image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 मई, 2015

सीताकान्त महापात्र की एक कविता

सीताकान्त महापात्र की एक कविता

याद है हृषिकेश
उस दिन के स्कूल का उत्सब ?
हेडमास्टर के आनंदभरे आंसू
और भाषण
लड्डू, समोसों के पैकेट
फहराता तिरंगा और
हमारे कंठ से गगन पवन मुखरित
जन गन मन
याद है हृषिकेश
वह महान दिन ?

कुछ ही दिन बीते होंगे
आया वह दुर्दिन
वह दारुण समाचार
स्कूल में खबर फ़ैल गयी थी
उस सरल बूढ़े की कमर से
लटका समय ख़त्म हो गया
गोली खाकर लुढक गया
वह कटी डाल सा
'हे राम' उच्चारण में सब ख़त्म हो गया
उसका चरखा, उसके खड़ाऊ, उसका चश्मा और उसकी
पुरानी घडी
इस देश के गरीब दुखियारों के लिए देखे
सारे सपने उसके टूट गए।

हृषिकेश, हमने तो उसे आँखों से
कभी देखा तक नहीं था
बल्कि तस्वीर में उसके लंबे कान
मराठों सा चश्मा
देखकर आती थी हमें हंसी
और हम हंसा करते थे।

...

वक़्त होता है जब
पत्थर से पत्थर जोड़ा जाता है
मंदिर मस्जिद गिरजा बनते हैं
फिर वक़्त अत है जब
टूटे मंदिर गिरजा और मस्जिद के
टूटे पत्थर फेककर हम मारते हैं
कादम्बिनी पीकर यदुकुल की तरह
पल में अपने ही भाई बंधु
हो जाते हैं
एक दूसरे के दुश्मन।

(कविता संग्रह 'भारतवर्ष' से। ओड़िया से हिंदी : राजेंद्र प्रसाद मिश्र। ज्ञानपीठ प्रकाशन)
-------------------
टिप्पणियाँ:-

व्यास अजमिल:-
बहुत दिनों के बाद इतनी अच्छी कविता पढ़ी। बार बार पढूंगा इसे। चाहता हूँ ये मुझे याद हो जाए। कुछ और लोगों को सुनाना चाहता हूँ। याद हो जाती है अच्छी कबिता। अच्छी कविता होती ही है याद करने के लिए। अरे हाँ राजेन्द्र भाई को बधाई। इसके अनुवाद का मुश्किल काम उन्होंने कर दिखाया। गज़ब की सादगी है अनुवाद में।

गौतम चटर्जी:-
'प्रेम में होना अच्छा है क्योकि प्रेम दुर्गम है। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को प्यार कर सके, यह संभवतः सबसे कठिन काम है, जो हम लोगों के जिम्मे है। एकदम आधारभूत काम, अंतिम प्रमाण और परीक्षा। बाकी सब कुछ तो वहां पहुँचने की तैयारी है। यही कारण है की युवा लोग, जो अभी हर काम की शुरुआत में हैं, प्यार करने में सक्षम नहीं हैं। ये सीखने योग्य बातें हैं। अपने अकेले, चिंतातुर, हड़बड़ी भरे मन की सभी शक्तियों को एकाग्र करते हुए, अपने पूरे अंतरतम से उन्हें प्यार करना सीखना चाहिए। सीखने का काल सदा लंबा और अकेलेपन से घिरा होता है, इसलिए प्यार करने वाले को चिरकाल तक एक लंबे, गहरे और उत्कट किस्म के अकेलेपन में धकेल देता है।
अपने आतंरिक एकांत को तुम्हे इस बात से दूभर नहीं बनाना चाहिए कि तुम्हारे भीतर का कुछ बाहर आ जाने को लालायित है। यदि तुम शांति से स्थिरतापूर्वक विचार करो तो यही इच्छा दूर दूर तक तुम्हारे एकांत का विस्तार करने का माध्यम बनेगी।'

(महान कवि राइनेर मॉरिया रिल्के द्वारा युवा कवि फ्रांज़ ज़ेवियर कैप्पस को लिखे पत्र का अंश। हिंदी अंतरण : राजी सेठ)

ललिता यादव:
किसी का अर्जित सत्य दूसरे को अवश्य दृष्टि या दिलासा देने में समर्थ होता है।मूल्यवान पत्र की साझेदारी के लिए गौतम जी को धन्यवाद!

परमेश्वर फुंकवाल:-
प्रेम दुर्गम है यह बात समझ में आती है पर क्या यह सही है कि युवा प्यार करने में सक्षम नहीं। प्रेम का आयु से क्या संबंध है। क्या कम उम्र में मर जाना बिना प्रेम को जाने मर जाना है। मेरे मन में यह पत्र उक्त सवाल छोड़ रहा है।

गौतम चटर्जी:-: प्रेम करने या होने की उम्र नहीं होती। प्रेम की उम्र होती है। प्रेम की गहनता गहन होने पर ही प्रकट होती है। तासीर या इश्क़ को चाहिए एक उम्र जैसी बातें यहाँ पर  हम ला सकते हैं जो अनुभवी लोगों द्वारा कही गयी है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें