एक नए ज़ायके के साथ एक बार फिर आपसे मुख़ातिब हूं एक नयी पेशकश के साथ....ज़िक्र करूंगी
रसूल हमज़ातोव का...
रसूल हमज़ातोव (८ सितम्बर १९२३-३ नवंबर २००३) का जन्म उत्तर-पूर्वी काकेसस के एक अवार गाँव तसादा में हुया। उन के पिता हमज़ात तसादासा एक अवार लोक कवि थे।रसूल हमज़ातोव अवार बोली के जाने-माने कवियों में गिने जाते हैं। उन की कविता'ज़ुरावली' सारे रूस में गायी जाती है। उन को 'द स्टेट स्टालिन प्राईज़'१९५२ में,'द लैनिन प्राईज़'१९६३ और 'लार्रीएट आव द इंटरनैशनल बोतेव प्राईज़' १९८१ में मिला। पंजाबी उन को, उन की रचना 'मेरा दागिसतान', के कारन ज्यादा जानते हैं।
तो पेश हैं.....
हमज़ातोव की नज़्में
(अनुवादित)
1. मैं तेरे सपने देखूं
बरख़ा बरसे छत्त पर, मैं तेरे सपने देखूं
बर्फ़ गिरे परबत पर, मैं तेरे सपने देखूं
सुबह की नील परी, मैं तेरे सपने देखूं
कोयल धूम मचाये, मैं तेरे सपने देखूं
आये और उड़ जाये, मैं तेरे सपने देखूं
बाग़ों में पत्ते महकें, मैं तेरे सपने देखूं
शबनम के मोती दहकें, मैं तेरे सपने देखूं
इस प्यार में कोई धोखा है
तू नार नहीं कुछ और है शै
वरना क्यों हर एक समय
मैं तेरे सपने देखूं
2. भाई
आज से बारह बरस पहले बड़ा भाई मिरा
सतालिनगराद की जंगाह में काम आया था
मेरी मां अब भी लिये फिरती है पहलू में ये ग़म
जब से अब तक है वह तन पे रिदा-ए-मातम
और उस दुख से मेरी आंख का गोशा तर है
अब मेरी उमर बड़े भाई से कुछ बढ़कर है
(रिदा-ए-मातम=शोक की चादर)
3. दाग़िसतानी ख़ातून और शायर बेटा
उसने जब बोलना न सीखा था
उसकी हर बात मैं समझती थी
अब वो शायर बना है नामे-ख़ुदा
लेकिन अफ़सोस कोई बात उसकी
मेरे पल्ले ज़रा नहीं पड़ती
4. ब-नोके-शमशीर
मेरे आबा के थे नामहरमे-तौको-ज़ंजीर
वो मज़ामी जो अदा करता है अब मेरा कल्म
नोके-शमशीर पे लिखते थे ब-नोके-शमशीर
रौशनाई से जो मैं करता हूं काग़ज़ पे रकम
संगो-सहरा पे वो करते थे लहू से तहरीर
(आबा=पुरखे, नामहरमे-तौको-ज़ंजीर=कैदियों के
गले में पड़ने वाली हँसली और बेड़ी से अनजान,
मज़ामी=विषय,, रौशनाई= स्याही, संगो-सहरा=
पत्थर और मारूथल)
5. आरज़ू
मुझे मोजज़ों पे यकीं नहीं मगर आरज़ू है कि जब कज़ा
मुझे बज़्मे-दहर से ले चले
तो फिर एक बार ये अज़न दे
कि लहद से लौट के आ सकूं
तिरे दर पे आ के सदा करूं
तुझे ग़म-गुसार की हो तलब तो तिरे हुज़ूर में जा रहूं
ये न हो तो सूए-रहे-अदम में फिर एक बार रवाना हूं
(मोजज़ों=करामातों, कज़ा=मौत, दहर=दुनिया, अज़न=
इजाज़त, लहद=कब्र, सूए-रहे-अदम=परलोक के रास्ते पर)
6. सालगिरह
शहर का जशने-सालगिरह है, शराब ला
मनसब ख़िताब रुतबा उनहें क्या नहीं मिला
बस नुकस है तो इतना कि मसदूह ने कोई
मिसरा कोई किताब के शायां नहीं लिखा
(मसदूह=जिसकी तारीफ़ की गई हो, शायां=योग्य)
7. एक चट्टान के लिए कतबा
जवांमर्दी उसी रिफ़अत पे पहुंची
जहां से बुज़दिली ने जस्त की थी
(कतबा=कब्र पर लगी पट्टी, रिफ़अत=ऊँचाई,
जस्त=छलांग मारना)
8. तीरगी जाल है
तीरगी जाल है और भाला है नूर
इक शिकारी है दिन, इक शिकारी है रात
जग समन्दर है जिसमें किनारे से दूर
मछलियों की तरह इबने-आदम की ज़ात
जग समन्दर है, साहल पे हैं माहीगीर
जाल थामे कोई, कोई भाला लिये
मेरी बारी कब आयेगी क्या जानिये
दिन के भाले से मुझको करेंगे शिकार
रात के जाल में या करेंगे असीर
(तीरग़ी=अंधेरा, माहीगीर=मछुआरे, असीर=कैदी)
9. नुसखा-ए-उलफ़त मेरा
गर किसी तौर हर इक उलफ़ते-जानां का ख़्याल
शे'र में ढल के सना-ए-रुख़े-जानाना बने
फिर तो यूं हो कि मेरे शेरो-सुख़न का दफ़तर
तूल में तूले-शबे-हजर का अफ़साना बने
है बहुत तिशना मगर नुसखा-ए-उलफ़त मेरा
इस सबब से कि हर इक लमहा-ए-फ़ुरस्त मेस
दिल ये कहता है कि हो कुर्बते जानां में बसर
10. फ़ंड के लिए सिफ़ारिस
फ़ंडवालों से गुज़ारिश है कि कुछ सदका-ए-ज़र
सायले-मुहव्वल-ए-बाला को मिले बारे-दिगर
पोच लिखते हैं जो वो लिखते हैं तसलीम मगर
उनकी औलाद व अज़्ज़ा को नहीं उसकी ख़बर
आल बेहूदा-नवीसां के लिए बाने-जूई
टालसटाय के घराने से अहम कम तो नहीं
(सदका-ए-ज़र=धन का दान, सायले-मुहव्वल-
ए-बाला=ज़रूरतमन्द, बारे-दिगर=दोबारा, पोच=
घटिया, अज़्ज़ा=संतान, बेहूदा-नवीसां=घटिया
लेखक, बाने-जूई=भूख का कारन)
11. हमने देखा है
हमने देखा है मयगुसारों को
पी के और जी के अख़िरश मरते
जो नहीं पीते मौत को उनसे
किसने देखा है दरगुज़र करते
प्रस्तुति --बिजूका समूह
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टिप्पणियां:-
आशीष मेहता:-
सतत समीचीन, विचारोत्तेजक, गम्भीर एवं कलापूर्ण रचनाओं को प्रस्तुत करने का बीड़ा समूह के एडमिन, सरल मुस्कान एवं अडिग आत्मविश्वास के साथ उठाए जाते हैं।
आप सभी का साधुवाद । और हृदय से आभार ।
आज की 'सार-गर्भित रचनाओं' के लिए धन्यवाद। हालांकि मुझे पुन:पठन की दरकार है, पर 'खातून और शायर बेटा', 'कतबा', 'तिरगी जाल है ' एवं 'हमने देखा है ' विशेष प्रभावी रहीं।
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