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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 नवंबर, 2015

कविता : वसुंधरा

आज पढ़ते हैं समूह की नयी साथी की पहली बार साझा हो रही रचनाएँ। आप सब पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। नाम की घोषणा कल सुबह करेंगे।

जिंदगी

जिंदगी कितने रंग दिखाती है
कभी कुछ दे जाती है
कभी कुछ ले जाती है
दे जाती है..
कुछ होंठों पर हँसी
कुछ आँखों में नमी
और ले जाती है
अपने साथ उड़ाकर
अतीत की यादों के पन्नों को
जो थे केवल एक स्मृतिभर
अब हमारे लिए..
उसे पता है कि हम
नहीं जान पाते उसके मोडों को
इसलिए वो हमारे सामने
आ खडी होती है
नए-नए रूप बदल..
कभी वो लगती है
एक रुपहली छवि सी
जो कर दे हमें
जीने के लिए मजबूर
और कभी
एक अनसुलझी पहेली सी
जिसका कोई अंत नहीं..।

अस्तांचल

चल पड़ ऐ मुसाफ़िर

उस अस्तांचल की ओर

जहाँ डूबा सूरज

फिर कभी उगेगा

तब मिलेगी तुझे एक नई दिशा

होगा दूर तेरा अंधकार

जब फिर से तरंगें उठेंगी उसमें

होगा जीवन का संचार

तब पाएगा तू मंज़िल

चल पड़ ऐ मुसाफ़िर

उस अस्तांचल की ओर....।

 
सवेरा

चम्पा के फूलों की महकती गंध ने
आकर छुआ मुझे हौले से
मस्त, चंचल, मदमाती पवन ने
आकर कहा मुझे हौले से
तारों की ओढ़नी ओढे रात
प्रतीक्षारत खडी है
चंदा की बिंदिया माथे पर लगाए
सोच में पडी है
तुम आओ तो मैं जाऊं
ठौर ठिकाना कहाँ पाऊं
मैं मुस्कुरा कर
चल दिया हौले से
किरणें सारी बिखेर दी
एक-एक झोले से
रात भी तभी सो गई
उसकी बिंदिया भी खो गई
तब सूरज भी  ऊपर चढ़ आया
मेरा रूप भी  और बढ़ आया
पंछियों ने कलरव शुरु किया
और सवेरा  हो गया ।

000 वसुंधरा
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टिप्पणियाँ:-

मनचन्दा पानी:-

पहली कविता जीवन के उलझनों को लेकर बुनी गयी है। संभवत शुरूआती कवितायेँ ऐसी ही होती हैं जब हम अपने आसपास के या अपने निजी जीवन के अनुभवों पर कविता बुनते हैं।
मैं कवि को शुभकामनाये देते हुए कहना चाहूँगा लेखन को थोडा विस्तार दो। जैसा के ये सब सीनियर लोग करते हैं।

मेरी कविता यदि ज़िन्दगी पर हो तो उससे मेरे समाज की, देश की ज़िन्दगी का पता चलता हो।

मेरी कविता यदि सवेरे पर हो तो उसमे उगने वाला सूर्य मेरे समाज, मेरे देश के लोगों का सवेरा हो, उनके लिए आशा, सम्भावना और ऊर्जा लेकर आये।

मेरी कविता मेरी कविता ना रहे सबकी कविता हो जाये।

सादर।

ब्रजेश कानूनगो:-
कविता की शुरुआत की है तो उसे बेहतर करने में लगे रहें।बहुत और भिन्न भिन्न तेवरों और शिल्पों और महत्वपूर्ण चर्चित कवियों की रचनाओं को लगातार पढ़ें।खूब लिखें और खूब खारिज भी करते रहें।अच्छी कवितायेँ आपकी कलम से ज्यादा दूर नहीं।शुभकामनाएं और बधाई।

मनीषा जैन :-
वसुन्धरा जी का वक्तव्य
शुक्रिया मनीषा जी । ये कविताऐं पहले गिनेचुने लोगों ने ही पढी हैं। समूह के माध्यम से अन्य लोगों तक ये भावनऐं पहुँचेगीं तो लिखने की प्रेरणा मिलती रहेगी। बिजूका समूह को आभार

नंदकिशोर बर्वे :-
जिन्दगी और सवेरा कविताओं में कसावट की जरूरत है। तब वे और बेहतर हो जाएगीं। शेष बातों में ब्रजेश जी से सहमत।

फ़रहत अली खान:-
वसुंधरा जी ने अच्छी कवितायेँ लिखी है। सरल भाषा और बिम्ब कविता को सहज बनाते हैं। साथ ही कई जगह तुकांत होने की वजह से लय के साथ पढ़ना भी आसान हो गया।
हालाँकि पहली कविता की 10वीं और 11वीं पंक्तियों में क्रमशः 'थे' और 'अब' का इस्तेमाल विरोधाभास देता है, सो यहाँ ये बात खटकी।

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