटी के अन्तरसम्बन्ध पर प्रेक्षक की तरह टिप्पणी है। इस कविता में एक आत्मालाप और संवाद की संरचना में बात करने की कोशिश की गयी है। इस प्रयास में कई जगहों पर कविता के अनुशासन का अतिक्रमण होता हुआ भी महसूस होता है। इस कविता को और भी संपादित एवं संगठित किया जा सकता है। दूसरी कविता एक सामन्य निज अभिव्यक्ति है। इस तरह की अभिव्यक्तियाँ पहले बहुत सारे कवियों के पास उबलब्ध हैँ। तीसरी कविता भी अभिसार के क्षणों की कव्याभिक्ति तरह से सामान्य प्रभाव डालती है। चौथी, पांचवी, नौवीं तथा दसवीं कविता में कवि अपने सरोकारों से परिचित होता है। इन कविताओं में उसकी निजता में सहज भाव से जो अनुभव संसार शामिल होता है, वह अपने समाज के प्रति जिम्मादार नागरिक की तरह से आस्वाद अर्जित करता है। इन कविताओं को डायरीनुमा कविताओं की तरह भी देखा जा सकता है। एक संवेदनशील मनुष्य की डायरी का कुछ अंश कविता की संरचना में हमारे सामने है। कविता के संरचनात्मक तकनीक पर अभी बहुत संभावने हैं। कवि को और रियाज की ज़रूरत है।

प्रदीप मिश्र


सुश्री दीक्षा दुबे की कविताएँ



एक


तुम
उदास क्यों हो…?
जबकि
मैं ख़ुश हूँ कि कितना कुछ है तुम्हारे पास

मैं ख़ुश हूँ
कि हमेशा सोचती रही हो तुम
अपने परिवार के बारे में
बच्चों के बारे में
कर्त्तव्यो, परम्पराओं, सम्बन्धों के बारे में
और ……..मेरे बारे में…!

तुम्हारे सोचने से ही तो
आती है ख़ुशियाँ इस घर में…!
घर की ख़ुशी में ही तो है
तुम्हारी ख़ुशी।

तुम्ही तो अक़्सर कहती हो मुस्कराकर
कि तुम ख़ुश हो………
फिर…..
यह उदासी का मैकअप किसलिए…..?

कोई बन्धन नहीं है तुम्हें
बाहर जाती हो
नौकरी करती हो

सदा ही तो रहती हो
ख़ुशियों से लदी-लदी
कभी ख़ुशियाँ भी बोझिल होती है भला ….?

हिसाब-किताब की चिंता से तुम्हें
रखी कितनी दूर सदा

मेरी… तुम्हारी, पास बुक, चैक बुक, एटीएम कार्ड
सभी तो मैं सम्भालता आया हूँ….!
तुम्हें तो याद भी नहीं होगा
अपने एटीएम का पासवर्ड…!
फिर…चिंता किस बात की है तुम्हें….!

तुम
आसमान तक पहुँच कर भी
देख लेती हो अपना घर
सिर झुका कर ।

व्रत उपवास
हवन पूजन करती हो..
अपने घर के लिए
मेरी और बच्चों की लम्बी उम्र
और ख़ुशियों के लिए
उन्हें संस्कारी और
चरित्रवान बनाने के लिए ।

तुम स्वतंत्र हो
परम्पराओं और रुढियों के
जंग खाए कंटिले तारों से कसे बन्धन
तोड़ने के लिए

मैंने कब ‘ना’ कहा तुम्हें
बदल सकती हो समाज बेधड़क
अपना घर छोड़कर…..
जानती हो न……
एक घर तो डाकन भी छोड़ देती है
फिर तुम तो………
इस घर की मालकिन हो
तुम क्यों उदास हो……..?

किस एहसास की कमी खाती है तुम्हें
क्या हुआ जो जनने न दी तुम्हें
छोटी-सी सिर्फ़ एक बेटी…..

किसकी याद घेर लेती है तुम्हें
और क्यों सहम-सी जाती हो…..
कोई क्रूर पुरुष नहीं…..
अपनी ही कोख से जना बेटा
जब पुकारता है तुम्हें
माँ………..

कितनी सौभाग्यशाली हो तुम
अच्छी बेटी……
अच्छी बहू……
अच्छी पत्नी…..
अच्छी माँ …..
और अच्छी औरत होने का सुख और सम्मान
जो मिला है तुम्हें ।

कितना कुछ तो है तुम्हारे पास
घर……
बच्चे…
परिवार….
धन….
प्रतिष्ठा….
सम्मान…
स्वतंत्रता…
अधिकार….
एकान्त….
और निजता….
फिर किस चीज़ की कमी खाती है तुम्हें
बोलो..न
आख़िर क्यों उदास हो…?
000

दो


तब
अच्छा लगता था
मन का बहकना
बादलों के साथ बरसना
नदी के साथ बहना
हवाओं के साथ मचलना
फूलों के साथ मुस्कराना
भावनाओं के सागर में गोते लगाते हुए
निकालना
ख़ुशियों के मोती ।

सपनों की सैर करते हुए
समेटना
चिड़ियों की चहचहाहट
सुबह की ठंडी हवा
शाम की तनहाई
रात की मदहोशी
मौसम का मिजाज
शायरी का दिल से गुज़रना
और अचानक
दिल का लहरों-सा मचल जाना..।

अनजाना चेहरा
रूहानी स्पर्श
मीठा दर्द
एक अनजानी कसक
हल्का-हल्का नशा !!

पर
जब रिश्तों, परम्पराओं, कर्त्तव्यों
और मर्यादाओं की शिलाओं से टकराते हुए
कोशिश करता है उड़ान भरने की मन
क्यों हो जाता है लहूलुहान……..?
000

तीन


भर जाती है
फूलों में ख़ुशबू
और तितलियों में रंग
उजला हो जाता है
सब
पहली बारिश में धुली
निखर आई पत्तियों की तरह

दूब की तरह लरज़ते हैं होंठ
देह, शाखे बन जाती है
सिहर उठता है
भीतर का बहाव
आँखें मुँदाती है
शरमीले पौधे की पत्तियों जैसे

खिल जाता है
गुलमोहर गालों पर
जब
हल्की-सी छूअन से
बिखर जाता है…हरसिंगार
धरती पर…..
000

चार


हाँ…
मैं फिर जाना चाहती हूँ
उस बचपन में
जहाँ मेरी खिलखिलाहट पर
ख़ुश हो दूसरे भी

बिना कहे मेरे ग़ुस्से को
और मेरे दर्द को भी
समझ ले कोई

गुब्बारे की तरह मुँह फुलाकर
ज़िद की हदों को पार करते
कि जब
हाथ पैर पटके
चीख कर रोऎं
सिर फोड़े दीवारों से
तो पगली न कहे दुनिया

प्यार से उठा ले कोई
चूम ले माथा
मेरी हरक़तों पर
पुलकित हो कर…..
000

पाँच


बिल्कुल तैयार हूँ मैं
उड़ने के लिए

मैंने उतार दिया है लिबास
मुक़्त कर दिया है
उसके पीछे से
आसमान ताकती इच्छाओं को

हाँ.. उन गहनों को भी..
जो झुकाने लगे थे
मेरी गरदन और पीठ

वजन का कम होना
पहली शर्त है उड़ने के लिए

ले ली है विदा
हर फ़िक्र से
ज़िम्मेदारियों से कहा
ना याद आए
ना याद किया करे..
अपने भीतर के डर से भी
आख़िर जीत ही गई मैं…..
मेरी उड़ने की चाह
बड़ी थी
पृथ्वी के गुरूत्वाकर्षण से

दहलीज़ से किए गए सारे अनुबंध
झूठे ही निकले आख़िर

हवाओं से दोस्ती कर ली है मैंने
कह दी है पक्षियों से भी
हमसफ़र होने की बात

तय कर ली है दिशा भी
मुझे दिख रहा है बादलों के बीच
मेरे सपनों का संसार……
000

छः


मन
जो सोचता है
आँखें वही देखती है
मन
जो चाहता है
मस्तिष्क वही समझता है


मन
जो कहता है
कान वही सुनते हैं

यूँ भी
मन हावी रहता है इंद्रियों पर
लेकिन
तानाशाह बन जाता है
जब विश्वास में पड़ जाती हैं
गाँठें………..
000

सात


छँट ही जाती है धुँध
पर
गीली हो जाती है हवा

थमा ही जाता है तूफान
वक़्त भर देता है घाव
पर
रह जाते हैं नासूर
जिनकी कसक सालती है
उम्र भर……..
000

आठ


जिद
आसमान को छूने की
काग़ज़ की कश्ती से
समन्दर पार करने की
हवा को बाहों में समेट कर
आईने पर जमी गर्द उड़ाने की
धूप को मुट्ठी में पकड़ कर
अंधेरे कमरे में उजास भरने की
या ज़िद
ख़ुद को सुई के छेद में पिरो कर
उधड़ी ज़िन्दगी को रफू करने की

फिर
चाहे आसमान टूटे
नन्ही ज़िद के कंधों पर
या फिर आँखों से बहे समन्दर
आँधियाँ आए
या छलनी हो जाए सीना
क्योंकि..
ज़िद तो फिर ज़िद है….
सुनी है कब
ज़िद ने सलाह और हिदायत
000

नौ


वो एक बूँद
जिसे कहते हैं कि आँसू है
पीते हैं तो
कभी प्यास
कभी आग भड़कती है

समन्दर के पानी से भी खारा है
बहती नहीं
गल जाती है दुनिया जिसमें
ये मोती है मुहब्बत का
जिसे पाने के लिए
इस समन्दर में उतरते हैं
दीवाने कितने...!
ये जान कर कि
आँख का पानी
बहा देगा सब ख्वाहिशें
उम्मीद के तिनके को पकड़ कर
पा लेता है ये मोती
सारा खारापन
धुल जाता है और
मुट्ठी में होती है
कायनात सारी….
000

दस


आवाज़ नहीं थी कोई
पर कुछ तो टूटा है
जो रिसने लगी है
छूते ही
धरती….
दरक गई है कुछ ऎसे
कि समा गया उसमें
आसमान सारा….

दिखती नहीं
अपनी परछाई भी
कैसे हो पहचान
आकृतियाँ है चेहरे नहीं…

भरा पड़ा है खालीपन
यहाँ वहाँ
शाखें डरी हुई है
जड़ों के खोखलेपन से….

नमी खो गई रिश्तों की
पानी पानी हुआ सब
बूँदे सूख गई हैं
ओस नहीं ठहरती
घास पर अब…

बादल भी शरारत से बस
मुस्करा कर चले जाते हैं
ख़ुशियों की तरह……

और सूखी धरती से
रिसने लगता है फिर कुछ
दर्द सा……
000

02 नवंबर, 2010

हौंसलो की उड़ान

रोली



तुम कितनी ही कोशिश कर लो
तोड़ न पाओगे इस बार
मेरे हौंसलो की उड़ान
खोने न दूंगी खुद को
अपने काम को नया काम नया आयाम दूंगी
और दूंगी एक नई पहचान
अपनी आत्मा को जो
मुझसे शुरू होकर
ख़त्म होगी मुझी में