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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

08 दिसंबर, 2015

ग़ज़ल : अरशद अली ख़ाँ 'क़लक़'

पिछले सप्ताह आपने आधुनिक उर्दू ग़ज़लें पढ़ीं; आज बारी है क्लासिकल उर्दू ग़ज़लें पढ़ने की।

अरशद अली ख़ाँ 'क़लक़' उन बेहतरीन शायरों में से हुए हैं, जिन्हें बहुत कम ही लोग जानते होंगे। लखनऊ से ताल्लुक़ रखते थे। इनके जन्म-मृत्यु की तारीख़ के बारे में तो मुझे कोई जानकारी नहीं है, लेकिन इतना ज़रूर पता चला कि संभवतः उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में रहे होंगे। उस ज़माने में(और उससे पहले भी) कितने ही ऐसे बेहतरीन शायर गुज़रे हैं जिनके ग़ज़ल-संग्रह या तो महफ़ूज़ न रह पाए या फिर बहुत कम लोगों तक ही पहुँच पाए।
आज इत्मीनान के साथ पढ़िए इनकी चार ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक) और टिप्पणियाँ ज़रूर दें:

1.
आशना होते ही उस इश्क़ ने मारा मुझ को
न मिला बहर-ए-मोहब्बत का किनारा मुझ को
(आशना - दोस्त/साथी/परिचित; बहर-ए-मुहब्बत - प्रेम का समुन्दर)

क्यूँ मेरे क़त्ल को तलवार बरहना की है
तेग़-ए-अबरू का तो काफ़ी है इशारा मुझ को
(बरहना - खुली हुई/जिस पर आवरण न हो; तेग़-ए-अबरू - तलवार रूपी भौंहें)

दम-दिलासे ही में टाला किए हर रोज़ आख़िर
सूखे घाट ऐ गुल-ए-तर ख़ूब उतारा मुझ को
(दम-दिलासा - दिलासा देना; गुल-ए-तर - नम फूल)

मैं यहाँ मुंतज़िर-ए-वादा रहा लेकिन वो
रह गए और कहीं दे के सहारा मुझ को
(मुन्तज़िर-ए-वादा - वादे के अनुसार इंतेज़ार में)

अपने बे-गाने से अब मुझ को शिकायत न रही
दुश्मनी कर के मेरे दोस्त ने मारा मुझ को
(बे-गाने - पराए/ग़ैर)

2.
था क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर मगर मैं तलब हुआ
जल्लाद मेहर-बान हुआ क्या सबब हुआ
(क़स्द-ए-क़त्ल-ए-ग़ैर - किसी और को क़त्ल करने का इरादा; तलब हुआ - बुलाया गया; सबब - कारण)

निकलेगी अब न हसरत-ए-क़त्ल, ऐ निगाह-ए-यास
क़ातिल को रहम आ गया मुझ पर ग़ज़ब हुआ
(हसरत-ए-क़त्ल - क़त्ल होने की इच्छा; निगाह-ए-यास - निराशा भरी नज़र)

इतना तो जज़्ब-ए-दिल ने दिखाया मुझे असर
चैन उस को भी न आया, मैं बे-ताब जब हुआ
(जज़्ब-ए-दिल - दिल की भावना; बे-ताब - बे-चैन)

ऐ बे-ख़ुदी-ए-दिल, मुझे ये भी ख़बर नहीं
किस दिन बहार आई, मैं दीवाना कब हुआ
(बे-ख़ुदी-ए-दिल - दिल का आपे में न रहना)

दुनिया में ऐ 'क़लक़' जो पुर-अरमान हम रहे
'ना-शाद', 'ना-मुराद' हमारा लक़ब हुआ
(पुर-अरमान - इच्छा-युक्त; ना-शाद - दुःखी/परेशान; ना-मुराद - दुर्भाग्यशाली; लक़ब - शीर्षक/छोटा नाम)

3.
मिलता नहीं है मंज़िल-ए-मक़सद का राह-बर
रह-ज़न ही से हो काश मुलाक़ात राह में
(मंज़िल-ए-मक़सद - मक़सद की मंज़िल; राह-बर - राह बताने वाला; रह-ज़न - रास्ते में लूट लेने वाला)

आने का उन के कोई मुक़र्रर नहीं है दिन
आ निकले एक बार कहीं साल-ओ-माह में
(मुक़र्रर - तय; साल-ओ-माह - साल और महीने)

ख़ुश-चश्म तू वो है कि ग़जालान-ए-हिन्द-ओ-चीन
आगे तेरे समाते नहीं हैं निगाह में
(ख़ुश-चश्म - ख़ूब-सूरत आँखों वाला; ग़ज़ालान-ए-हिन्द-ओ-चीन - भारत और चीन के हिरन)

ग़फ़लत ये है किसी को नहीं क़ब्र का ख़्याल
कोई है फ़िक्र-ए-नाँ में, कोई फ़िक्र-ए-जाह में
(ग़फ़लत - बे-होशी/ला-परवाही; फ़िक्र-ए-नाँ - नान या रोटी की चिंता; फ़िक्र-ए-जाह - रुतबे की चिंता)

अग़्यार मुँह छुपाएँगे हम से कहाँ तलक
होगी कभी तो हम से मुलाक़ात राह में
(अग़्यार - ग़ैर लोग/विरोधी)

मंज़िल है अपनी-अपनी 'क़लक़' अपनी-अपनी गोर
कोई नहीं शरीक किसी के गुनाह में
(गोर - क़ब्र; शरीक - साझेदार)

4.
आसार-ए-रिहाई हैं ये दिल बोल रहा है
सय्याद सितम-गर मेरे पर खोल रहा है
(आसार-ए-रिहाई - रिहाई के आसार; सय्याद - शिकारी; सितम-गर - ज़ुल्म करने वाला; पर - पंख)

जामे से हुआ जाता है बाहर जो हर इक गुल
क्या बाग़ में वो बंद-ए-क़बा खोल रहा है
(जामा - लबादा/पहनावा; गुल - फूल; बंद-ए-क़बा - कपड़े को बाँधने वाली डोरी की गाँठ)

शाहों की तरह की है बसर दश्त-ए-जुनूँ में
दीवानों का हम-राह मेरे ग़ोल रहा है
(शाह - राजा; दश्त-ए-जुनूँ - वो मरुस्थल जहाँ दीवाना भटकता फिरता है; हमराह - साथ; ग़ोल - भीड़/जमघट)

तस्कीं को ये कहते रहे फ़ुर्क़त की शब अहबाब
लो सुबह हुई मुर्ग़-ए-सहर बोल रहा है
(तस्कीं - तस्कीन/दिलासा; फ़ुर्क़त - जुदाई; शब - रात; अहबाब - साथी/क़रीबी लोग; मुर्ग़-ए-सहर - प्रातः काल में बोलने वाला पक्षी/मुर्ग़ा)

प्रस्तुति:- फ़रहत अली खान
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टिप्पणियाँ:-

सुषमा अवधूत :-: बहुत बढ़िया ग़ज़ले
अपने बेगाने से-------
गफ़लत ये है किसी को--------
क्या बात है सभी ग़ज़लें बहुत अच्चछी हैं।

फ़रहत अली खान:-
इन ग़ज़लों को समझने में थोड़ी मशक़्क़त ज़रूर करनी पड़ सकती है, लेकिन जटिल शब्दों के दिए गए अर्थ इस काम को सहल बनाते हैं।

मैं चाहूँगा कि बाक़ी साथी भी खुलकर टिप्पणियाँ दें।

फ़रहत अली खान:-
सुषमा जी, रूपा जी, रेनुका जी, निधि जी, अर्चना जी, मनीषा जी, संजय जी;
शुक्रिया।
दरअसल इस बार मैं सोच-समझकर ही एक पुराने और कम मशहूर शायर का कलाम लेकर आया था, ताकि हम हमेशा एक ही तरह की आसान ग़ज़लें न पढ़ते रहें, बल्कि दूसरे रंग और खुश्बू की ग़ज़लें भी पढ़ें। जो साहित्य पहले गुज़र चुका और अब अप्रचलित है, वो भी एक खज़ाना है। मेरी ये तमन्ना है कि हम उससे भी वक़्त-वक़्त पर वाबस्ता होते रहें।

सुवर्णा :-
निकलेगी अब न हसरत-इ-क़त्ल ऐ निगाह-ए-यास
क़ातिल को रहम आ गया मुझ पर गज़ब हुआ
गफ़लत ये हैकिसी को नही कब्र का ख़याल......
क़लक़ जी को पहली बार पढ़ा।अच्छी लगी ग़ज़लें। फ़रहत जी क़लक़ का मतलब भी बताइयेगा।

फ़रहत अली खान:-
शुक्रिया सुवर्णा जी;

अभी कुछ हफ़्तों पहले बहादुर शाह 'ज़फ़र' साहब की ग़ज़लें पोस्ट की गयी थीं, जिनमे से एक ग़ज़ल में निम्न शेर आया था:-

मारें जो सिर पे सिल को उठा कर क़लक़ से हम
दस-पाँच टुकड़े सिर के हों और सिल के चार-पाँच

यहाँ 'क़लक़' के मायने थे- 'बे-चैनी'

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