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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 मई, 2015

आरक्षण पर चर्चा


मनुस्मृति का हवाला देकर जाति प्रथा का विरोध किया जाता है .बाबासाहब अम्बेडकर ने भी किया था . मनुस्मृति में अनुलोम विवाह का उल्लेख है यानि कनिष्ठ वर्ण के पुरुष द्वारा उच्च वर्ण की स्त्री से विवाह करना .संविधान के अनुसार जाति प्रमाणपत्र पिता की जाति के आधार पर दिया जाता है .माता यदि कनिष्ठ वर्ण की और पिता उच्च वर्ण के हो तो संतान को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता अर्थात संविधान भी एक तरह से अनुलोम विवाह या मनुस्मृति का समर्थन करता है .

आरक्षण के मामले में क्या इस तरह का भेदभाव  उचित है ?
क्या यह नियम माता के अस्तित्व को नकारता   है ?
इसका व्यावहारिक स्वरुप क्या होना चाहिए ?

चर्चा:-

सुषमा अवधूत :-
Mere hisab se aarkshan jatigat aadhar par nahi hona chahiye fir ma ya pitaji Ki jati kounsi bhi ho fark nahi padta aarkashan na dete hue jo talented hai ,garib hai use kitaben muhayya karao unki fees main concession dena chahiye taki bahut se vivad khatm ho jayenge

Lekin jab aarkshan laga Tha tab kitne yuwaone khud ko jalakar Jan di thi ab to yah itni badh chuki hai Ki yadi band hoti hai tab bhi shayad bahut si Jane jayengi ,main kisi particular jati ke khilaf nahi hu. Lekin jab dekhati hu Ki uchh jati ka student garib hote hue aur talented hote hue bhi kuchh .%ke liye adm nahi le pata aur dusra us.se paisewala hokar bhi aur kam talented ho hue bhi easily acche college main adm pa jata hai ,tab bura lagta hai,aur jo aarkshan wala khuddar hota hai wo adm general se leta hai ,tab ek general wale Ki bhi seat jati hai sorry shayad main subject se thoda hat kar boli  malum nahi par mujhe jo laga wo likha

नंदकिशोर बर्वे :-
आरक्षण का मामला सामाजिक उतना नहीं है जितना कि राजनीतिक। और कोई भी दल या विचार धारा के लोग व्यक्ति गत बात चीत में इस मुद्दे पर तो खुलकर चर्चा करते हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से कोई भी इस बाबत कुछ कहना नहीं चाहता। प्रारंभिक रूप से ॼो आरक्षण मात्र दस वर्षों के लिए लागू किया गया था वह ईमानदारी पूर्वक सामाजिक न्याय के लिए था लेकिन बाद में वह साल दर साल राजनैतिक रूप लेता गया। जब वोट आधारित राजनीति चलेगी तब तक यह मुद्दा बना रहेगा। फिर भी मेरे विचार में इसे क्रमशः समाप्त करने का एक तरीका यह हो सकता है कि इसकी पात्रता एक ही पीढ़ी के लिए होनी चाहिए। अर्थात जिन्होंने आरक्षण के आधार पर नौकरी प्राप्त की है उनके बच्चों को इस की  पात्रता नहीं होनी चाहिए। इस प्रकार चाहे हजार साल में ही सही इसके समाप्त होने की संभावना होगी।

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी और बर्वे जी की बातों से सहमत हूँ।
आरक्षण के नाम पर इतनी ना-इंसाफियाँ देखी हैं कि इसके मौजूदा स्वरुप का समर्थन करने को आप ही जी नहीं चाहता। आरक्षण का मौजूदा स्वरुप कभी रहा होगा न्यायोचित, मगर आज तो ऐसा नहीं लगता। ये तो केवल एक सामाजिक बुराई है जिसे राजनीतिक मजबूरियों की वजह से ढोया जा रहा है। सियासी लोग इसमें अपना नफ़ा-नुक़सान ढूंढते हैं।
हालाँकि इसका मतलब ये नहीं है कि मैं हर तरह के आरक्षण के ख़िलाफ़ हूँ;
मगर आरक्षण की वास्तविक परिभाषा "किसी ग़रीब-मज़्लूम दबे-कुचले आदमी को ऊपर उठाना, बिना उसके ज़ात-मज़हब को देखे", होनी चाहिए।

माता के अस्तित्व को कोई भी मानव-निर्मित क़ानून नहीं नकार सकता। हमारे देश के क़ानून में अगर कमियाँ न होतीं तो इसमें वक़्त-वक़्त पर संशोधन की आवश्यकता नहीं पड़ रही होती। बहुत से मानव-निर्मित नियम-क़ानून वक़्त-ए-ज़रुरत के हिसाब से होते हैं, जिनमें वक़्त के साथ बदलाव करना आवश्यक होता है।
आरक्षण के नियम का व्यवहारिक स्वरुप जाति-धर्म पर आधारित होना ही नहीं चाहिए(फिर चाहे प्रमाण पत्र पर जाति माता की हो या पिता की), बल्कि इसके लिए पारिवारिक आय को पैमाना बनाना चाहिए।

अज्ञात:-
‬फिर तो माँ का सर name लगाने की परंपरा होनी चाहिए, न की पिता का। यह कैसे संभव है कि आरक्षण देने के उच्च और निम्न में हम माँ को उच्च पाने पर आरक्षण ना देने की सिफारिश करते हैं और सर name पिता का ही लगाते हैं। जिसके भी सर name से समाज के बीच जाएगे, उसका ही लाभ मिलना चाहिए। जहाँ तक बात आरक्षण की है तो मेरा मानना है कि नए नियम बनाकर क्रीमी लेयर की आय सीमा बढाकर, इस पर कंट्रोल किया जा सकता है। आरक्षण के नाम पर रोकर, इसका विरोध करके हम शायद दलितों की स्थिति को नजरअंदाज़ करते हैं। उनके ऊपर तो जातीय हमले आज भी हो रहे हैं। इसका ताज़ा उदाहरण shahjanpur में दलित महिलाओं को गांव में निर्वस्त्र घुमाने की घटना है। इसलिए मुझे लगता है कि कम से कम लेखक को तो हर वर्ग का दर्द महसूस करना ही चाहिए। तभी वह पूर्ण लेखक का दर्ज प्राप्त कर सकता है...

आर्ची:-
पुरूष प्रधान समाज मे महिलाओं की सामाजिक प्रस्थिति (social status)पति पर ही निर्भर होती है संभवत: इसीलिए ऐसा प्रावधान रखा गया हो.. मैं ये नहीं कहती कि यह उचित ही है पर इतना जरूर है कि बाबा साहब ने आरक्षण का प्रावधान जिस उद्देश्य से स्वतंत्रता के ३० वर्षों बाद तक के लिए रखा था वो राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी के चलते ६७ सालों बाद भी पूरा नहीं हो सका है

गरिमा श्रीवास्तव: इस कहानी के माध्यम से हम आरक्षण के हकदारों और लाभ ले लेने वालों के व्यावहारिक परिदृश्य को जान सकने में सक्षम होते है।समूह यदि सूचित करे तो यह कहानी मेल की जा सकती है।
मोहनदास पर फ़िल्म भी बनी है।मोहनदास अपनी जाति का पहला लड़का है जो बहुत कष्ट और परिश्रम से बी ए की परीक्षा उत्तीर्ण करता है लेकिन कोई सवर्ण उसकी मेहनत का फल खाता है जुगाड़ करके।मोहनदास की आर्थिक स्थिति कभी सुधरती नही क्योंकि वो मेहनत तो जानता है स्वाभिमान बेचना नही जानता।समाज हमें साहित्य की सामग्री देता है और साहित्य हमें समाज को देखने परखने की समझ।भारतीय समाज बहुसांस्कृतिक है जिसके यथार्थ को पकड़ने के लिए हमें साहित्य का सहारा लेना ही होगा।बिना किसी पूर्वग्रह के संवेदनशीलता के साथ हमें अपने सामाजिक दायित्वों को निभाने की ज़रूरत है।तभी हम समतावादी समाज की बढ़ सकते हैं "ताउम्र ग़ालिब भूल यह करता रहा गर्द चेहरे पर जमी थी ,आईना साफ़ करता रहा"

ब्रजेश कानूनगो:-
समकालीन चुनौतियों से झूझता साहित्य अपनी भूमिका का निर्वाह बहुत रचनात्मक लेकिन स्थायी तौर पर धीरे ही सही करता ही है।

मनीषा जैन:-
आरक्षण के द्वारा तो जातिप्रथा को और बढ़ावा ही मिलता है।और हम दलित व सवर्ण कह कर स्वयं ही जातिप्रथा को बढावा देते है। मोहन दास लम्बी कहानी का बिलकुल सही उदाहरण दिया गारिमा जी ने।

1 टिप्पणी:

  1. ये आरक्षण अंग्रेजो की देंन है | सन 1891 में जब अंग्रेज सरकार थी, तब उस सरकार ने कुछ नौकरिया निकाली | लेकीन अंग्रेज अफसर चालाकी से सारे पदों पर हमेशा अंग्रेजो को रखते थे जिसके खिलाफ भारतीयों ने आवाज उठाई और अंग्रेज सरकार ने भारतीयों के लिए कुछ पद आरक्षित कर दिए |
    इस तरह ये प्रणाली अंग्रेजो द्वारा लाई गई है, जिसे आजादी के बाद आंबेडकर ने नया रूप दिया |
    ये आरक्षण हटाना ही चाहिए |
    और ये लोग अपनी औकात क्यों भूल जाते है | ये SC / ST हमारी बराबरी क्या करेंगे | एक बार आरक्षण ख़त्म हो जाने दो फिर देखना कैसे इनको कोई भी नौकरी मिलती है | हम सारे पदों पर हमारे ही लोगो को बैठाएंगे, देख लेना हम इनको फिर से सड़क पर ले आएंगे |हम इनको गटर में फेंक देंगे, ये गन्दी नाली के कीड़े | हम इनका अस्तित्व मिटा देंगे |

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