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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

14 नवंबर, 2015

ग़ज़ल : अमीर मीनाई

आज पढ़िये कुछ शानदार ग़ज़लें। और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिएगा।

अमीर मीनाई(1829-1900) उर्दू ग़ज़ल के प्रमुखतम शायरों में से एक हुए हैं और बेहद मशहूर भी। ये लखनऊ में पैदा हुए, मगर जीवन का ज़्यादातर समय रामपुर(उत्तर प्रदेश) में गुज़रा। बड़े विद्वान थे; चिकित्सा, भूगोल, इतिहास, गणित आदि बहुत से विषयों के अच्छे जानकार। इनको 'अमीर-उल-लुग़ात' के नाम से एक बड़ा उर्दू शब्दकोष तैयार करने के लिए भी जाना जाता है। इनकी कई ग़ज़लों को मशहूर ग़ज़ल गायकों ने आवाज़ दी। इनके शिष्यों में जलील मानिकपुरी, रियाज़ ख़ैराबादी, दिल शाहजहाँपुरी, मुज़्तर ख़ैराबादी जैसे कई प्रख्यात शायर भी हुए हैं। आज इनकी तीन ग़ज़लों(पूर्ण/आंशिक) पर नज़र डालें और बताएँ कि बात कहने का इनका अंदाज़ आख़िर किसलिए इतना मन-मोहक है:

1.
उसकी हसरत है जिसे दिल से मिटा भी न सकूँ
ढूँढने उस को चला हूँ जिसे पा भी न सकूँ
(हसरत - ख़्वाहिश)

मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ भी न सकूँ

डाल के ख़ाक मेरे ख़ून पे क़ातिल ने कहा
कुछ ये मेंहदी नहीं मेरी कि छुपा भी न सकूँ

ज़ब्त कमबख़्त ने याँ आ के गला घोंटा है
कि उसे हाल सुनाऊँ तो सुना भी न सकूँ
(ज़ब्त - बर्दाश्त; याँ - यहाँ)

बे-वफ़ा लिखते हैं वो अपने क़लम से मुझको
ये वो क़िस्मत का लिखा है जो मिटा भी न सकूँ

इस तरह सोए हैं सर रख के मेरे ज़ानू पर
अपनी सोई हुई क़िस्मत को जगा भी न सकूँ
(ज़ानू - जाँघ/पैर)

2.
सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता 
निकलता आ रहा है आफ़ताब आहिस्ता-आहिस्ता
(आफ़ताब - सूरज)

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा 
हया यक-लख़्त आई और शबाब आहिस्ता-आहिस्ता
(हया - शर्म; यक-लख़्त - एकाएक/अचानक; शबाब - जवानी) 
 
सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना 
दबे होंठों से देते हैं जवाब आहिस्ता-आहिस्ता
(सवाल-ए-वस्ल - मिलने का सवाल; अदू - दुश्मन)

वो बेदर्दी से सर काटें 'अमीर' और मैं कहूँ उन से 
हुज़ूर आहिस्ता-आहिस्ता जनाब आहिस्ता-आहिस्ता

3.
जब से बुलबुल तूने दो तिनके लिए 
टूटती है बिजलियाँ इनके लिए 

है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार 
सादगी गहना है इस सिन के लिए
(सिन - उम्र)

कौन वीराने में देखेगा बहार 
फूल जंगल में खिले किनके लिए 

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा 
मैंने दुनिया छोड़ दी जिनके लिए 

बाग़बाँ कलियाँ हों हल्के रंग की 
भेजनी हैं एक कम-सिन के लिए
(बाग़बाँ - बाग़वान/माली; कम-सिन - कम उम्र)

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए
(वस्ल - मुलाक़ात/मिलन; मुख़्तसर - छोटा)

प्रस्तुति:- फरहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

मुकेश माली :-
बहुत शानदार , लाजवाब ।
पहली दो गजल को जगजीत जी ने गाया और मशहूर कर दिया ,वर्ना शायद इतने लाजवाब अल्फाज अदायगी  से शौकीन लोग परिचित ही नहीं हो पाते ।

सुबह को खुशनुमा बनाने के लिए धन्यवाद् ।

आर्ची:-
चाचा ग़ालिब ने पहली वाली ग़जल के कुछ हम रदीफ शेर कहे हैं साझा कर सकती हूँ?
जैसे-
उस के पहलू में जो ले जा के सुला दूँ दिल को
नींद ऐसी उसे आये के जगा भी न सकूँ

ज़ौफ़ में ताना\-ए\-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वर्ना
क्या क़सम है तेरे मिलने की कि खा भी न सकूँ

नंदकिशोर बर्वे :-
मेहरबाँ होके बुला मुझे -----। शुरू से मेरे पसंदीदा शेरों में रहा है। और मैं अक्सर ही इसे कह देता हूँ जब भी मुझे कोई अपने घर आने को कहता है।

रूपा सिंह :-
'गया वक्त हूँ '..ग़ालिब का शेर है।कुछ और भी छूटा-सा लग रहा है ..फिर भी बचपन से पसंद

फ़रहत अली खान:-
शुभ्रांशु जी, मुकेश जी, अर्चना जी, कुंदा जी, वसुंधरा जी, अर्जुन जी, बर्वे जी, रूपा जी;
धन्यवाद।
अर्चना जी ने बहुत उम्दा अशआर से वाबस्ता कराया।
जी, हो सकता है कि ये शेर ग़ालिब का ही हो, क्यूँकि ये ग़ज़लें मैंने सीधे सीधे अमीर मीनाई की किसी किताब से नहीं ली हैं।

प्रमोद तिवारी:-
'मैं गया वक्त नहीं हूँ कि फिर आ न सकूं' इस शेर को ग़ालिब के नाम से भी सुनाया जाता है,  मिर्जा ग़ालिब सीरियल में भी मौजूद है। हकीकत क्या है।  आहिस्ता वाली मेरी प्रिय ग़ज़ल में एक अच्छा शेर ग़ायब है - शब-ए-फुरकत का जागा हूँ फरिश्तों अब तो सोने दो, कभी फुरसत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता।

राहुल वर्मा 'बेअदब':-
मित्रों/अग्रजों
'ग़ालिब' साहब के कई प्रसिद्द शे'र पिछले कई दशकों से इस मायने में controversial हो गए हैं कि संभवतः उन्हें किसी और शायर ने कहा/लिखा है
udaharantarth
उपरोक्त शे'र और ये शे'र भी-
ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो यां भी वही काफ़िर सनम निकले

इसके बारे में विवाद है कि इसे जावेद अख्तर साहब के दादा जी मुज़्तर खैराबादी ने कहा है

रेखता पर भी उक्त शे'र खैराबादी साहब के नाम पर ही दर्ज़ है
अलबत्ता स्तरीय संपादकों/प्रकाशकों की किताब दीवान-ए-ग़ालिब में और ग़ालिब साहब पर अनेक वर्षों तक शोध करने के बाद ग़ालिब साहब के काम पर कई किताबें लिखने वाले और एक प्रसिद्द टीवी धारावाहिक बनाने वाले गुलज़ार साहब ने भी ये माना है कि उक्त शे'र ग़ालिब का ही है

सच्चाई पता नहीं क्या है

पर निःसंदेह शायरी बड़े आला दर्जे की है
शुक्रिया फरहत भाई

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