उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी के चेयरमैन डॉ. नवाज़ देवबंदी(जन्म - 1956) की पहचान तमाम दुनिया में एक ऐसे संजीदा शायर के तौर पर है जो अपने अशआर से दिल को अंदर तक झकझोर देता है। अपनी जानदार आवाज़ में जब ये मुशायरों में अपना कलाम सुनाते हैं तो सभी को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। आज साझा की जा रही हैं इनकी कुछ ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक); पढ़कर जो अशआर पसंद आएँ उनका ज़िक्र भी करें:
1.
वो रुलाकर हँस न पाया देर तक
जब मैं रोकर मुस्कुराया देर तक
भूलना चाहा अगर उस को कभी
और भी वो याद आया देर तक
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक
गुनगुनाता जा रहा था इक फ़क़ीर
धूप रहती है ना साया देर तक
नाख़लफ़ बेटे तो दर्द-ए-सर बने
बेटियों ने सर दबाया देर तक
(ना-ख़लफ़ - ना-लायक़)
ख़ुद-ब-ख़ुद बे-साख़्ता मैं हँस पड़ा
उसने इस दर्जा रुलाया देर तक
(बेसाख़्ता - सहसा, अचानक; इस दर्जा - इतना ज़्यादा)
कल अँधेरी रात में मेरी तरह
एक जुगनू जगमगाया देर तक
चुपके-चुपके मेरी ग़ज़लों को 'नवाज़'
दुश्मनों ने गुनगुनाया देर तक
2.
लेके माज़ी को जो हाल आया तो दिल काँप गया
जब कभी उनका ख़्याल आया तो दिल काँप गया
(माज़ी - भूतकाल/गुज़रा वक़्त)
ऐसा तोड़ा था मुहब्बत में किसी ने दिल को
जब किसी शीशे में बाल आया तो दिल काँप गया
सर-बुलंदी पे तो मग़रूर थे हम भी लेकिन
चढ़ते सूरज पे ज़वाल आया तो दिल काँप गया
(सर-बुलंदी पर - ऊँचाई पर/चोटी पर/सफ़लता के समय; मग़रूर - घमंड में चूर; ज़वाल आना - नीचे आना/बुरा समय)
बद-नज़र उठने ही वाली थी किसी की जानिब
अपनी बेटी का ख्याल आया तो दिल काँप गया
(बद-नज़र - बुरी नज़र; जानिब - तरफ़)
3.
वहाँ कैसे कोई दिया जले, जहाँ दूर तक हवा न हो
उन्हें हाले-दिल न सुनाइये, जिन्हें दर्दे-दिल का पता न हो
हों अजब तरह की शिकायतें, हों अजब तरह की इनायतें
तुझे मुझसे शिकवे हज़ार हों, मुझे तुझसे कोई गिला न हो
(इनायत - मेहरबानी)
कोई ऐसा शेर भी दे ख़ुदा, जो तेरी अता हो, तेरी अता
कभी जैसा मैंने कहा न हो, कभी जैसा मैंने सुना न हो
(तेरी अता - तेरा दिया हुआ)
न दिये का है, न हवा का है, यहाँ जो भी कुछ है ख़ुदा का है
यहाँ ऐसा कोई दिया नहीं, जो जला हो और वो बुझा न हो
मैं मरीज़े-इश्क़ हूँ चारागर, तू है दर्दे-इश्क़ से बे-ख़बर
ये तड़प ही इसका इलाज है, ये तड़प न हो तो शिफ़ा न हो
(चारागर - हकीम/डॉक्टर; शिफ़ा - स्वास्थ्य लाभ)
4.
सफ़र में मुश्किलें आएँ तो जुर्रत और बढ़ती है
कोई जब रास्ता रोके तो हिम्मत और बढ़ती है
मेरी कमज़ोरियों पर जब कोई तनक़ीद करता है
वो दुश्मन क्यूँ न हो, उससे मुहब्बत और बढ़ती है
(तनक़ीद - आलोचना)
अगर बिकने पे आ जाओ तो घट जाते हैं दाम अक्सर
न बिकने का इरादा हो तो क़ीमत और बढ़ती है
5.
जलते घर को देखने वालों, फूस का छप्पर आपका है
आपके पीछे तेज़ हवा है, आगे मुक़द्दर आपका है
उस के क़त्ल पे मैं भी चुप था, मेरा नम्बर अब आया
मेरे क़त्ल पे आप भी चुप हैं, अगला नम्बर आपका है
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टिप्पणियाँ:-
मनीषा जैन :-
फरहत जी ग़ज़लों का चुनाव हर बार की तरह उम्दा। सारी ग़ज़लें इंसानियत के विषयों से वावस्ता हैं। पहली ग़ज़ल तो बेहतरीन। क ई बार पढ़ गई सारी ग़ज़लें।
भूखे बच्चों को तसल्ली के लिए
माँ ने पानी पकाया देर तक.....गजब के शब्द चित्र
आपको धन्यवाद ।
असल में ग़ज़लें सूखते दिलों में तरलता भी पैदा करती हैं।
रूपा सिंह :-
माफ़ी देर के लिए।लेकिन कहने से नहीं रुक सकती की ब्रजेश जी की कवितायेँ अविस्मरणीय हैं।नए बिम्ब नया भावबोध देती हैं।गणित के तेवर में प्रेम की सुकोमलता गृहस्थी को जैसे बैलेंस कRटी है वह अनुपम है यहाँ।बधाई ब्रजेश जी।शालिनी जी के संस्मरण से भगवान सिंह रचित'अपने अपने राम:याद आ गए।बाकि फिर..यात्रा में हूँ।स्नेह
फ़रहत अली खान:-
कल मैं शहर से बाहर था, इसलिए समूह पर अपनी मौजूदगी दर्ज न करा सका।
प्रज्ञा जी, अनुप्रिया जी, नाज़िया जी, आभा जी, सुषमा जी, मनीषा जी, रूपा जी;
आप सभी का धन्यवाद।
नवाज़ साहब बेहद मशहूर-ओ-मक़बूल शायर हैं। इनके कहे अशआर संसद तक में सुनाए जाते हैं।
1986 की बात है विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के मंदिर संसद में शाहबानो प्रकरण से सम्बंधित क़ानून बदलने की प्रक्रिया चल रही थी राज्य मंत्री ज़िया उल रहमान अंसारी ने एक घंटे का लंबा भाषण दिया और आख़िर में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी को मुख़ातिब हो नवाज़ देवबन्दी का ये मतला पढ़ा :--
मेरे पैमाने में कुछ है उसके पैमाने में कुछ
देख साक़ी हो न जाए तेरे मैखाने में कुछ
ये मतला सुन कई सांसदों ने कहा कि अंसारी साहब इतनी बड़ी तक़रीर की क्या ज़रूरत थी बस ये शे'र ही काफी था।
अभी चंद रोज़ पहले लोकपाल बिल पे बहस के दौरान उसी संसद में जब कपिल सिब्बल बोल रहे थे तो पूरे विपक्ष ने इतना हंगामा किया कि उनका बोलना मुहाल हो गया आख़िर विवश हो उन्होंने नवाज़ देवबन्दी के दो मिसरों का सहारा लिया और ये शे'र पढ़ के बैठ गये :--
ऐसी - वैसी बातों से तो अच्छा है ख़ामोश रहो
या फिर ऐसी बात कहो जो ख़ामोशी से अच्छी हो
डॉ. नवाज़ देवबन्दी से जुड़ा एक संस्मरण है ,21 मई 1992 को संसद में स्व.राजीव गांधी जी की पहली बरसी के मौके पे एक मुशायरा मुनअकिद किया गया वहां नवाज़ साहब ने अपनी एक मक़बूल ग़ज़ल सुनाई :--
वो रुलाकर हँस न पाया देर तक
जब मैं रो कर मुस्कुराया देर तक
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिये
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक
गुनगुनाता जा रहा था एक फ़क़ीर
धूप रहती है ना साया देर तक
ये ग़ज़ल सुनते ही तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव बोल उठे कि नवाज़ साहब आपने तो सराबोर कर दिया और फिर अगले दिन उन्होंने सोनिया जी के यहाँ उन्हें आमंत्रित किया ,नवाज़ साहब को राजीव जी की लाइब्रेरी दिखाई गई ,उनका सब लिखने पढ़ने का सामान दिखाया गया उस वक़्त सोनिया गांधी , प्रियंका ,राहुल और नरसिम्हा राव साहब वहां मौजूद थे और नवाज़ साहब से वही ग़ज़ल सुनाने को कहा गया जो उन्होंने संसद में सुनाई थी। जैसे ही नवाज़ साहब ने ग़ज़ल का ये शे'र सुनाया तो माहौल ग़मगीन हो गया सब की आँखें बहने लगी :---
भूलना चाहा अगर उसको कभी
और भी वो याद आया देर तक
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