नमस्कार साथियो.. आज आपके लिए प्रस्तुत हैं एक मज़दूर की कविताएँ, जो इटली के प्रसिद्ध कवि भी हैं - सबीर हका। इनकी कविताओं में एक ओर आपको एक मज़दूर का भोगा हुआ यथार्थ नज़र आएगा, तो दूसरी ओर परिवार के प्रति भावनाएँ। इन कविताओं में जीवन, मृत्यु, राजनीति, प्रेम, ईश्वर आदि के रंग में सम्मिलित हैं।
कविता :
1. 'शहतूत'
क्या आपने कभी शहतूत देखा है,
जहां गिरता है, उतनी ज़मीन पर
उसके लाल रस का धब्बा पड़ जाता है.
गिरने से ज़्यादा पीड़ादायी कुछ नहीं.
मैंने कितने मज़दूरों को देखा है
इमारतों से गिरते हुए,
गिरकर शहतूत बन जाते हुए.
2. 'ईश्वर'
(ईश्वर) भी एक मज़दूर है
ज़रूर वह वेल्डरों का भी वेल्डर होगा.
शाम की रोशनी में
उसकी आंखें अंगारों जैसी लाल होती हैं,
रात उसकी क़मीज़ पर
छेद ही छेद होते हैं.
3. 'बंदूक़'
अगर उन्होंने बंदूक़ का आविष्कार न किया होता
तो कितने लोग, दूर से ही,
मारे जाने से बच जाते.
कई सारी चीज़ें आसान हो जातीं.
उन्हें मज़दूरों की ताक़त का अहसास दिलाना भी
कहीं ज़्यादा आसान होता.
4. 'मृत्यु का ख़ौफ़'
ताउम्र मैंने इस बात पर भरोसा किया
कि झूठ बोलना ग़लत होता है
ग़लत होता है किसी को परेशान करना
ताउम्र मैं इस बात को स्वीकार किया
कि मौत भी जि़ंदगी का एक हिस्सा है
इसके बाद भी मुझे मृत्यु से डर लगता है
डर लगता है दूसरी दुनिया में भी मजदूर बने रहने से.
5. 'कॅरियर का चुनाव'
मैं कभी साधारण बैंक कर्मचारी नहीं बन सकता था
खाने-पीने के सामानों का सेल्समैन भी नहीं
किसी पार्टी का मुखिया भी नहीं
न तो टैक्सी ड्राइवर
प्रचार में लगा मार्केटिंग वाला भी नहीं
मैं बस इतना चाहता था
कि शहर की सबसे ऊंची जगह पर खड़ा होकर
नीचे ठसाठस इमारतों के बीच उस औरत का घर देखूं
जिससे मैं प्यार करता हूं
इसलिए मैं बांधकाम मज़दूर बन गया.
6. 'मेरे पिता'
अगर अपने पिता के बारे में कुछ कहने की हिम्मत करूं
तो मेरी बात का भरोसा करना,
उनके जीवन ने उन्हें बहुत कम आनंद दिया
वह शख़्स अपने परिवार के लिए समर्पित था
परिवार की कमियों को छिपाने के लिए
उसने अपना जीवन कठोर और ख़ुरदुरा बना लिया
और अब
अपनी कविताएँ छपवाते हुए
मुझे सिर्फ़ एक बात का संकोच होता है
कि मेरे पिता पढ़ नहीं सकते.
7. 'आस्था'
मेरे पिता मज़दूर थे
आस्था से भरे हुए इंसान
जब भी वह नमाज़ पढ़ते थे
(अल्लाह) उनके हाथों को देख शर्मिंदा हो जाता था.
8. 'मृत्यु'
मेरी माँ ने कहा
उसने मृत्यु को देख रखा है
उसके बड़ी-बड़ी घनी मूंछें हैं
और उसकी क़द-काठी,जैसे कोई बौराया हुआ इंसान.
उस रात से
माँ की मासूमियत को
मैं शक से देखने लगा हूं.
9. 'राजनीति'
बड़े-बड़े बदलाव भी
कितनी आसानी से कर दिए जाते हैं.
हाथ-काम करने वाले मज़दूरों को
राजनीतिक कार्यकर्ताओं में बदल देना भी
कितना आसान रहा, है न!
क्रेनें इस बदलाव को उठाती हैं
और सूली तक पहुंचाती हैं.
10. 'दोस्ती'
मैं (ईश्वर) का दोस्त नहीं हूँ
इसका सिर्फ़ एक ही कारण है
जिसकी जड़ें बहुत पुराने अतीत में हैं :
जब छह लोगों का हमारा परिवार
एक तंग कमरे में रहता था
और (ईश्वर) के पास बहुत बड़ा मकान था
जिसमें वह अकेले ही रहता था
11. 'सरहदें'
जैसे कफ़न ढंक देता है लाश को
बर्फ़ भी बहुत सारी चीज़ों को ढंक लेती है.
ढंक लेती है इमारतों के कंकाल को
पेड़ों को, क़ब्रों को सफ़ेद बना देती है
और सिर्फ़ बर्फ़ ही है जो
सरहदों को भी सफ़ेद कर सकती है.
12. 'घर'
मैं पूरी दुनिया के लिए कह सकता हूं यह शब्द
दुनिया के हर देश के लिए कह सकता हूं
मैं आसमान को भी कह सकता हूं
इस ब्रह्मांड की हरेक चीज़ को भी.
लेकिन तेहरान के इस बिना खिड़की वाले किराए के कमरे को
नहीं कह सकता,
मैं इसे घर नहीं कह सकता.
13. 'सरकार'
कुछ अरसा हुआ
पुलिस मुझे तलाश रही है
मैंने किसी की हत्या नहीं की
मैंने सरकार के खि़लाफ़ कोई लेख भी नहीं लिखा
सिर्फ़ तुम जानती हो, मेरी प्रियतमा
कि जनता के लिए कितना त्रासद होगा
अगर सरकार महज़ इस कारण मुझसे डरने लगे
कि मैं एक मज़दूर हूं
अगर मैं क्रांतिकारी या बाग़ी होता
तब क्या करते वे?
फिर भी उस लड़के के लिए यह दुनिया
कोई बहुत ज़्यादा बदली नहीं है
जो स्कूल की सारी किताबों के पहले पन्ने पर
अपनी तस्वीर छपी देखना चाहता था.
14. 'इकलौता डर'
जब मैं मरूंगा
अपने साथ अपनी सारी प्रिय किताबों को ले जाऊंगा
अपनी क़ब्र को भर दूंगा
उन लोगों की तस्वीरों से जिनसे मैंने प्यार किया.
मेर नये घर में कोई जगह नहीं होगी
भविष्य के प्रति डर के लिए.
मैं लेटा रहूंगा. मैं सिगरेट सुलगाऊंगा
और रोऊंगा उन तमाम औरतों को याद कर
जिन्हें मैं गले लगाना चाहता था.
इन सारी प्रसन्नताओं के बीच भी
एक डर बचा रहता है :
कि एक रोज़, भोरे-भोर,
कोई कंधा झिंझोड़कर जगाएगा मुझे और बोलेगा -
'अबे उठ जा सबीर, काम पे चलना है.'
परिचय -
सबीर हका की कविताएं तड़ित-प्रहार की तरह हैं. सबीर का जन्म 1986 में ईरान के करमानशाह में हुआ. अब वे तेहरान में रहते हैं और इमारतों में निर्माण-कार्य के दौरान मज़दूरी करते हैं. उनके दो कविता-संग्रह प्रकाशित हैं और ईरान श्रमिक कविता स्पर्धा में प्रथम पुरस्कार पा चुके हैं. लेकिन कविता से पेट नहीं भरता. पैसे कमाने के लिए ईंट-रोड़ा ढोना पड़ता है. एक इंटरव्यू में सबीर ने कहा था, ''मैं थका हुआ हूं. बेहद थका हुआ. मैं पैदा होने से पहले से ही थका हुआ हूं. मेरी मां मुझे अपने गर्भ में पालते हुए मज़दूरी करती थी,मैं तब से ही एक मज़दूर हूं. मैं अपनी मां की थकान महसूस कर सकता हूं. उसकी थकान अब भी मेरे जिस्म में है.'' सबीर बताते हैं कि तेहरान में उनके पास सोने की जगह नहीं और कई-कई रातें वह सड़क पर भटकते हुए गुज़ार देते हैं. इसी कारण पिछले बारह साल से उन्हें इतनी तसल्ली नहीं मिल पाई है कि वह अपने उपन्यास को पूरा कर सकें. ईरान में सेंसरशिप लागू है. कवियों-लेखकों के शब्द, सरकार सेंसर कर देती है, डिलीट कर देती है. तब वे आधे वाक्य बनकर रह जाते हैं. सबीर की कविताओं पर दुनिया की नज़र अभी-अभी गई है. उनकी कविताओं को कविता की विख्यात पत्रिका 'मॉडर्न पोएट्री इन ट्रांसलेशन' (Modern Poetry in Translation - MPT) ने अपने जनवरी 2015 के अंक में स्थान दिया है. ये सारी कविताएँ वहीं से ली गई हैं. ये अनुवाद फ़ारसी से अंग्रेज़ी में नसरीन परवाज़ (Nasrin Parvaz) और ह्यूबर्ट मूर (Hubert Moore) द्वारा किए गए अनुवादों पर आधारित हैं।
इनकी कविताओं को गीत-चतुर्वेदी ने अनूदित किया है।
( प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियां:-
मनचन्दा पानी:-
कविताएं वास्तव में गहन हैं। कोई भी कविता व्यर्थ या निरर्थक नहीं लगी। कम शब्दों में ज्यादा बात कहती। बिजूका ने इन कविताओं को खोजा और यहाँ स्थान दिया यह समूह के लिए गर्व की बात है ।
आशीष मेहता:-
अनुपम रचनाएँ। सरल , पर मारक.....सटीक। सुन्दर प्रस्तुति के लिए तितीक्षाजी का आभार / धन्यवाद
राहुल चौहान:-
प्रह्लाद श्रीमाली मनो विज्ञान पढ़ने के महारती है, ये इन दो कहानियों में साबित हुआ। रोजमर्रा के जीवन चित्र पर उनकी पकड़ की सराहना करता हु। बेहद निकट से ये कहानी पाठक का गला पकड़ती है, तो नव कहानीकार भी इसमें नया कलेवर स्टाइल ढूंढ सकते है।
दोनों कहानी सर्वकालिक बात कर के सदाबहार की श्रेणी में रखी जाने योग्य है।
कही कही कल्पना की गहराई जो कहानी का काव्य-पक्ष होता है, इनमे नहीं होना अखरा भी, परंतु सीधे सीधे मनुष्य के असल यथार्थ यानि 'स्वार्थ' को हर पंक्ति में खोलती ये बेहतरीन कहानियां है।
पवन शेखावत:-
कवि सबीर हका की सभी कविताएं बेमिसाल... कम शब्दों में बहुत कुछ कहने की क्षमता... अपने कहन को समाज से व्यापकता के साथ जोड़ती और सामाजिक बिडम्बनाओं पर सटीक मार करती हुई ...
सुषमा सिन्हा:-
बेहद सच्ची, दिल से निकली हुईं ये छोटी-छोटी कविताएँ बहुत देर तक मन उदास कर देती हैं। इनमें से कुछ कविताएँ पहले भी पढ़ी थी।
कवि के संवेदनाओं का बहुत ही बेहतर अनुवाद किया गया है, जो सीधे-सीधे हमारी संवेदनाओं को छू रही है।। गीत जी का धन्यवाद और बधाई। बहुत धन्यवाद बिजूका को भी इन कविताओं को यहाँ पोस्ट करने के लिए।
प्रदीप मिश्रा:-
खूब चर्चित और पढी हुयी कवितायेँ हैं। इसतरह की कविताओं को बार बार पढने का मन होता है। बहुत आभार।
मीना अरोड़ा:-
कमाल की कविताएँ, पढ़ना शुरू किया तो अन्त कब आ गया पता ही
नहीं चला ।इतनी तल्लीनता से अर्से बाद कुछ अध्ययन किया ।सबीर हका
की प्रशंसा के साथ चतुर्वेदी जी को धन्यवाद ।आभार बिजूका ।
कीर्ति राणा:
सभी कविताएं बहुत अच्छी हैं ।शहतूत, बंदूक, मेरे पिता,कैरियर का चुनाव....वाह।
लगता नहीं कि अनूदित कविताएं पढ़ रहे हैं। अनुवादक गीत चतुर्वेदी को भी धन्यवाद।
सीमा व्यास:-
गज़ब की मारक कविताएं । आरंभ से अंत तक हर कविता ने प्रभावित किया । आभार बिजुका, इतनी उम्दा कविताएं उपलब्ध करवाने के लिए ।
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