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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

16 अगस्त, 2016

कविताएं : संतोष अर्श

मित्रो आज कुछ कविताएँ प्रस्तुत की जा रही है....का परिचय नीचे दिया जा रहा है. 

संतोष अर्श का जन्म 1987 में अवध प्रांत के बाराबंकी जनपद के एक गाँव में हुआ। काफ़ी समय लखनऊ में बिताया। प्रारम्भिक लेखन उर्दू में करने की कोशिश की। आकाशवाणी लखनऊ के उर्दू कार्यक्रम में ग़ज़लें पढ़ीं। क्षेत्रीय शे’री-नशिस्तों, मुशायरों में शिरक़त की। कम उम्र में ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ लखनऊ से प्रकाशित हुए। अवध के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लेखन में भी रुचि है। इन विषयों पर भी कुछ लेख प्रकाशित हुए। ‘लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिक, सामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन। 2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित। फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी हैं।

संतोष अर्श की कविताएँ                

1 हरारत                                             
तुम्हें पता है !?
‘फ़्रांज़ काफ़्का’ ने ‘मिलेना’ से इस तरह मुहब्बत की,
कि उसे ज़िंदगी भर हल्का बुख़ार रहा !
और उसने अपना सारा का सारा साहित्य
उसी हल्की हरारत में लिखा।
काफ़्का यहूदी था !
मिलेना ईसाई थी।
कल मैंने काफ़्का की तस्वीर देखी
लेकिन यह बताने के लिए तुम मेरे पास नहीं हो
कि उसकी नाक बिल्कुल मेरी नाक जैसी थी।
काश मैं उसकी क़ब्र पर, हथेली रखकर महसूस कर सकता,
कि उसका बुख़ार अब कैसा है।

2 सोना 
गाय के दूध भरे थन छूकर
गुलाबी हो जाते हैं उँगलियों के पोर !
बीनकर चुए महुए
मन भारी हो जाता है। 
खनक कानों में भर जाती है,
धान पीटकर !
अरहर की दाल में
कच्ची अमिया की फाँक देखकर
जीवन सोना बन जाता है।
अचार के तेल की धार की तरह !

3 अम्मा-1
अम्मा जब पथनउर में कंडे पाथने जाती
तो साथ में मैं भी जाता !
अम्मा कंडे पाथती,
मैं उसे देखा करता,
पथनउर की छीली गई दूब के कल्ले
ताज़ी धूप में चमकते रहते।
गोबर क्या इतनी कीमती चीज़ थी,
कि मेरी माँ की लाल चूड़ियाँ उस पर छप जातीं ?
अम्मा सूखने के लिए, कंडे,
लाइन से लगाती !
जैसे सिपाहियों की पलटनें परेड में खड़ी हों !
जैसे पारले जी बिस्कुट की लाइनें।
कंडे पाथकर लौटते समय
सूखे कंडे ले जाने होते थे !
जिसने बनता दोपहर का खाना। 
अम्मा सर पे उठा लेती थी भरी झवई
और दो-तीन कंडे मेरे हाथों में पकड़ा देती।
सूखे कंडों में,
अम्मा की चूड़ियों की खनक होती थी,
छाप नहीं।

अम्मा-2
पाँच रुपये का घिसा नोट देखे हुए भी,
अम्मा को महीनों बीत जाते !
अम्मा न जाने कैसे अपना काम चलाती।
कम से कम सेंदुर, बिंदी और
पाँव में लगाने का गुलाबी रंग,
एक सुहागन को ख़रीदने ही पड़ते।
लेकिन अम्मा सब जुटा लेती !
सेंदुर की डिब्बी भरी रहती,
बिंदियों के पत्ते,
बरोठे के पटरे पर पड़े रहते,
सुत्ती में घुला हुआ गुलाबी रंग,
सूखकर एक परत छोड़ जाता।
बिसाती को न जाने कौन सी पट्टी पढ़ाकर,
अम्मा सब कुछ उधार ले लेती।
कितनी सुहागन थी अम्मा ! 

अम्मा-3
घोर विपन्नता, निराशा
और मुसीबत के दिनों में भी,
अम्मा पूजा करना न भूलती !
एक लोटा पानी
सूरज को दिखाकर गिरा देती।
फिर आती चौके में !
चौके में ही भगवान का ठीहा था।
दो चार कागज के फोटो, कैलेंडर
और पीतल का अगरबत्तीदान !
लाल कपड़े में लपेटा तुलसी दुबे का मानस
और नल-दमयंती कथा के साथ सुंदरकांड।
अम्मा बहुत दर्दनाक ढंग से सुमिरती थी !
जैसे बहुत पीड़ा में हो !
बुदबुदाती, भरे गले से, 
इस तरह कि आवाज़ घिघिया जाती-
‘दुर्गा मईया, महतारी मोरी,
लाज की राखने वाली,
भंडार के भरने वाली’
लेकिन दुर्गा मईया अवधी नहीं समझती थीं।
लंबे समय तक अम्मा को,
इस तरह याचना करते देख,
मेरी आस्था उसमें बढ़ती गई
और ईश्वर में खत्म होती गई।                     
         

प्रस्तुति बिजूका
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टिप्पणियां:-

सुषमा सिन्हा:-
बेहद खूबसूरत कविताएँ। सहज, सरल, मन को प्यार से छू लेने वाली। बहुत बधाई कवि को।
खासकर फ्रांज़ काफ़्का, उसका प्यार वाला बुखार और कवि को उसे महसूस करने की इच्छा, एक याद रहने वाली कविता है। बहुत खूब !!

प्रमोद तिवारी:-
बेहतरीन कविताएं। आज की सुबह शानदार हो गई। प्रेम की गहरी तड़प, लोक का चटक रंग और देशज भावबोध आत्मीयता के साथ, हल्के किंतु तीखे व्यंग। कई शेड्स हैं इन कविताओं में। कुल मिलाकर आज का दिन सार्थक बनाने के लिए संतोष अर्श और बिजूका का हार्दिक आभार।

राहुल चौहान:-
कब्र पर हथेली रखकर बुखार......
सिंदूर की डिब्बी हमेशा भरी....

युवा कवि इस देश का नहीं लगता, मानो कविताएँ विदेशी भाषा से अनूदित हो ऐसा लगता है, धारा प्रवाह सुगम.....अर्थ गहरे कवि का दिल सबमें समाता सा
संतोष अर्श बहुत उम्मीद जगा रहे है, एकदम प्योर कविता लेखन

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