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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

03 अगस्त, 2016

लेख : संजय वर्मा

मित्रो आज समूह के साथी संजय.वर्मा जी की एक रचना आप सबके बीच प्रस्तुत है......      

‘’स्वच्छता के सिपाही’’

यह कोई पच्‍चीस बरस पुरानी बात है। हमारे घर से कुछ ही दूर पर एक झोपड़ीपट्टी थी। इन झोपड़ीयों में रहने वाले लोग हर सुबह अपनी प्राकृतिक जरूरतो को पूरा करने के लिये जिन जगहों का इस्‍तेमाल करते थे , उनमें  हमारे घर की बैक-लेन भी शामिल  थी ।मौहल्‍ले के सभी घर अपना कचरा बैकलेन मे फेंकते रहते थे , जिसकी सफाई छठे छमास  ही होती थी। गंदगी के इस नर्क को और गंदा करने के लिये झोपड़पट्टी के लोग प्‍लास्टिक के डब्‍बे- बोतल ले कर सुबह-सुबह आ धमकते थे। इस गंदगी और बदबू से सब परेशान रहते पर कुछ कर नही पाते थे ।मेरी माँ जरूर कोशिश करती रहती इन्हे भगाने की । बैकलेन को घर से अलग करती हमारी बाउन्‍ड्री वाल लगभग सात -आठ फीट ऊंची थी इसलिये हम देख नही सकते थे कि दीवार के दूसरी तरफ कौन है, और क्‍या कर रहा है। माँ  इस अनदेखे अनजान दुश्मन को  संबोधित कर डांटना शुरू कर देती । चेतावनी देती। पुलिस बुलाने की धमकी देती।पर वे भी धुन के पक्‍के होते थे।मां कितना ही बोले वे कोई जवाब नहीं देते , पर  अपना काम निबटा कर ही जाते।कम्पाउंड वाल जैसे बार्डर थी और माँ एक तरफा फायरिंग करती रहती ।हम बच्चो के लिये यह खेल सा हो गया था । हालांकि  अधिकांश लोग  हमारे नींद से जागने से पहले ही फारिंग हो लेते थे पर कुछेक लोग , जो देरी से आते थे हम उन्हे शिकार कहते ।हमे इस युद्ध मे मजा आता था। मैं और मेरा छोटा भाई , जैसे ही पता चलता कोई आया है माँ को बुलाने दौड़ जाते। माँ सेनापति थी, हम खबरी।  कभी-कभी हम दोनो भी माँ के सुर मे सुर मिला कर अपनी जुबान साफ कर लेते। माँ आमतौर पर हमारी भाषा के मामले मे सख्‍त थी , पर इस युद्ध मे थोड़ा इधर उघर चलता था। हम इस  छूट का मजा लेते । उन लोगों के साथ हमारा भी जैसे एक  नित्य कर्म सा बंध गया था । एक समां बंध जाता था।  दुश्‍मन का जायजा लेने के लिये छोटी मोटी आवाजों के अलावा  बस नाक का ही सहारा होता था।  कई तो इतनी खामोशी से अपने काम को अंजाम देते,  कि हमे कानो-कान खबर तक न होती। पर उनमे से कई को ‘बीड़ी’ का सहारा चाहिये होता था। ऐसे लोग ‘बीड़ी’ की गंध से पकड़ा जाते और उन्हे माँ की तीखी अपमानजनक बातों के बाण झेलना पड़ते। माँ कहती तुम्‍हे शर्म आना चाहिये। रोज रोज समझाने पर भी समझ नहीं आती कि यहाँ गंदगी मत करो....। जब तुम्‍हे पता है यहां लोग रहते हैं तो कही और क्‍यो नही जाते....। कभी-कभी माँ ज्‍यादा गुस्‍से मे होती तो हमे  उन लोगो पर मग्गे से पानी फेंकने कहती। यह ब्रम्‍हास्‍त्र इस्‍तेमाल करने जैसा था। परन्‍तु दुश्‍मन की ठीक-ठीक लोकेशन नहीं पता होने से निशाना लगाना मुश्किल था। छोटी-मोटी हरकतों और गंध का ही  सहारा होता था । हम यह शब्‍द और गंध भेदी बाण चलाने की कोशिश करते। कभी कभार निशाना ठीक लगता तो दुश्मन के हडबडा कर उठने की आवाज आती ।हम खुशी से उछल पड़ते ।उधर माँ के कठोर वचनो के बाण लगातार चलते रहते । ऐसे ही एक दिन जब माँ बोल रही थी -" .... कहीं और जाया करो..,  यहाँ क्‍यों आते हों...."  तो अचानक पहली बार सामने से जवाब आया । कोई बूढ़ी आवाज थी  -  "...कंई करा हो बेन... गाँव मे खाने को नई ..., शहर मे हगने को नई..... , गरीब आदमी काँ जाये कईं करे.....। हमको कईं शौक नी हे  हो,  तमारे परेसान करने को ... ।" 

इस अप्रत्‍याशित जवाबी हमले से हम लोग हड़बड़ा गये।उसके बाद फिर खामोशी छा गई ।यूं तो बात आई गई हो गई पर मैने देखा उस दिन के बाद मेरी माँ हमारे साथ इस युद्ध मे भाग तो लेती थी पर बेमन से। लगता था जैसे हमारा दिल रख रही हो।
मै छोटा था। गाँवों मे रोजगार की कमी, पलायन , शहरो मे गरीबों के लिये आवास का मुद्दा ये सब कुछ नहीं समझता था। पर जब  समझ आई तो   उस बूढ़ी आवाज के मतलब भी समझ आने लगे। जितना अश्‍लील मुझे उनका अपनी बैकलेन को गंदा करना लगता था उससे ज्‍यादा अश्‍लील अपना विरोध लगने लगा। उन गरीब झोपड़पट्टी वालों को जो समाज रोजगार की तलाश मे मजबूरन  शहर ले आता था,  मै भी तो उसी का हिस्‍सा था। शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा भी जो सरकार उन्‍हे न दे सकी थी , वह मेरे वोट से ही बनी थी ।
इन दिनों अखबारों मे पढ़ता हूँ ,  लोग सुबह सुबह टार्च,  लाठी और कैमरे लेकर निकलते हैं , खुले मे गंदगी फैलाने वालो को पकड़ने, जलील करने , तो बरबस वह बूढ़ी आवाज याद आती है.......हमको कई शौक नई है बैन ...! कुछ तो मजबूरीयां होती होगी। अपराधी से अपराध की वजह तो पूछ लीजिये सजा देने से पहले  ।जहां पेट भरने के  लाले हों  वहां पेट की सफाई के लिये पक्के इंतजाम का पैसा कहां से आयेगा ।स्‍वच्‍छता की इस लड़ाई के उत्‍साह का आलम यह है कि जहाँ पीने का पानी चार कोस दूर से लाना पड़ता हो,  वहाँ भी सिपाहियों की जिद है कि घरेलू शौचालय का इस्‍तेमाल करे जिसके प्रति व्‍यक्ति 20 लीटर पानी लगता है। 
चाहे मां जैसी गृहिणी हो या सरकार , सब अपने घर आंगन को साफ रखना चाहते हैं पर बुनियादी बातों से आंखे चुरा कर आप किसी को सिर्फ जलील  कर सकते हैं समस्या हल नहीं कर सकते ।
सफाई की जिद अच्‍छी है पर फोटो खींचने से पहले उनसे पूछ तो लीजिये कि ये उनका शौक है या मजबूरी।

000 संजय वर्मा 
imsanjayverma@yahoo.co.in 
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टिप्पणियां:-

प्रदीप मिश्रा:-
जुग जुग जीयो कवि

( जन कवि राजेश जोशी के सत्तरवें जन्मदिन पर। दो पंक्तियों के बीच, नेपथ्य में हँसी, मिट्टी का चेहरा तथा एक दिन बोलेंगे पेड़ उनके कविता संग्रहों के नाम हैं।)

दो पंक्तियों के बीच
उमड़ते रहते हैं शब्द
वाक्य घरौंदा बनाते है
अर्थ रचते हैं अपना-अपना आकाश
संवेदना के तैरते हुए बादल बरसते रहते हैं
विचार की तरह

धरती के भीतर बैठा हुआ कवि
अंखुआ जाता है
हरा रंग बनकर बिखर जाता है धरती पर

दो पंक्तियों के नेपथ्य में
जब हँसती है प्रकृति

ऊर्जा से भर जाता है जनकवि
फूट पड़ता है उसके अंदर से
संघर्ष का सैलाब
बहने लगते हैं सभी देवी-देवता, शासक, सामंत
खर-पतवार की तरह
तब गूँजता है चहुँओर
राजेश...राजेश...राजेश

देवी-देवताओं का सम्राट राजेश
राजेश एक जनकवि

जन कवि बहुवचन है
उसमें शामिल हैं
दुनिया भर के आम जन

जब देवी देवता, शासक, सामंत
चाकरी कर रहे होते हैं
आमजनों की
नेपथ्य में हँसी को दर्ज करता है
जन कवि

दो पंक्तियों के बीच
मिट्टी का चेहरा छुपा हुआ है
चेहरे पर लटक रही है दाढ़ी
दाढ़ी में बुने हुए घोसले हैं
जहाँ स्वप्न में डूबे अण्डे
और प्रेमी जोड़े
जीवन में रंग भर रहे हैं

अंधेरे के अनंत में कौंधने वाली रोशनी
आँख बनकर जड़ी है चेहरे पर
आदिम मनुष्य का यह कपाल मिट्टी का है
जो जीवन के सुख-दुःख में धुलकर बह जाना चाहता है

दो पंक्तियों के बीच छुपा चेहरा
कभी दिखाई नहीं देता
चेहरे की पहचान की तरह
दर्ज होतीं हैं दो पंक्तियाँ

जन कवि का विश्वास हैं
एक दिन बोलेंगे पेड़
पेड़ जब बोलेंगे तब सिर्फ इतना बोलेंगे
जीयो
जुग-जुग जीयो कवि ।
राजेश जी के सत्तरवें जन्मदिन पर अभी यह कविता पूरी हुयी है। उनको समर्पित।

आशीष मेहता:-
संजयजी का आलेख दुनिया भर में फैले 'मानवाधिकार और जुड़े विरोधाभास' का लघु-रूप सा लगा। यह एक विकराल एवं विकट समस्या है। फोटो खींचने से क्या फर्क पड़ता है, समय बताएगा। (मैं फोटो लेने का  पक्षधर नहीं  हूँ।)

बूढ़ी आवाज़ से भाव-विव्हल होना मानवीय तभी तक है, जब तक वह आवाज पिछली ऊँची दीवार के पार से आ रही है। मन निश्चित तौर पर बदल जाऐगा, यदि कारनामा अगले दरवाजे पर हो।

इसी तरह अपराध करने की परिस्थिति का भान अपराध की संगीनता से अलग कर के नहीं देखा जा सकता। पीछे की दीवार के पीछे वाले 'गरीबन' पर तो दया भाव कर लें, पर देश भर की पटरियों पर बैठों का क्या करें। ट्रेनों के शौचालयों / स्टेशनों को गंदा करने वालों का क्या करें। मैं, तस्वीर खींचने का पक्षधर नहीं हूँ, क्योंकि ज्यादातर की मजबूरी ही होगी, शौक किसी का नहीं।

संजय भाई की समस्या और दयाभाव का विरोधाभास, योरप भी विस्थापितों को लेकर भोग रहा है।

संजय भाई ने अपने आप को व्यक्त खूब किया है, यह अलग बात है कि 'मार्क्स' को इस विषय पर विचार व्यक्त करने की जरूरत ही नहीं पड़ी। आलेख के साथ दूसरी परेशानी रही कि इसमें 'उल्लेखनीय' "रस" नहीं था।

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