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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

22 मई, 2015

अनवर 'शुऊर'की तीन ग़ज़लें

1.
काफ़ी नहीं ख़ुतूत किसी बात के लिए...
तशरीफ़ लाइएगा मुलाक़ात के लिए...
(ख़ुतूत - 'ख़त' का बहुवचन)

दुनिया में क्या किसी से किसी को ग़रज़ नहीं...
हर कोई जी रहा है फ़क़त ज़ात के लिए...
(ग़रज़ - मतलब, फ़क़त - सिर्फ़, ज़ात - ख़ुद)

हैं पत्थरों की ज़द पे तुम्हारी गली में हम...
क्या आए थे यहाँ इसी बरसात के लिए...
(ज़द - पहुँच/रेंज)   

अपनी तरफ़ से कुछ भी उन्हों ने नहीं कहा...
हम ने जवाब सिर्फ़ सवालात के लिए...

महँगाई राह-ए-रास्त पे ले आई खींच कर...
बचती नहीं रक़म बुरी आदात के लिए...
(राह-ए-रास्त - सीधा रास्ता, आदात - आदतों)

करने के काम क्यूँ नहीं करते 'शुऊर' तुम...
क्या ज़िन्दगी मिली है ख़ुराफ़ात के लिए...

2.
इत्तेफ़ाक़ अपनी जगह, ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह...
ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह...
(जहाँ - जहान/दुनिया)

कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं...
इख़्तियार अपनी जगह है, बेबसी अपनी जगह...
(इख़्तियार - अधिकार/नियंत्रण)

कुछ न कुछ सच्चाई होती है निहाँ हर बात में...
कहने वाले ठीक कहते हैं सभी अपनी जगह...
(निहाँ - छिपी हुई)

सिर्फ़ उसके होंठ काग़ज़ पर बना देता हूँ मैं...
ख़ुद बना लेती है होठों पर हँसी अपनी जगह...

दोस्त कहता हूँ तुम्हें, शायर नहीं कहता 'शुऊर'...
दोस्ती अपनी जगह है, शायरी अपनी जगह...

3.
बुरा बुरे के अलावा भला भी होता है...
हर आदमी में कोई दूसरा भी होता है...

मुक़ाबले पे कमर-बस्ता हम नहीं होते...
अगर शिकस्त का ख़तरा ज़रा भी होता है...
(कमर-बस्ता - तैयार)

तुम्हारे शहर में है जी लगा हुआ वरना...
मुसाफ़िरों के लिए रास्ता भी होता है...

वो चेहरा एक तसव्वुर भी है, हकीकत भी...
दरीचा बन्द भी होता है, वा भी होता है...  
(तसव्वुर - कल्पना, दरीचा - खिड़की, वा - खुला)                                                     
हम ऐ 'शुऊर' अकेले कभी नहीं होते...
हमारे साथ हमारा ख़ुदा भी होता है...

प्रस्तुति:-
फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

आर्ची:-: सुषमाजी से सहमत मुझे भी वो लाइन अधूरी लगी..
बाक़ि गजलें बहुत शानदार जानदार है.. " कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं...." सबसे अच्छा शेर लगा

मनीषा जैन:-
पहली तो पूरी की पूरी बहुत उम्दा ग़ज़ल।पर एक शेर अधूरा सा।
दूसरी ग़ज़ल का चौथा शेर बहुत खूबसूरत।
तीसरी ग़ज़ल का पहला ही शेर आज बहुत प्रसंगिक।
सारी ग़ज़लें पढ़ने में आनंद आया। शुक्रिया फरहत जी।

अलकनंदा साने:-
वाह फरहत ! आपके पास तो बेशकीमती खजाना है ......
जो पंक्ति अधूरी लग लग रही है वह शायद टाइप में छूटा कोई शब्द नहीं....नहीं..हर्फ़ है ...सही हैं न फरहत ?

वो चेहरा एक तसव्वुर भी है, हकीकत भी...
दरीचा बन्द भी होता है, वा भी होता है...  

एक से बढ़कर एक शेर ...शुक्रिया ..

वसुंधरा काशीकर:-
पहली और तिसरी ग़ज़ल बहोत बढिया है। पहली ग़ज़ल का पहला शेर और तिसरी ग़ज़ल का पहला शेर मुझे हासिल -ए- ग़ज़ल शेर लगा।

कविता वर्मा:
पहली ग़ज़ल का यह शेर
दुनिया में क्या किसी से किसी को ग़रज़ नहीं...
हर कोई जी रहा है फ़क़त ज़ात के लिए...
दूसरी का
इत्तेफ़ाक़ अपनी जगह, ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह...
ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह...
और तीसरी ग़ज़ल का
तुम्हारे शहर में है जी लगा हुआ वरना...
मुसाफ़िरों के लिए रास्ता भी होता है... हासिल ए  ग़ज़ल हैं दूसरी ग़ज़ल मुझे सबसे अच्छी लगी। फरहत जी आभार इन्हे पढ़वाने के लिए।

किसलय पांचोली:-
ब्रेकेट में उर्दू शब्दों क अर्थों ने गजलों को और संप्रेषणीय बना दिया। यह बहुत् जरूरी था। पढ़ कर आनन्द आ गया। बधाई और धन्यवाद। " हमने जवाब........"यह पंक्ति समझ नहीं आई।

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, ब्रजेश जी, अर्चना जी, मनीषा जी, प्रज्ञा जी, अशोक जी, अलकनंदा मैम, नीता जी, आभा जी, कविता जी, वसुंधरा जी, सुवर्णा जी, बर्वे जी, अर्चना जी, किसलय जी, संजय जी, रूपा जी...
इतनी मूल्यवान टिप्पणियों के लिए आप सभी साथियों का बहुत बहुत शुक्रिया।

एक शेर जिस को पढ़कर लगभग हर किसी को उसमे एक अधूरापन सा महसूस हुआ, उसे जब मैंने पहली बार पढ़ा था तो मुझे भी ऐसा ही लगा था। लेकिन दोबारा पढ़कर बात समझ में आ गयी।
दरअसल अनवर 'शुऊर' साहब की ग़ज़लों में कई बार मुझे ये चीज़ देखने को मिली कि एक ही लफ़्ज़ अलग-अलग जगह अलग-अलग अर्थों के साथ आया है।

पहली ग़ज़ल में यूँ तो 'लिए' शब्द जहाँ भी आया है वहाँ उसका सीधा सा अर्थ है 'for'(अंग्रेजी में)
लेकिन चौथे शेर के दूसरे मिसरे(पंक्ति) में जब उन्होंने कहा: "हमने जवाब सिर्फ़ सवालात के लिए"
तो यहाँ 'लिए' का अर्थ है 'प्राप्त किये/obtained/ got'
अब इस शेर के दोनों मिसरों(पंक्तियों) को मिलाकर पढ़ेंगे तो ये शेर मुकम्मल नज़र आएगा।

1943 में भारत में जन्मे अनवर 'शुऊर' साहब विभाजन के समय पाकिस्तान चले गए। मौजूदा वक़्त के उर्दू के अग्रणी शायरों में शुमार होते हैं।
रोज़ इनका एक नया 'क़िता'(चतुष्पदी रचना/दो शेर) 'जंग' अख़बार में प्रकाशित होता है।

मुकेश माली:-
फरहत भाई. ..बधाई स्वीकारें.
तीनों गज़ल बेहतरीन हैं. .
यहाँ खासतौर पर दूसरी गज़ल. ...
"कह तो सकता हूं मगर मजबूर कर सकता नहीं,
इख्तियार अपनी जगह है, बेबसी अपनी जगह"
इस सरलतम, बोलचाल की भाषा
के शब्दों का प्रयोग दिल छू जाने वाला है.. .!
आपको बधाई. ..!

किसलय पांचोली:-
फरहतजी, 
शुक्रिया सलीके से समझाने के लिए हमने जवाब
तमाम जिज्ञासाओं के लिए।

नीता :-
साधुवाद फ़रहत जी
बेहद उम्दा और बेहतरीन ग़ज़ल पढ़वाने के लिए और शब्दों को अलग-अलग रूप में प्रयुक्त करने को समझाने के लिए।
हार्दिक आभार

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