आज आपके लिए प्रस्तुत है समूह के साथी राजेश्वर वशिष्ट की लम्बी कविता, जिनका परिचय कल साझा किया जाएगा। कविता पर आपकी बेबाक़ टिप्पणियों का स्वागत है....
कविता :
'ईश्वरी सत्ता पर शोध पत्र'
जन्म हुआ हिन्दू जाति में
इसलिए मेरी आस्था में सबसे पहले
ईश्वर को स्थापित किया गया
सर्वशक्तिमान है ईश्वर
ईश्वर की ईच्छा के विरूद्ध
कुछ भी संभव नहीं है
ईश्वर ने ही बनाया है
नदियाँ-पेड़-पहाड़-धरती-खेत-जीव-जन्तु
इन ईश्वरी मुहावरों में
दिमाग तक डुबोकर रखा गया मुझे
विद्यालय जाने के लिए
घर के बाहर
जब रखा पहली बार कदम
सबसे पहले मंदिर ले जाया गया
मंदिर में ईश्वर के क्लोन नें
चढ़ावे के अनुपात में दिया आशीर्वाद
इसी आशीर्वाद से
मैं सीख पाया ककहरा
ककहरा सीखते ही
धर्मग्रन्थों को पढऩा मेरी नैतिक विवशता थी
और उनको कण्ठस्थ करना अनुवांशिक परम्परा
धर्म के इसी घटाटोप में हर रोज़
नये-नये ईश्वरों ने मेरे दिमाग और दिल में
ज़गह बनानी शुरू कर दी
किशोरावस्था तक
मेरी चेतना में
तैंतिस करोड़ देवी-देवताओं का वास हो गया
इतनी विशाल ईश्वरी सत्ता की चकाचौंध में हतप्रभ मैं
आस्था के बिल्लौरी काँच पर हाथ घुमाते-घुमाते
निकम्मा होता जा रहा था
ईश्वर की कठपुतली होने का आभास
मन में इस तरह से घर कर गया था कि
मेरे शरीर की सारी कोशिकाओं के जीवद्रव्य
धीरे-धीरे ईश्वर के अधीन हो रहे थे
गीता से लेकर हनुमान चालीसा तक
संकट मोचक थे मेरे पास
तंत्र और सिद्धियों के तमाम चमत्कार
मेरी आँखों के पलकों पर चिपके हुए थे
सिर पर ईश्वर के क्लोनों के वरदहस्त थे
मंदिरों की कतारें बिछीं हुयीं थीं गली-गली
फिर भी ब्रह्मांड के हाशिए पर दुबका मैं
अपने संशयों में सबसे ज्यादा असुरक्षित था
बढ़ रही थी मेरी उम्र
घट रही थी सोचने-समझने की क्षमता
एक नागरिक की हैसियत से
जब दाख़िल हुआ इस समाज में
देखा लोग भूखों मर रहे थे
ईश्वर टनों घी से स्नान कर रहे थे
लाखों लोगों की कत्ल हो रही थी
ईश्वर अपने अंकवारी पकडक़र बैठे हुए थे जन्मभूमि
हज़ारों द्रौपदियाँ, लाखों सुग्रीव और विभीषन गुहार लगा रहे थे
ईश्वर चैन की वंशी बजा रहे थे
छप्पन भोग लगा रहे थे
मगन थे देवदासियों के नृत्य में
मैं इन्तज़ार कर रहा था कि
अभी आसमान से उतरेंगे मुस्कराते हुए
और अपनी हथेली में समेट ले जाऐंगे दु:खों के पहाड़
कभी भी
किसी भी वक्त प्रकट हो जाएगा सुदर्शनचक्र और
सारे अत्याचारियों के सिर धड़ से अलग कर देगा
करोड़ों-करोड़ बाण सनसनाते हुए आऐंगे और
नष्ट कर जाऐंगे सारे विध्वंसक हथियार
इन्तज़ार करते-करते मैं थक गया हूँ
अब बहुत कम दिन बचे हैं मेरी उम्र के
इस दुनिया से बाहर होने से पूर्व
ईश्वरी पहेली को सुलझाने की गरज़ से
एक बार फिर पलट रहा हूँ
सारे घर्मग्रन्थों और इतिहास के पन्ने
अपने गुणसुत्रों की अनुवांशिक प्रवृत्तियों पर
शोध कर रहा हूँ
इतिहास की दराज़ से निकाल रहा हूँ
लम्बे-लम्बे जुमले
अनन्त तक फैली संस्कृतियाँ और
पाताललोक तक जड़ फैलायी परम्पराएं
समय की सतह पर सरकते हुए
मैं जिस मुकाम पर पहुँचा हूँ
वह एक गुफा है
जिसमे अंधकार ही अंधकार है और
उसकी दीवारों पर
ब्रेल-लिपि में लिखा हुआ है इतिहास
ब्रेल-लिपि में लिखे हुए
इस इतिहास को पढऩे की क्षमता हासिल की और
मर गयीं अँगुलियों के पोरों की कोशिकाएं
आख़िरी कोशिका के मरने से ठीक एक क्षण पहले तक मैंने पढ़ा
जब ज़ंगल और गुफ़ाओं से पहली बार निकले मनुष्य
बहुत सारे मनुष्य
लग गए इस दुनिया को सजाने-संवारने में
कुछ लोग जो नहीं कर सकते थे यह काम
वे ईश्वर की रचना में लग गए
ईश्वर की रचना में ही
बने चार-वर्ण
सबसे पहला वर्ण ब्राह्मणों का
ब्राह्मण ईश्वर के सबसे करीबी
ईश्वरी संरचना के सारे सूत्र इनके पास
ईश्वरीय ज्ञान के गुरू
यही इनकी रोज़ी-रोटी का जुगाड़
ईश्वर की सबसे पहली अवधारणा
ब्राह्मणों ने दी
क्षत्रिय धरती पर ईश्वर के पूरक
राजा-महाराजा, अन्नदाता
इन्होंने बनवाए बड़े-बड़े मंदिर
किए भव्य धार्मिक अनुष्ठान
जितनी बढ़ी महिमा ईश्वर की
उतना ही फले-फूले क्षत्रिय
क्षत्रिय ईश्वरीय सत्ता के संस्थापक
तीसरा वर्ण वैश्यों का
वैश्य ठहरे पूँजीपति-व्यापारी
इन्होंने सबसे ज्यादा ईश्वर का ही व्यापार किया
अंतिम वर्ण शुद्रों का
जो जनसंख्या में बाकी वर्णो के योग से कई गुना ज़्यादे
शुरू से लगे हुए थे इस दुनिया को सजाने-संवारने में
इन्होंने ही बनाया दुनिया को इतना सम्मोहक और सुन्दर
ईश्वरीय सत्ता में
ये ही रहे सबसे ज्यादा दलित-दमित
इस शोधपत्र के निष्कर्ष पर
मेरी लम्बी-चौड़ी अनुवांशिक समझ
सिकुडक़र लिज़लिज़ी हो गयी है
इतिहास के दलदल में धंस गया हूँ नाक तक
हवा में लहराते हुए मेरे बाल
उलझ गए हैं सूरज में
अब मैं चाहता हूँ कि
ईश्वर के भार से चपटे हुए शरीर को छोडक़र
कबूतर बन जाऊँ
किसी घण्टाघर की मुंडेर पर बैठकर
गुटरगूं-गुटरगूं करूँ ।
(प्रस्तुति-बिजूका)
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टिप्पणियां:-
शिशु पाल सिंह:-
मानव समाज के शोषण कारी इतिहास के कटु सत्य को उदघाटित करती यथार्थ परक कविता। शोषकों ने ईश्वर का निर्माण शोषण के अस्त्र के रूप में किया है। कवि की बेबाक बयानी को अभिवादन।
विनोद राही:-
जितनी तपस्या, शब्दों की मार में झलकती है उतनी करता कौन है| संपूर्ण जीवन को कविता में उतारा है| लंबी कविता का विषय एक प्रहार भी है हमारी हर व्यवस्था पर भले ही धार्मिक हो या सामाजिक| हल्का सा बिखराब लगा|
राजवंती मान:-
रुचि जी की कविता बहनें बहुत भावपूर्ण एवं आत्मीयता से ओतप्रोत बहुत अच्छी लगी ।
उक्त लम्बी कविता ईश्वर पर शोध पत्र की अपेक्षा ईश्वर के नाम पर तैतीस करोड़ देवी देवताओं की भीड़ में उलझे प्राणी की असुरक्षित दशा को इंगित करती है जिस का फायदा कुछ लोग उठाते हैं ।मिथ्या ईश्वरीय ठेकेदारों पर प्रहार करती अच्छी कविता है ।
वनिता बाजपेयी:-
आपका लेख बहुत सामयिक और मन की बात है , क्या अब तक जिन हैवानों ने स्त्री को लूटा खसोटा वो किसी के भाई नही थे क्या खूब रिवाज है अपनी बहन की रक्षा का वचन और रक्षा किससे किसी दूसरे भाई से, भई वाह खूब तिलिस्म है।
राजेश्वर वशिष्ट:-
शुक्रिया मित्रो, मेरी कविता यहाँ साझा करने के लिए। यह कविता मेरे कविता संग्रह सुनो वाल्मीकि में संगृहीत है और कविता कोश पर भी उपलब्ध है।
सत्यनारायण पटेल:-
राजेश्वर जी ....बधाई मैंने कुछ मित्रो से कवि का नाम जानने की कोशिश की...पता न चला...फिर जिनके सौजन्य से प्राप्त हुई ..उन्हीं के सौजन्य से साझा कर ली....कवि समूह के साथी है..यह जानकर हार्दिक खुशी हुई
सुषमा सिन्हा:-
बहुत खूब !! बहुत बढ़िया !!
आज पोस्ट इस लंबी कविता 'ईश्वरी सत्ता पर शोध पत्र' पढ़ कर दिल को बहुत सुकून मिला। सच है जो ईश्वर दुनिया भर में हो रही मार-काट, अन्याय, असंतोष नहीं रोक सकता। मासूमों, बेगुनाहों को बचाने में असमर्थ है। ऐसे ईश्वर के भार से मुक्त हो जाना ही उचित है।
आशीष मेहता:-
वाह सत्य भाई। Comedy of Error तो कई बार हो नुमाया हो जाता है, आज Cognizance in Error भी शानदार हुआ।
राजेश्वरजी को हार्दिक बधाई। समूह को बधाई ।
'ईश्वरीय सत्ता' के खिलाफ 'गुटर गू' व्यापकता 'समेटे' हुए है। 'हिन्दू' / 'चार वर्णों' से खुद को और 'रचना' को बान्ध लेने के बावजूद, रचनाकार ने मन में 'गहरे उतरने ' में सफलता पाई है। उन्हें भी बधाई, समूह पर ही हैं भाई (genderfree रख रहा हूँ।)
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