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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 मई, 2015

अनामिका की दो कवितायेँ

मित्रों सुप्रभात,
              
             आज आप सभी के लिए प्रस्तुत है अनामिका जी की  लिखी दो उम्दा कविताएँ-

अनुरोध करती हूँ सभी अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें ।

"जूते"

हर घर में
अलग-थलग
है उनका कोना!

अलग-अलग दिशाओं से आते है-
थककर चकनाचूर
और धूल-धूसर,
आते है जैसे वृद्ध दंपती
पार्क की बेंच पर ।

गई रात तक वे
बतियाते है
झिंगुरों से
और तिलचट्टों से!

आपस में
लेकिन वे
ज्यादा नहीं बोलते ।

सिद्ध दंपतियों की लय में
बस देख लेते हैं
एक-दूसरे को
जब लगती है
ठोकर!

भुरभुरा जाते हैं
उस वक्त
दुनिया के सब कंकड़!

"बीच का समय"

बहुत त्रास देता है बीच का समय।
चालीस की सरहद के पार
अकसर ही तोंद-सी निकल आती है उदासी
आपके पूरे वजूद के बाहर,
और आप थोड़े लजाए हुए,
थोड़े-से क्षमाप्रार्थी
कभी योगमुद्रा में बैठे रह जाते हैं घंटों चुपचाप,
और कभी दुनिया से मुँह मोड़कर
एकदम ही दौड़ जाते हैं
किसी अलक्ष्य की तरफ ।
माँ चिंता करती है,पत्नी शिकायत-
'बहुत आयतन घेरती है तुम्हारी उदासी,
दूरी पैदा करती है,बोरियत भी
और गले मिलने नहीं देती!'
क्या जाने क्या बात है
कि थोड़ा सयाना होते ही
टाइट बेल्ट से बांधकर
एक बड़ा शून्य पहन लेता है
हर आदमी
ऐन अपने दिल के नीचे!

अनामिका
प्रस्तुति:-तितिक्षा
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टिप्पणियाँ:-

राजेश झरपुरे:-
अनामिकाजी को पढ़ना हमेशा सुखद अनुभव से गुज़रना होता है । एक कवि ही हो सकता है जो जूतों में भी प्राण डाल दे। " सिध्द दंपति की लय में ... और पार्क में बैठे वृध्द दंपति ...कविता की अदूभुत पंक्ति /अद्भुत बिम्ब है । बीच का समय में अनामिकाजी ने कितनी गम्भीरता से तोंद सी बढ़ आई उदासी को चालीस पारा पुरूष की बढ़ती हुई जिम्मेदारी से जोड़ा है... अदभुत है ।
तितिक्षाजी इसी तरह बेहतरीन कवितायें लगाते रहिये । बधाई ।

शैली किरण:-: सच..जूते कविता तो बहुत शानदार..है..बिम्ब उत्पन्न करती..जूते में प्राण डालती..! बीच का समय भी अच्छी कविता है..!

विदुषी भरद्वाज:-
पैनी दृष्टि से यथार्थ को पकड़ना.... सरलता से गहरी बात कहने की कला ..दोनों कविताएं बहुत अच्छी बधाई अनामिका जी ..धन्यवाद तितिक्षा जी

गणेश जोशी:-
मणि जी की कविता का आनंद लिया। बहुत अच्छी प्रस्तुति। इन्द्रमणि जी की लाजवाब रचना और अनामिका जी की कविताओ का स्वाद चखा। बीच का समय कविता जीवन की कडवी हकीकत को बया करती है।

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