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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 मई, 2015

ब्रजेश कानूनगो की कहानी 'घुलती पृथ्वी'

1 घुलती पृथ्वी

बहूमूल्य रत्नों के व्यापारी ने अपनी बिटिया के विवाह के उपलक्ष्य में भव्य आशीर्वाद समारोह का आयोजन किया था । ऐसा लग रहा था, रत्नों की सारी चमक पांडाल में उतर आई हो।

तथाकथित बडे लोग पांडाल  के अंदर अपने भरे हुए पेटों को और भरने की असफल कोशिश कर रहे थे। बाहर कुछ छोटे लोग भव्य समारोह के विरोध में प्रदर्शन कर रहे थे।

इन बडे और छोटे लोगों से अलग बैठा छीतू यह समझ पाने में असमर्थ था कि बडे लोगों के  आयोजन पर ये छोटे लोग नारे क्यों  लगा रहे हैं। क्या  मिलेगा उन्हे ऐसा करके ,क्यों  नहीं वे नारे लगाना छोडकर पांडाल के पीछे चले आते ? कम से कम आज तो उन्हें ऐसा लजीज खाना मिल जाएगा,जिसका स्वाद कई हफ़्तों तक जुबान पर बना रहेगा।

तभी एक व्यक्ति  पांडाल के  पिछवाडे आया और बाल्टी भर खाना वहाँ उँढेल गया । इससे पहले कि छीतू के पास बैठा कुत्ता भोजन पर झपटता उसने फैंके  गए भोजन से लड्‌डू उठाकर तुरंत मुँह में रख लिया।

छीतू को लगा जैसे उसनें लड्‌डू नहीं बल्कि पूरी पृथ्वी को अंपने मुँह में कैद  कर लिया हो और दुनिया भर की मिठास उसके  हलक से नीचे उतरती जा रही हो।

पांडाल के सामने  नारे बदस्तूर जारी थे। अंदर टेबलों पर पकवानों की नई प्लेटें सजाई जा रही थी। लेकिन छीतू के मुँह में कैद  पृथ्वी अब तक पूरी तरह घुल चुकी थी।

2 चुइंगम

‘हाँ तो अभी आपने देखा, पीडित महिला ने बताया कि किस तरह वह शाम को खेत से काम करके लौट रही थी और किस तरह पाँच बदमाशों ने उसे दबोच लिया।’ टीवी संवाददाता बडे जोश के साथ बता रहा था।

चौबीस घंटे चैनल का पेट भरने के लिए डबलरोटी का बडा टुकडा उसे मिल गया था जिसे कुतर-कुतर कर पूरी रात चबाते रहना था।

‘बिल्कुल प्रमोद, आप बने रहिए वहीं,हम थोडी देर में फिर आपके पास लौटेंगे।’ सीधे प्रसारण को बीच में रोकते हुए स्टूडियो में बैठे सूत्रधार ने संवाददाता से कहा, फिर दर्शकों से मुखातिब होकर बोला-‘जाइएगा नहीं,आगे हम जानेंगें किस प्रकार पीडित आदिवासी महिला ने बहादुरी के साथ अकेले बदमाशों का सामना किया लेकिन अपनी आबरु बचाने में नाकायमाब रही। प्रशासन और राजनेताओं से भी पूछेंगे कि इसी घटनाओं के लिए कौन जिम्मेदार है और इन्हे रोकने के लिए उनके स्तर पर क्या प्रयास किए जा रहे हैं,लेकिन फिलहाल एक छोटा-सा ब्रेक।’

उधर टीवी स्क्रीन पर अभिनेत्री ने साबुन बेचने के लिए अपनी देह को मोहक मुस्कान बिखेरती सहलाने लगी इधर एक बच्चे ने रिमोट का बटन दबा दिया। दूसरे चैनल पर संवाददाता और सूत्रधार एक बडी और रसीली चुइंगम चबा रहे थे।

3 सभ्यता
पारुल किसी परी सी लग रही थी अपने सातवें जन्म दिन की पार्टी में ।  बहुत मन से ढूंढ कर खरीद कर लाई थी मम्मी सफेद बर्थ-डे ड्रेस उसके  लिए । बुटिक वाली आंटी ने बताया था ठीक ऐसी ही ड्रेस प्रियंका चौपड़ा ने फिल्म ‘फैशन' में पहनी थी।

पारुल के ताऊजी प्रोफेसर सूर्यप्रकाश जैसे ही आए, पारुल के मम्मी-पापा ने उनके चरण स्पर्श किए।  'ताऊजी को प्रणाम करो बेटा !'पारुल की मम्मी ने जब उससे कहा तो उसके  चेहरे के भाव बदल से गए। शायद यह एक अनपेक्षित आदेश था उसके लिए ।
बेमन से उसने चेहरे और पीठ दोनों मे बल लाते हुए ताऊजी के चरणों को छुआ।

सूर्यप्रकाशजी ने आत्मीय भाव से उसकी पीठ थपथपाई- 'खुश रहो,जीते रहो बेटे!'
'बेड मैनर्स ताऊजी़ ।' पीठ सीधी कर खडे होते ही पारुल गुस्सा करते हुए बोल पड़ी।
क्यों क्या हुआ बेटा ?'  सूर्यप्रकाशजी अचकचा गए।
'लड़कियों की पीठ पर हाथ नहीं रखना चाहिए !'  कहते हुए पारुल अपने दोस्तों के झुंड की ओर दौड़ गई।

सूर्यप्रकाशजी हतप्रभ रह गए । उन्हे लगा जैसे उन्होने अपनी भतीजी को आशीर्वाद न देकर किसी युवा अभिनेत्री के साथ कोई अभद्रता कर दी हो।
जन्म दिन का कैक खाते हुए उनका मुंह कसैला हो रहा था।

000 ब्रजेश कानूनगो
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टिप्पणियाँ:-
सुषमा अवधूत: : Ghulti ptuthvi samaj ke varg bhed ko batati hai sahi hai kahi khane ke lale to kahi ati khana lekin ye antar kya kabhi mit payega.Koi nari kitni bhi mansik rup se aur sharirik rup se tuti ho media ko keval khabre parosne se kam par ham bhi to kaha oppose karte hai esi khabre chatkhare  lekar sunte ,dekhate hai aur nam bada satik hai chewingum ji se aap jabtak chahe chew karte rahe use khatm karna hamare hath main hai
Sabhyata bas dikhava rah gaya hai aaj ke fashion yug main sabhyata dam tod rahi hai bahut bhavpurn kahani

Tino kahtayen man ko chhune wali hai

Sabhi kahaniya Bata rahi hai Ki manviy samvedna kaise ,dam tod rahi hai

धनश्री: : "घुलती पृथ्वी" अच्छी लगी अन्न के लिए दोनों वर्गों का आचरण सामयिक है

2)चुइंगम भी आज की असंवेदनशील मीडिया को दर्शाता है जहा किसी की जान से ज़्यादा टी.आर.पी की पड़ी है।

3) सभ्यता मन में शंका पैदा करता है की क्यों पारुल ने ऐसा किया होगा? कहानी के दो पहलु दिमाग में आते है सभ्यता टाइटल सिर्फ एक दिशा में ले जाता है किन्तु कहानी पढ़ते समय ताऊजी नामक किरदार के प्रति शंका निर्माण करता है। शायद आजकल समाज में  होने वाली घटनाए पाठक के दिमाग में नया बीज बोती है।

प्रज्ञा रोहिणी: : पहली दो बहुत अच्छी हैं। छोटे लोग और मीडिया की सताई स्त्रियां चाहे वो खबर बनाकर बिक रही हूँ या उत्पाद के संग बेचीं जा रही हो- दोनों का दर्द उजागर हुआ। दरअसल सभ्यता दोनों को ही निगल रही है। वर्ग और लिंग दोनों के आधार पर दोहन। तीसरी कुछ भटक गयी। एक अस्पष्टता है। कुछ मशक्कत से संवर जायेगी। ताऊजी वाला हिस्सा ढंग से नहीं रचा गया।

नन्द किशोर बर्वे:  पहली लघु कथा वर्ग भेद पर कम संसाधनों के असमान वितरण पर तीखा व्यंग्य है। वर्गभेद समाज में शायद जब से इस पृथ्वी पर मानव की उत्पत्ति हुई है तब से रहा है, और जब तक यह दुनिया है तब तक रहेगा। शासन व्यवस्था किसी भी प्रकार की हो, उसके लिए इसका  खात्मा असंभव है। लेकिन हाँ हर व्यक्ति के मन में परस्पर आदर और संवेदना होनी चाहिए। ऐसा समाज तो हमारे प्रयासों से ही बनेगा। दूसरी में नारी के दोनों रूपों में वह शोषण की मारी है। कहीं जबरदस्ती तो कहीं अपनी मर्जी से। तीसरी के बारे में प्रज्ञा जी से सहमत।
रेणुका: Teesri Katha mere Mann ko Chu gayi....aaj ke yug Mein kaise nanhi pariyan apno ke sneh ko tarazu Mein tolne pe majboor hain....aur iska zimmewar shayad aaj ka badalta samaaj evam uski balati mansikta hai[
अशोक जैन:
पहली कथा: वर्गभेद और वर्णभेद से ऊपर एक और भेद है भरा पेट और खाली पेट। छीतू निश्चित ही एक अल्प वय को खाली पेट बालक। उसे सिर्फ और सिर्फ खाली पेट की ज्वाला की चिंता है या वही उसकी समझ से दुनिया की सबसे बड़ी चिंता है। एक लड्डू कुत्ते के झपटने के पूर्व झपट कर स्वर्गीय आनंद की अनुभूति। लेखक का कटाक्ष किधर है? क्या छीतू के अंदर कहीं हम सब तो नहीं छिपे बैठे हैं भौतिक सुखों की लालसा में?

नयना(आरती) : पहली कहानी अच्छी बनी है ।आर्थिक असमानता पर व्यंग्य करती।दूसरी नारी की दो भिन्न पहलुओ को दर्शित रोचक कहानी।तीसरी में लेखक/लेखिका क्या कहना चाहती हैं समझ नही पाई

अर्चना चाव: : Dusari katha...jwalant kataksh.....sheershak ..bhi satik. Prathm me bhookh ke aage kuchh nahi...Ashok ji se sahmt. Teesree ko aur spasht kiya jana tha ...mere vichaar se

स्वाती श्रोत्रिय:  मेरे खयाल से लेखक या लेखिका छोटीसी बालिका को अपनों से होने वाले खतरों से बचाना चाहता हो

अशोक जैन: दूसरी कहानी:च्युंगम प्रथम तो एक घृणित दुर्घटना का टी वी संचार माध्यमों के द्वारा बाजार वाद के तहत गंदे तरीके से प्रसारण। पीड़िता का पहले एक बार पांच बदमाशों द्वारा और फिर दूसरी बार टी वी संवाददाता द्वारा मानसिक और शारीरिक अत्याचार। निंदनीय।
किंतु कथा के दूसरे पक्ष में अभिनेत्री का साबुन का विज्ञापन । इस संदर्भ में क्षमा सहित कहना चाहूँगा कि नारी सदैव आकर्षण की केंद्र रही है। इतिहास में इस बात के उदाहरण भरे पड़े हैं। मेनका और विश्वामित्र की कथा सर्वविदित है। अजंता के चित्र देख लीजिये। फिर यहाँ विज्ञापन स्वेच्छा से हो रहा है। नारी का बाजारवाद में उपयोग नहीं होना चाहिए । इस बात का मैं भी समर्थक हूँ। पर यह सदियों से होता आ रहा है और इस भौतिकवाद के युग में बंद होना असम्भव है। हाँ इसे नियंत्रित करना चाहिए।
तीसरी कथा: सभ्यता: दिल को छू गई। यह आधुनिकता कुशिक्षा और टी वी के दुष्परिणाम हैं। पहले स्कूलों में एक विषय नैतिक शिक्षा का चलता था। वह पता नहीं कहाँ गायब हो गया पर सात साल की बच्चीगुड़ियों से खेलने की उम्र में यह सीख गई कि पिता तुल्य व्यक्ति के चरण स्पर्श नहीं करना और अगर उन्होंने ने पीठ पर हाथ फैर कर आशीर्वाद दिया है तो वह गलत नीयत से दिया होगा। हमारी आने वाली पीढ़ी पता नहीं कहाँ जा रही है?

अलकनंदा साने:  पहली कहानी में कुछ भी नया नहीं है । इस विषय पर और इस तरीके की अनेक कहानियां मिल जाएंगी । दूसरी कहानी का व्यंग्यात्मक कहन अच्छा है, पर इसी तरह की कहानी इसी समूह पर कुछ दिन पहले, शायद निधि जैन की पढी थी । तीसरी कहानी झिंझोडती है । रिश्तों में अविश्वास का यह चरम स्वरूप है । इस कहानी को पढते हुए दो दिन पहले की एक खबर याद आ गई । एक महिला नौकरी पर जाते समय अपनी अठारह माह की बेटी को अपने पिता के पास छोड जाती थी और वह विकृत प्रवृत्ति का नाना उस अबोध से दुष्कर्म करता था । रिश्तों का यह वीभत्स स्वरूप है और इसीलिए आजकल मां हर रिश्तेदार से दूर रहने की सलाह देती है । यह कहानी उसीका प्रतिबिंब है ।
लेखक/लेखिका की भाषा संतुलित और सधी हुई है । शिल्प भी बेहतरीन है ।
फरहत:  तीनों कहानियों के भाव पक्ष बेहद मज़बूत हैं। हालाँकि कला पक्ष उतना मज़बूत नहीं लगा। जगह जगह तरमीम की गुंजाईश नज़र आती है।
पहली कहानी में कुछ 'छोटे' लोगों द्वारा भव्य समारोह का विरोध करना समझ नहीं आया; अमूमन तो ऐसा देखने में नहीं आता फिर आख़िर किस वजह से ऐसा किया जा रहा था?
दूसरी कहानी में लेखक ने अपनी बात बा-ख़ूबी कह दी।
लेकिन तीसरी कहानी के बारे में प्रज्ञा जी से सहमत हूँ। इसमें लेखक की आधी बात ही समझ में आई; केवल इतना ही समझ में आ सका कि लेखक बता रहे/रही हैं कि बच्चों के संस्कार और उनकी मासूमियत हमारी तथाकथित प्रगतिशीलता की भेंट चढ़ते जा रहे हैं।
लेकिन ताऊजी के भाव समझ नहीं आये; उनको केक ख़ुशी-ख़ुशी खा लेना चाहिए था। :)

कविता वर्मा: : आज की लघु कथाएं श्री ब्रजेश कानूनगो जी की हैं। तीनो कहानियों पर विस्तृत चर्चा हुई।पहली कहानी जहाँ वर्ग भेद और असमान वस्तु वितरण  को इंगित करती है वहीँ छोटे लोगों द्वारा विरोध के कारन को स्पष्ट नहीं करती। लघुकथा में हर वाक्य हर शब्द की अहमियत होती है और बात जितनी सटीक और विषय केंद्रित हो उतना प्रभाव छोड़ती है। एक कथा के माध्यम से कई कोणों को छूने की कोशिश कथा को लम्बा और विषय से भटकने वाला बना सकती है। दूसरी कहानी में शीर्षक चुइंगम डबल रोटी का टुकड़ा और कुतर कुतर कर सारी रात चबाना में सटीक तारतम्य नहीं बैठ पा रहा है ऐसा मुझे लगा। अगर इसे जुगाली कहा जाता .. या सिर्फ चुइंगम से बिम्बित किया जाता तो ज्यादा ठीक लगता। तीसरी कहानी भी एक साथ दो बातों को दर्शाते हुए थोड़ी भटक गई है। एक सात वर्षीय बच्ची माता पिता या स्कूल में सिखाये सावधानी के पाठ को अपने पराये सही गलत के बीच परिभाषित नहीं कर पाई ये ठीक है लेकिन

'ताऊजी को प्रणाम करो बेटा !' पारुल की मम्मी ने जब उससे कहा तो उसके चेहरे के भाव बदल से गए। शायद यह एक अनपेक्षित आदेश था उसके लिए ।
संस्कारों के लिए उस बच्ची में उपेक्षा भाव इस कहानी के भाव पक्ष को दुविधा में डालता है। इसे लेकर दोनों पक्षों को प्रस्तुत करती दो बढ़िया कहानियां लिखी जा सकती हैं। कहानियों की भाषा संतुलित है।

ब्रजेश कानूनगो (रचनाकार का वक्तव्य)
मित्रों, बहुत आभारी हूँ कि आज समूह में मेरी तीन लघुकथाओं पर चर्चा की गई।
ख़ुशी है कि कहानियों के जरिये जो बात मैं कहना चाहता था वह पाठकों तक पहुंचाने में सफल हुआ।
1 घुलती पृथ्वी मेरी प्रारंभिक लघुकथाओं में से एक है जो 35 वर्ष पूर्व लिखी गई थी।कई जगह प्रकाशित है।लघुकथा संग्रहों में भी संगृहीत की गई है।नई दुनिया के दीपावली विशेषांक में भी आई थी। मुम्बई के हीरा व्यापारी द्वारा आयोजित भव्य समारोह के विरोध में लिखी गई थी।तब वैसी शादियां धर्मयुग सहित अन्य पत्रिकाओं में टिप्पणी का विषय बना करती  थी। अब तो आम हैं ऐसे भव्य विवाह।
: 2 चुइंगम कहानी नईदुनिया के नायिका परिशिष्ट में  प्रकाशित है। इस कहानी के सन्दर्भ में मुझे वरिष्ठ आलोचक व  लघुकथाकार श्री सतीश दुबे ने बहुत अच्छी प्रतिक्रया देकर प्रोत्साहित किया था। उनका कहना था लघुकथा के पारंपरिक घिसे पिटे विषयों से अलग यह नए विषयों की और लघुकथा को लेजाने का प्रयास है ।बाद में इसे एक समीक्षात्मक लेख की मुख्य लघुकथा के रूप में रखकर लागुकथाओं पर व्यापक बातचीत की गयी थी.

3 तीसरी कहानी सभ्यता समाज में आये भटकाव की ही कहानी है।छोटी बच्ची को पालक जामाने के चलन के मुताबिक़ ही आगे बढ़ा रहे हैं मगर समाज में घट रही घटनाओं से चिंतित भी रहते हैं। अपने बच्चों को जीवन में अच्छे बुरे के बारे में सीख भी देना चाहते हैं लेकिन यह भी चाहते हैं की वे अपने संस्कार भी न छोड़ें।
बुजुर्ग प्रोफ़ेसर छोटी बच्ची को छोटी बच्ची ही समझते हैं।मगर समाज में आई गन्दगी से न सिर्फ पालक बल्कि पाठक भी पूर्वाग्रह से पीड़ित है।जिसका शिकार प्रोफ़ेसर ताउजी हो रहे हैं।कहानी में भी और समाज में भी।हरेक ताऊ आसाराम नहीं होता।
कहानी तो यही रहने वाली है हमेशा। बदलाव  तो समाज में ही लाना अपेक्षित है। देखें कब ऐसा होगा। जब ताउजी को ताउजी की तरह ही देखने की दृष्टि हम पा सकेंगे। लघुकथा  नयी दुनिया में प्रकाशित है। संग्रह में लाने से पूर्व इसे और प्रभावी बनाने की कोशिश करूंगा। यद्यपि : मेरा अनुरोध है कि तीसरी कहानी 'सभ्यता' को अब एक बार अकेले फिर से पढ़ा जाए।सभी साथियों का बहुत आभार और धन्यवाद।

प्रज्ञा रोहिणी :  बधाई बृजेश जी।
फरहत: : शुक्रिया बृजेश जी।

सही बात है कि कभी कभी कहानी को एक बार पढ़कर सारी बातें साफ़ नहीं हो पातीं; ऐसे में हर नुक़्ता समझने के लिए दोबारा पढ़ना आवश्यक हो जाता है।

ब्रजेश कानूनगो:: कई बार यह भी होता है पहली प्रतिक्रिया आने के बाद पाठक एक राह पकड़ लेता है।नए कोण और बिम्ब उसको देख भी नहीं पाता फरहत भाई। केवल रचना पढ़कर अपनी बात कुछ अलग कही जा सकती है।यह बहुत आम है।
फरहत:  जी। बेशक असर पड़ता है।

ब्रजेश कानूनगो:  दरअसल तीनो लघुकथाओं के पीछे कुछ सत्य घटनाएं रहीं हैं।मुम्बई के हीरा व्यापारी की बेटी के विवाह का भव्य आयोजन कोई 30/35 बरस पहले हुआ था जिसका आम मध्यवर्गीय लोगों द्वारा विरोध हुआ था। प्रदर्शन भी हुए थे।मगर बहुत निम्न वर्गीय छीतू की समझ से यह बिलकुल बाहर था।ऐसा होता था ।अब भी होता है । पर अब हमारी संवेदनाओं की दिशा और विषयों में अंतर आया है।यह मैंने आपकी जिज्ञासा के उत्तर में कह रहा हूँ।विमर्श के बाद। फरहत जी।
फरहत:  जी। अब मुझे समझ आ गयी ये बात। शुक्रिया।
यानी ये बात काफ़ी पुरानी है; जब प्लेटें सजाई जाती थीं खाने के लिए।
आजकल तो खड़े होकर खाना आम बात हो गयी है और शादी में बेतहाशा ख़र्च करना भी।

ब्रजेश कानूनगो: : 24 घंटे चैनल का पेट भरने के लिये डबल रोटी हो या चुइंगम।कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।उनकी मजबूरी ।[5/21/2015, 8:30 PM] +91 94 10 010363:  सही।

ब्रजेश कानूनगो : खबर को रबर की तरह खींचना और मिठास समाप्त हो जाने के बावजूद चिंगम की तरह खबर को चलाने की वजह से दूसरी लघुकथा का शीर्षक में वह बिम्ब रचा गया है। कविता जी।

बाजार ने नारी को एक वास्तु की तरह प्रस्तुत किया है अशोक जैन जी।यह तो अब पुरानी बात हो गई है।बाजार अब इससे भी आगे बढ़ गया है।शीतल पेय का विज्ञापन हो या बाइक का।साबुन का हो या शेविंग क्रीम अथवा टेल्कम पाउडर का।सारे विज्ञापन का संगीत और प्रस्तुति देखिये लगता है कंडोम सेक्स टॉयज का विज्ञापन किया जा रहा हो। चॉकलेट और चॉकलेट फ्लेवर के कंडोम के विज्ञापनों में अब कोई अंतर दिखाई नहीं देता।
हमारे सामने बहुत ज्वलन्त विषयों की भरमार पड़ी है।बस लिखा जाना शेष है। शुरुआत हो भी चुकी है। अशोक जैन साहब।

निधि जैन: : अच्छी कहानियाँ हैं पर लघुकथाओं के मानक पर खरी नही उतरती हैं।
ब्रजेश कानूनगो   जी।
मैंने अपने संग्रह में इन्हें छोटी बड़ी कहानिया ही कहा है निधि जी।
विधा नहीं मेरे लिए विषय वास्तु और विरोध जरूरी रहा है।
हमेशा से।

अशोक जैन:  आप सत्य कह रहे हैं । यह सब गलत है किंतु इन सबकी नीति निर्धारण करने वालों की नजर में यह सब गलत नहीं है और दुर्भाग्य से कई जगह नीति निर्धारण में महिलायें भी हैं।  इस सम्बंध में बहुत लिखा जा चुका है, लिखा जा रहा और लिखा जायेगा। किंतु यह तो घटने के बजाय बढ़ रहा है।

ब्रजेश कानूनगो : यही चिंता की बात है जैन साहब लेखक बस कह भर सकता है।
अशोक जैन:  तीनों कथायें श्रेष्ठ हैं किंतु हर व्यक्ति की अपनी अपनी सोच और दृष्टि होती है। कई बार यह भी देखा है कि लेखक ने एक दृष्टिकोण को लेकर रचना लिखी और पाठक को उससे बेहतर दृष्टिकोण नजर आता है।

ब्रजेश कानूनगो: : इसका रास्ता ही अच्छा आलोचक दिखाता है।वह पाठक और लेखक के बीच सेतु का काम करता है।

अशोक जैन:  ब्रजेश जी अपनी बात तो कहते ही रहना चाहिए। पाठक के अंतर्मन पर कुछ न कुछ छाप तो पड़ती है और फिर कुछ नहीं तो स्वांत सुखाय तो है ही।

ब्रजेश कानूनगो : रचना का हर पाठ उसका नया कोण पाठक के लिए खोलता है जैन साब।
विशेषकर कविता में तो यह बहुतायत से होता है।

निधि जैन: जी ब्रजेश जी
आपकी कहानियां प्रभावी हैं.इन्हें कहानी कहना ही उपयुक्त होगा

मीना राणा शाह:  ब्रजेश जी बढ़िया कहानी हैं ...पेट की मज़बूरी ,चैनलों पर ख़बरों की दुर्गति और रिश्तों पर हो रहे अविश्वास का अच्छा उदाहरण हैं ये कहानियाँ...जहाँ तक लघु कथा का सवाल है तो मापदंड कहीं तय नहीं हो पाते हैं ...अभी एक पत्रकार महोदय लप्रेस (लघु प्रेम कथा ) लिख रहे हैं ये भी तो लेखन का एक नया रूप आ रहा है ...बहर हाल कहानियाँ अच्छी हैं

डॉ गरिमा: आज प्रकाशित तीन अच्छी और चुटीली लघुकथाएँ हैं।देखन में छोटे लगें,घाव करें गंभीर...कम शब्दों में कहनी ही लघुकथा का गुण है।यह कहानी की सबसे नजदीकी विधा है।लेकिन कहानी का सार नहीं। लघुकथा में सामयिक समस्याओं  को केंद्र में रखा जाता है। अक्सर लेखक समाधान देता है ,न भी दे तो किसी समस्या के सबसे चुटीले पक्ष को संकेत से उजागर करना ,यानि पाठक का ध्यान उस और आकृष्ट कर पाना भी पर्याप्त है।"भारत का हिंदी लघुकथा संसार "_राजकुमार घोकड़ की पुस्तक इस दृष्टि से एक अच्छा शोध है।हिंदी में माधवराव सप्रे की "एक टोकरी भर मिट्टी"से इस विधा की शुरुआत होती है।कई पत्रिकाएं ऐसी हैं जो सिर्फ लघुकथाएँ ही छापती हैं । हंस और पाखी में भी लघुकथाओं को स्थान दिया जाता है।

आभा जी:  : आखिरी कहानी बहुत प्रभावी लगी। रिश्तों में पैदा हुए अविश्वास और समाज में बढ़ रही पाशविकता को बहुत ही ठोस तरीके से पेश करती। तीनों ही कहानियाँ संक्षिप्त और सटीक हैं।

अर्चना चोव:  Kisi bhi saty ghatna de pterit rachnae jyasfs prabhaav yb faalti hai jb paathk kp is ghatna ko jaankaari ho ....mujhe ye srrkhne ko mila
: Seekhane*

ब्रजेश कानूनगो:  लेकिन वह घटना बस प्रेरणा तक ही सीमित होना चाहिए।कहानी अपने आप में स्वतन्त्र रूप से प्रभावित करे ।यह बहुत जरूरी है। अर्चना जी।

ब्रजेश कानूनगो: : यथार्थ के साथ कल्पना और सुन्दर और ठीक बुनावट रचना को प्रभावी बनाती है।
अर्चना चोव: Aap likhe khuda baanche type lilhne par bhi aap samjh paae...aabhaari hoo.....mob. Me hindi nahi ho paya hai kshama

उर्दू शायरी के शुरूआती दौर के तीन सुप्रसिद्ध शायरों की ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक)। 1. मोमिन ख़ाँ 'मोमिन' (1800-1852) 2. क़लंदर बख़्श 'जुरअत' (1748-1809) 3. मीर तक़ी 'मीर' (1722-1810)

1. मोमिन ख़ाँ 'मोमिन' (1800-1852)

असर उसको ज़रा नहीं होता
रंज राहत-फ़ज़ा नहीं होता
(रंज होना - दुःखी होना/विलाप करना; राहत-फ़ज़ा - राहत पहुँचाने वाला)

तुम हमारे किसी तरह न हुए
वरना दुनिया में क्या नहीं होता

उस ने क्या जाने क्या किया लेकर
दिल किसी काम का नहीं होता

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता
(गोया - जैसे कि/as if)  

हाल-ए-दिल यार को लिखूँ क्यूँकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता
(क्यूँकर - कैसे)

चारा-ए-दिल सिवा-ए-सब्र नहीं
सो तुम्हारे सिवा नहीं होता
(चारा-ए-दिल - दिल का इलाज; सो - और वो/ जो कि)

2. क़लंदर बख़्श 'जुरअत' (1748-1809)
 
ऐ दिला हम हुए पाबंद-ए-ग़म-ए-यार कि तू
अब अज़ीयत में भला हम हैं गिरफ़्तार कि तू
(दिला - दिल; पाबंद-ए-ग़म-ए-यार - प्रियतमा के दुःख में बंधा हुआ; अज़ीयत - मुसीबत)  

हम तो कहते थे न आशिक़ हो अब इतना तो बता
जाके हम रोते हैं पहरों पस-ए-दीवार कि तू
(पहरों - घंटों; पस-ए-दीवार - दीवार के नीचे)   

वही महफ़िल है वही लोग वही है चर्चा
अब भला बैठे हैं हम शक्ल-ए-गुनहगार कि तू
(शक्ल-ए- गुनहगार - गुनहगार की तरह)

बे-जगह जी का फँसाना तुझे क्या था दरकार
तअन-ओ-तशनीअ के अब हम हैं सज़ावार कि तू
(दरकार - ज़रूरत/ज़रूरी; तअन-ओ-तशनीअ - ताने और शिकायतें; सज़ावार - सज़ायाफ़्ता)

वहशत-ए-इश्क़ बुरी होती है देखा नादाँ
हम चले दश्त को अब छोड़ के घर-बार कि तू  
(वहशत-ए-इश्क़ - प्रेम में अकेलापन; दश्त - रेगिस्तान)

हम तो कहते थे न हमराह किसी के लग चल
अब भला हम हुए रुसवा सर-ए-बाज़ार कि तू 
(रुसवा - बदनाम; सर-ए-बाज़ार - बीच बाज़ार में)

ग़ौर कीजे तो ये मुश्किल है ज़मीं ऐ 'जुरअत' 
देखें हम इस में कहें और भी अशआर कि तू
(ज़मीं - ज़मीन/प्लेटफार्म; अशआर - 'शेर' का बहुवचन)

3. मीर तक़ी 'मीर' (1722-1810)

फ़क़ीराना आए सदा कर चले     
मियाँ ख़ुश रहो हम दुआ कर चले 
(फ़क़ीराना - फ़क़ीरों की तरह; सदा - आवाज़ लगाना)

जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो उस अहद को अब वफ़ा कर चले
(अहद - प्रण/प्रतिज्ञा) 

शिफ़ा अपनी तक़दीर ही में न थी
कि मक़्दूर तक तो दवा कर चले
(शिफ़ा - सेहतयाफ़्ता होना; मक़्दूर - सामर्थ्य)

वो क्या चीज़ है आह जिसके लिए
हर इक चीज़ से दिल उठा कर चले
 
कोई ना-उमीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छुपा कर चले
(ना-उमीदाना - ना-उम्मीदी से भरी)

बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहाकर चले    
(याँ - यहाँ)  

दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
(बे-ख़ुद - आपे से बाहर; आप - ख़ुद)

कहें क्या जो पूछे कोई हम से 'मीर'
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले

प्रस्तुति:-फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

प्रज्ञा :-
मोमिन कलंदर बख्श और मीर की ग़ज़लों के लिये शुक्रिया फरहत जी। तीनों की शक्ल इश्क है। बढ़िया ग़ज़लें। तीसरी ग़ज़ल को तो बाज़ार फ़िल्म में बड़ी ही खूबी से दर्शाया गाया गया था। आज पूरी पढ़ी।

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, प्रज्ञा जी शुक्रिया।
जी सही कहा। और बाक़ी दो ग़ज़लों को भी क्रमशः नय्यरा नूर/तलत महमूद और उस्ताद अमानत अली ख़ाँ जैसे प्रख्यात गायकों ने अपनी आवाज़ दी है। अगर एडमिन की इजाज़त होगी तो इनका youtube लिंक शाम को शेयर करूँगा।

आर्ची:-
बहुत ही लाजवाब और बेमिसाल बन पडीं हैं गजलें.. गज़लें कहने की उत्कट इच्छा होने लगी है साथ में आप शब्दार्थ भी देते हैं ये बहुत सहायक होता है समझने में बहुत बहुत धन्यवाद फरहतजी

फ़रहत अली खान:-
ज़ौक़, ग़ालिब, आज़ुर्दा और ज़फ़र के समकालीन मोमिन बेहतरीन शायर थे। साथ ही साथ ये एक हकीम और उम्दा शतरंज खिलाड़ी भी थे। रूमानी ग़ज़ल के सबसे बड़े शायरों में इनका नाम लिया जाता है।

जुरअत को उर्दू के सबसे उम्दा शायरों में गिना जाता है। फैज़ाबाद के थे। काफ़ी कम उम्र में ही इनकी आँखों की रौशनी चली गयी थी।

मीर तक़ी 'मीर' को बड़े आलोचक उर्दू ग़ज़ल के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ शायर बताते हैं।

फ़रहत अली खान:-
एक और क़िस्सा सुनाता चलूँ।
मोमिन के शेर:
'तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता'
ग़ालिब को इतना पसंद आया कि उसके बदले उन्होंने इसके अपने एक पूरा दीवान(बड़ा कविता संग्रह) देने की पेशकश की थी।
ज़ाहिर है ऐसा उन्होंने इस शेर की ख़ूबसूरती को देखकर कहा होगा।
असल में इस शेर के दो मायने निकलते हैं; आप सब इसे पढ़कर ट्राय करके देखें।

फ़रहत अली खान:-
एक और क़िस्सा सुनाता चलूँ।
मोमिन के शेर:
'तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता'
ग़ालिब को इतना पसंद आया कि उसके बदले उन्होंने अपना एक पूरा दीवान(बड़ा कविता संग्रह) देने की पेशकश की थी।
ज़ाहिर है ऐसा उन्होंने इस शेर की ख़ूबसूरती को देखकर कहा होगा।
असल में इस शेर के दो मायने निकलते हैं; आप सब इसे पढ़कर ट्राय करके देखें।

फ़रहत अली खान:-
इस तरह पढ़ें:
1. 'तुम मेरे पास होते हो गोया, जब कोई दूसरा नहीं होता'
2. 'तुम मेरे पास होते हो गोया जब, कोई दूसरा नहीं होता'
(गोया - जैसे कि)

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, प्रज्ञा जी, अर्चना जी, ब्रजेश जी, सुवर्णा जी, गरिमा जी, कविता जी, नयना जी, मनीषा जी, अशोक जी, अंजनी जी, हंसा. जी, रुचि जी। आप सभी का बेहद शुक्रिया कि अपना मूल्यवान समय ग़ज़लों को दिया।
प्रयास अच्छा है प्रदीप भिया
पर contemporary words के उपयोग के सिलसिले में ग़ज़ल के मुआमले में थोड़ी सावधानी रखना चाहिए

जैसे

वो जाफ़रानी पुलोवर उसी का हिस्सा है
कोई दूसरा जो पहने तो दूसरा ही लगे

-(बशीर बद्र)
ज़ौक़, ग़ालिब, आज़ुर्दा और ज़फ़र के समकालीन मोमिन बेहतरीन शायर थे। साथ ही साथ ये एक हकीम और उम्दा शतरंज खिलाड़ी भी थे। रूमानी ग़ज़ल के सबसे बड़े शायरों में इनका नाम लिया जाता है।

जुरअत को उर्दू के सबसे उम्दा शायरों में गिना जाता है। फैज़ाबाद के थे। काफ़ी कम उम्र में ही इनकी आँखों की रौशनी चली गयी थी।

मीर तक़ी 'मीर' को बड़े आलोचक उर्दू ग़ज़ल के इतिहास का सर्वश्रेष्ठ शायर बताते हैं।